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परिचय
प्रभु की मेज़, या प्रभु भोज मसीहियत का एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, जिसे मसीहियत के सभी मत, संप्रदाय, और डिनॉमिनेशंस बड़ी श्रद्धा के साथ मानते हैं और एक बहुत आदरणीय स्थान प्रदान करते हैं। अधिकांशतः, लोग उनके मत या डिनॉमिनेशंस की शिक्षाओं के अनुसार सिखाई तथा निभाई जाने वाली रीति के अनुसार इसमें भाग लेते हैं। सामान्यतः, इसके विषय उनकी समझ यही होती है कि इसमें भाग लेना उनका एक विशेषाधिकार है, जिसे उन्होने, उन्हें सिखाई और बताई गई रीतियों एवं परंपराओं के निर्वाह के द्वारा प्राप्त किया है, और भाग लेने से उन्हें एक विशेष ओहदा मिल जाता है, वे पवित्र और धर्मी बन जाते हैं, परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाते हैं, और उन्हें परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसीलिए, ईसाई समाज में, विशेषकर उन मत, संप्रदायों और डिनॉमिनेशंस में जिनमें प्रभु भोज महीने में एक बार या और भी अधिक लंबे अंतराल के बाद आयोजित किया जाता है, प्रभु भोज के दिन सदस्य भाग लेने के लिये अपने-अपने चर्चों में बड़ी संख्या में एकत्रित होते हैं; किन्तु अन्य दिनों में उन्हीं चर्चों में आराधना सभा में भाग लेने के लिये लोगों की उपस्थिति बहुत कम होती है। सामान्यतः, लोगों की यह आम धारणा है कि प्रभु भोज की स्थापना, प्रभु यीशु ने अपने पकड़वाए जाने और क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिये ले जाए जाने से कुछ देर पहले, शिष्यों के साथ “अंतिम भोज” खाते समय की थी।
ये सभी बातें अर्ध-सत्य हैं, शैतान के द्वारा करवाया गया बाइबल के तथ्यों का दुरुपयोग हैं, उसके द्वारा पवित्र शास्त्र के लेखों का सिखाया गया गलत अर्थ हैं। इन शिक्षाओं और परंपराओं के द्वारा शैतान ने परमेश्वर के वचन को बिगाड़ और भ्रष्ट करके प्रस्तुत किया है जिससे लोगों को गलत शिक्षाओं एवं अनुचित सिद्धांतों में बहला और फुसला कर फंसा ले, जैसा वह अदन की वाटिका के समय से करता आ रहा है, जहाँ उसने अपनी इसी युक्ति के द्वारा हव्वा को छल में फँसाया और उकसाया कि पाप करे। जैसा कि अदन की वाटिका में हुआ था, शैतान की आकर्षक युक्तियों और लुभाने वाले तर्कों को स्वीकार कर लेने ने, उन दोनों पहले मनुष्यों से परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करवा दी; क्योंकि उन्होंने अपनी समझ और दृष्टि में जो ठीक लगा उसके अनुसार कार्य किया। परिणामस्वरूप, पाप अपने विनाशक दुष्प्रभावों के साथ उनके जीवन तथा सृष्टि में प्रवेश कर गया, जिसके कारण तब से लेकर आज तक असीम दुख और परेशानियाँ सभी ओर व्याप्त हैं। तब से ही शैतान इसी युक्ति को बड़ी सफलता पूर्वक प्रयोग करता चला आ रहा है, जिससे कि मानव जाति परमेश्वर द्वारा कही गई बातों और उसके निर्देशों की सत्यता एवं वास्तविकता को सीखने और मानने न पाएँ।
इसी प्रकार से प्रभु की मेज़, या, प्रभु भोज से संबंधित बातों को भी शैतान ने बिगाड़ दिया है, भ्रष्ट कर दिया है और उसे एक ऐसा स्वरूप जो परमेश्वर की ओर से कभी था ही नहीं दे कर सामने रख दिया है। इस से वह जो प्रभु यीशु के शिष्यों के लिये आशीषों, उनके मसीही जीवन के नवीनीकरण, और मसीही विश्वासियों के कायाकल्प का स्त्रोत होना था, वह लोगों के लिए एक व्यर्थ, निष्फल रीति बनकर रह गया है। एक ऐसी परंपरा जो बहुतेरों को इस झूठे विश्वास में बहकाए और फँसाए रखती है कि वे इसके निर्वाह के द्वारा धर्मी हैं, परमेश्वर को स्वीकार्य हैं, अनन्तकाल के लिये सुरक्षित हैं; जबकि वास्तविकता में वे अनन्तकाल के नरक के मार्ग पर हैं क्योंकि वे अपने पापों से कभी बचाए ही नहीं गए; उन्होंने कभी उद्धार पाया ही नहीं क्योंकि परमेश्वर के वचन को पढ़ने, सीखने, उसे स्वीकार करने और उसका पालन के स्थान पर, उन्होने अपनी आँखें बंद करके, जो भी उन्हें पुल्पिट से परमेश्वर के नाम में कहा और सिखाया जाता है उसे ग्रहण कर लेने और मानते रहने का निर्णय कर रखा है। उन्होंने जान बूझकर यही चुना है कि वे परमेश्वर के वचन की बातों से अनभिज्ञ बने रहेंगे, प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले उद्धार प्राप्त करने की प्रभु और उसके वचन की शिक्षा की अवहेलना करेंगे। साथ ही उन लोगों को क्रूस पर अपना बलिदान देने से कुछ देर पहले ही इस मेज़ की स्थापना के पीछे प्रभु के उद्देश्यों की कोई परवाह नहीं है।
परमेश्वर का वचन बाइबल यह सिखाती है कि प्रभु की मेज़, या, प्रभु भोज, पुराने नियम में इस्राएलियों के मिस्र के दासत्व से छुड़ाए जाने के समय से, मूसा में होकर परमेश्वर व्यवस्था के भी दिए जाने से पहले से, और व्यवस्था में उसकी पुष्टि किए जाने के समय से, अपने प्ररूप में स्थापित है। पुराने नियम में दी गई प्रभु की मेज़ से संबंधित बातों को प्रभु के बलिदान, तथा प्रभु के द्वारा अपनी मृत्यु, मृतकों में से पुनरुत्थान, तथा उद्धार से संबंधित शिक्षाओं के साथ मिलाकर देखने और सीखने से हम प्रभु भोज के महत्व और उद्देश्यों तथा उसकी आवश्यकता के बारे में बहुत कुछ सीख और समझ सकते हैं। अगले लेख से हम पुराने नियम में दिये गए प्रभु भोज के प्रारूप को देखना आरंभ करेंगे, और फिर आगे के लेखों में प्रभु यीशु द्वारा मेज़ के स्थापित किये जाने तक जाएंगे; मसीही विश्वासी के जीवन में उसकी अनिवार्यता को देखेंगे तथा शैतान द्वारा उसमें लाए गए बिगाड़ और गलत शिक्षाओं को देखेंगे, जिनके कारण लोग प्रभु भोज की आशीषों से वंचित रह जाते हैं।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहेजकेल 37-39
