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आराधना के भौतिक लाभ (4)
हम पिछले कुछ लेखों से परमेश्वर की आराधना करने, अर्थात उसे देने के भौतिक और शारीरिक लाभों को देखते आ रहे हैं। पिछले लेख में हमने परमेश्वर के समर्पित और प्रतिबद्ध राजा हिजकिय्याह के उदाहरण से देखा था कि किस प्रकार से परमेश्वर के प्रति समर्पित, आज्ञाकारी और विश्वासयोग्य बने रहने, तथा परमेश्वर को देने, उसकी आराधना करने वाला होने के कारण, उस पर तथा उसकी प्रजा पर इतनी बहुतायत से भौतिक आशीषें आईं कि उनके पास उन्हें रखने के लिए स्थान कम पड़ गया, और उन्हें परमेश्वर की आशीषों को रखने के लिए नए स्थान बनाने पड़े। आज हम नहेम्याह के जीवन से देखेंगे कि किस प्रकार से परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य होना और उसे प्रार्थना तथा आराधना के साथ निभाना, भौतिक एवं शारीरिक वस्तुओं के अतिरिक्त कई प्रकार की आशीषें ले आता है, जैसे कि लोग और अधिकारी पक्ष में हो जाते हैं, तरक्की मिलती है, बौद्धिक और प्रशासनिक योग्यताएँ तथा अधिकार मिलते हैं, शैतानी युक्तियों और हमलों पर विजय मिलती है, अद्भुत कार्य करने की क्षमता मिलती है, आदि।
पृष्ठभूमि यह है कि नहेम्याह एक भक्त यहूदी है जो अब, बेबीलोन की बंधुवाई के कारण अपने परिवार के साथ निर्वासन में रह रहा है। हम नहेम्याह 1:1-4से देखते हैं कि कुछ रिश्तेदार नहेम्याह से मिलने आते हैं और उसे यरूशलेम की बहुत दुखदायी और बुरी दशा के बारे में बताते हैं। यरूशलेम की दुर्दशा से आहत होकर, नहेम्याह वहाँ के लिए कुछ सकारात्मक करना चाहता है, यद्यपि वह केवल राजा का पिलानेहारा मात्र ही है, वह उसके पुनःनिर्माण, और मरम्मत के कार्य में संलग्न होना चाहता है। किन्तु वह यह तब तक नहीं कर सकता है जब तक कि राजा, जिसका वह पिलानेहारा है, उसे जाने और यह करने की अनुमति नहीं दे देता है। अपने लिए अनुमति तथा पुनःनिर्माण में सहायता मिलने के लिए वह परमेश्वर से हस्तक्षेप करने के लिए प्रार्थना करता है - जो नीतिवचन 21:1 के निर्वाह का एक व्यावहारिक उदाहरण है। इसके विषय उसकी प्रार्थना नहेम्याह 1:5-11 में दर्ज की गई है। इस 7 पदों की प्रार्थना में हम देखते हैं कि नहेम्याह की वास्तविक प्रार्थना केवल पद 11 ही में दी गई है। पद 5-10 नहेम्याह की आराधना हैं, प्रार्थना को अर्पित करने की तैयारी है।
यहाँ पर नहेम्याह द्वारा प्रयोग किए गए प्रार्थना और आराधना के विभिन्न स्वरूप हैं:
पद 5: गुणानुवाद - स्वर्ग के परमेश्वर, महान और भय योग्य ईश्वर
स्तुति - वाचा का निर्वाह करने वाला, करुणा करने वाला
पद 6-7: अपने लोगों के लिए पापों का अंगीकार और मध्यस्थता
पद 8-10: स्तुति - परमेश्वर के वचनों और वाचाओं को स्मरण करना, उन्हें दोहराना; परमेश्वर में अपने विश्वास को व्यक्त करना; परमेश्वर के छुटकारे को याद करना; और परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके बलवंत हाथ को याद करना।
पद 11: प्रार्थना - उसकी वास्तविक प्रार्थना, कि परमेश्वर की महिमा करने, उसके लिए कार्य करने, उसके स्थान को बहाल करने आदि की उसकी इच्छा पूरी हो जाए।
इससे आगे के अध्यायों में हम देखते हैं कि राजा देखता है कि कुछ है जो नहेम्याह को परेशान कर रहा है, और वह उसके विषय उस से पूछ-ताछ करता है, और फिर उसे अनुमति प्रदान कर देता है कि वह जाकर इस कार्य को करे; उसे इसके लिए वहाँ के अधिकारियों के ऊपर अधिकार देता है। नहेम्याह तैयारी कर के यरूशलेम को जाता है, और बहुत सारी बाधाओं तथा उसे निराश करने, काम से रोकने के प्रयास करने के बावजूद वह शहरपनाह को बनाने का कार्य अभूतपूर्व, अप्रत्याशित 52 दिन ही में पूरा कर लेता है (नहेम्याह 6:15), और राजा द्वारा उसे ही अधिपति या गवर्नर बना दिया जाता है (नहेम्याह 6:14)। उस क्षेत्र का गवर्नर होने पर भी वह परमेश्वर की महिमा और आराधना करने वाले, परमेश्वर को देते रहने वाले अपने हृदय के उदाहरण अपने जीवन एवं व्यवहार से देता रहता है (नहेम्याह 5:14, 18; 7:70; 8:9-10)। यह एक बहुत साधारण सा, किन्तु परमेश्वर का भय मानने वाला, भक्त, और आराधना करने वाला यहूदी, यद्यपि सारी परिस्थितियाँ और संभावनाएं उसके विरुद्ध थीं, फिर भी परमेश्वर के लिए कार्य करने की लालसा रखता था, और परमेश्वर के अनुग्रह, बुद्धिमत्ता, मार्गदर्शन, और सामर्थ्य से ऐसा कर भी सका। मात्र राजा का पिलानेहारा होने के स्तर से बढ़कर वह अधिकारियों पर अधिकार रखने वाला बना, और फिर अन्ततः गवर्नर भी बन गया। गवर्नर के इस उच्च ओहदे पर पहुंचकर भी वह परमेश्वर को आदर और महिमा देता ही रहा; और परमेश्वर के अनन्त, अपरिवर्तनीय, अटल वचन में हमेशा के लिए एक उदाहरण बन गया।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहोशू 4-6
लूका 1:1-20
