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बपतिस्मा - उद्धार के लिए अनिवार्य? (7) - विचार कीजिए
हमने पिछले लेखों में देखा है कि बाइबल में बपतिस्मे के किसी के पापों को धोने में सक्षम होने का कोई समर्थन नहीं है। हमने इस तर्क, कि बपतिस्मा बचाता है, पापों को धोता है, और उद्धार के लिए आवश्यक है, के समर्थन में आमतौर पर उपयोग किए जाने वाले पदों पर भी विचार किया। बाइबल की व्याख्या के मूल सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए इन पदों का विश्लेषण करने पर, हमने देखा कि ये पद उद्धार के लिए बपतिस्मे की आवश्यकता का समर्थन करने के बजाय वास्तव में दिखाते हैं कि उद्धार विश्वास से, प्रभु यीशु के उद्धारकर्ता होने पर विश्वास करने से है, बपतिस्मे से नहीं। हमने बपतिस्मे के माध्यम से बचाए जाने के तर्क को स्वीकार करने में छिपे कुटिल निहितार्थ पर भी विचार किया, जो यह कहने के समान है कि पापों को धोने के लिए यीशु का अमूल्य रक्त जो कलवरी के क्रूस पर बहाया गया, और बपतिस्मा के लिए प्रयोग किया जाने वाला पानी समान रूप से प्रभावी हैं; क्योंकि बपतिस्मे का जल भी वही कार्य कर सकता है जिसके लिए प्रभु यीशु को स्वर्ग से नीचे उतरना पड़ा, अपने जीवन का बलिदान देना पड़ा, अपना लहू बहाना पड़ा। इसलिए, इसका स्वाभाविक तात्पर्य यह है कि प्रभु का बलिदान और लहू बहाना, और एक व्यक्ति का बपतिस्मा लेना समान हैसियत, प्रभाव, और मूल्य के हैं! इस तर्क को स्वीकार करना कि बपतिस्मे के द्वारा पाप धुल जाते हैं बाइबल से असंगत कई अन्य प्रश्न भी उठाता है, क्योंकि यह धारणा या तो बाइबल की अन्य शिक्षाओं के विरुद्ध जाती है, या फिर बाइबल की कई अन्य शिक्षाओं के अनुरूप, उनके साथ सामंजस्य में नहीं है। आह भी हम बाइबल से कुछ अन्य बातों को देखेंगे जो यह दिखाती हैं कि बपतिस्मे के द्वारा पापों के धुल जाने का लोकप्रिय सिद्धांत वास्तव में कितना खोखला और अस्वीकार्य है।
1 कुरिन्थियों 1:13-16 में, पौलुस अपनी सेवकाई में अपनी प्राथमिकताओं के बारे में लिखता है; और जैसा कि इन पदों से स्पष्ट है, उसके लिए सुसमाचार का प्रचार करना, उसके द्वारा लोगों को बपतिस्मा देने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। इसलिए, प्रश्न उठता है, यदि बपतिस्मा लेना उतना ही महत्वपूर्ण होता जितना कि लोगों को मसीह यीशु में विश्वास में लाने और उद्धार के लिए परमेश्वर के वचन का स्वीकार करना, तो क्या पौलुस ने लोगों को बपतिस्मा देने की ऐसी उपेक्षा की होती? तब क्या वह बपतिस्मा देने के लिए उतना ही जोशीला नहीं होता, जितना वह परमेश्वर के वचन का प्रचार करने के लिए था? यदि लोगों को बचाए जाने के लिए बपतिस्मे का कोई महत्व था, तो क्यों वह इतना स्पष्ट और निर्भीक होकर कह रहा था कि वह बपतिस्मा नहीं दे रहा है, और पूरे विश्वास के साथ कह रहा है कि प्रभु ने उसे बपतिस्मा देने के लिए नहीं भेजा था? यदि बपतिस्मा वास्तव में उद्धार के लिए इतना आवश्यक होता जितना उसे दिखाया और सिखाया जाता है, तो फिर पौलुस द्वारा किसी भी कीमत पर औरों के उद्धार के लिए सुसमाचार प्रचार के लिए प्रतिबद्ध होने (1 कुरिन्थियों 9:19-22), किन्तु फिर भी अपनी संपूर्ण सेवकाई में कभी भी बपतिस्मे पर कोई जोर न देने, बपतिस्मे को इस प्रकार नज़रन्दाज़ करने के प्रति कोई पछतावा न होने, वरन इस बात के लिए संतुष्ट और आनन्दित होने कि उसने अपनी निर्धारित सेवकाई को भली-भांति पूरा किया है और अब स्वर्ग में उसके लिए एक बड़ा प्रतिफल तैयार है (2 तिमुथियुस 4:6-8) को कैसे समझा या समझाया जा सकता है? यह तो तभी संभव है जब बपतिस्मे और उद्धार में वह संबंध कभी था ही नहीं जो आज गलत शिक्षाओं द्वारा गढ़ कर लोगों के मनों में बैठा दिया गया है।
