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बाईबल में कहाँ लिखा है कि चर्च जाना चाहिए?
प्रश्न:
कुछ लोग चर्च ना जाकर कहते हैं यह ज़रूरी नहीं है कि हम चर्च जाएँ; हम घर में YouTube से या इंटरनेट के माध्यम से वचन का कोई प्रचार सुन लेते हैं और अपनी प्रार्थना कर लेते हैं। चर्च जाने के स्थान पर क्या केवल यह कर लेना सही है?
उत्तर:
इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए यह समझना अत्यावश्यक है कि बाइबल के अनुसार “चर्च” क्या है। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद चर्च हुआ है वह है एक्क्लेसीया, जिसे हिन्दी में कलीसिया भी कहा जाता है। बाइबल के अनुसार चर्च या कलीसिया कोई भवन अथवा ईंट-पत्थर का बना भौतिक स्थान नहीं है, वरन परमेश्वर के परिवार के लोगों का समूह है (1 तिमुथियुस 3:15), परमेश्वर के निवास के लिए उसका घर है (इफिसियों 2:22)। बाइबल के अनुसार कलीसिया की परिभाषा है: “परमेश्वर की उस कलीसिया के नाम जो कुरिन्थुस में है, अर्थात उन के नाम जो मसीह यीशु में पवित्र किए गए, और पवित्र होने के लिये बुलाए गए हैं; और उन सब के नाम भी जो हर जगह हमारे और अपने प्रभु यीशु मसीह के नाम की प्रार्थना करते हैं” (1 कुरिन्थियों 1:2)।
प्रारंभिक कलीसिया की स्थापना के समय में मसीही विश्वासी एक साथ नियमित रीति से एकत्रित हुआ करते थे, और उनके एकत्रित होने के उद्देश्य थे: “और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने, और संगति रखने में और रोटी तोड़ने में और प्रार्थना करने में लौलीन रहे” (प्रेरितों 2:42)। तब वे ऐसा मंदिर में या घर-घर प्रतिदिन किया करते थे, और उद्धार पाए हुओं को प्रभु स्वयँ अपनी कलीसिया में मिला देता था “और वे प्रति दिन एक मन हो कर मन्दिर में इकट्ठे होते थे, और घर घर रोटी तोड़ते हुए आनन्द और मन की सीधाई से भोजन किया करते थे। और परमेश्वर की स्तुति करते थे, और सब लोग उन से प्रसन्न थे: और जो उद्धार पाते थे, उन को प्रभु प्रति दिन उन में मिला देता था” (प्रेरितों 2:46-47)। अर्थात कलीसिया के लोगों का एक साथ एकत्रित होना एक दैनिक क्रिया थी, जिसका उद्देश्य वचन की शिक्षा पाना, परस्पर संगति रखना, साथ मिलकर प्रार्थना करना, प्रभु भोज में सम्मिलित होना, और प्रभु की स्तुति और आराधना करना होता था – वे लोग इन बातों में “लौलीन रहते थे” अर्थात उनके द्वारा ऐसे एकत्रित होना और यह सब करना बड़ी गंभीरता से लिया और किया जाता था, इसका उनके जीवनों में बहुत महत्व था।
जहाँ-जहाँ प्रभु यीशु मसीह में विश्वास द्वारा पापों की क्षमा और उद्धार का सुसमाचार गया, और लोगों ने इस सुसमाचार को स्वीकार किया, प्रभु के वचन और जीवन को अपने जीवन में अपनाया, वहाँ यही बात भी अपनाई गई, और लोगों के घरों में कलीसियाएं एकत्रित होने लगीं (रोमियों 16:5; 1 कुरिन्थियों 16:19; कुलुस्सियों 4:15; फिल्मोन 1:2)। अर्थात, मसीही विश्वासी के लिए इस प्रकार संगति में एकत्रित होना प्रभु की ओर से निर्धारित और आवश्यक है, प्रभु की इच्छा के अनुसार है। इब्रानियों की पत्री में हम प्रभु की ओर से निर्देश पाते हैं कि प्रभु के आने का समय जैसे-जैसे निकट आता जाए, मसीही विश्वासियों का एकत्रित होना कम न हो वरन और भी अधिक बढ़ता जाए: “और एक दूसरे के साथ इकट्ठा होना ने छोड़ें, जैसे कि कितनों की रीति है, पर एक दूसरे को समझाते रहें; और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो, त्यों त्यों और भी अधिक यह किया करो” (इब्रानियों 10:25)।
