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फसह तथा प्रभु की मेज़ - एकता में जुड़े तथा छुड़ाए हुओं के लिए
प्रभु भोज के बारे में उसके पुराने नियम के प्ररूप, निर्गमन 12 में दिए गए फसह के द्वारा अध्ययन करते हुए, हम हमारे पहले दो खण्डों को देख चुके हैं। पहले खण्ड निर्गमन 12:1-14 में हमने देखा था कि परमेश्वर ने फसह अपने लोगों, इस्राएलियों, के लिए उनके दासत्व के घर - मिस्र से छुड़ाए जाने घटना होने के लिए निर्धारित किया था, और यह भी कि उस घटना को कैसे मनाया जाना था; और अंत में पद 14 में हमने देखा था कि परमेश्वर ने उस एक बार घटित घटना को एक यादगार वार्षिक पर्व निर्धारित कर दिया, जिसे जब तक इस्राएल का अस्तित्व है, तब तक मनाया जाना था। फिर दूसरे खण्ड, निर्गमन 12:15-20 में हमने देखा था कि इस पर्व को किस प्रकार मनाया जाना है, बिना किसी भी खमीर के, और ठीक उसी रीति से जैसा परमेश्वर ने निर्धारित किया है। हमने इन दोनों खण्डों से सीखा है कि प्रभु की मेज़ में, जिसे प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के साथ फसह मनाते हुए फसह की सामग्री से स्थापित किया था, भाग लेने का अर्थ और महत्व क्या है। अब हम निर्गमन 12 के अपने तीसरे और अंतिम खण्ड, निर्गमन 12:40-49 “फसह के भोज में भाग लेने वाले” पर आते हैं, और देखेंगे कि यह किस प्रकार से प्रभु भोज के साथ संबंधित है।
इस तीसरे खण्ड के आरंभ, पद 40-41 में, बताया गया है कि परमेश्वर के लोग मिस्र के दासत्व में एक निर्धारित समय तक रहे थे, और परमेश्वर द्वारा उनके छुटकारे के लिए निर्धारित दिन को ही छुटकारा मिल गया, ठीक उसी दिन (निर्गमन 12:40-41)। इस समय अवधि का आँकलन आदि बाइबल के ज्ञाताओं और व्याख्या कर्ताओं ने किया है, किन्तु यह अवधि हमारे अध्ययन का विषय नहीं है। लेकिन हमारे ध्यान देने के लिए जो महत्वपूर्ण बात है, वह है कि परमेश्वर अपने कार्य अपनी ही समय-सारणी के अनुसार करता है, और जो भी परमेश्वर ने निर्धारित किया है, कोई भी उसे बदल नहीं सकता है। उसने जो कुछ भी तय किया है, उसमें एक उद्देश्य है। यदि परमेश्वर ने इस्राएलियों को एक साथ मिस्र में एकत्रित कर के न रखा होता, तो फिर, जैसा कि अब्राहम की इसहाक के अतिरिक्त की अन्य संतानों; और इसहाक के बड़े बेटे, एसाव, के साथ हुआ - जैसे-जैसे वे बड़े हुए, वे अलग होकर विभिन्न क्षेत्रों में जाकर परिवारों और कबीलों के रूप में बस गए, वही इनके साथ भी होता। किन्तु इसहाक और याकूब में होकर अब्राहम की संतान, मिस्र में एक साथ बनी रही, और उन सब पर आने वाली समान ताड़नाओं और कठिनाइयों के कारण वे बारह गोत्र होते हुए भी, आपस में गुथ और जुड़ कर एक राष्ट्र बन गए, न कि विभिन्न इलाकों में फैले हुए अलग-अलग परिवार और कबीले। निर्गमन 1:7-12 में लिखा हुआ है कि मिस्र में रहते हुए भी इस्राएली बढ़ते, फलते-फूलते रहे, सामर्थी होते गए, यहाँ तक कि संख्या और सामर्थ्य में मिस्रियों से भी अधिक हो गए। जितना अधिक मिस्री उन्हें सताते थे, उतना अधिक इस्राएली बढ़ते जाते