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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

बपतिस्मे से संबंधित विवादास्पद बातें (13) / Baptism Related Controversies (13)

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कितने बपतिस्मे?


पिछले लेखों में बपतिस्मे से संबंधित मूल बातों को देखने के बाद हमने बपतिस्मे से संबंधित विवादित और असमंजस में डालने वाली बातों को देखना आरंभ किया। इनके अंतर्गत हमने पहले उद्धार और पाप क्षमा के लिए बपतिस्मे की कथित अनिवार्यता के बारे में वचन की बातों को देखा, और फिर “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” पाने के बारे में ज़ोर देकर दी जाने वाले शिक्षा और संबंधित बातों को देखा। हमने देखा था कि परमेश्वर के वचन बाइबल के आधार पर ये दोनों ही बातें गलत हैं, बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार नहीं हैं। आज हम एक और संबंधित बात को परमेश्वर के वचन के आधार पर देखेंगे, और यह बात भी इसी की पुष्टि करती है कि तथाकथित “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” बाइबल की शिक्षाओं के अनुरूप नहीं है, अस्वीकार्य है। जिस बात को हम आज देखने जा रहे हैं, वह है बाइबल में कितने प्रकार के बपतिस्मे हैं? मसीही विश्वासी को गिनती तथा प्रकार में कितने बपतिस्मे लेने की आवश्यकता है?


इस प्रश्न पर विचार आरंभ करने से पहले हमें बाइबल की सही व्याख्या करने से संबंधित उन मूल बातों को एक बार फिर से ध्यान करना आवश्यक है, जिनका उल्लेख हमने इस शृंखला के आरंभिक लेखों में किया था। सही व्याख्या के लिए अनिवार्य इन बातों में से इस लेख के संदर्भ में इस बात का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि बाइबल की बातों में परस्पर कोई विरोधाभास नहीं है। यदि कोई भी व्याख्या, या शिक्षा, या सिद्धांत बाइबल की बातों में कोई भी विरोधाभास उत्पन्न करता है तो वह गलत है, अनुचित है, अस्वीकार्य है। साथ ही एक दूसरी बात का भी ध्यान रखना है कि बाइबल की किसी भी बात की प्रत्येक व्याख्या, उससे संबंधित अन्य पदों या शिक्षाओं, तथा उसके अपने संदर्भ में ही की जाए। कभी भी किसी भी व्याख्या को उस पद या बात के संदर्भ से बाहर लेने, या संबंधित बातों की अनदेखी करने के साथ करने से हमेशा ही गलत बातें और धारणाएं ही उत्पन्न होंगी और प्रचार की जाएंगी।

 

पिछले लेखों में “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” के बारे में दी जाने वाली शिक्षाओं को समझने के लिए हमने फरवरी 23 के इस विषय के प्रथम लेख में शब्दों “से” और “का” के अर्थ और उनके प्रयोग से होने वाले वाक्यांश के अर्थ में पूर्ण बदलाव को देखा था। हमने वचन के उदाहरणों से यह समझा था कि “से” उस माध्यम या वस्तु को दिखाता है जिसमें बपतिस्मा दिया जाता है, और “का” उसे या उसके अधिकार को दिखाता है जिसके कहे के अनुसार, या जिसकी आज्ञाकारिता में बपतिस्मा दिया या लिया जाता है। हमने यह भी देखा था कि बाइबल में “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” कहीं नहीं लिखा गया है; जहाँ भी लिखा गया है “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा” ही लिखा गया है।

 

