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मंगलवार, 9 अगस्त 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 21


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पुनः अवलोकन एवं सारांश - (3) - उपस्थिति एवं प्रमाण


मसीही विश्वास में आते ही, व्यक्ति में परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर निवास करने लगता है, फिर उसके जीवन में कुछ कार्य होते हैं, और परिवर्तन आते हैं, जिनके द्वारा वह मसीही सेवकाई के लिए तैयार किया जाता है, उपयोगी बनाया जाता है। यूहन्ना 16 अध्याय में प्रभु यीशु ने शिष्यों के सामने कुछ बातें रखीं, जिनका विद्यमान होना उनकी सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा के होने को दिखाएगा, यह प्रमाणित करेगा कि उनकी सेवकाई परमेश्वर की ओर से तथा उसकी सामर्थ्य से है। साथ ही परमेश्वर पवित्र आत्मा की कार्य-विधि के गुण भी प्रभु ने अपने शिष्यों को बताए। प्रभु द्वारा कही गई ये बातें, आज के सामान्यतः पवित्र आत्मा के नाम से किए जाने वाले आडंबर, विचित्र व्यवहार, हाव-भाव, शोर-शराबे, और शारीरिक एवं सांसारिक बातों के लाभों की प्राप्ति की शिक्षाओं और व्यवहार से बिलकुल भिन्न हैं। पवित्र आत्मा के नाम से अपनी ही धारणाओं की गलत शिक्षाओं को बताने और फैलाने वाले इन भ्रामक प्रचारकों की बातों का आरंभ ही परमेश्वर पवित्र आत्मा को मनुष्य के अधीनता या वश में ले लेने के द्वारा होता है। सामान्यतः उनका कहना होता है कि प्रभु यीशु पर विश्वास लाने के बाद, पवित्र आत्मा को प्राप्त करने के लिए अलग से प्रयास करना पड़ता है, तब ही जाकर पवित्र आत्मा मिलता है; और फिर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए एक अन्य कार्य “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” पाने की आवश्यकता होती है। फिर वो लोगों अपनी बनाई हुई उन विधियों को सिखाते हैं जिनसे उनके अनुसार पवित्र आत्मा को प्राप्त किया जाता है। अर्थात, तात्पर्य यह कि प्रभु यीशु के कथन के विपरीत कि वह अपने शिष्यों पर पवित्र आत्मा भेजेंगे, ये लोग यह सिखाते और प्रचार करते हैं कि उनके द्वारा बनाई और बताई गई विधियों के द्वारा, मनुष्य परमेश्वर पवित्र आत्मा को बाध्य कर सकता है कि वह उनमें आ कर निवास करे और सामर्थ्य प्रदान करे, उनके कहे के अनुसार अपने कार्य करे, वरदान दे।

 

“पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” के बारे में हम इन सारांश के बाद के आने वाले में देखेंगे; किन्तु मुख्य बात यह है कि ये गलत शिक्षाएं देने वाले परमेश्वर पवित्र आत्मा को मनुष्य के हाथों की कठपुतली बनाकर, जिसे मनुष्य अपने प्रयासों और कार्यों के द्वारा नियंत्रित और उपयोग करे प्रस्तुत करते हैं। जबकि वास्तविकता में उनकी ये सभी बातें बाइबल की शिक्षाओं के बाहर की हैं, बाइबल में ऐसी बातों की कोई शिक्षा अथवा पुष्टि नहीं है। ध्यान देने योग्य बात है कि यूहन्ना अध्याय 14-16 में, चार बार लिखा गया है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा केवल प्रभु परमेश्वर की ओर से तथा उसके द्वारा ही, और प्रभु के शिष्यों को ही प्रदान किया जाता है (14:16-17, 26; 15:26; 16:7)।


यूहन्ना 15:26 में प्रभु यीशु ने यह भी कहा कि परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीह यीशु ही की गवाही देगा; अर्थात प्रभु यीशु के शिष्य की सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति, उस शिष्य के जीवन में प्रभु यीशु मसीह की गवाही विद्यमान होने से प्रमाणित होगी, न कि बाइबल से बाहर की बातों करने और दिखाने के द्वारा! वह शिष्य मसीह के समान जीना आरंभ कर देगा (1 कुरिन्थियों 11:1), प्रभु का गवाह होकर कार्य करने लगेगा (प्रेरितों 4:8-12, 19-20; 5:29-32), प्रभु यीशु की आज्ञाकारिता में किसी मनुष्य-मत-समुदाय-डिनॉमिनेशन को नहीं वरन परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला जीवन व्यतीत करेगा (1 थिस्सलुनीकियों 4:1-2, 11)। फिर यूहन्ना 16:7-8 में एक बार फिर प्रभु यीशु ने सिखाया कि पवित्र आत्मा उनके भेजे से ही आएगा, “और वह आकर संसार को पाप और धामिर्कता और न्याय के विषय में निरुत्तर करेगा”। अर्थात जो मसीही सेवकाई परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और अगुवाई में की जाएगी, उसमें न केवल मसीह यीशु की गवाही प्राथमिकता पाएगी, वरन साथ ही उस सेवकाई के द्वारा संसार के लोग सांसारिक लाभ, भौतिक संपन्नता, और शारीरिक चंगाइयों की ओर आकर्षित नहीं किए जाएंगे, वरन पाप, धार्मिकता, और न्याय के विषय दोषी ठहराए जाएंगे या कायल किए जाएंगे (मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का हिन्दी अनुवाद “निरुत्तर” किया गया है, उसका वास्तविक अर्थ उलाहना देना, या दोषी ठहराना होता है; इसीलिए अँग्रेज़ी के अनुवादों में convict शब्द, जो मूल भाषा के अर्थ के अधिक निकट है, प्रयोग किया गया है)। परमेश्वर के वचन के अनुसार इन तीनों बातों, पाप, धार्मिकता, और न्याय के विषय दोषी ठहराए जाने के अर्थ और व्याख्या का सारांश हम कल की कड़ी में देखेंगे।

 

इसीलिए, यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो बाइबल में दी गई प्रभु यीशु मसीह की शिक्षाओं को जानने, उन्हें समझने, और उनका पालन करने में अपना समय और ध्यान लगाइए। सभी गलत शिक्षाओं से बच कर रहिए और अपनी मन-मर्जी या पसंद के अनुसार नहीं, किन्तु प्रभु के वचन की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करें, अपनी मसीही सेवकाई को पूर्ण करें। प्रत्येक मसीही विश्वासी को व्यक्तिगत रीति से पवित्र आत्मा की सामर्थ्य दिए जाने का उद्देश्य यही है कि वह शैतान की युक्तियों को समझे, उनके प्रति सचेत रहे, और परमेश्वर के वचन को सीख समझ कर अपनी मसीही सेवकाई के लिए सक्षम, तत्पर, और तैयार हो जाए, उस सेवकाई में लग जाए। प्रभु द्वारा मसीही जीवन और सेवकाई से संबंधित दी गई शिक्षाएं यह जाँचने और समझने के आधार हैं कि जो सेवकाई की जा रही है वह वास्तव में परमेश्वर के कहे के अनुसार की जा रही है; न कि मनुष्यों की बनाई धारणाओं के अनुसार।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।



एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 77-78 

  • रोमियों 10


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English Translation

Recapitulation and Summary - (3) – Presence & Proof


As soon as a person comes into the Christian Faith, God the Holy Spirit comes to reside in him, some works are done in his life, and changes occur in his life. Through all of these, he is prepared for his Christian ministry, made ready to be useful for the Lord. In John chapter 16, the Lord Jesus placed certain things before the disciples, which would show the presence of the Holy Spirit in their ministry, and will prove that their ministry is under the guidance, and through the power of the Holy Spirit. The Lord also told His disciples about the characteristics of the working of the Holy Spirit. These things that the Lord told to His disciples are much different from the things that the people claiming to have the presence and power of the Holy Spirit exhibit through their strange behavior, odd gestures, incoherent sounds, noises, and their preaching and teachings about worldly gains and prosperity talk about. The things these preachers and teachers of wrong doctrines and false teachings say begin with taking control of, or manipulating God the Holy Spirit. Generally, what they say is that after coming into faith in the Lord Jesus, to receive the Holy Spirit, one has to make some extra efforts, only then can one receive the Holy Spirit; and after that to receive the “power of the Holy Spirit” one has to receive a second touch or the “baptism of the Holy Spirit.” For this they teach their own contrived methods, through which they claim that a person receives the Holy Spirit and His power. So, effectively, unlike what the Lord Jesus has said about His sending the Holy Spirit to His disciples, these people teach and preach that a person through his efforts and certain works can compel and manipulate God the Holy Spirit into coming and residing into those who follow their man-made machinations, work and give gifts as they instruct Him to do.


We will take a detailed and deeper look regarding the Biblical facts about this “Baptism of the Holy Spirit” after these few articles recapitulating and summarizing the previous teachings. But the main thing is that these people who spread the wrong teachings, tend to make God the Holy Spirit a puppet in the hands of man, and teach about ways and methods to control and make the Holy Spirit function through their efforts and deeds. Whereas, in reality, all these things that they say, show, and teach are extra-Biblical; there is no support, affirmation, or teaching in the Bible for any of their doctrines and deeds. It is very important to note that in John chapters 14-16, it has been written four times that the Holy Spirit is sent only by Lord Jesus and only to His disciples (14:16-17, 26; 15:26; 16:7); so, none of man’s efforts have anything to do with His coming, residing, and working in any person.


In John 15:26, the Lord Jesus also stated that the Holy Spirit will testify of the Lord Jesus Christ; i.e., the presence of the Holy Spirit in the life and ministry of the disciple of the Lord Jesus, will become evident through the presence of the witnessing for the Lord Jesus by the disciple, through his life, works, testimony, etc., and not through speaking or showing any unBiblical or extra-Biblical things. Such a disciple of the Lord Jesus will start emulating the Lord Jesus in his life (1 Corinthians 11:1), will start testifying of the Lord Jesus (Acts 4:8-12, 19-20; 5:29-32), and in obedience to the Lord Jesus and His Word will strive to live a life pleasing to God (1 Thessalonians 4:1-2, 11), instead to living and working to please any person, sect, or denomination. Then in John 16:7-8, the Lord Jesus once again taught that the Holy Spirit will only come, when He sends Him, and having come, “He will convict the world of sin, and of righteousness, and of judgment.” In other words, in any Christian Ministry, carried out in the guidance and power of the Holy Spirit, not only will the testifying of the Lord Jesus have a primary position in it, but that ministry will also convict the people of the world about sin, righteousness, and judgment, instead of attracting them to worldly gains, temporal prosperity and physical healings. We will see in the next recapitulation and summary, from the Word of God, what these three words, sin, righteousness, and judgment, mean and imply.


If you are a Christian Believer, then please make efforts and spend time to learn, understand, and follow the teachings of the Lord Jesus given in the Bible. Stay safe from all wrong teachings, doctrines, and preaching; and live a life of obedience to the Word of God, with the intention of fulfilling your God assigned ministry, instead of following and doing anything that seems attractive and desirable to you. The reason for every Christian Believer being given the Hoy Spirit is so that they may discern the machinations and devices of the devil, beware of them; and also, that through the Holy Spirit they may learn God’s Word, become ready and prepared for their ministry, and carry it out effectively under the guidance of and through the power of God the Holy Spirit. The teachings given by the Lord in His Word regarding the Christian Life and Ministry, form the basis through which we can examine, evaluate and discern whether any ministry being done in the Lord’s name is actually being done according to the Lord God, or is it according to man-made doctrines and notions.

 

If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 77-78 

  • Romans 10




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