2 पतरस 2
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Introduction
The Lord’s Table, or, The Holy Communion is one of the sacraments of Christianity, revered and held in high esteem by all sects and denominations of Christendom. People often partake of it according to the manner taught to them and practiced in their sects, group, or denomination as a prescribed ritual. Usually, their understanding is that participating in it is a privilege earned by them after fulfilling the prescribed rites and rituals told and taught to them. It is commonly believed by many that participating in it confers on them a special status, makes them holy and righteous, makes them acceptable to God, gives them the right of entering into God’s Kingdom. Therefore, in most of Christendom, especially amongst the sects, groups, and denominations, where the Holy Communion is held once a month or more rarely, members flock to their respective churches in large numbers to participate in it on the prescribed day; but on the other days, the church attendance for attending the worship service is much less. Commonly, the people also think that the Holy Communion was instituted and established by the Lord Jesus while eating the “Last Supper” with His disciples, a short while before His being caught and taken for crucifixion.
These are all half-truths, mis-applications of Biblical facts, and misinterpretations of the Scriptural texts, brought in by Satan, to corrupt God’s Word, entice and entrap people in it, beguile them into accepting and living by the false teachings and wrong doctrines brought to them by him, as he has been doing since the Garden of Eden, where he encouraged and enticed Eve to commit the first sin by using this very ploy. As happened in the Garden of Eden, the accepting and following of Satan’ attractive arguments and appealing logic made the first humans disobey God, do that which seemed to be right and acceptable to them according to their own thinking and understanding; and sin, with its deleterious effects, entered into their lives and the creation, causing unfathomable brokenness and misery all around. Since then, Satan has been using this ploy very successfully against everything that God has said and commanded, to keep mankind from learning God’s truth and following it, obeying it.
The Lord's Table, or, The Holy Communion too has been similarly corrupted and misinterpreted by Satan; given a form and purpose never intended by the Lord God for it. Thereby, that which was meant to be a source of blessing, renewal, and rejuvenation for the disciples of the Lord, has become a common, vain, fruitless ritual. A tradition that keeps many entrapped in a false sense of being religious, acceptable to God, and safe for eternity, while actually being destined to eternal hell since they have never been saved from their sins - because instead of studying, obeying, and following God’s Word, they have chosen to blindly accept whatever is dished out to them in the name of God from the pulpit, swallow it hook-line-and sinker, and follow it. They choose to deliberately remain oblivious to what the Lord God has actually said about first being saved, then participating in His Table; and they have no real concern for the Lord’s purpose in instituting it for His disciples, shortly before His sacrifice on the Cross of Calvary.
God’s Word the Bible teaches us that the Lord’s Table, or the Holy Communion, in its prototypes, dates back to the time of Israel’s deliverance from the bondage of Egypt, i.e., even before the Law; and was affirmed in the Law of God given to the Israelites through Moses. Through co-relating these Old Testament antecedents of the Lord’s Table with the sacrifice of the Lord Jesus and the teachings He gave about His death, resurrection, and salvation of mankind, we can learn many things and understand the purpose and significance of the Holy Communion for us. From the next article we will start looking at the Old Testament antecedents of the Lord’s Table, and then gradually build up to it’s being instituted by the Lord Jesus, its necessity in a Christian Believer’s life, and consider the misunderstandings brought in by Satan about it, to keep people from receiving its blessings.
If you are a Christian Believer, then it is necessary for you to become spiritually mature by learning the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you get from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Ezekiel 37-39
2 Peter 2
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