यह ध्यान में रखते हुए देखिए कि इफिसियों 4:5 में लिखा है कि “एक ही प्रभु है, एक ही विश्वास, एक ही बपतिस्मा”, अर्थात, बपतिस्मा केवल एक ही है। यदि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” कोई पृथक अनुभव या कार्य है, तो फिर तो दो बपतिस्मे हो जाते हैं - एक वह जो प्रभु यीशु का है और दूसरा वह जो पवित्र आत्मा का है; और तब परमेश्वर का यह वचन झूठा हो जाता है। इस धारणा के अनुसार फिर बाइबल में विरोधाभास या गलती आ जाती है - क्योंकि तब एक बपतिस्मा पानी से हुआ जो कि प्रभु यीशु के कहे के अनुसार लिया गया, और फिर दूसरा बपतिस्मा पवित्र आत्मा का हुआ। किन्तु बाइबल तो एक ही बपतिस्मे की बात करती है। इसलिए या तो पवित्र आत्मा का बपतिस्मा है ही नहीं, और बपतिस्मा केवल पानी में दिया जाने वाला ही एकमात्र बपतिस्मा है; नहीं तो यहाँ पर, इफिसियों 4:5 में गलत लिखा है, जिसका अर्थ हुआ कि बाइबल में गलतियाँ और परस्पर विरोधाभास हैं!

   

किन्तु बाइबल में गलती होने का प्रश्न तो तभी उठता है जब वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” को सही स्वीकार किया जाए; अर्थात पवित्र आत्मा के कहे के अनुसार या पवित्र आत्मा की ओर से एक अन्य बपतिस्मा होना स्वीकार किया जाए। किन्तु परमेश्वर पवित्र आत्मा ने तो ऐसी कोई शिक्षा या आज्ञा कभी कहीं पर भी, किसी को भी नहीं दी है। जैसा हम यूहन्ना 16:13-14 से देखते हैं, परमेश्वर पवित्र आत्मा की सेवकाई में उनके द्वारा कोई नई बात बताना निर्धारित ही नहीं है। वह तो केवल मसीही विश्वासियों को प्रभु यीशु की बातों को स्मरण करवाने और सिखाने का कार्य करेगा। आप देख सकते हैं कि इस वाक्यांश में शैतान ने “से” के स्थान पर “का” लगाने के द्वारा कितनी चालाकी और दुष्टता से चुपके से न केवल एक बिलकुल गलत सिद्धांत बनाकर अनगिनत लोगों को उसमें फंसा और उलझा दिया है, वरन उस ने परमेश्वर पवित्र आत्मा के कार्यों के विषय यूहन्ना 14 और 16 अध्यायों में प्रभु यीशु द्वारा दी गई शिक्षाओं को भी बदल दिया है। इस से उसने परमेश्वर के वचन में गलतियाँ और विरोधाभास डाल दिए हैं - और वे भी इस झूठ के साथ कि यह मसीही सेवकाई तथा प्रभु की भक्ति के लिए आवश्यक है - किन्तु वास्तविकता यही है कि, बाइबल के अनुसार, यह न तो मसीही सेवकाई और न ही प्रभु की भक्ति के लिए आवश्यक अथवा उचित है।

 

किन्तु यदि, जैसे कि बाइबल में हर जगह पर लिखा भी गया है, इसे “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा” समझा और स्वीकार किया जाता है, तो फिर इफिसियों 4:5 के साथ कोई विरोधाभास उत्पन्न नहीं होता है। वचन की हर संबंधित बात के साथ सच्चाई और खराई बनी रहती है, वचन के अर्थ में कोई अन्तर नहीं आता है। एक से अधिक बपतिस्मा होने को सही ठहरने के प्रयास में इसी से संबंधित एक और पद का दुरुपयोग किया जाता है, जहाँ बहुवचन “बपतिस्मे” लिखा गया है। इसके बारे में हम अगले लेख में देखेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • गिनती 19-22           

  • मरकुस 6:45-7:13      


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English Translation


How Many Baptisms?


After considering the basics about baptism from God’s Word, for the past some articles we have been looking at the controversial and confusing things about baptism. In these, we first considered the alleged necessity of baptism for salvation and forgiveness of sins, and then about the so-called “baptism of the Holy Spirit" and its related issues, from the Scriptures. We saw that Biblically speaking both of these are invalid and are not in accordance with the teachings of God’s Word. Today we will look at another related issue, again from the Word of God, which also confirms that the so-called "baptism of the Holy Spirit" does not conform to the teachings of the Bible, and is unacceptable. What we are going to look at today is how many different baptisms are there in the Bible? How many baptisms in number and type does a Christian need to undergo?


