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यादगार के उत्सव - फसह तथा प्रभु की मेज़
इस्राएलियों के लिए यादगार का फसह का उत्सव, प्रति वर्ष, सात दिन तक मनाए जाने के लिए निर्धारित किया गया था (निर्गमन 12:15); और “वह दिन तुम्हारी पीढ़ियों में सदा की विधि जान कर माना जाए” (निर्गमन 12:17); अर्थात जब तक कि इस्राएल का अस्तित्व रहे। नए नियम के नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी के लिए, फसह का स्थान प्रभु-भोज या प्रभु की मेज़ ने ले लिया है। जैसा कि हम पहले भी देख चुके हैं, प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को आज्ञा दी है कि वे उसकी मेज़ में भाग कुछ निर्धारित दिनों के लिए वार्षिक रीति से नहीं किन्तु निरंतर तब तक लेते रहें जब तक कि वह और परमेश्वर का राज्य न आ जाएं (लूका 22:18; 1 कुरिन्थियों 11:26)। पहला फसह मनाने वाले इस्राएलियों और उनके बाद की पीढ़ियों पर जो बात प्रगट नहीं थी, वह थी कि परमेश्वर की योजना में, अन्ततः यहूदियों और अन्य-जातियों ने समान रीति से ही उद्धार पाना था, प्रभु यीशु मसीह में विश्वास लाने के द्वारा; और इस प्रकार से सब ने मिलकर एक लोग, परमेश्वर का एक घराना, बन जाना था (इफिसियों 2:14-20; रोमियों 9:27; 11:26)। इसलिए, जो यहूदियों के लिए वार्षिक सात दिन का उत्सव था, उसे उनके प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा उद्धार पाने के साथ, प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ के साथ मिल कर एक हो जाना था; एक बार फिर, प्ररूप, फसह, अन्ततः प्रभु की मेज़ हो गया।
परमेश्वर के वचन में संख्या सात पूर्णता और सिद्धता को दिखाती है। सात-दिन का फसह का उत्सव, इस बात का सूचक था कि इसे तब तक मनाना है जब तक कि फसह का अभिप्राय पूरा, अर्थात इस्राएल का छुटकारा पूर्ण नहीं हो जाता है; और यह तब होता है जब वे मसीहा, प्रभु यीशु मसीह को स्वीकार कर के उसमें विश्वास कर लेते हैं, जैसे कि उनके लिए भविष्यवाणी की गई है (रोमियों 11:26)। जैसे-जैसे वे मसीह की ओर मुड़ते जाते हैं, अभी जैसा हो रहा है, व्यक्तिगत रीति से, और बाद में पूरे राष्ट्र के रूप में, यहूदी विश्वासियों के लिए फसह का स्थान प्रभु-भोज लेता चला जाएगा। लिखा है कि उत्सव का आरंभ और अंत एक पवित्र सभा के आयोजन के साथ होना था (पद 16)। प्रभु यीशु मसीह ने प्रभु की मेज़ का आरंभ अपने शिष्यों को एकत्रित करने के साथ किया था; और इसका समापन परमेश्वर के राज्य में, जहाँ परमेश्वर के सभी लोग एकत्रित होंगे, वहाँ पर आयोजित भोज के साथ होगा (लूका 22:15-16)।
उत्सव के आरंभ के पहले दिन, इस्राएलियों को अपने घर में से खमीर के सभी अंश साफ कर देने थे। उन सात दिनों तक उन्हें अखमीरी रोटी ही खानी थी। परमेश्वर इस बात के प्रति कि इस्राएलियों में से खमीर बिल्कुल दूर रहे, कितना गंभीर था, इसका अंदाजा दो बातों से लगाया जा सकता है। पहली, जैसा कि पद 15 और 19 में लिखा है, यदि कोई भी जन खमीर खाए, तो उसे नाश किया जाना था; यह परमेश्वर की दृष्टि में इस आज्ञा की गंभीरता का सूचक है। दूसरी बात, पद 15 से 20, छः पदों में, केवल पद 16 को छोड़, अन्य सभी पाँच पदों में इस बात पर जोर दिया गया है कि खमीर न हो, और अखमीरी रोटी ही खाई जाए। छः पदों के खण्ड में से पाँच पदों में परमेश्वर द्वारा बारंबार इस एक बात को दोहराना उसकी दृष्टि में इसके महत्व और गंभीरता को दिखाता है। उन्हें मिस्र में से छुड़ाने के समय से ही परमेश्वर ने यही चाहा है कि इस्राएली केवल उसी के प्रति निष्ठावान होकर रहें (निर्गमन 19:3-6)। परमेश्वर के लोग भी होना, तथा संसार, सांसारिकता, और पाप के साथ मिलकर रहना या समझौते का जीवन बिताना, कभी साथ नहीं चल सकते हैं; परमेश्वर इसे सहन नहीं करता है (याकूब 4:4; 1 यूहन्ना 2:15-17)। मसीही विश्वासियों को भी अपने जीवन से “खमीर” दूर करके ही प्रभु के उत्सव में सम्मिलित होने के लिए निर्देश दिया गया है (1 कुरिन्थियों 5:7-8)।
