ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

प्रभु भोज – पुराने नियम का आधार (1) / The Holy Communion - The OT Foundation (1)


Click Here for the English Translation


पुराने नियम के पहले प्ररूप – निर्गमन 12 - से संबंधित प्रतीक

   इससे पिछले लेख में, जो इस विषय का परिचय था, हमने देखा कि शैतान ने प्रभु भोज, या प्रभु की मेज़ के बारे में अर्ध-सत्य और कई गलत शिक्षाएं फैला रखी हैं, लोगों को भरमा कर प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ के उद्देश्यों तथा उसकी आवश्यकता के विषय बहका दिया है। इस प्रकार से उसने इसे एक बिल्कुल उद्देश्यहीन, निरर्थक, और व्यर्थ रीति बना दिया है; फिर भी लोग बड़ी श्रद्धा के साथ जिसका निर्वाह और पालन करते रहते हैं। क्योंकि उन्हें इस गलतफहमी में डाल दिया गया है कि उनके ऐसा करने के द्वारा वे परमेश्वर को स्वीकार्य और स्वर्ग में प्रवेश करने के योग्य हो जाते हैं। वे इस गंभीर, आत्मघाती गलती में इसलिए पड़े हुए हैं क्योंकि उन्होंने स्वयं परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने और प्रभु की मेज़ तथा अन्य विषयों के बारे में सत्य को सीखने का कोई प्रयास नहीं किया। वरन, उन्हें परमेश्वर के नाम में पुल्पिट से जो कुछ भी सुनाया और सिखाया जाता है उसे सुनने और मानने में ही संतुष्ट रहते है। उन्हें कभी गंभीर जिज्ञासा नहीं होती है कि जो कुछ भी उनसे कहा जा रहा है, सिखाया जा रहा है, बाइबल से उन बातों को जाँचें और उनकी पुष्टि करें। हमने यह भी देखा था कि इस सामान्य धारणा, कि क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिये पकड़वाए जाने से थोड़े समय पहले प्रभु यीशु ने प्रभु भोज की स्थापना की, के विपरीत प्रभु की मेज़ के प्ररूप परमेश्वर के चुने हुए लोग, इस्राएलियों के लिये उनके मिस्र के दासत्व से छुड़ाए जाने के समय से विद्यमान हैं। परमेश्वर के लोगों के लिये उनकी पुष्टि मूसा में होकर दी गई परमेश्वर की व्यवस्था में फसह के पर्व के रूप में भी हुई है।

    प्रभु यीशु ने संबंधित वचन की बातों और भविष्यवाणियों को पूरा करते हुए, इस मेज़ को न केवल इस्राएलियों के लिये, वरन अपने सारे शिष्यों के लिये, चाहे वे यहूदी हों अथवा गैर-यहूदी, स्थापित किया था, और उन्हें निर्देश दिया कि “मेरे स्मरण के लिये यही किया करो” (लूका 22:19); अर्थात, उन्हें प्रभु के दूसरे आगमन तक निरंतर करते रहना है, जैसा पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा लिखवाया है (1 कुरिन्थियों 11:25-26)। हम आगे के लेखों में प्रभु द्वारा इस मेज़ के स्थापित किए जाने के बारे में और विस्तार से देखेंगे, लेकिन अभी के लिये एक बहुत महत्वपूर्ण संबंधित बात पर ध्यान कीजिए, कि प्रभु और उसके शिष्यों ने फसह के भोज में भाग पृथ्वी के अपने परिवार के सदस्यों के साथ नहीं लिया, वरन अपने आत्मिक परिवार के सदस्यों के साथ, उनके साथ जिन्होंने प्रभु को ग्रहण किया और उसके शिष्य बन गए, लिया। दूसरे शब्दों में, प्रभु ने अपनी यह मेज़ अपने आत्मिक परिवार, उसके शिष्यों के लिये स्थापित की; न कि हर किसी ऐसे व्यक्ति के लिये जो किसी भी रीति से प्रभु के साथ संबंधित अथवा जुड़े हुए हों। प्रभु ने फसह का भोज को अपने इन लोगों के साथ खाया, और फसह के भोज के खाते समय, भोज से उठाकर प्रभु की मेज़ या प्रभु भोज की स्थापना की (मत्ती 26:26-27;मरकुस 14:22-23)। प्रभु यीशु ने रोटी तोड़कर शिष्यों में, उनके लिये तोड़ी गई अपनी देह के प्रतीक के रूप में बाँटी, इसी प्रकार से उसने ‘दाख रस’ का कटोरा भी लिया और उनके लिये बहाए गए लहू के प्रतीक के रूप में बाँट दिया (लूका 22:19-20)। इस प्रकार से, उस पहले “प्रभु भोज” के समय भाग लेने वाले प्रभु और उसके शिष्य थे; लिये जाने वाली वस्तुएँ फसह के पर्व के भोज में प्रयोग की जानी वाली अखमीरी रोटी थी तथा उस भोज में प्रयोग किया जाने वाला बिना खमीर के प्रभाव का दाख रस था। प्रभु के शिष्यों को, उनके तथा बहुतेरों की छुड़ौती के लिए (लूका 22:20; मरकुस 14:24) प्रभु के द्वारा शीघ्र दिये जाने वाले अपने बलिदान के इन प्रतीकों में भाग लेना था।

    यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि सुसमाचारों तथा 1 कुरिन्थियों के संबन्धित वृतांतों में प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ में भाग लेने के लिये “खमीरा दाख रस” या wine का, यानि कि किसी भी खमीरी वस्तु के प्रयोग का कोई उल्लेख नहीं है। पवित्र शास्त्र में सामान्यतः खमीर गलत शिक्षाओं और सिद्धांतों, और भ्रष्ट करने वाले प्रभावों का प्रतीक रहा है (मत्ती 16:6, 11; मरकुस 8:15; 1 कुरिन्थियों 5:6-8); और इसका प्रयोग फसह के पर्व के दिनों में पूर्णतः वर्जित था (निर्गमन 12:15, 19, 39; 13:7; 23:18; व्यवस्थाविवरण 16:3-4), और न ही व्यवस्था के अनुसार यहोवा के सम्मुख आग में जलाई जाने वाली किसी भी भेंट में खमीर के होने की अनुमति थी (निर्गमन 23:18; 34:25; लैव्यव्यवस्था 2:11; 7:12; 8:2; 10:12; गिनती 6:15)। सुसमाचारों के वृतांतों में कटोरे में “दाख रस” होने की बात लिखी गई है (मत्ती 26:29; मरकुस 14:25; लूका 22:18)। इसलिए वचन के आधार पर प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ में “खमीरा दाख रस” या wine के प्रयोग किए जाने का कोई उल्लेख, समर्थन, अथवा पुष्टि नहीं है।

    परमेश्वर के वचन बाइबल में, मिस्र परमेश्वर के लोगों की बंधुवाई और सताए जाने का प्रतीक रहा है (निर्गमन 6:7; 20:2; व्यवस्थाविवरण 6:12; यहोशू 24:17); और उनके संपूर्ण इतिहास में, इस्राएलियों ने परमेश्वर की सहायता से अपने छुड़ाए जाने को, जिसे वह स्वयं कभी नहीं कर सकते थे, स्मरण किया और उसका उत्सव मनाया है (दानिय्येल 9:15; आमोस 2:10; मीका 7:15; प्रेरितों 7:17-20, 35-36)। इसलिए परमेश्वर की सहायता से मिस्र से इस्राएलियों का छुटकारा, प्रतीक है पाप और शैतान के दासत्व से प्रभु के कार्य और मध्यस्थता के द्वारा छुड़ाए जाने का।

    इन बातों को ध्यान में रखने के बाद, अब हम निर्गमन 12 की ओर मुड़ते हैं, जहाँ प्रभु की मेज़ के पहले प्ररूप का वर्णन दिया गया है। निर्गमन 12 में परमेश्वर यहोवा के द्वारा मूसा में होकर मिस्र के विरुद्ध किए गए अंतिम आश्चर्यकर्म का वर्णन है, और इस घटना के तुरंत बाद फिरौन और मिस्रियों ने इस्राएलियों  को बंधुवाई से मुक्त कर दिया, और उन्हें मिस्र से बाहर जाने के लिए बाध्य किया, और उन लोगों ने वाचा किए हुए देश की ओर कूच किया। अपनी चर्चा के लिये, हम इस अध्याय के तीन खंडों को देखेंगे:

1.   निर्गमन 12:1-14 फसह के भोज के बलिदान का मेमना और उसका खाया जाना

2.   निर्गमन 12:15-20 फसह के भोज से संबंधित नियम

3.   निर्गमन 12:40-49 फसह के भोज में भाग लेने वाले

    इनके मध्य के खंड, पद 21-39 में इस्राएलियों  के द्वारा मेमने के बलिदान किए जाने, उसके लहू को अपने घर पर लगाए जाने, मिस्रियों के पहिलौठों की मृत्यु, और इस्राएलियों  के दासत्व से मुक्त कर के मिस्र से बाहर भेजे जाने और उनके साथ एक बड़ी मिली-जुली भीड़ के भी जाने के बारे में है; और अंतिम दो पद, 50 और 51 इस अध्याय का निष्कर्ष है।

    अगले लेख में हम पहले खंड, निर्गमन 12:1-14 को देखेंगे और उसका आत्मिक मेमने, प्रभु यीशु मसीह के बलिदान के साथ मिलान करेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।  