इसलिए चर्च जाना कोई रस्म या परंपरा या औपचारिकता नहीं है जिसका निर्वाह ऐसे नहीं तो वैसे कर के समझ लें कि हो गया। वरन यह प्रभु के निवासस्थान में, प्रभु की उपस्थिति में आना है जिससे कि उसकी निकटता में बढ़ने, उसके वचन को सीखने, उसके परिवार का सदस्य होने के नाते उस आत्मिक परिवार के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह किया जा सके; यह इस आत्मिक परिवार के अन्य सदस्यों की सुधि रखने तथा उनके साथ मिलकर रहने-बढ़ने का माध्यम है, तथा मसीही विश्वासी की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी के लिए आवश्यक और अनिवार्य है।
चर्च समझे जाने वाले ईंट-पत्थर के भवन में किसी भी व्यक्ति के आने और अपने उपस्थिति दर्ज करवाने की औपचारिकता निभाने से परमेश्वर को कोई सरोकार नहीं है, क्योंकि वह औपचारिकता के कर्मों तथा परंपराओं के निर्वाह से नहीं वरन अपनी आज्ञाकारिता से प्रसन्न होता है (1 शमूएल 15:22-23; अय्यूब 35:7; यशायाह 1:11-20; मलाकी 1:10), और जैसा ऊपर इब्रानियों 10:25 द्वारा दिखाया गया है, मसीही विश्वासियों का परस्पर अधिकाधिक संगति रखना प्रभु की आज्ञा है। घर में यू ट्यूब पर वचन सुन लेना और प्रार्थना कर लेना औपचारिकता का निर्वाह करना तो हो सकता है, किन्तु परस्पर संगति रखने की आज्ञा का निर्वाह कदापि नहीं हो सकता है। साथ ही जैसा प्रेरितों 2:42 में कहा गया है, मसीही विश्वासियों के लिए साथ मिलकर “रोटी तोड़ना” अर्थात पाक-अशा या प्रभु भोज में सम्मिलित होना भी घर बैठकर इंटरनेट या यू ट्यूब के माध्यम से संभव नहीं है।
इसलिए चर्च जाना कोई रस्म या परंपरा या औपचारिकता नहीं है, वरन प्रभु की निकटता में बढ़ने, उसके वचन को सीखने, उसके परिवार का सदस्य होने के नाते उस परिवार के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने, और अपने इस आत्मिक परिवार के अन्य सदस्यों की सुधि रखने तथा उनके साथ मिलकर रहने-बढ़ने का माध्यम है, मसीही विश्वासी की आत्मिक उन्नति और बढ़ोतरी के लिए आवश्यक और अनिवार्य है। इसलिए चर्च या प्रभु के घर में आना प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए और उसे उन अवसरों के लिए लालायित रहना चाहिए जब वह प्रभु के घर में जाकर प्रभु और उसकी अन्य संतानों के साथ संगति कर सके (भजन 84:1-2, 10; 122:1)। किन्तु जो केवल ‘ईसाई धर्म’ के निर्वाह की सोचते हैं, वे प्रभु की आज्ञाओं के प्रति गंभीर और संवेदनशील नहीं होते हैं, वे तो बस ‘धर्म’ की परंपराओं और औपचारिकताओं का निर्वाह मात्र करने में रुचि रखते हैं, और उसके लिए अपनी धारणाएँ बना लेते हैं और उन्हीं में फंसे रहते हैं – जो कि गलत है, बाइबल के अनुसार स्वीकार्य नहीं है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Where does it say in the Bible that one has to go to the Church?