हम पहले देख चुके हैं कि परमेश्वर के वचन में, खमीर पाप का सूचक है। इसका यह तात्पर्य हुआ कि परमेश्वर के लोग होने का अर्थ है उसकी आज्ञाकारिता में जीना, तथा पाप और सांसारिकता से दूर रहना; जानते-बूझते हुए पाप और सांसारिकता के साथ समझौता नहीं करना, उसमें भाग नहीं लेना। पौलुस में होकर पवित्र आत्मा ने मसीही विश्वासियों के लिए लिखवाया है “तुम प्रभु के कटोरे, और दुष्टात्माओं के कटोरे दोनों में से नहीं पी सकते! तुम प्रभु की मेज और दुष्टात्माओं की मेज दोनों के साझी नहीं हो सकते” (1 कुरिन्थियों 10:21)। इसका यह अर्थ अथवा अभिप्राय नहीं है कि मसीही विश्वासी कभी पाप नहीं करता हमेशा निष्पाप जीवन जीता है। वरन, इसका अर्थ है कि जब कभी भी मसीही विश्वासी से पाप होता है, जो कि अवश्य ही होगा, तो जैसे ही वह अपने पाप को मान लेगा, उसके लिए क्षमा मांगेगा, परमेश्वर उसे क्षमा कर के फिर से बहाल कर देगा (1 यूहन्ना 1:7-10)। एक मसीही विश्वासी पाप में बना नहीं रह सकता है (1 यूहन्ना 3:9)। दूसरे शब्दों में एक मसीही विश्वासी को प्रभु के साथ संगति में बने रहना है, अपने आप को जाँचते रहना है कि कहीं कोई “खमीर” या पाप तो उसके जीवन में नहीं घुस आया है; और यदि या गया है, तो उसे प्रभु के सामने लाकर, प्रभु द्वारा उसे साफ करवा लेना है। प्रभु भोज में भाग लेने का अर्थ है अपने जीवन को जाँचते रहना, आँकलन करते रहना, और प्रभु के प्रति समर्पित बने रहना।
फसह में भाग लेने का परमेश्वर का निर्देश, और अपने शिष्यों से प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहने का प्रभु यीशु का निर्देश, दोनों एक ही बात को दिखाते हैं - परमेश्वर के लोगों को परमेश्वर का आज्ञाकारी बने रहना है, उसके कार्य में लगे रहना है, और पाप तथा सांसारिकता से अपने आप को बचाकर रखना है। एक बार फिर यह, जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, दिखाता है कि प्रभु भोज में भाग लेना एक धार्मिक रीति या औपचारिकता नहीं है, और न ही यह भाग लेने वालों के लिए परमेश्वर को स्वीकार्य तथा स्वर्ग जाने के योग्य होने के लिए है। किन्तु यह उनके लिए है जिन्होंने स्वेच्छा से प्रभु के योग्य जीवन बिताने उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, और इसके लिए कीमत चुकाने के लिए भी तैयार हैं। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
योना 1-4
प्रकाशितवाक्य 10
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The Memorial Feasts - The Passover & The Lord’s Table
The memorial feast of the Passover, for the Israelites, had been ordained for seven days (Exodus 12:15), every year; and they were to “observe this day throughout your generations as an everlasting ordinance” (verse 17), i.e., as long as Israel existed. For the New Testament Born-Again Christian Believers, instead of the Passover, it is the Holy Communion. As we have seen before, the Lord Jesus has commanded His disciples to keep observing it, or partaking it, not as an annual event for a certain number of days, but till He and God’s Kingdom come (Luke 22:18; 1 Corinthians 11:26). What was not apparent to the Israelites at the time of the first Passover being celebrated, and to their subsequent generations, was, that in God’s plans, the Jews and the gentiles were eventually to be saved in like manner, through faith in the Lord Jesus, and together form one people, the one household of God (Ephesians 2:14-20; Romans 9:27; 11:26). So what was an annual seven-day feast for the Jews, was eventually to turn into and merge with the Holy Communion or the Lord’s Table, as they come to salvation by faith in the Lord Jesus; once again, the antecedent Passover, becomes the final Lord’s Table.