प्रेरितों के काम 19:1-6, विशेष रूप से पद 4 में कहा गया है कि यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने हालांकि पश्चाताप करने वालों को मन-फिराव का बपतिस्मा दिया, लेकिन बपतिस्मा लेने के लिए उसके पास आने वाले लोगों से साथ ही यह आग्रह भी किया कि एक बार प्रभु के प्रकट हो जाने पर वे उस पर विश्वास करें। ध्यान दीजिए कि यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने उन लोगों से बाद में प्रभु यीशु के नाम में फिर से बपतिस्मा लेने के लिए नहीं कहा, बल्कि मसीह यीशु में विश्वास करने के लिए कहा; न तो यूहन्ना द्वारा दिया गया बपतिस्मा उनके उद्धार के लिए पर्याप्त था, और न ही मसीह यीशु के नाम में लिए गए बपतिस्मे से वे उद्धार पाते, किन्तु उनका उद्धार केवल मसीह यीशु में विश्वास लाने के द्वारा होना था। बचाने के लिए बपतिस्मे की अपर्याप्तता, और बपतिस्मे की बजाए विश्वास द्वारा उद्धार पर बल देने का पवित्र शास्त्र से यह एक बहुत ही स्पष्ट कथन है - बपतिस्मा लेने वालों को भी प्रभु यीशु पर विश्वास करना था।
बपतिस्मा - शिशु/बच्चे का हो या वयस्क का, एक धार्मिक अनुष्ठान के रूप में, दुनिया भर में सभी चर्चों में किया जाता रहा है, और किया जा भी रहा है; और कई डिनॉमिनेशंस में, शिशु/बाल बपतिस्मा के बाद, जब वह युवा हो जाता है, तो एक दृढ़ीकरण/confirmation भी किया जाता है । लेकिन क्या इस अनुष्ठानात्मक बपतिस्मा लेने वालों और दृढ़ीकरण/confirmation किए गए लोगों के जीवन और जीवन शैली में इससे कोई आत्मिक बदलाव आया है? दुनिया भर में ऐसे अनुष्ठानात्मक बपतिस्मे के स्पष्ट परिणाम केवल यही दिखाते हैं कि बपतिस्मा व्यक्ति के जीवन में पापों के लिए कोई पश्चाताप या घृणा नहीं लाता है, और न ही उसके जीवन में सांसारिकता से कोई परिवर्तन लाता है। जब ऐसा व्यक्ति अपने पापों का पश्चाताप करता है, प्रभु यीशु को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करता है और उसे अपना जीवन समर्पित करता है, तभी उसका जीवन बदलना शुरू होता है, न कि उसके द्वारा लिए गए बपतिस्मे से। तो, इस प्रतिदिन के अनुभव के आधार पर हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं? क्या आवश्यक है - पश्चाताप और प्रभु में विश्वास करना, या बिना मन फिराए उसके नाम पर बपतिस्मा ले लेना? वह जो वास्तव में एक व्यक्ति के जीवन और अनन्त जीवन को बदलने में प्रभावशाली है - वह बपतिस्मा है, या प्रभु यीशु में विश्वास और समर्पण करना?
प्रभु यीशु के साथ ही क्रूस पर चढ़ाया गया वह डाकू जिसने पश्चाताप किया और प्रभु यीशु से प्रार्थना की, उसे स्वयं प्रभु यीशु द्वारा, बिना बपतिस्मा लिए स्वर्ग में प्रभु के साथ रहने का तत्काल आश्वासन दिया गया था। तो अब बिना बपतिस्मा लिए वह डाकू कहाँ गया - स्वर्ग में या नरक में? यदि वह स्वर्ग में प्रभु के साथ रहने के लिए गया, तो फिर उद्धार के लिए बपतिस्मा आवश्यक नहीं है जैसा कि इसे बना दिया गया है। यदि वह स्वर्ग में नहीं गया था जैसा कि उसे आश्वासन दिया गया था, तो प्रभु ने उसे झूठा आश्वासन दिया, और एक मरने वाले को धोखा दिया। यह उदाहरण बपतिस्मे की अनिवार्यता को कैसा दिखाता है? यदि एक पापी पश्चाताप और विश्वास के द्वारा स्वर्ग में प्रवेश कर सकता है, तो अन्य सभी ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
लूका 18:9-14, प्रभु यीशु द्वारा फरीसी और चुंगी लेने वाले के मंदिर जाकर प्रार्थना करने के दृष्टांत में, पद 14 में, चुंगी लेने वाला अपने पश्चाताप की प्रार्थना के कारण धर्मी ठहराया गया। प्रभु ने उसके लिए कुछ और धार्मिक अनुष्ठान करने या बपतिस्मा लेने की कोई आवश्यकता नहीं बताई। उसके पश्चाताप की प्रार्थना से ही वह परमेश्वर द्वारा धर्मी ठहराया गया; और जिसे परमेश्वर धर्मी ठहराता है, उसे फिर दोषी कौन ठहरा सकता है (रोमियों 8:33-34); फिर चाहे उसने बपतिस्मा लिया हो अथवा नहीं लिया हो?
