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अन्य-भाषाएं - परमेश्वर से बातें करना नहीं है (2)
हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता से भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं। इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं। जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार। साथ ही इस पद में सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है, कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बाइबल से देखने, जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है।
पिछले लेखों में हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, प्रभु यीशु से संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को देखने के बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से देखना आरंभ किया है। हम देख चुके हैं कि प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के नया जन्म या उद्धार पाते ही, तुरंत उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में आकर उसके अंदर निवास करने लगता है, और उसी में बना रहता है, उसे कभी छोड़ कर नहीं जाता है; और इसी को पवित्र आत्मा से भरना या पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना भी कहते हैं। वचन स्पष्ट है कि पवित्र आत्मा से भरना या उससे बपतिस्मा पाना कोई दूसरा या अतिरिक्त अनुभव नहीं है, वरन उद्धार के साथ ही सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा का आकर निवास करना ही है। इन गलत शिक्षकों की एक और बहुत प्रचलित और बल पूर्वक कही जाने वाले बात है “अन्य-भाषाओं” में बोलना, और उन लोगों के द्वारा “अन्य-भाषाओं” को अलौकिक भाषाएं बताना, और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग के द्वारा इससे संबंधित कई और गलत शिक्षाओं को सिखाना। इसके बारे में भी हम देख चुके हैं कि यह भी एक ऐसी गलत शिक्षा है जिसका वचन से कोई समर्थन या आधार नहीं है। प्रेरितों 2 अध्याय में जो अन्य भाषाएं बोली गईं, वे पृथ्वी ही की भाषाएं और उनकी बोलियाँ थीं; कोई अलौकिक भाषा नहीं। हमने यह भी देखा था कि वचन में इस शिक्षा का भी कोई आधार या समर्थन नहीं है कि “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना की भाषाएं हैं। इस गलत शिक्षा के साथ जुड़ी हुई इन लोगों की एक और गलत शिक्षा है कि “अन्य-भाषाएं” बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण है, जिसके भी झूठ होने और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग पर आधारित होने को हमने पिछले लेख में देखा है। पिछले लेख में हमने यह भी देखा था कि उन लोगों के सभी दावों के विपरीत, न तो प्रेरितों 2:3-11 का प्रभु के शिष्यों द्वारा अन्य-भाषाओं में बोलना कोई “सुनने” का आश्चर्यकर्म था, न ही अन्य भाषाएं प्रार्थना करने की गुप्त भाषाएँ हैं, और न ही ये किसी को भी यूं ही दे दी जाती हैं, जब तक कि व्यक्ति की उस स्थान पर सेवकाई न हो, जहाँ की भाषा बोलने की सामर्थ्य उसे प्रदान की गई है।
एक और दावा जो ये पवित्र आत्मा और अन्य-भाषाएँ बोलने से संबंधित गलत शिक्षाएं देने वाले करते हैं, है कि व्यक्ति अन्य-भाषा बोलने के द्वारा सीधे परमेश्वर से बात करता है। इसके बारे में हम पिछले लेख में बाइबल के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों से देख चुके हैं कि उनका यह दावा भी वचन की कसौटी पर बिलकुल गलत है, अस्वीकार्य है। आज हम इससे संबंधित कुछ अन्य बातों को देखेंगे। यहाँ पर कुछ संबंधित और बहुत महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान दीजिए, जिनकी अनदेखी ये गलत शिक्षा देने वाले करते रहते हैं, क्योंकि इनसे उनके झूठ प्रकट हो जाते हैं:
क्या अन्य सभी मसीही विश्वासी, जो उनके अनुसार उनकी ये ‘अन्य-भाषाएँ’ नहीं बोलते हैं, क्या वे पिता परमेश्वर से बात नहीं करते हैं, और क्या पिता परमेश्वर उनकी नहीं सुनता है, उनकी प्रार्थनाओं के उत्तर नहीं देता है? और यदि बिना अन्य-भाषा बोले बिना भी परमेश्वर से बात-चीत की जा सकती है, परमेश्वर सामान्य भाषा में की गई बातों को भी सुनता है, उनका उत्तर देता है, तो फिर किसी को भी उनकी ये अन्य-भाषा में बोलने की क्या आवश्यकता है? हम पहले के लेख में देख चुके हैं कि ‘अन्य भाषा’ का गुप्त ‘प्रार्थना की भाषा’ होने का बाइबल से कोई समर्थनअथवा प्रमाण नहीं है; तो फिर उनकी ये अन्य-भाषा में बोलने के द्वारा कोए भी और क्या अतिरिक्त या अद्भुत कह लेगा, कर लेगा, या प्राप्त कर लेगा? इस संदर्भ में उनके सभी दावों के झूठा और वचन के अतिरिक्त होने को तो हम देख ही चुके हैं।
वचन में, पुराने अथवा नए नियम में, ऐसा कुछ भी कहाँ लिखा है कि अन्य-भाषाओं में प्रार्थना करने वालों, या परमेश्वर से बातचीत करने वालों की ही बातें परमेश्वर द्वारा सुनी जाती हैं? या फिर, उनकी बातें परमेश्वर पहले या अवश्य ही सुनता है, जबकि अपनी सामान्य भाषा में प्रार्थना करने वालों की बातों की परमेश्वर अनदेखी करता है या विलंब से सुनता है? परमेश्वर और उसके वचन से संबंधित शिक्षाओं में इस प्रकार के अनुचित अभिप्राय मिला देने के द्वारा वे इन शिक्षाओं के शैतान की ओर से होने की पुष्टि करते हैं, क्योंकि शैतान आरंभ ही से परमेश्वर की बातों में मिलावट करता आया है, उन्हें बिगाड़ कर प्रस्तुत करता आया है। और इन गलत शिक्षाओं में बने रहने, इन्हें सिखाते रहने के द्वारा वे अपने लिए बहुत कठोर दण्ड निश्चित कर रहे हैं।
पुराने नियम में लेवियों और याजकों का कार्य था लोगों की ओर से परमेश्वर के सामने भेंट-बलिदान चढ़ाना, और साथ ही इस्राएल की प्रजा के लिए परमेश्वर का दूत होने के नाते उन्हें लोगों को परमेश्वर का वचन भी सिखाना होता था (मलाकी 2:4-7)। लेकिन न व्यवस्था की पुस्तकों में, और न कहीं और यह लिखा गया है कि उन्हें भी अन्य-भाषाओं में यह सेवकाई करनी होती थी। यदि व्यवस्था के युग में बिना मुँह से विचित्र, निरर्थक ध्वनियाँ निकाले याजक परमेश्वर की राज्य के लिए परमेश्वर से बातें कर सकता था, तो फिर आज इस अनुग्रह के युग में जब प्रभु परमेश्वर हमारे साथ रहता है, हम में निवास करता है, हम सामान्य भाषा में उससे बात क्यों नहीं कर सकते हैं? ये लोग वचन की शिक्षाओं के विरुद्ध व्यर्थ के निराधार तर्क, सहज और स्वीकार्य बनाकर देने में बहुत निपुण होते हैं, जिन के द्वारा ये लोग अपरिपक्व और भोले लोगों को बहुत से गलत मार्गों में बहका और भटका देते हैं।
यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि 1 कुरिन्थियों 12:7 में लिखा है कि पवित्र आत्मा के द्वारा दिए जाने वाले आत्मिक वरदान “सब के लाभ पहुँचाने” के उद्देश्य से दिए जाते हैं। इस बात के अनुसार 1 कुरिन्थियों 14:4 में बताया गया है कि वे व्यर्थ की अन्य-भाषाएं बोलने वाले ऐसा करने के द्वारा केवल अपनी ही उन्नति करते, कलीसिया की नहीं। और यदि उनका अपनी प्रार्थनाओं या आशीष के लिए अन्य-भाषा में बोलने का यह दावा सही होता, तो फिर वचन की शिक्षाओं के विरुद्ध होता, वचन में विरोधाभास (contrdiction) ले आता - जो वचन के पवित्र आत्मा की अगुवाई और प्रेरणा से लिखे जाने के कारण संभव नहीं है। इसलिए यह स्पष्ट है कि अन्य-भाषाओं में बोलना किसी के भी, कैसे भी व्यक्तिगत प्रयोग अथवा लाभ या उन्नति के लिए हो ही नहीं सकता है। अन्य-भाषा में बोलना तब ही सही और जायज़ होगा जब वह सभी लोगों के लाभ और कलीसिया की उन्नति के लिए हो; और यह तभी हो सकता है जब उस भाषा में कही जाने वाली बातें मनुष्यों द्वारा भी समझी और सीखी जा सकें, केवल ‘परमेश्वर से की गई बातें’ न हों।