थे। इन इस्राएलियों को, जो अब आपस में बंध और जुड़ कर बारह गोत्रों की पहचान रखते हुए भी एक अविभाज्य राष्ट्र बन चुके थे, परमेश्वर ने फसह के द्वारा, उन सभी को एक साथ मिस्र में से निकाल, और उन सभी से एक ही रीति से परमेश्वर के द्वारा परमेश्वर के लोग के रूप में छुड़ाए जाने को स्मरण करने के लिए कहा। जब कभी भी राष्ट्र के रूप में इस्राएल इस छुटकारे के पर्व को मनाता है, साथ ही वे यह भी स्मरण रखते हैं कि न तो कोई व्यक्ति विशेष, और न ही कोई परिवार अथवा गोत्र, कोई भी किसी अन्य से अधिक महत्व दिए जाकर अलग से नहीं छुड़ाया गया। उन सभी को परमेश्वर ने एक साथ, एक ही विधि से, एक ही समय पर, एक ही आज्ञा के पालन के द्वारा छुड़ाया।
इसी प्रकार से जब भी नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, अर्थात, प्रभु यीशु के प्रतिबद्ध और समर्पित शिष्य प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं, उन्हें यह प्रभु यीशु की याद में करना है (लूका 22:19; 1 कुरिन्थियों 11:24-25)। प्रभु को अपना मुक्तिदाता ग्रहण करने से पहले वे चाहे कोई भी, कुछ भी रहे हों, लेकिन अब, प्रभु में लाए गए विश्वास के द्वारा, सभी के उद्धार के उसी एकमात्र उपाय - पापों का अंगीकार, पश्चाताप, और प्रभु यीशु को जीवन समर्पित कर देने करने के कारण, वे सभी अब एक लोग हैं, परमेश्वर के एक ही परिवार के अंग हैं (इफिसियों 2:19-20), वे अब प्रभु में एक नई सृष्टि हैं (2 कुरिन्थियों 5:17), उनके मध्य के हर प्रकार के समस्त मतभेदों को परमेश्वर ने हटा कर उन्हें एक कर दिया है (प्रेरितों 10:34-35; रोमियों 10:12; 1 कुरिन्थियों 12:13; गलातियों 5:6; कुलुस्सियों 3:11)।
संसार के अंत और उसके न्याय के लिए परमेश्वर की एक समय-सारणी है, और यह उसी नियत समय पर ही होगा। जब तक यह न हो, शैतान और उसके दुष्ट लोग परमेश्वर के लोगों को हर प्रकार से सताते रहेंगे। पवित्र आत्मा के द्वारा पौलुस ने लिखा कि यह सताया जाना परमेश्वर के लोगों के लिए ठहराया गया है (फिलिप्पियों 1:29; 2 तिमुथियुस 3:12); और पतरस कहता है कि इस सताव का होना इस बात का प्रमाण है कि हम सही मार्ग पर हैं (1 पतरस 4:12-17)। ये सताव हमारे लिए भी वही उद्देश्य पूरा करते हैं जो इस्राएलियों के लिए करते थे, ये हमें प्रभु में विश्वास में बांध और जोड़ कर एक परिवार - परमेश्वर के परिवार, के लोगों के समान बनाते हैं। क्योंकि चाहे कहीं पर भी, किसी भी “चर्च” के लोग सताए जाएं, शेष लोग मिलकर उनके लिए प्रार्थना करते हैं, उन्हें सहायता पहुंचाते हैं। साथ ही, इसके द्वारा मसीही विश्वासी संख्या अथवा गुणवत्ता में घटते नहीं हैं, वरन और बढ़ते चले जाते हैं। यह इसलिए होता है क्योंकि संसार के लोग सताने वालों, तथा सताए जा रहे लोगों के जीवनों में अंतर और तुलना को स्वयं देखने पाते हैं, और यह उनके सामने सुसमाचार की व्यावहारिकता को ले आता है। साथ ही सताने वाले जब जब उनके द्वारा मसीहियों को ताड़ना देने के कारण को बताते हैं, तब प्रभु यीशु का नाम और उसमें विश्वास करने की बात भी सामने आ ही जाती है, यीशु का प्रचार हो ही जाता है (फिलिप्पियों 1:12-18)। और जब प्रभु के प्रतिबद्ध एवं समर्पित शिष्य सताए जाने के कारण एक से दूसरे स्थान को जाते हैं, तो वे साथ ही सुसमाचार को नए क्षेत्रों में भी पहुँचाते जाते हैं (प्रेरितों 8:4)। यह सताया जाना एक और बहुत महत्वपूर्ण कार्य भी करता है - यह झूठे “विश्वासियों” को भी प्रकट कर देता है, और उन्हें बाहर निकाल देता है, क्योंकि वे प्रभु के नाम के लिए सताए जाने के लिए तैयार नहीं होते हैं, और अपने “विश्वास” को त्याग देते हैं।
फसह में भाग लेने का परमेश्वर का निर्देश, और अपने शिष्यों से प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहने का प्रभु यीशु का निर्देश, दोनों एक ही बात को दिखाते हैं - परमेश्वर के लोगों को परमेश्वर का आज्ञाकारी बने रहना है, उसके कार्य में लगे रहना है, और पाप तथा सांसारिकता से अपने आप को बचाकर रखना, जब तक कि प्रभु अपनी कलीसिया को संसार से छुड़ा नहीं लेता है और उसे अपने साथ अनन्तकाल तक रहने के लिए एकत्रित नहीं कर लेता है। एक बार फिर यह, जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, दिखाता है कि प्रभु भोज में भाग लेना एक धार्मिक रीति या औपचारिकता नहीं है, और न ही यह भाग लेने वालों के लिए परमेश्वर को स्वीकार्य तथा स्वर्ग जाने के योग्य होने के लिए है। किन्तु यह उनके लिए है जिन्होंने स्वेच्छा से प्रभु के योग्य जीवन बिताने उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, और इसके लिए कीमत चुकाने के लिए भी तैयार हैं।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
मीका 1-3
प्रकाशितवाक्य 11
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The Passover & The Lord’s Table - For Those United & Delivered as One
In the previous two sections of our study on the Holy Communion through its Old Testament antecedent, the Passover, in the first section, Exodus 12:1-14, we have seen about God ordaining the Passover for His people, the Israelites, for their deliverance from Egypt - the house of bondage, and how that one-time event was to be fulfilled; and finally in verse 14 God made that one-time event into an annual feast to be celebrated as a memorial till Israel existed. Then in the second section, Exodus 12:15-20 we saw how this annual memorial feast was to be celebrated, without any leaven, exactly in the manner God had ordained. From both these sections we have learnt about the meaning, importance, and participation in the Lord’s Table, which was established by the Lord while observing the Passover, using the elements of the Passover. Now we come to our final, third section about the Passover from Exodus 12, as it relates to the Holy Communion; Exodus 12:40-49 “The Partakers of the Passover meal.”
This third section begins with a mention of the period of bondage of God’s people under Egypt in verses 40-41; and that God’s chosen people, the Israelites, were delivered the very same day, as had been ordained by God (Exodus 12:40-41). The calculation and computation of this time period has been done and explained by various Bible scholars and commentators, and is not the subject of our study. But what is important for us to note is that God does things according to His time-table, and nothing can thwart what He has determined. He has a purpose in everything He has determined. If God had not put the Israelites all together in Egypt, then, as happened with the other children of Abraham, besides Isaac; and with Isaac’s elder son Esau; as they grew, they moved out into the surrounding regions and settled individually at different places, as separate clans and tribes. But the sons of Abraham through Isaac, and Jacob, remained together, in Egypt, and collectively became knit together through their common afflictions to become one nation of twelve tribes, instead of dispersing in the area as separate clans and tribes. It says in Exodus 1:7-12, that while in Egypt, the Israelites were fruitful, grew abundantly, multiplied and became mighty, even more and mightier than the Egyptians. The more the Egyptians afflicted them, the more the Israelites multiplied and grew. It was these Israelites, who had now bonded together and become one indivisible nation, though maintaining their tribal identities, that God, through the Passover, collectively delivered as one people from Egypt, and asked them all to remember and celebrate in one manner, their deliverance as one people of God. Whenever the nation of Israel was to celebrate the memorial of deliverance, their annual seven-day Passover feast, they would all remember that not individual families of particular tribes, not one in preference to the other for any reason, but all of them together, as one people were delivered by God, by the same method, and everyone had to obey and fulfill the same requirement from God, in the same manner to be delivered.
Similarly, whenever the Born-Again Christian Believers, the committed and surrendered disciples of the Lord Jesus, partake in the Lord’s Table, they have to do this in remembrance of the Lord Jesus (Luke 22:19; 1 Corinthians 11:24-25). No matter who or what they had been before accepting the Lord Jesus as their Savior and submitting to Him, but now, through their faith in the Lord, through the one and the same manner of salvation - confession and repentance of sins, and submission to the Lord Jesus, they are all one people, members of one family of God (Ephesians 2:19-20), they are a new creation in the Lord (2 Corinthians 5:17), their all kinds of individual differences have all been set aside by God (Acts 10:34-35; Romans 10:12; 1 Corinthians 12:13; Galatians 5:6; Colossians 3:11).
God has His time-table for the end of the world and its judgment, and it will happen at its appointed time. Till that happens, the devil and his evil forces will continue to oppose and afflict in every possible way they can, the people of God. Through the Holy Spirit, Paul says that this is ordained for God’s people (Philippians 1:29; 2 Timothy 3:12); and Peter says that the presence of these afflictions is proof that we are on the right path (1 Peter 4:12-17). These afflictions serve the same purpose for us, as it served for the Israelites, they bind and knit us together in faith in the Lord, as people of one family - the family of God; for no matter which “church” or group of Christian Believers is persecuted, or where, but the rest join together to help and to pray for them. Also, instead of destroying or diminishing the Christian Believers in quantity or quality, they serve to increase and multiply the number of Believers. This happens because the people of the world see the difference and contrast in the lives of the persecutors and of the Believers of the Lord Jesus, and it automatically brings the Gospel before the people of the world. Also, in stating the reason for their being persecuted, inadvertently, the name of Lord Jesus and faith in Him is also talked about (Philippians 1:12-18). Moreover, as the committed followers of the Lord Jesus are dispersed here and there because of being persecuted at one place, they spread the Gospel wherever they go, starting a new work in other places as well (Acts 8:4). This persecution also serves another very important function - it exposes false “believers” and filters them out, since they are not willing to suffer for the name of the Lord, and they abandon their “faith”.
God’s ordinance for participating in the Passover feast, and the Lord Jesus’s commandment to His disciples to partake of His Table, both signify the same thing - God’s people to be obedient to God, be occupied with His work, without getting tarnished by sin and worldliness, willing to suffer persecution from the world, till the Lord delivers His Church and gathers His family to be with Him for eternity. Once again this, as we have seen earlier, shows that participating in the Holy Communion is not a religious ritual or formality to be carried out perfunctorily, nor is it meant to make the participants the people of God and worthy of going to heaven. But it is for those who willingly have chosen to be committed disciples of the Lord, to live in obedience to His Word, and are even willing to pay a price for doing so.
If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Micah 1-3
Revelation 11
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