बपतिस्मे के बारे में इस नई शृंखला के प्रथम लेख में हमने बपतिस्मा शब्द के अर्थ को देखा और समझा था, कि मूल यूनानी भाषा के इस शब्द का अर्थ होता है डुबकी दिया जाना। फिर हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में बपतिस्मा दिए जाने के विभिन्न उदाहरणों से देखा था कि बाइबल में भी इस शब्द को इसी अभिप्राय से ही प्रयोग किया गया है। कहीं पर भी छिड़काव के बपतिस्मे का कोई अभिप्राय या प्रयोग नहीं हुआ है; और न ही शिशुओं अथवा बच्चों के बपतिस्मे का कोई उदाहरण अथवा अभिप्राय है। आज हम इस दूसरे लेख में परमेश्वर के वचन से बपतिस्मे के बारे में इससे आगे की बात समझेंगे।
बपतिस्मा क्या है; क्यों; और किसे लेना है, किसे देना है?
बपतिस्मा क्या है, इसे हम कुछ बातों और वचन के उदाहरणों को देख लेने के बाद देखेंगे, क्योंकि तब इसे समझना आसान होगा।
सबसे पहले हम यह समझ लें कि बपतिस्मा क्यों लेना है। प्रभु यीशु मसीह द्वारा अपने स्वर्गारोहण से ठीक पहले, मत्ती 28:18-20 में शिष्यों को दी गई आज्ञा को देखें, “18 यीशु ने उन के पास आकर कहा, कि स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है। 19 इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। 20 और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं”। यहाँ मत्ती 28:19 में लिखा है, “इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो।”
बपतिस्मा क्यों लेना और देना है? : उपरोक्त पदों से यह बिलकुल स्पष्ट है कि बपतिस्मा लेना या देना, प्रभु की आज्ञा है, और उसकी आज्ञाकारिता पूरी करने के लिए ही यह करना है। इसका एक उत्तम उदाहरण स्वयं प्रभु की बपतिस्मे से संबंधित परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता है, जैसा मत्ती 3:13-15 में दिया गया है:“13 उस समय यीशु गलील से यरदन के किनारे पर यूहन्ना के पास उस से बपतिस्मा लेने आया। 14 परन्तु यूहन्ना यह कहकर उसे रोकने लगा, कि मुझे तेरे हाथ से बपतिस्मा लेने की आवश्यकता है, और तू मेरे पास आया है? 15 यीशु ने उसको यह उत्तर दिया, कि अब तो ऐसा ही होने दे, क्योंकि हमें इसी रीति से सब धामिर्कता को पूरा करना उचित है, तब उसने उस की बात मान ली।”; जब प्रभु यीशु मसीह का बपतिस्मा हुआ, तब यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने उसे रोकने का प्रयास किया, क्योंकि वह धर्मी और पवित्र था, उसे बपतिस्मे की कोई आवश्यकता नहीं थी। तब, “यीशु ने उसको यह उत्तर दिया, कि अब तो ऐसा ही होने दे, क्योंकि हमें इसी रीति से सब धामिर्कता को पूरा करना उचित है, तब उसने उस की बात मान ली” (मत्ती 3:15)।
प्रभु यीशु ने बपतिस्मा स्वेच्छा से, स्वतः ही यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के पास आकर लिया। उसने यह अपने धर्मी या पवित्र होने, अथवा प्रमाणित करने के लिए नहीं लिया था, वरन परमेश्वर की धार्मिकता के निर्वाह की बातों को पूरा करने के लिए, परमेश्वर की आज्ञा को पूरा करने के लिए लिया था। इसीलिए वह क्रूस पर से कहने पाया “पूरा हुआ” (यूहन्ना 19:30), और तब ही उसने अपने प्राण त्यागे। प्रभु यीशु की यह बात स्पष्ट दिखाती है कि न तो बपतिस्मा धर्मी बनाने के लिए है, न ही पवित्र बनाने के लिए, और न ही इन सदगुणों को प्रमाणित करने के लिए है। बपतिस्मा केवल परमेश्वर की आज्ञा को पूरा करने के लिए है; प्रभु ने आज्ञा दी है कि उसके शिष्यों को बपतिस्मा लेना और देना है; बस यही पर्याप्त है।
एक बार फिर से यह बात शिशुओं और बच्चों के बपतिस्मे को गलत ठहराती है, क्योंकि शिशुओं या बच्चों के लिए प्रभु की आज्ञाकारिता को जानना, उसके महत्व को समझना, या उसे मानना संभव नहीं है। न ही शिशु या बच्चे स्वेच्छा से और स्वतः आगे आकर बपतिस्मा लेते हैं; बपतिस्मा तो उन पर एक रीति के समान थोप दिया जाता है, यद्यपि वे उसके बारे में कुछ भी जानते या समझते नहीं हैं।