Before we begin to consider this question, we need to recall and remember the basics of Biblical interpretation, that have been mentioned in the earlier articles of this series. These basics are essential for a correct Interpretation of these issues. And, in the context of today’s article, it is very important to have in mind the fact that there are no contradictions in the Bible. If any interpretation, or teaching, or doctrine produces any contradiction in what the Bible says, then that teaching, doctrine, or interpretation is wrong, unreasonable, and unacceptable. Another thing to keep in mind is that every interpretation of anything in the Bible should always be done in its context, and also keeping in mind the other verses or teachings related to it. Whenever any interpretation is done by taking that verse or matter out of its context, or disregarding the other related teachings and verses, it will always lead to false interpretations and misconceptions being generated and propagated.


To understand the teachings about the phrase “the baptism of the Holy Spirit”, in the initial article on this topic of February 23, we looked at the implications of the words “with” and “of” and how the meaning of the phrase totally changes, when these words are interchanged. We understood from the examples of the Scriptures that "with" refers to the medium in which baptism is carried out, and "of" refers to the authority, according to whom, or for whose obedience one is baptized. We also saw that "the baptism of the Holy Spirit" is nowhere written in the Bible; Wherever it is written, it is the phrase “baptism with the Holy Spirit” that is written.


Keeping these in mind, note that Ephesians 4:5 states that "one Lord, one faith, one baptism", i.e., there is only one baptism. If the "baptism of the Holy Spirit'' is a separate experience or work, then it implies that there are two baptisms - first of the Lord Jesus and the second of the Holy Spirit; if so, then God’s Word becomes false. Because then, according to this concept, there are contradictions or mistakes in the Bible - because then one baptism is with water taken as instructed by the Lord Jesus, and the other is a baptism of the Holy Spirit. But the Bible talks about only one baptism. Therefore, either there is no baptism of the Holy Spirit, and the one and only baptism is the baptism given in water; else, what is written here in Ephesians 4:5, is wrong, which means the Bible has errors and contradictions! You can see how subtly and deviously, by changing “with” into “of”, Satan has not only built and entangled countless number of people in a false doctrine, but has also altered the Lord Jesus’s teachings about the functions of God Holy Spirit given in John chapter 14 and 16. And thereby he has also brought in errors and contradictions in the Holy Word of God - all in the garb of something necessary for Christian ministry and something reverential - whereas actually, Biblically speaking, it is neither necessary nor reverential.


But the possibility of errors in the Bible will only arise if the phrase “baptism of the Holy Spirit” is accepted to be true; i.e., it is accepted that there is another baptism that is according to or on the authority of the Holy Spirit. But God the Holy Spirit never ever gave any such teaching or instruction anywhere, or to any person. As we see in John 16:13-14, God the Holy Spirit, in His ministry amongst the Christian Believers, will never bring any thing new from His side. He only functions to remind and teach the Christian Believers about the teachings the Lord Jesus has already given. You can see how subtly and deviously, by changing “with” into “of” in this phrase, Satan has not only built and entangled countless number of people in a false doctrine, but has also altered the Lord Jesus’s teachings about the functions of God Holy Spirit given in John chapter 14 and 16. And thereby he has also brought in errors and contradictions in the Holy Word of God - all in the garb of something necessary for Christian ministry and something reverential - whereas actually, Biblically speaking, it is neither necessary nor reverential.


But if, as it is written everywhere in the Bible, it is understood and accepted as "baptism with the Holy Spirit," then there is no contradiction with Ephesians 4:5. The accuracy and integrity of everything related to baptism in the Word of God remains intact, the meaning of the Word remains unchanged. In a further attempt to justify their erroneous stand on more than one baptism, another related verse is misused, where the plural "baptisms" has been used. We will see about this in the next article.