पवित्र आत्मा की अगुवाई में, पौलुस प्रेरित ने यहाँ यह भी लिखा है, “मैं चाहता हूं, कि तुम सब अन्य भाषाओं में बातें करो, परन्तु अधिकतर यह चाहता हूं कि भविष्यवाणी करो: क्योंकि यदि अन्य अन्य भाषा बोलने वाला कलीसिया की उन्नति के लिये अनुवाद न करे तो भविष्यवाणी करने वाला उस से बढ़कर है” (1 कुरिन्थियों 14:5)। गलत शिक्षाएं फैलाने वाले ये लोग इस पद के केवल आरंभिक वाक्य “मैं चाहता हूं, कि तुम सब अन्य भाषाओं में बातें करो...” को ही लोगों के सामने रखते हैं, और कहते हैं कि यह वचन ही की शिक्षा है कि सभी को अन्य-भाषाओं में बोलना चाहिए। किन्तु वे उससे आगे के वाक्य “... परन्तु अधिकतर यह चाहता हूं कि भविष्यवाणी करो: क्योंकि यदि अन्य अन्य भाषा बोलने वाला कलीसिया की उन्नति के लिये अनुवाद न करे तो भविष्यवाणी करने वाला उस से बढ़कर है” की पूर्णतः अनदेखी कर देते हैं, क्योंकि यहाँ स्पष्ट लिखा है कि यदि अन्य-भाषा में बोली गई बात का कलीसिया के लिए अनुवाद न किया जाए, तो अन्य-भाषाओं में बोलने से बेहतर भविष्यवाणी करना है। अब, जब ये स्वयं ही नहीं जानते हैं कि वे क्या बोल रहे हैं, तो फिर कोई अनुवाद कैसे हो सकता है? और फिर, ये ‘अन्य-भाषा’ में बोलने वाले तो इसे अपने निज लाभ के लिए, अपने बड़ाई और महत्व को दिखाने के लिए उपयोग करते हैं न कि औरों के लाभ और कलीसिया की उन्नति, तो फिर वे इस पद के सामने कैसे खड़े रह सकते हैं? हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि “भविष्यवाणी करने” का अर्थ भविष्य की बातें बताना ही नहीं है, वरन लोगों के समक्ष परमेश्वर के वचन की शिक्षाएं देना है। अब यह प्रकट है कि पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस के इच्छा यही है कि निरर्थक अन्य-भाषाएँ बोलने के स्थान पर प्रभु के लोगों में वचन को सीखने और उसे औरों को सिखाने की अभिलाषा होनी चाहिए। दूसरों को वचन की सही शिक्षा देना अन्य-भाषा बोलने से अधिक उत्तम और परमेश्वर को अधिक पसंद कार्य है (2 तिमुथियुस 2:14-16)।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित इन गलत शिक्षाओं में न पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहेजकेल 3-4
इब्रानियों 11:20-40
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Speaking in “Tongues” is NOT Directly Speaking with God (2)
We have been seeing in the previous articles that one of the ways the childlike, immature Christian Believers can be identified is that they can very easily be deceived, beguiled and misled by wrong doctrines and false teachings. Satan and his followers bring in their wrong doctrines and misinterpretations of God’s Word through people who masquerade as apostles, ministers of righteousness, and angels of light (2 Corinthians 11:13-15). These deceptive people and their false messages, their teachings appear to be very attractive, interesting, knowledgeable, even very reverential and righteous; but there is always something or the other that is extra-Biblical or unBiblical mixed into them. These wrong teachings and false doctrines are mainly about three topics, as God the Holy Spirit got it written down through the Apostle Paul in 2 Corinthians 11:4 “For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!” - the Lord Jesus Christ, the Holy Spirit, and the Gospel. In this verse a very important way to identify the false and the correct, discern between them, and escape from being beguiled by Satan is also given - that which is the truth about these three topics has already been given and written in God’s Word. Therefore, by cross-checking every teaching and doctrine from the Bible, the true and the false can be discerned; that which is not already present in God’s Word is false, and their preacher is a preacher of satanic deceptions.