बपतिस्मा किसे लेना और देना है? : उपरोक्त मत्ती 28:18-20 पदों से यह भी स्पष्ट है कि बपतिस्मा केवल प्रभु के चेलों को ही दिया जाना है। यह एक बहुत महत्वपूर्ण बात है; और इस अन्तर को समझना आवश्यक और महत्वपूर्ण है कि बपतिस्मा लेने से कोई प्रभु का चेला नहीं बनता है; लेकिन प्रभु की आज्ञा के अनुसार, जो स्वेच्छा और सच्चे समर्पण के साथ पहले चेला बन जाए, बपतिस्मा उसे ही, उसके चेला बन जाने के बाद ही दिया जाना है। और प्रभु का चेला बनने के लिए व्यक्ति को अपने पापों से पश्चाताप करने और प्रभु के प्रति स्वेच्छा से समर्पण करना, उसे अपना प्रभु स्वीकार करना अनिवार्य है।
यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने भी जब बपतिस्मा देना आरंभ किया, तो वह भी इसी पश्चाताप करने और परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वालों को ही देता था, जो रस्म के समान, या लोगों को दिखाने के लिए, या औपचारिकता निभाने के लिए बपतिस्मा लेने आते थे, जैसे कि उस समय के धर्म-गुरु, उसने उन्हें बपतिस्मा नहीं, उलाहना दिया, उन्हें अच्छे से डाँटा (मत्ती 3:5-12)। इन पदों में से ध्यान कीजिए:
यूहन्ना किसी को बपतिस्मा देने नहीं जाता था; जो स्वेच्छा से और स्वतः ही उसके पास आते थे, वह उन्हें बपतिस्मा देता था। (पद 6)
वह बपतिस्मा उन्हें देता था जो अपने पापों को मान लेते थे, (पद 6); वह मन फिराव का बपतिस्मा देता था (पद 8, 11)।
उसने दिखावा करने वाले फरीसियों और सदूकियों को, किसी रस्म को पूरा कर देने के समान बपतिस्मा नहीं दिया (पद 7-10), वरन ऐसी इच्छा रखने वालों को उलाहना दिया।
यह बात कि बपतिस्मा ले लेने और विश्वासियों के साथ संगति करने से कोई उद्धार नहीं पाता है, परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं बन जाता है, शमौन टोन्हा करने वाले के उदाहरण से स्पष्ट है; देखिए प्रेरितों 8:9, 12-13, 18-19, 22-23 - पद 22 में पतरस का उससे कहना “अपनी बुराई से मन फिराकर प्रभु से प्रार्थना कर” स्पष्ट संकेत है कि उसने वास्तव में मन नहीं फिराया था, केवल लोगों को देखकर, उनके समान व्यवहार किया था। न उसके बपतिस्मा लेने ने, और न उसके मसीही विश्वासियों की संगति में रहने ने, उसे उद्धार या पापों की क्षमा दी थी। इन बातों को कर लेने के कारण वह परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं बन गया था। जैसा पतरस ने उससे कहा, उसे यह काम अपने आप पश्चाताप करके और स्वयं के लिए पाप-क्षमा की प्रार्थना करके ही पूरा करना था।
यह बात भी शिशुओं और बच्चों के बपतिस्मे के विरुद्ध जाती है क्योंकि उन के लिए मन फिराव करने, प्रभु का चेले बनने और प्रभु को समर्पित जीवन जीने का निर्णय ले पाना संभव ही नहीं है, और इसके बिना बपतिस्मा दिया नहीं जाना है।
बपतिस्मा क्या है? : उपरोक्त बातों को देखने और समझने के बाद, अब हमारे लिए यह समझ पाना सहज है कि बपतिस्मा लेने से न तो कोई धर्मी बनता है और न मसीही या विश्वासी, और न ही और न ही कोई अपश्चातापी व्यक्ति बपतिस्मे से परमेश्वर को स्वीकार्य बनता है। बपतिस्मा तो केवल पापों से पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु यीशु से क्षमा माँगने, प्रभु को अपना जीवन समर्पित करने, अर्थात, प्रभु पर विश्वास लाने के व्यक्ति के भीतरी निर्णय का सार्वजनिक, बाहरी प्रकटीकरण है; उसके द्वारा अपने बदले हुए जीवन की सार्वजनिक गवाही देना है इससे अधिक और कुछ नहीं है। इस संदर्भ में मत्ती 5:14-16 पर मनन कीजिए।