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यहेजकेल 40-41         

  • 2 पतरस 3    


**********************************************************************

English Translation


Symbolisms with OT’s First Antecedent - Exodus 12

    In the previous article, the introduction to this topic we have seen that Satan has spread many half-truths and wrong teachings about the Holy Communion, or The Lord’s Table, has mis-interpreted and misused Bible passages, has beguiled and misguided the people about the Lord God’s purposes for the Holy Communion and its necessity. Thereby, essentially, turning it into an absolutely unintended, vain and meaningless ritual; but one that people nevertheless observe very reverentially. Because they have erroneously been led into believing that their doing this makes them acceptable to God, worthy of gaining entry into heaven. They have fallen into this grave, suicidal error, because they have not bothered to study God’s Word for themselves and learn the truth about the Lord’s Table and other things. Instead, they are content with listening and following whatever is dished out to them in the name of God from the pulpit, never being eager to verify from the Bible all that is being told and taught to them. We had also seen that contrary to the popular belief that the Lord’s Table was established by the Lord just before His being betrayed and taken for crucifixion, the antecedents of this Table have been there for God’s chosen people Israel, since the time of Israel’s delivery from the bondage of Egypt. They have been affirmed for God’s people in the Law of God given through Moses as the Passover feast.

 

The Lord Jesus, through fulfilling the related prophecies, prescribed it not just for the Israelites, but for all of His disciples, whether Jews or Gentiles, and instructed that His disciples “do this in remembrance of Me” (Luke 22:19); i.e., they were to continue practicing it till He comes again, as the Holy Spirit had it written down through the Apostle Paul (1 Corinthians 11:25-26). We will look into the Lord Jesus instituting this Table in some more detail in later articles, but for now please note a very pertinent fact that the Lord and His disciples participated in the Passover feast, not with their immediate earthly families, but together as a spiritual family by having accepted the Lord and become His disciples. In other words, this Table was meant for the Lord’s spiritual family, His disciples; and not for all and sundry, who might be associated with or related to the Lord in some manner. The Lord Jesus ate the Passover meal with these disciples, and during the meal got up and instituted the Lord’s Table (Matthew 26:26-27; Mark 14:22-23). Lord Jesus broke the bread and distributed it as a symbol of His body broken for them, and similarly asked the disciples to share the cup of the ‘fruit of the vine’ (Luke 22:18), a symbol of His blood shed for them (Luke 22:19-20). So, the participants in the first “Holy Communion” were the Lord Jesus and His disciples; the elements were the unleavened bread used for the Passover meal, and the unfermented grape-juice - the fruit of the vine, being used for that meal. The disciples were to eat and drink these symbols of the Lord’s coming sacrifice for the redemption of the disciples and many (Luke 22:20; Mark 14:24).


Incidentally “wine”, the fermented end-product of the grape-juice, the fermentation process again involving the use of yeast, i.e., leaven, has never been used in the Gospel accounts and in 1 Corinthians in association for the elements of the Lord’s Table or The Holy Communion. Leaven, or yeast, in the Scriptures is generally a symbol of wrong teachings, doctrine and corrupting influences (Matthew 16:6, 11; Mark 8:15; 1 Corinthians 5:6-8) and was forbidden in the days of the Passover (Exodus 12:15, 19, 39; 13:7; 23:18; Deuteronomy 16:3-4) and in offerings made to the Lord by fire (Exodus 23:18; 34:25; Leviticus 2:11; 7:12; 8:2; 10:12; Numbers 6:15). In the Gospels, the content of the cup has been identified as the ‘fruit of the vine’ (Matthew 26:29; Mark 14:25; Luke 22:18). Therefore, there is no Scriptural support or sanction for using “wine” or any drink made through fermentation in the Holy Communion, the Lord’s Table.


In God’s Word the Bible, Egypt has been a symbol of bondage and oppression of God’s people (Exodus 6:7; 20:2; Deuteronomy 6:12; Joshua 24:17); and throughout their history, the Israelites have remembered and celebrated their God given deliverance from this bondage and oppression, which they could never have accomplished on their own (Daniel 9:15; Amos 2:10; Micah 7:15; Acts 7:17-20, 35-36). So, deliverance from Egypt by divine intervention, is symbolic of deliverance from bondage of sin and Satan by the intervention and work of the Lord Jesus Christ.


With this in mind, let us now turn to Exodus 12, where the first antecedent of the Lord’s Table has been given. Exodus 12 describes the last miracle the Lord God did through Moses, the death of the firstborns of the Egyptians, and immediately following this event, Pharaoh and the Egyptians released the Israelites from their bondage, and made them go out of Egypt, and they left for the Promised Land. This chapter, for our purposes, can be considered in three sections:

  1. Exodus 12:1-14 The Lamb of the Passover meal and it’s being eaten 

  2. Exodus 12:15-20 The Ordinance of the Passover meal

  3. Exodus 12:40-49 The Partakers of the Passover meal

    The in-between section from verse 21-39 describes the event of the sacrificing of the Lamb by the Israelites, applying the blood of the lamb to their houses, the death of the Egyptian firstborns, and the release of the Israelites from bondage and being sent out of Egypt; a mixed multitude also going out with them; and the last two verses 50 & 51 is the conclusion for the chapter.


In the next article we will look at the first section, Exodus 12:1-14 and corelate it with the spiritual sacrificial lamb - the Lord Jesus Christ. If you are a Christian Believer, then it is necessary for you to be spiritually mature, learn the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Ezekiel 40-41 

  • 2 Peter 3


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें