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आराधना के भौतिक लाभ (3)
पिछले कुछ लेखों से हम अध्ययन करते आ रहे हैं कि किस प्रकार से परमेश्वर की आराधना करने, अर्थात, उसे देने के द्वारा, आराधकों को लाभ मिलता है, न केवल आत्मिक, वरन भौतिक और शारीरिक भी। पिछले दो लेखों में हमने परमेश्वर के प्रतिबद्ध आराधकों - जो उसके समक्ष “प्रोसकूनियोस” करते हैं, उनको मिलने वाले भौतिक और शारीरिक लाभ मिलने के बारे में देखा था। हमने यह भी देखा था कि आराधना के फलस्वरूप भौतिक और शारीरिक लाभ मिलने का यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति अपनी आराधना के द्वारा परमेश्वर को बाध्य कर सकता है कि उसे कुछ विशेष वस्तुएं दी जाएँ। आज से हम बाइबल में से, आराधना के द्वारा मिलने वाले भौतिक और शारीरिक लाभों के कुछ उदाहरणों को देखना आरंभ करेंगे।
बाइबल में 2 इतिहास के 29 से 32 अध्याय, राजा हिजकिय्याह के बारे में हैं, जो कि परमेश्वर के भय में चलने तथा उसकी उपासना करने वाले इस्राएल के राजाओं में से एक था; किन्तु उसका पिता, राजा आहाज एक मूर्तिपूजक राजा था, जिसने कभी प्रभु परमेश्वर को कोई आदर नहीं दिया। हिजकिय्याह 25 वर्ष की आयु में राजा बना, और उसके लिए आरंभ से ही लिखा गया है कि उसने वही किया जो परमेश्वर की दृष्टि में सही था (2 इतिहास 29:1-2)। राजा हिजकिय्याह ने मंदिर में परमेश्वर की उपासना को फिर से स्थापित करवाया, लेवियों को फिर से उनके काम करने के लिए लगाया, परमेश्वर के पर्वों और विधियों को फिर से आरंभ करवाया, प्रजा के लोगों को परमेश्वर की आराधना में सम्मिलित करवाया, और मूर्तिपूजा के स्थानों को गिरा दिया। राजा हिजकिय्याह के राज्य में लोगों में एक बड़ी जागृति आई। उसने अपने उदाहरण के द्वारा लोगों का नेतृत्व किया, और मंदिर की दैनिक भेटों और बालियों के लिए अपने निज संपत्ति में से ठहरा दिया (2 इतिहास 31:3); फिर उसने प्रजा के लोगों से कहा कि वे याजकों और लेवियों की देखभाल करें, उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखें, तथा अपने आप को परमेश्वर को समर्पित करें (2 इतिहास 31:4)।
जब प्रजा के लोगों ने देखा कि उनका राजा व्यक्तिगत उदाहरण के साथ नेतृत्व कर रहा है, तो परमेश्वर के लोग परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पित हो गए, उन्होंने अपने आप को सुधारा, और फिर से अपने दशमांश और भेंटें मंदिर में लाने लग गए, जिससे याजकों तथा परमेश्वर के घर की आवश्यकताएं पूरी हो सकें। जब लोगों ने सच्चे मन से दशमांश और भेंटों को अर्पित करना आरंभ कर दिया, तो परमेश्वर ने उन्हें और भी अधिक, बहुतायत से आशीषित किया; इसलिए, वे फिर अपनी इस समृद्धि में से और भी अधिक लाने और देने वाले हो गए। और यह इतना अधिक हो गया कि याजकों तथा परमेश्वर के घर की आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के बाद भी सब कुछ बहुत अधिक मात्रा में बचा रहा, उसे रखने के लिए स्थान कम पड़ गया, उसे मंदिर में ही ढेर लगा कर छोड़ देना पड़ा। यह देखकर राजा हिजकिय्याह को दशमांश तथा भेंटों को रखने के लिए और स्थान बनाने का आदेश देना पड़ा (2 इतिहास 31:5-12)।
परमेश्वर ने उसे और प्रजा को बहुत आशीष दी, भौतिक तथा शारीरिक रीति से समृद्ध और संपन्न किया, उनकी कल्पना और अपेक्षा से कहीं अधिक बढ़कर। परमेश्वर के वचन में लिखा गया है, “और सारे यहूदा में भी हिजकिय्याह ने ऐसा ही प्रबन्ध किया, और जो कुछ उसके परमेश्वर यहोवा की दृष्टि में भला ओर ठीक और सच्चाई का था, उसे वह करता था। और जो जो काम उसने परमेश्वर के भवन की उपासना और व्यवस्था और आज्ञा के विषय अपने परमेश्वर की खोज में किया, वह उसने अपना सारा मन लगाकर किया और उस में कृतार्थ भी हुआ” (2 इतिहास 31:20-21)। लेकिन बाद में, जब इस्राएल फिर से परमेश्वर के मार्गों में चलने से भटक गया, तो गंभीर समस्याओं में भी आ गया, और परमेश्वर ने उन्हें स्मरण दिलाया, “सारे दशमांश भण्डार में ले आओ कि मेरे भवन में भोजन वस्तु रहे; और सेनाओं का यहोवा यह कहता है, कि ऐसा कर के मुझे परखो कि मैं आकाश के झरोखे तुम्हारे लिये खोल कर तुम्हारे ऊपर अपरम्पार आशीष की वर्षा करता हूं कि नहीं” (मलाकी 3:10)।
अगले लेख में हम एक और व्यक्ति के जीवन के उदाहरण से देखेंगे कि परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्यता और सच्चा समर्पण, और आराधना के साथ प्रार्थना करने के द्वारा भौतिक एवं शारीरिक वस्तुओं के अतिरिक्त कई प्रकार की आशीषें आती हैं, जैसे कि लोग और अधिकारी पक्ष में हो जाते हैं, तरक्की मिलती है, बौद्धिक और प्रशासनिक योग्यताएँ तथा अधिकार मिलते हैं, शैतानी युक्तियों और हमलों पर विजय मिलती है, अद्भुत कार्य करने की क्षमता मिलती है, आदि।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहोशू 1-3