In the previous articles, after seeing some commonly preached and taught false things about the Lord Jesus, we had started to look into the wrong things often taught and preached about the Holy Spirit. About the Holy Spirit, we have seen that every truly Born-Again Christian Believer automatically receives the Holy Spirit from God, at the very moment of his being saved. From that moment onwards, the Holy Spirit comes to reside in him in all His fullness, stays with him forever, never leaves him; and Biblically this is also known as being filled by the Holy Spirit or the baptism with the Holy Spirit. Another very popular and emphatically stated wrong teaching of these preachers and teachers of deceptions is about “speaking in tongues”, their claim that the “tongues’ are super-natural languages, and some other related wrong teachings. Regarding this we have seen that these are also wrong teachings which have no support or affirmation from the Bible. The speaking in “tongues” in Acts 2 were the known and understood languages of the earth and not any super-natural languages. We also saw that quite unlike their claims, “tongues” are not any “prayer language” - the Bible does not offer any support to this; and we also saw how their emphatic claim that speaking in tongues is proof of receiving the Holy Spirit is also patently false and unBiblical; it is their concocted doctrine through misuse and misinterpretation of Biblical facts.
In the last article we had seen some very important Biblical facts regarding another commonly preached false teaching, that “speaking in tongues” is having a direct conversation with God. Today we will see more things that too belie their claims that speaking in ‘tongues’ is having a direct conversation with God. Consider some pertinent facts, which these preachers and teachers of wrong doctrines and false teachings ignore and never bring up for discussion, since these facts contradict and expose their false claims:
Is it that all those Christian Believers, who do not speak in ‘tongues’ as these people do, do not converse with God? Does God not listen to them and their prayers? Does He not answer their prayers? If God does listen and answers others as well, if it is possible to converse with God without speaking in ‘tongues’; if God listens to people who speak to Him in their normal language, and answers their prayers, then why does anyone need to speak at all in incomprehensible ‘tongues’? We have seen in the previous article that there is neither any Biblical proof that ‘tongues’ are a secret, heavenly prayer language, nor is there any need for such a so-called ‘prayer language’, so, what extra are they able to gain or achieve through speaking in ‘tongues’ with God? We have already seen how hollow and false all their related claims are.
In the Scriptures, nowhere is it written in either the Old or the New Testament that God only listens to those who pray to Him in ‘tongues’? Nor does God’s Word say or even indicate that God gives a priority in listening to those who speak in ‘tongues’, whereas those who speak in their normal language, God either ignores them or answers late. The mixing of such false teachings and implications by them in God’s Word and in their preaching and teaching about God, affirms that their preaching and teachings are not from God but are satanic, since Satan, from the beginning has been mixing up wrong things in God’s instructions and corrupting God’s Word while presenting it to humans. By continuing to persist in these false teachings, and preaching them to others, these people are ensuring a very severe judgment from God for their recalcitrance.
In the Old Testament, it was the work of the Levites and Priests to bring the offerings of the people before God, pray for them to God, and being the messengers of God, to teach God’s Word to the Israelites (Malachi 2:4-7). But neither in the books of the Law, nor at any other place is it written that they had to fulfill this ministry with the help of speaking in ‘tongues’. Now, if in the Age of the Law, the Priests could converse with God, know His will, and teach His Word, without taking recourse to gibberish; then in this Age of Grace, when the Lord God resides with and within every Believer, then why can’t a Believer talk to the Lord God in his normal language? These people are adept at giving baseless arguments contrary to God’s Word in a seemingly very plausible manner, and thereby beguiling and misleading the immature, gullible people into all kinds of errors.
Another thing to take note is that, as written in 1 Corinthians 12:7, every spiritual gift given by the Holy Spirit is “for the benefit of all.” On this basis it has been written in 1 Corinthians 14:4 that those who speak in ‘tongues’ in a vain manner, only edify themselves, not the church. If the present day claim of these people regarding ‘tongues’ being a ‘prayer language’ or a language to ‘converse with God’ and be blessed were to be correct, then this using a spiritual gift for personal benefit would bring in a contradiction in God’s Word - which is not possible since God’s Word has been written with the inspiration and guidance of the Holy Spirit. Therefore, it is apparent that speaking in ‘tongues’ can never be for any person’s personal benefit, and its use can only be justified and true when it is used for the benefit of others and edification of the Church. This can only happen if what is spoken in that so-called super-natural language does not remain a secret, unknown, incomprehensible conversation with God, but can also be understood and learnt by others.
Under the guidance of the Holy Spirit, the Apostle Paul also wrote, “I wish you all spoke with tongues, but even more that you prophesied; for he who prophesies is greater than he who speaks with tongues, unless indeed he interprets, that the church may receive edification” (1 Corinthians 14:5). But these people adept at misusing God’s Word and spreading false teachings, only use the first part of this verse, “I wish you all spoke with tongues…” only place this portion before the people, and then claim that it is the teaching of God’s Word that people should speak in tongues. But they deliberately ignore the rest of this verse “...but even more that you prophesied; for he who prophesies is greater than he who speaks with tongues, unless indeed he interprets, that the church may receive edification”, because it is very clearly written here that more than speaking in tongues, one should prophesy. It is also clearly written that unless what is spoken in ‘tongues’ is translated for the Church, he who prophesies is greater than the one who speaks in ‘tongues’. When they themselves do not know what they are saying, how can there be any translation of what they are saying? And, anyways, these speakers in ‘tongues’ want to use it for personal benefit, to show-off to others, not for the benefit of others and edification of the Church; so how then can they hold their grounds in facing this verse? We have already seen in the earlier articles that “to prophesy” does not necessarily mean to foretell the future, but it often means to speak before others and teach them the Word of God. So, it is evident from this verse that through Paul, the Holy Spirit is saying that instead of vainly speaking in incomprehensible, meaningless ‘tongues’, God’s people should be more interested in learning God’s Word and desirous of teaching it to others. To correctly teach the Word of God is a far more noble work, one that God likes and prefers over the vain speaking in ‘tongues’ (2 Timothy 2:14-16).
If you are a Christian Believer, then it is very essential for you to know and learn that you do not get beguiled and misled into wrong teachings and doctrines about the Holy Spirit; neither should you get deceived, nor should anyone else be deceived through you. Take note of the things written in God’s Word, not on things spoken by the people; always cross-check and verify all messages and teachings from the Word of God. If you have already been entangled in wrong teachings, then by cross-checking and verifying them from the Word of God, hold to only that which is the truth, follow it, and reject the rest.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Ezekiel 3-4
Hebrews 11:20-40
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