आने वाले लेखों में हम बपतिस्मे से संबंधित कुछ अन्य विवादास्पद बातों को देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
गिनती 3-4
मरकुस 3:20-35
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Baptism - Necessary for Salvation? (7) – Points to Ponder
We have seen in the previous articles that there is no Biblical support for baptism being capable of washing away anyone’s sins. We also considered the verses commonly used in support of the argument that baptism saves, washes away sins, and is necessary for salvation. On analyzing these verses while keeping in mind the basic principles of Biblical interpretation, we saw that these verses instead of supporting the necessity of baptism for salvation, actually show that salvation is by faith, by believing on the Lord Jesus, and not by baptism. We also considered the devious implication of accepting the argument of getting saved through baptism, that it is tantamount to saying that the priceless blood of Jesus shed on the Cross of Calvary for the washing away of sins, and waters of baptism are equivalent. Since the waters of baptism can also accomplish the same for which Lord Jesus had to come down from heaven, sacrifice His life, shed His blood. Accepting the argument that baptism washes away sins also raises many Biblically untenable questions, because this argument either goes against, or does not harmonize with many other Biblical teachings. Today too we will continue to consider some other Biblical points that show how hollow and unacceptable this popular misconception of baptism washing away sins actually is.
In 1 Corinthians 1:13-16, Paul speaks about his priorities in his ministry; and as is apparent from these verses, to him, his preaching the gospel was far more important than his baptizing people. Therefore, the question arises, had baptism been even just as important as preaching God’s Word for bringing people to faith in Christ Jesus and for salvation, would Paul have neglected baptizing people? Would he not have been as zealous for baptizing as he was for preaching God’s Word? If baptism had any importance for the people getting saved, would he have been so forthright in stating his not baptizing, and about confidently saying that the Lord had not sent him to baptize? If baptism was actually as important for salvation as it is taught to be, then how does one explain Paul’s being committed to preaching the gospel at any cost so that people may be saved (1 Corinthians 9:19-22), and yet neglecting emphasizing baptism throughout his ministry, and never having any remorse for it; rather being happy that he had done his assigned ministry well and content that now a great reward awaits him in heaven (2 Timothy 4:6-8)? This can only be possible if the contrived false relationship between baptism and salvation had never been present, but has now been brought in through false teachings and put into the hearts of people.
Acts 19:1-6, especially vs.4 says that John the Baptist though baptizing a baptism of repentance, urged those coming to him for baptism to believe in the Lord once He was manifested. Take note that John the Baptist did not ask them to take another baptism in the name of Lord Jesus, but to believe in the Lord Jesus; neither John’s, nor a re-baptism in Christ Jesus’s name would save them, but their salvation would be only through believing in Christ Jesus. This is a very clear statement from the Scripture of the insufficiency of baptism to save, and of emphasizing faith over baptism – those baptized had also to believe on the Lord Jesus.
Baptism – infant/child or adult, as a liturgical procedure, has been and is being carried out in denominational churches all over the world, and in many denominations, after infant/child baptism a confirmation too is done when the person becomes a youth. But has this ritual baptism brought about any significant change in the life and habits of those been baptized and / or confirmed? The evident results of such baptisms the world over only go to show that baptism does not bring any repentance or abhorrence for sins, or any change from worldly ways in the person’s life. It is only when such a person repents of his sins, accepts the Lord Jesus as his Savior and submits his life to Him that his life begins to change. So, based on this everyday experience what conclusions can we draw? What is necessary – repentance and faith in the Lord or being baptized in His name? Which is actually efficacious in changing a person’s life and eternal destiny – baptism or faith in the Lord Jesus?
The thief on the cross who repented and prayed to the Lord Jesus was granted an immediate assurance of being with the Lord in paradise, by the Lord Jesus Himself, without being baptized. Where did the thief go – to paradise or to hell? If he went to be with the Lord in paradise, then baptism is not essential for salvation as it is made out to be. If he did not go into paradise as had been assured to him, then the Lord gave a false assurance and was a liar, since He deceived a dying person. Where does this leave the essentiality of baptism? If one sinner can enter heaven through repentance and faith, why can’t all others do so?
In Luke 18:9-14, in the parable told by the Lord Jesus, about the Pharisee and the Tax Collector who went to the Temple to pray, in verse 14, the Tax Collector, was declared justified by his prayer of repentance. The Lord did not deem it necessary for him to fulfill any other religious obligation or to take baptism, to be justified. His prayer of repentance was sufficient for God to consider him as “justified”; and who can condemn the person whom God has justified (Romans 8:33-34); whether or not he has taken baptism?
In the coming articles we will consider some other controversial issues related to baptism. If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Numbers 3-4
Mark 3:20-35
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