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The Material Blessings of Worship (4)
We have been considering the physical benefits of worshipping God, i.e., giving to God, for the past few articles. In the last article, from the example of the godly King Hezekiah we had seen how being committed, faithful, and obedient to God, and giving to God, i.e., worshipping God brought such abundant blessings to the people, that there was not enough room to store it; they had to build new storehouses to keep the abundance God gave them. Today we will see from the life of Nehemiah, how faithfulness towards God and combining prayer with worship leads to various kinds of blessings like getting favor, promotion, intellectual and administrative abilities, authority, victory over satanic influences and attacks, capabilities of doing extra-ordinary things, etc., besides the material blessings.
The background is that Nehemiah is a pious Jew, from a family now living in Persia, due to their Babylonian exile. We learn from Nehemiah 1:1-4, that relatives come to meet them and tell him about the very sad and run-down condition of Jerusalem. Distressed about the ruinous situation of Jerusalem, although he is only a cup-bearer to the King, yet, he wants to do something constructive about it, wants to be actively involved in the repair and reconstruction. But he cannot do this, unless the King whom he serves as a cup-bearer, permits him to go. To get the King’s permission, for himself, as well as help in the reconstruction, he seeks God’s intervention - a practical example of Proverbs 21:1, and prays to God about it. His prayer for this is recorded in Nehemiah 1:5-11. In this prayer of 7 verses, we see that Nehemiah’s actual prayer is only in verse 11. Verse 5 to 10 are Nehemiah’s worship, preparing for the putting forth of the prayer.
The various elements of Worship and Prayer that he uses here are:
Verse 5: Exaltation – Lord God of heaven, great and awesome God
Praise – Covenant keeping, Merciful
Verse 6-7: Confession and intercession on behalf of his people
Verse 8-10: Praise – Remembering and recalling God’s Word and promises; expresses faith in God and His promises; recalls redemption done by the Lord, and exalts God, i.e.; speaks of God’s Power and strong hand
Verse 11: Prayer – actual prayer that his wish of glorifying God, working for Him, restoring God’s place, be granted.
In the subsequent chapters we see that the King sees that something is troubling Nehemiah, the King enquires from Nehemiah about it, then grants him the permission and authority to go and carry out this work; gives him authority over the governors of that region for this work; Nehemiah prepares and goes to Jerusalem, despite many obstacles and attempts at discouraging and dissuading him from doing the work by the local opponents of the Jews, he is able to complete the work of rebuilding the wall in record time of 52 days (Nehemiah 6:15), and he is also appointed as Governor by the King (Nehemiah 5:14). Even as Governor he shows his worshipping heart of glorifying God and giving to God (Nehemiah 5:14, 18; 7:70; 8:9-10). This simple, but God fearing, pious, and worshipping Jew, desirous of working for the Lord despite all the odd’s being against him, with God’s grace, wisdom, guidance and strength, could do it. From being a mere cup-bearer, he got authority over established officials, and eventually became the Governor; and even as Governor he continued to glorify God; and we have him as an example in the eternal, unchanging Word of God for all eternity.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Joshua 4-6
Luke 1:1-20
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Good morning sir 🙏
जवाब देंहटाएंNahemyah ka jevan hamare liye prernashrot h usake ishawar k liye dedication hame bhi prabhu k liye samarpit bhav hone k liye inspire karata h kyoki jab ham swarth se upar hoke bhale kaamo k liye khud ko prabhu k aage late h to prabhu bhi hamari ichhao ko samman dete h or use pura karane me hamari help karate h.