ईसाई या डिनॉमिनेशनल चर्चों में ऐसे लोगों की भरमार है जिनका शिशु-अवस्था या बचपन में बपतिस्मा हुआ, बाद में दृढ़ीकरण या confirmation भी हुआ - जिसका बाइबल में कोई उल्लेख, या उदाहरण, या निर्देश नहीं है; यह मनुष्यों के द्वारा बनाई गई प्रथा है, परमेश्वर के द्वारा दी गई नहीं। किन्तु इन सब को करने के बावजूद, उनके जीवनों में कोई भी परिवर्तन नहीं है, उनमें उनके पापों के लिए पश्चाताप का एहसास या बोझ नहीं है। वे मसीही जीवन के नाम पर केवल परंपराओं, रीतियों, त्यौहारों, और औपचारिकताओं को ही निभाते रहते हैं। उनके पापमय जीवन, बपतिस्मे ले लेने के द्वारा जरा से भी परिवर्तित नहीं हुए।
यदि आप मसीही हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः आपका न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा, क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए आपके लिए मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बनना अनिवार्य है, नहीं तो अनन्त जीवन में अनंतकाल की हानि उठानी पड़ेगी। अपने जीवन में गंभीरता से झांक कर देख लें, और जिन भी बातों को सही करना है, उन्हें अभी समय और अवसर रहते हुए सही कर लें; कहीं कल या “बाद में” पर टाल देने से बहुत विलंब और हानि न हो जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
1 शमूएल 4-6
लूका 9:1-17
In the first article in this new series about baptism, we looked at the meaning of the word baptism and understood that the original Greek word meant immersion. Then we saw from the various examples of being baptized in God's Word, the Bible, that the word is used in the same sense in the Bible. Nowhere is baptism by sprinkling used or intended; Nor is there any instance or intention of baptizing infants or children. Today, in this second article, we'll take a further look at baptism from God's Word.
What is baptism; And who should take, or receive it; and Why?
We will see “What is baptism?” after looking at some related things and examples from the Scripture, since then it will be easy to understand it.
First of all, let us understand why to be baptized. Look at the command given by the Lord Jesus Christ to the disciples in Matthew 28:18-20, just before His Ascension, “18 And Jesus came and spoke to them, saying, "All authority has been given to Me in heaven and on earth. 19 Go therefore and make disciples of all the nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit, 20 teaching them to observe all things that I have commanded you; and lo, I am with you always, even to the end of the age." Amen."
Why should baptism be given or taken? : It is quite clear from the above verses that to receive baptism or to give baptism is a command of the Lord, for His disciples; and is required in obedience to the Lord. This is well illustrated by the Lord’s obedience to God, as given in Matthew 3:13-15 “13 Then Jesus came from Galilee to John at the Jordan to be baptized by him. 14 And John tried to prevent Him, saying, "I need to be baptized by You, and are You coming to me?" 15 But Jesus answered and said to him, "Permit it to be so now, for thus it is fitting for us to fulfill all righteousness." Then he allowed Him"; When the Lord Jesus Christ was baptized, John the Baptist tried to stop him, because He was righteous and holy, He had no need for baptism. But, "Jesus answered and said to him, “Permit it to be so now, for thus it is fitting for us to fulfill all righteousness." Then he allowed Him" (Matthew 3:15).
The Lord Jesus, voluntarily and spontaneously, submitted Himself for baptism, and Himself came to John the Baptist for it. He did not take baptism to be declared or to prove His being righteous or holy but because it was God's command, to fulfill the instructions regarding God's righteousness. That is why he was able to say on the cross "It is finished" (John 19:30), and only then did He die. This statement of the Lord Jesus clearly shows that baptism neither makes anyone righteous, nor does it sanctify anyone, nor does it prove these virtues in any person. Baptism is only for the fulfillment of God's command; the Lord has commanded His disciples should receive and give baptism, so that is that.
Take note, this once again disproves the concept of baptism of infants and children, because it is not possible for infants or children to know, understand, or obey the Lord's commands. Neither are they baptized voluntarily and spontaneously; baptism, as a ritual, is imposed upon them, without their understanding anything about it.
Who is to be baptized or given baptism? : It is also clear from Matthew 28:18-20 given above, that baptism is to be given only to the disciples of the Lord Jesus Christ. This is a very important point; And it is very necessary and important to understand that one does not become a disciple of the Lord by being baptized; But according to the command of the Lord, first whoever becomes a disciple, willingly and with true commitment, he is to be baptized only after he has become a disciple. And in order to become a disciple of the Lord, one must repent of his sins and submit willingly to the Lord, accepting Him as his Lord.
When John the Baptist had begun to baptize, he too gave the same call to repentance and submission to God before being baptized. Those who came to be baptized as a ritual, or to show people, or to perform formalities, like the religious leaders of the time did, they were not baptized by him but were rebuked, and he rebuked them well (Matthew 3:5-12). Take note of some things from these verses of Matthew 3:
John did not go to baptize anyone; He baptized those who came to him voluntarily and spontaneously. (verse 6)
He baptized those who confessed their sins (verse 6); His baptism was of repentance (verses 8, 11).
He did not baptize the pretentious Pharisees and Sadducees for the sake of fulfilling a ritual (verses 7–10), but rebuked those who came with such a desire.
The fact that one can neither be saved nor become acceptable to God by being baptized and fellowshipping with believers, is evident from the example of Simon the sorcerer; See Acts 8:9, 12-13, 18-19, 22-23 - take note of Peter's admonishing him in verse 22 to "Repent therefore of this your wickedness, and pray God" - a clear indication that he had not actually repented, but was only copying and behaving as the other people were doing. Neither his baptism, nor his being in the company of Christians, had given him salvation or forgiveness of sins. By doing these things he did not become acceptable to God. As Peter told him, he had to do this by repenting of his sins and praying for forgiveness for himself.
This also goes against the baptism of infants and children. Because it is not possible for them to make the decision to repent, to become disciples of the Lord, and to live a life dedicated to the Lord, and without this baptism is not to be given or taken.
What is baptism? : Having seen and understood the above, it is now easy for us to understand that being baptized neither makes one righteous, nor a Christian, nor a Believer, nor does an unrepentant person become acceptable to God by getting baptized. Baptism is simply the public, outward declaration of a person's inner decision to repent of sins, to seek forgiveness from the Lord Jesus for them, and to dedicate one's life to the Lord and live by it; i.e., it is a public acknowledgement of having come to faith in the Lord, a public testimony of his changed life; It is nothing more or other than that. With this in mind, meditate on Matthew 5:14-16.
Christian or Denominational churches are full of people who were baptized, in infancy or childhood, and were later “Confirmed”; incidentally, this practice of “Confirmation” carried out in so many Denominations is not even mentioned in the Bible, neither is there any example in the Bible of this ever being done, nor are there any instructions about it in the Bible. It is a custom created by man, not given by God. But in spite of doing all these, there is no change in the lives of those who have been baptized and even “Confirmed”, they do not feel any burden of their sins, nor feel the need for repentance for them. In the name of living a “Christian” life, they continue to only live by carrying out traditions and rituals, celebrating festivals, and fulfilling formalities. By being baptized, not the slightest change has come into their sinful lives.
If you are a Christian, it is essential for you to follow the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, you will not be judged by any man, on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which are not only vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But everyone will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for you to be pleasing to God, instead of striving to please men; else you will have to suffer the loss of eternal life and eternity. Take a serious account of your life, and whatever things you need to rectify, do it right now, while you have the time and opportunity; procrastinating and postponing it for tomorrow or "later" may be very harmful.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins. I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and my redemption from sins. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
1 Samuel 4-6
Luke 9:1-17
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