If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Numbers 19-22

  • Mark 6:45-7:13


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सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

बपतिस्मे से संबंधित विवादास्पद बातें (12) / Baptism Related Controversies (12)

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पवित्र आत्मा का बपतिस्मा - (5) - दुष्प्रभाव (2)


हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर के वचन बाइबल में, “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा”, तो लिखा है, जो मसीही विश्वासी द्वारा मसीही विश्वास में आते ही पवित्र आत्मा को प्राप्त करना है। किन्तु “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” वचन में कहीं नहीं दिया गया है; और यह पूर्णतः बाइबल के बाहर की बात है, जो बाइबल की शिक्षाओं के साथ कोई मेल नहीं रखती है, वरन उनके विरुद्ध है। इसी प्रकार से हमने पिछले लेख में यह भी देखा है कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” की गलत धारणा को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बाद एक अतिरिक्त या दूसरा अनुभव कह कर उसे सही ठहराने के प्रयास भी बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं। वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” और उससे संबंधित अन्य गलत शिक्षाओं को स्वीकार करने से मसीही विश्वासी के विश्वास और सेवकाई के जीवन में और भी दुष्प्रभाव आ जाते हैं। बाहरी रूप में धार्मिकता और भक्ति में लिपटी ये सभी गलत शिक्षाएँ चीनी में लिपटे कड़वे घातक जहर के समान हैं। बाइबल के विरुद्ध शिक्षाओं पर आधारित इस अनुचित धारणा पर थोड़ा गहराई और गंभीरता से विचार करने से इस विचारधारा में निहित दुष्प्रभावों को समझना कुछ कठिन नहीं है। पिछले लेख में हमने देखा था कि किस प्रकार से ये मसीही विश्वासियों में भिन्नता और मतभेद उत्पन्न करने का प्रयास है, उनकी मसीही सेवकाई को अप्रभावी करने की चाल है। आज हम इसी गलत शिक्षा के अन्य छिपे हुए दुष्प्रभावों को देखेंगे।


जो अपने आप को अलग से पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए हुए समझते हैं, वे अपने आप को अन्य विश्वासियों से कुछ उच्च (superior) समझने तथा दिखाने लगते हैं; घमंड में आ जाते हैं। उन्हें लगता है, और वे जताते भी हैं कि उनमें कुछ विशेष योग्यताएँ हैं, जिन्हें परमेश्वर ने पहचाना है और उन्हें पुरस्कृत किया है। और यह उनकी मसीही सेवकाई, तथा संसार में मसीही गवाही और कलीसिया के काम के लिए घातक है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के घमंड के साथ कार्य नहीं कर सकता है, उसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। शैतान भी उन्हें गलत शिक्षाओं और बाइबल की गलत व्याख्याओं के द्वारा गलत मार्गों पर डालता और चलाता रहता है, उन से ऐसे व्यवहार करवाता रहता है जो बाइबल की शिक्षाओं के अनुरूप नहीं हैं। ऐसे लोग सामान्यतः मनुष्यों और मनुष्यों की शिक्षाओं का पालन करते हुए देखे जाते हैं, न कि परमेश्वर और उसके वचन का।


ऐसे लोगों का मुख्य कार्य विचित्र शारीरिक गतिविधियों और हावभाव को करना तथा दर्शाना, तथा मुँह से विचित्र बारंबार दोहराई जाने वाली आवाजों - जिन्हें वे “आत्मिक भाषा” कहते हैं, को निकालना होता है - जब कि इनमें से किसी भी बात का बाइबल से कोई समर्थन नहीं है, केवल उनकी अपनी गढ़ी हुई व्याख्याओं का ही समर्थन है। पापों से पश्चाताप और उद्धार के बारे में बताने और सिखाने की बजाए, उनके प्रचार और शिक्षाओं का मुख्य विषय ये शारीरिक गतिविधियाँ, शारीरिक चंगाइयां, और भौतिक लाभ तथा सांसारिक सामग्री एकत्रित करना होता है। उन्हें उनकी गलती का एहसास करवाना, उन्हें दीन होकर अपने गलत कार्यों के लिए पश्चाताप करवाना, और जिन गलत गतिविधियों एवं व्यवहार में वे पड़ गए हैं उस से उन्हें पश्चाताप के साथ निकालना बहुत कठिन होता है। बल्कि, ये लोग औरों को भी अपने समान बाइबल से प्रतिकूल व्यवहार करने के लिए आकर्षित करने के प्रयास में लगे रहते हैं।