मरकुस 16
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The Material Blessings of Worship (3)
For the past few articles, we have been studying about how worshipping God, i.e., giving to God, benefits the worshippers, not only spiritually but physically and materially as well. In the last two articles we have seen about the physical and material blessings for God’s committed worshippers, i.e., those who worship Him in spirit and in truth - those who “proskuneos” before Him. We have also seen that material and physical blessings coming from God because of worshipping Him does not mean that God can be manipulated into giving material things because of a person’s worship. We will now start looking at some Biblical examples of material and physical blessings through worship.
In 2 Chronicles, chapters 29 to 32 are about King Hezekiah, who was one of the godly kings of Israel, but his father, King Ahaz had been an idolatrous king who never respected the Lord God. Hezekiah became king of Israel at the age of 25, and from the very beginning it is written about him that he did what was right in the sight of God (2 Chronicles 29:1-2). King Hezekiah restored God’s worship in the Temple, had the Levites re-start doing their duties, restored the observance of the Feasts of the Lord, got the people of his kingdom involved in worshipping God, and destroyed places of idolatry. Under King Hezekiah came about a great reformation. He led by example, and gave for the daily Temple offerings and feasts from his personal possessions (2 Chronicles 31:3); he then asked the people of his kingdom to start supporting the priests and Levites and devote themselves to God (2 Chronicles 31:4).
When the people saw their king lead by example, God’s people submitted to God’s Word, corrected themselves, and once again started to bring in their tithes and offerings to the house of the Lord to meet the needs of the priests and of the house of God. As they faithfully brought in their tithes and offerings, God blessed them abundantly; so, they could bring in even more from their increase to the house of the Lord, and it was so much that even after the needs of the priests and of the house of God had been fully met, a great abundance was left over and laid in heaps in the house of the Lord, since there was no more room left to store it all. To accommodate this abundance of outpouring, king Hezekiah had to ask for more rooms to be built to store the tithes and offerings (2 Chronicles 31:5-12).
God blessed and prospered him and his people physically and materially in many ways, way beyond their imagination and expectation. It is written for him in God’s Word, “Thus Hezekiah did throughout all Judah, and he did what was good and right and true before the Lord his God. And in every work that he began in the service of the house of God, in the law and in the commandment, to seek his God, he did it with all his heart. So he prospered” (2 Chronicles 31:20-21). But later, as Israel once again deviated away from following the Lord and fell into serious problems, God reminded them: “Bring all the tithes into the storehouse, That there may be food in My house, And try Me now in this," Says the Lord of hosts, "If I will not open for you the windows of heaven And pour out for you such blessing That there will not be room enough to receive it” (Malachi 3:10).
In the next article we will see another example of how faithfulness towards God and combining prayer with worship leads to various kinds of blessings like getting favor, promotion, intellectual and administrative abilities, authority, victory over satanic influences and attacks, capabilities of doing extra-ordinary things, etc., besides the material blessings - all in the life of one person.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Joshua 1-3
Mark 16
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