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शुक्रवार, 19 मई 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न - 14b - Back Sliders - Part 2/ पीछे हटने वाले - भाग 2

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क्या विश्वास से भटकने अथवा पीछे हटने वाले स्वर्ग जाएँगे? - भाग (2)


    ऐसे भी अनेकों लोग हैं जो मसीही विश्वास में आने के पश्चातकिसी कारणवश विश्वास से भटक गएपरन्तु प्रभु ने अपने वायदे (इब्रानियों 13:5) के अनुसार, उन्हें कभी छोड़ा नहीं। देर-सवेर, किसी न किसी रीति से, प्रभु उन्हें फिर विश्वास में लौटा कर ले आयाऔर फिर वे बहुत सामर्थी होकर प्रभु के लिए इस्तेमाल हुएविश्वास में अपने लौट कर आने की गवाही के द्वारा वे अनेकों अन्य भटके हुए या कमज़ोर विश्वासियों के लिए प्रोत्साहन और हिम्मत का कारण बने। यदि आज के संदर्भ से देखें, तो जब प्रभु यीशु ने कलवारी के क्रूस पर समस्त सँसार के पापों का दण्ड अपने ऊपर लिया, उस समय तो हमारा कोई भौतिक अस्तित्व था ही नहीं। साथ ही बाइबल में कहीं यह नहीं लिखा है कि प्रभु ने लोगों के केवल उन ही पापों को अपने ऊपर लेकर उनके दण्ड को सहा जो लोगों ने प्रभु के पास आने – अर्थात, उद्धार पाने से पहले किए थे; और उन लोगों के उद्धार पाने के बाद के पापों का निवारण प्रभु ने उन लोगों के हाथों में, उनके द्वारा किए गए कर्मों पर छोड़ दिया – यह तो असंभव है – उद्धार का एक भाग परमेश्वर के अनुग्रह पर, और दूसरा भाग मनुष्यों के कर्मों के आधार पर कैसे हो सकता है? प्रभु ने तो प्रत्येक व्यक्ति के समस्त जीवन में किए गए समस्त पापों की पूरी-पूरी कीमत क्रूस पर पहले ही चुका दी है, चाहे इतिहास में उसका अस्तित्व कभी भी हो। प्रभु ने उसके पापों के दुष्परिणाम से उस व्यक्ति के अधूरे नहीं परन्तु संपूर्ण निवारण का मार्ग बना कर दे दिया है; अब किसी भी मनुष्य के लिए उद्धार का जीवन जीने के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहा है। जब व्यक्ति के जन्म से लेकर उसके मरण के समय तक के सभी पापों को प्रभु ने अपने ऊपर ले लिया, उनकी पूरी कीमत चुका दी, तो फिर उस व्यक्ति को स्वर्ग जाने से रोकने वाला कौन सा पाप बच गया? क्या उसके विश्वास से भटक जाने का पाप भी उसके जीवन के अन्य पापों में सम्मिलित नहीं है, जिसकी कीमत प्रभु द्वारा कलवारी के क्रूस पर चुकाई जा चुकी है? 

    और यदि यह मान लिया जाए कि व्यक्ति उद्धार पाने के बाद अपने जीवन की शुद्धता और पवित्रता, तथा निष्पाप रहने को अपने ही प्रयासों, कार्यों, और सामर्थ्य से बनाए रख सकता है, तो फिर वह यही कार्य उद्धार पाने से पहले भी कर सकता था – फिर तो प्रभु का आना न केवल व्यर्थ हो गया, वरन पापी, मरणहर मनुष्य, प्रभु परमेश्वर से भी बढ़कर हो गया! क्योंकि फिर तो मनुष्य मात्र अपने कर्मों से ही वह कर सकने की क्षमता रखता है जिसके लिए प्रभु को स्वर्ग छोड़कर धरती पर मनुष्य रूप में आना पड़ा, दुःख और अपमान सहना पड़ा, और अपनी जान देनी पड़ी – यह तो पूर्णतः असंगत और असंभव विचार है! फिर, ऐसा कौन सा उद्धार पाया हुआ व्यक्ति है जो सच्चे मन से कहा सकता है कि उद्धार पाने के बाद उससे कभी भी – शरीर, मन, ध्यान, विचार में, कोई भी पाप नहीं हुआ? प्रेरित यूहन्ना कहता है: “यदि हम कहेंकि हम में कुछ भी पाप नहींतो अपने आप को धोखा देते हैं: और हम में सत्य नहीं। यदि कहें कि हम ने पाप नहीं कियातो उसे झूठा ठहराते हैंऔर उसका वचन हम में नहीं है” (1 यूहन्ना 1:8, 10) – ध्यान कीजिए कि वह प्रेरित और उद्धार पाया हुआ होने के बावजूद, “हम” शब्द के प्रयोग द्वारा, अपने आप को भी पाप करने वालों में सम्मिलित कर रहा है। तो फिर अब विश्वास से भटके और न भटके हुए में क्या अन्तर रह गया? पाप विश्वास से भटकने वाले ने भी किया, और पाप उन्होंने भी किया है और करते हैं जो अभी भी विश्वास में बने हुए हैं – और क्योंकि पाप की मजदूरी मृत्यु है (रोमियों 6:23), इसलिए दोनों ही समान स्थिति में हैं, और दोनों ही अपने कैसे भी कार्यों या कर्मों के द्वारा अथवा उनके आधार पर नहीं वरन प्रभु के अनुग्रह, क्षमा, और प्रेम द्वारा ही परमेश्वर के सम्मुख धर्मी ठहरते हैं, और दोनों ही फिर स्वर्ग जाने के लिए प्रभु के अनुग्रह और क्षमा द्वारा ही स्वीकार्य माने जाते हैं।