 

इसके विपरीत जिन्होंने यह तथाकथित बपतिस्मा या दूसरा अनुभव नहीं पाया है, और बहुत प्रयास करने के बाद भी उन्हें यह अनुभव नहीं मिला है, और न कभी मिलेगा क्योंकि वास्तविकता में ऐसा कुछ है ही नहीं, उनमें निराशा और हीन भावना आने लगती है; उन्हें अपने विश्वास की वास्तविकता पर और अपने मसीही विश्वासी होने पर संदेह होने लगता है, और वे अपनी सेवकाई में कमज़ोर पड़ने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि वे परमेश्वर द्वारा पहचाने और पुरस्कृत किए हुए नहीं है। दोनों ही स्थितियों में हानि प्रभु के लोगों और उनकी सेवकाई ही की होती है, और लाभ शैतान को मिलता है।

 

इस विचारधारा से यह गलत समझ भी फैलती है कि अलग सेवकाइयों के लिए अलग वरदानों ही की नहीं वरन अलग या अतिरिक्त सामर्थ्य की भी आवश्यकता होती है। जिसका अभिप्राय यह निकलता है कि कुछ सेवकाई प्रमुख हैं, जिनके लिए विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, और शेष हलकी या गौण हैं, जिनके लिए किसी विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता नहीं है। यह फिर से मसीही सेवकों में दरार और ऊँच-नीच की भावना को जन्म देता है। यह सेवकाई के लिए दिए जाने वाले पवित्र आत्मा के वरदानों के समान महत्व का होने की शिक्षा के बिल्कुल विरुद्ध है। वरदान कोई भी हो, सब मिलकर एक ही देह के अंग हैं, कोई बड़ा या छोटा, अथवा महत्वपूर्ण या गौण नहीं है (रोमियों 12:3-5; 1 कुरिन्थियों 12:4-11, 29-30)। परमेश्वर प्रत्येक को उसे सौंपी गई सेवकाई तथा उस से अपेक्षित कार्य के किए जाने के आधार पर प्रतिफल देगा, न कि वरदानों के अधिक अथवा कम महत्वपूर्ण होने की मन-गढ़ंत धारणा के अनुसार (मत्ती 20:9-15)। पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता के द्वारा ही उसकी सामर्थ्य सभी के लिए समान रीति से उपलब्ध होती है।

 

हम अगले लेख में देखेंगे कि किस प्रकार से एक अन्य आधार “कितने बपतिस्मे?” के अनुसार भी, “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” बाइबल की शिक्षाओं से कतई मेल नहीं रखता है। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • गिनती 15-18           

  • मरकुस 6:1-44      


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English Translation


Baptism OF the Holy Spirit - (5) - Harmful Effects (2)


We have seen in previous articles that the Word of God, the Bible, speaks of the "Baptism with the Holy Spirit", which is the same as receiving the Holy Spirit on coming to Faith in the Lord Jesus. But the phrase “Baptism of the Holy Spirit” is nowhere mentioned; not only is it completely out of the Bible, but is also incompatible with, and against, the teachings of the Bible. Similarly, we have also seen that attempts to justify the wrong notion of "Baptism of the Holy Spirit" by calling it an additional or extra experience, after receiving the Holy Spirit is also not correct according to the teachings of the Bible. Accepting the phrase "Baptism of the Holy Spirit" and its related erroneous teachings brings other harmful effects for the Christian Believer in his life of faith and his ministry. All these wrong teachings are like a sugar-coated bitter, deadly, poisonous pill given with an outward appearance of reverence and spirituality. With a little serious consideration and analysis, it is not difficult to uncover and understand the ill effects of this wrong ideology, which is entirely based on unBiblical teachings. In the last article we have seen how it is an attempt to create differences and divisions among Christians to render their Christian life and ministry ineffective. Today we will see some more of these covert harmful effects of this wrong teaching.


Those who believe that they have received an additional “baptism of the Holy Spirit” begin to consider and show themselves off as superior to other believers; develop a sense of pride about their capabilities, that they are acknowledged and approved by God and rewarded. Because God cannot work with man's pride, cannot compromise with it, therefore, this attitude of pride becomes very detrimental to their Christian ministry, life and witnessing, and Church work in the world. Satan too continues to mislead them through various wrong interpretations of the Scriptures and having them behave in a manner not consistent with Biblical teachings. Such people are more often seen to be following men and teachings of men, rather than God and His Word.


The main emphasis of such people is on showing odd physical activities and behavior, and making strange incomprehensible repetitive sounds which the call a “spiritual language” - neither of which has any Biblical support, other than from their own interpretations of the Bible. Instead of teaching and emphasizing about repentance and salvation, the main theme of their preaching and teachings are these physical activities, and gaining of material possessions and wealth. It becomes very difficult to have them realize their error, humble themselves, and repent of the wrong practices they have gotten themselves into. Rather, they try to attract others into doing the same unBiblical things that they are doing.


On the other hand, those who have not received this so-called baptism or second experience, even after many efforts; and will never have it either, because actually it is non-existent, they begin to feel depressed and develop an inferiority complex. They begin to doubt genuineness of their faith and their actually being Christian Believers, and thereby they begin to fall short in their spiritual life and Christian ministry, considering themselves as not favored or approved by God. In both cases, the loss is of the Lord's people and His ministry, and the benefit goes to Satan.


This ideology also spreads the misconception that separate ministries require not only separate gifts but also separate or additional powers. Which implies that some ministries are major, requiring special powers, and the rest are minor or secondary, requiring no special powers. This again gives rise to rifts and inferiority complexes among Christian ministers. This is quite contrary to the teaching of the equal importance of the gifts of the Holy Spirit given for the ministry. Whatever be anyone’s individual gift, they are all part of the same body, no one is big or small, neither more important or less important (Romans 12:3-5; 1 Corinthians 12:4-11, 29-30). God will reward each on the basis of the ministry entrusted to him and work expected from him; and not according to the assumption that their gifts are more important or less important (Matthew 20:9-15). It is through obedience to the Holy Spirit that His power is equally available to all.


We will see in the next article, on another parameter, “how many baptisms?” how “the Baptism of the Holy Spirit” does not match the teachings of the Bible at all. If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Numbers 15-18

  • Mark 6:1-44



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रविवार, 26 फ़रवरी 2023

बपतिस्मे से संबंधित विवादास्पद बातें (11) / Baptism Related Controversies (11)

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पवित्र आत्मा का बपतिस्मा - (4) - दुष्प्रभाव (1)


हम पिछले लेखों में परमेश्वर के वचन बाइबल से देख चुके हैं कि वाक्यांश “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा” तो बाइबल में लिखा गया है। इस वाक्यांश का अर्थ होता है मसीही विश्वासी का पवित्र-आत्मा में डुबो दिए जाना, यानि कि उसे अंदर-बाहर से परमेश्वर पवित्र-आत्मा से ओतप्रोत कर दिया जाना। किन्तु सामान्यतः प्रयोग किया जाने वाला वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” वचन में कहीं नहीं दिया गया है। न केवल यह पूर्णतः बाइबल के बाहर की बात है, जो बाइबल की शिक्षाओं के साथ कोई मेल नहीं रखती है, वरन बाइबल की शिक्षाओं के विरुद्ध भी है। इसी प्रकार से हमने पिछले लेख में यह भी देखा है कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” की गलत धारणा को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बाद एक अतिरिक्त या दूसरा अनुभव कह कर उसे सही ठहराने के प्रयास भी बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं हैं, वरन इसमें मनुष्य द्वारा परमेश्वर को नियंत्रण कर पाने की अनुचित और ओछी धारणा निहित है, जो एक बार फिर बाइबल की शिक्षाओं के विरुद्ध है।

 

आज से हम मसीही विश्वासियों द्वारा, धार्मिकता और भक्ति के आवरण में लिपटे हुए वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” से संबंधित शिक्षाओं को स्वीकार करने और उस में विश्वास करने के साथ जुड़े हुए दुष्प्रभावों पर विचार करना आरंभ करेंगे। ये सभी दुष्प्रभाव चीनी में लिपटे कड़वे घातक जहर के समान हैं जो मसीही विश्वासी के जीवन, कलीसिया, और मसीही सेवकाई को गंभीर एवं हानिकारक रीति से प्रभावित करते हैं। यदि बाइबल की शिक्षाओं के विरुद्ध गढ़ी गई इस अनुचित धारणा पर थोड़ा गहराई और गंभीरता से विचार किया जाए तो इस विचारधारा में निहित दुष्प्रभावों को समझना कुछ कठिन नहीं है। तब यह विदित हो जाता है कि भक्ति और धार्मिकता के नाम पर यह मसीही विश्वासियों में भिन्नता और मतभेद उत्पन्न करने का शैतानी प्रयास है; उनकी मसीही सेवकाई को अप्रभावी करने की चाल है।


इस का पहला दुष्प्रभाव है कि यह धारणा मसीही विश्वासियों को दो समूहों में विभाजित कर देती है “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” पाए हुए, और न पाए हुए में बाँट देती है। वचन स्पष्ट दिखाता है कि जब भी किसी भी आधार पर मसीही विश्वासियों ने अपने आप को परस्पर भिन्न दिखाने, पृथक करने का प्रयास किया है, तो कलीसिया में परेशानियाँ ही आई हैं, फूट ही पड़ी है, कभी कोई उन्नति नहीं हुई वरन नुकसान ही हुआ है। बाइबल से कुछ उदाहरणों को देखिए:

(i) अगुवों के नाम और अनुसरण के आधार पर अपने आप को चलाने के कारण कुरिन्थुस की मंडली में फूट पड़ी, समस्याएँ उत्पन्न हुईं (1 कुरिन्थियों 1:11-13)। 

(ii) अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार अपने आप को इब्रानी और यूनानी विश्वासी कहने से कलीसिया में फूट और बैर आया, जिसका दुष्प्रभाव प्रथम कलीसिया में भोजन वितरित करने जैसी सामान्य बातों पर भी पड़ा, और इस बुरे प्रभाव के द्वारा शैतान ने प्रेरितों के प्रार्थना और वचन के अध्ययन एवं सेवा को बाधित करने का प्रयास किया (प्रेरितों 6:1-4); जिससे फिर मसीही विश्वास का प्रसार और विस्तार रुक सके। 

(iii) यहूदी और गैर-यहूदी मसीही विश्वासियों के मध्य खींच-तान और अलगाव से सभी प्रेरितों और पौलुस को भी जूझते ही रहना पड़ा; क्योंकि लोग अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार बने रहना चाहते थे; और यहूदी विश्वासी अपने आप को अन्य-जातियों की अपेक्षा “उच्च कोटि” का जताने का प्रयास करते थे (प्रेरितों 15:1-2, 5, 10-11; इफिसियों 2:17-22)।


यही स्थिति, इस प्रकार बपतिस्मा पाए और न पाए हुओं के मध्य उत्पन्न होकर प्रभु के लोगों में फूट और मतभेद उत्पन्न करती है। मसीही विश्वासियों के लिए बाइबल की शिक्षा और बुलाहट आरंभ से ही एकता में बने रहने की रही है (प्रेरितों 2:42-47; रोमियों 12:16; 15:5; 1 कुरिन्थियों 1:10; 1 कुरिन्थियों 11:17-20; फिलिप्पियों 2:1-2; 1 पतरस 3:8)। लेकिन इस गलत शिक्षा और उससे संबंधित अन्य गलत बातों के द्वारा मसीहियों तथा कलीसिया के मध्य विभाजन और झगड़े के बीज बोए जाते हैं, जिनसे मसीही सेवकाई पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ता है। बाइबल के विपरीत एवं अनुचित इस शिक्षा के कुछ अन्य दुष्प्रभाव हम अगले लेख में देखेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • गिनती 12-14           

  • मरकुस 5:21-43      


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

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English Translation


Baptism OF the Holy Spirit - (4) - Harmful Effects (1)


We have seen in previous articles from the Word of God, that it is the phrase "Baptism with the Holy Spirit", that has been written in the Bible. This phrase implies a Christian Believer’s being immersed into or permeated with the Holy Spirit. But the commonly used phrase “Baptism of the Holy Spirit” is nowhere mentioned in God’s Word. Not only is it completely unBiblical, but it also goes against, the teachings of the Bible, and it creates problems with many things in God’s Word. We have also seen in the previous articles that attempts to justify the wrong teachings related to the use of the phrase "Baptism of the Holy Spirit" by calling it an additional second or extra experience, after the first experience of receiving the Holy Spirit is also not correct according to the teachings of the Bible. Rather, it implies the wrong, petty, and unBiblical notion of man being able to manipulate God.


Today we will begin to consider the some of the harmful effects for the Christian Believer of believing in and accepting the phrase "Baptism of the Holy Spirit", that is often presented and taught in the garb of religiosity and reverence. These serious and harmful effects for the Christian Believer, the Church, and Christian Ministry are like deadly, poison that is presented and fed to gullible people as a sugar-coated bitter pill. With a little serious consideration and analysis in some depth, it is not difficult to uncover and understand the ill effects of this wrong and unBiblical notion; and to see that it actually is a satanic attempt to create differences and divisions among Christians in the name of reverence and spirituality; a trick to render their Christian ministry ineffective.


The first harmful effect is that it divides Christian Believers into two groups - the “haves” and the “have nots”. The “haves” are those who supposedly have received the "baptism of the Holy Spirit"; and the “have nots” are those who have not received it. The Bible, as well as the history of Christianity clearly shows that whenever Christians have tried to differentiate and segregate themselves on any ground, then Christianity has always been in trouble, the Church has split, and has never progressed. Consider some Biblical examples:

(i) Segregation on the basis of names of the Church leaders and because of following men instead of Christ, led to divisions and problems in the Corinthian Assembly (1 Corinthians 1:11-13). 

(ii) Because of segregation based on ethnicity, i.e., by calling themselves Hebrew and Greek Believers, serious discord and divisions happened in the first Church, which upset even the basic things like distribution of food, and through this Satan tried to adversely affect the Apostles' ministry of prayer and of studying and teaching God’s Word (Acts 6:1–4); and thereby the growth and spread of Christianity.

(iii) All the Apostles and even Paul had to contend with the strife and separation between Jewish and Gentile Christians because of their insistence on maintaining their ethnic individuality; and the Jews unfairly trying to present and project themselves as “superior” than the Gentiles Believers (Acts 15:1-2, 5, 10-11; Ephesians 2:17-22).


Similarly, the situation, thus arising between the allegedly baptized of the Holy Spirit and those unbaptized, creates divisions and differences among the people of the Lord. The Biblical teaching and call for the Christian Believers has always been for unity amongst them, right from the very beginning (Acts 2:42-47; Romans 12:16; 15:5; 1 Corinthians 1:10; 1 Corinthians 11:17-20; Philippians 2:1-2; 1 Peter 3:8). But through this and its associated wrong teachings, seeds of divisions and strife are sown amongst Christians and the Church, seriously affecting the Christian Ministry. We will consider some more ill-effects of this unBiblical ideology in the next article.


If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Numbers 12-14

  • Mark 5:21-43



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