Seven, in God’s Word is a number denoting perfection and completeness. The seven-day feast of the Passover, denotes celebrating it till the work of the Passover, the deliverance of Israel is completed, which happens when they accept and believe in the Messiah, the Lord Jesus Christ, as has been prophesied for them (Romans 11:26). As they turn to Christ, individually, as they are now, and at a later time as a nation, the Passover gets replaced by the Holy Communion for the Jewish Believers. The feast was to begin and end with a Holy Convocation, i.e., gathering together (verse 16). The Lord Jesus started this feast by gathering together His disciples and initiating the Communion from the Passover; and it will culminate with its being fulfilled in the Kingdom of God, when all of God’s people will be gathered and join in eating it (Luke 22:15-16).
On the first day of starting the feast, the Israelites had to remove all traces of leaven from their houses. Throughout the seven days, they were to eat unleavened bread. How serious God was about this ordinance of keeping leaven away from the Israelites is evident from two things: Firstly, as mentioned in verses 15 and 19, anyone who ate any leaven, was to be “cut-off” from the congregation of Israel; i.e., removed, or eliminated from Israel, whether by death or ex-communication has not been specified, and the original Hebrew word can mean both. In either case it was quite a serious punishment for anyone, and this signified the seriousness of the offence in God’s eyes. Secondly, in the six verses, from 15 to 20, except for verse 16, the other five verses emphasize this eating of bread without leaven or eating unleavened bread. For God to repeatedly emphasize and repeat this five times in a span of six verses shows how serious He was about it. Since delivering them out of Egypt, God has desired exclusive allegiance from the Jews (Exodus 19:3-6). Being God’s people, and living with the world, worldliness, and sin can never go together; God does not tolerate it (James 4:4; 1 John 2:15-17). The Christian Believers to have been instructed to remove all “leaven” and then participate in the Lord’s Festival (1 Corinthians 5:7-8).
We have seen earlier that in God’s Word, leaven is a sign of sin. This signified that being the people of God, meant living in obedience to God, and required staying away from all sin and worldliness; not to deliberately engage and partake in sin and worldliness. Through Paul, the Holy Spirit had it written to the Christian Believers “You cannot drink the cup of the Lord and the cup of demons; you cannot partake of the Lord's table and of the table of demons” (1 Corinthians 10:21). This does not imply or mean that a Christian Believer never sins and always lives a sinless life; rather, it means that as and when a Believer does sin, which will happen, as soon as he confesses his sin and asks for God’s forgiveness, God will forgive and restore him (1 John 1:7-10). A Christian Believer cannot continue or remain in sin (1 John 3:9; see NIV for a clearer translation). In other words, the Christian Believer has to remain in fellowship with the Lord, keep examining himself to see if any “leaven” or sin has come into his life; if it has, then to take it to the Lord and to get it cleaned out by the Lord. Celebrating the Holy Communion demands a life of self-evaluation and surrender to the Lord God.
God’s ordinance for participating in the Passover feast, and the Lord Jesus’s commandment to His disciples to partake of His Table, both signify the same thing - God’s people to be obedient to God, be occupied with His work, without getting tarnished by sin and worldliness. Once again this, as we have seen earlier, shows that participating in the Holy Communion is not a religious ritual or formality to be carried out perfunctorily, nor is it meant to make the participants the people of God and worthy of going to heaven. But it is for those who willingly have chosen to be committed disciples of the Lord, to live in obedience to His Word, and are even willing to pay a price for doing so. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Jonah 1-4
Revelation 10
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