    इसलिए ऐसे लोगों के लिए जो विश्वास से भटक गए हैं प्रार्थना करते रहना चाहिएन कि उनकी भर्त्सना करनी चाहिएऔर उनका विश्वास में लौट कर आना तथा प्रभु के लिए उपयोगी होना प्रभु के हाथों मेंउसके समय और योजना के अनुसारपूरा होने के लिए छोड़ देना चाहिए।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

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Will Back-Sliders go to Heaven? - Part (2)


    There are many such people who after coming into the Christian Faith, for some reason or the other, back-slid or fell away from the Faith, but the Lord in accordance with His promise (Hebrews 13:5) did not leave or forsake them. Sooner or later, through some way, Lord brought them back into the Faith, and subsequently they were used mightily for the Lord, and through their witness and example of returning back into the Faith they became a source of encouragement and courage to others who were weak in, or had fallen away from the Faith. If we look at it from our current context, then the time when the Lord Jesus had taken the penalty of the world’s sins upon Himself, at that time we had no physical existence. Also, nowhere is it written in the Bible that the Lord took upon Himself and suffered the penalty of only those sins of the people which they had committed before coming to the Lord – i.e., the sins they had committed before being saved; and the Lord has left the remedy of their sins committed after their being saved in their own hands, by virtue of their works – this is an impossibility – how can a part of salvation be dependent upon the grace of God, and the remaining part be based on the works of a person? 

    The Lord has paid in full, the penalty for all the sins of all the people committed in their entire life-time, at whatever time in the history of the world they have existed. He has made available not a just partial but the complete way out from the deadly consequences of every person's entire sin burden of their entire life-time; now there is nothing left for any person to accomplish by his own efforts to live a saved life. When the Lord has taken upon Himself all the sins of every person, from their birth to their death, has paid in full for them, then which sin is left that will hinder the person from entering heaven? Is his sin of back-sliding or falling away from the Faith not a part of the sins of his lifetime, the price for which has already been paid in full by the Lord? 

    And if, supposing, having been cleansed on being saved, a person is able to maintain his life pure and sinless by his own efforts, works, and abilities, then he could have done the same before being saved as well – then the Lord's coming has been in vain; rather, the sinful, mortal man, actually has become greater than the Lord God! Since if this were possible, then man merely by his works, can accomplish that for which the Lord had to leave heaven and come down as a man to earth, suffer ignominy and tortureand had to sacrifice His life – this is an absolutely inconsistent and impossible contention! Moreover, which saved person can in all honesty say that since salvation, he has never – physically, mentally, or in thoughts, ever committed any sin? The Apostle John says: “If we say that we have no sin, we deceive ourselves, and the truth is not in us. If we say that we have not sinned, we make Him a liar, and His word is not in us.” (1 John 1:8, 10) – take note that though he was a saved person and an Apostle, yet, through the use of the word "we" he is including himself amongst the sinners referred to in this verse. Therefore what difference if any is left between those who have back-slid or fallen away from the Faith, and those who haven't? The one falling away has also sinned, and those who are still in the Faith, they too have sinned or do sin – and since the wages of sin is death (Romans 6:23), therefore both of them are in a similar situation, and both are justified before God not by their works of any kind, but solely by the grace, forgiveness, and love of God, and both are made acceptable for entry into heaven through the grace and forgiveness of God.

    Therefore for those who have back-slid or fallen away from faith, instead of criticizing and condemning them, we should pray for them; and we should leave their returning back into the Faith and being useful for the Lord in the hands of the Lord, to be accomplished according to the time and plan of God.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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