Question:
Some people say that it is not necessary that we have to go to the Church; we listen to a message from God’s Word from You Tube or some other facility available on the Internet and say our prayers while at home. Instead of going to Church, is doing only this much correct?
Answer:
To understand the answer to this question it is essential that we understand the meaning of the word “Church” according to the Bible. The word from the original Greek language translated as Church is ecclesia. According to the Bible the Church is not a physical building made of bricks and stones, but a gathering of the people of God’s household (1 Timothy 3:15), it is the dwelling place of God (Ephesians 2:22). The definition of the Church as given in the Bible is: “To the church of God which is at Corinth, to those who are sanctified in Christ Jesus, called to be saints, with all who in every place call on the name of Jesus Christ our Lord, both theirs and ours” (1 Corinthians 1:2).
At the time of the establishing of the first Church the Christian Believers regularly daily gathered together, and the purposes of their gathering together were: “And they continued steadfastly in the apostles' doctrine and fellowship, in the breaking of bread, and in prayers” (Acts 2:42). At that time they did this either in the place of worship or in house-holds, and it was the Lord who joined those who were saved into His Church “So continuing daily with one accord in the temple, and breaking bread from house to house, they ate their food with gladness and simplicity of heart, praising God and having favor with all the people. And the Lord added to the church daily those who were being saved” (Acts 2:46-47). In other words, the gathering together of the members of the ecclesia was a daily event, and its purpose was to learn the Word of God, to Fellowship together, to Pray together, to participate in the Holy Communion together, and to Worship the Lord together – and they “continued steadfastly” in this, i.e. their gathering together like this was taken very seriously, and had a great importance in their lives.
Wherever the Gospel of salvation through faith in the Lord Jesus went, and the people accepted this Gospel, and they incorporated the Word and life of the Lord into their own lives, there this gathering together was also accepted and emulated, and Churches started to gather in the houses of the Christian Believers (Romans 16:5; 1 Corinthians 16:19; Colossians 4:15; Philemon 1:2). Therefore, it is apparent that for a Christian Believer it was expected and necessary to gather together in this manner, as something according to and in the will of the Lord. In the Epistle to the Hebrews we find another instruction from the Lord about this that as the second coming of the Lord approaches, the gathering together of the Christian Believers should not diminish but increase even more: “not forsaking the assembling of ourselves together, as is the manner of some, but exhorting one another, and so much the more as you see the Day approaching” (Hebrews 10:25).
Hence going to the Church is not a ritual or a formality that can be fulfilled this way or another and considered as accomplished. But this is gathering in the House of God, it is coming into the presence of God so that we may increase in His nearness, learn of His Word, and being members of God’s spiritual household we need to fulfill our part and responsibility towards God’s family; and by doing so we get the opportunity to learn about and take care of the other members of our spiritual family and grow together with them, and it is also essential to ensure the spiritual growth and progress of a Christian Believer.
The Lord is not in the least interested in every person who comes in and records his or her presence in the physical building made of bricks and stones, called as the Church, because He is not pleased with fulfilling of formalities and rituals but by obedience to Him (1 Samuel 15:22-23; Job 35:7; Isaiah 1:11-20; Malachi 1:10), and as shown from Hebrews 10:25 above, it is the Lord’s command that Christian Believers gather together more and more. Listening to a message on the You Tube and saying prayers may fulfill a formality or a ritual, but can never be seen or accepted as fellowshipping with other Believers. And, as is stated in Acts 2:42 it is not possible for Christian Believers to gather together for the “breaking of bread” i.e. participating in the Holy Communion through the You Tube.
Therefore going to Church is not a ritual or formality, rather, because of growing in the nearness of the Lord, of learning His Word, of being a member of His family it is a way of fulfilling our responsibilities towards our spiritual family, a means of knowing, learning about and taking care of the members of our spiritual family, it is essential for the spiritual growth and progress of of a Christian Believer. Therefore it should be a priority for every Christian Believer to come to Church or the House of God and they should eagerly look forward to the opportunities to be in the House of God and fellowship with the other children of God (Psalms 84:1-2, 10; 122:1). But those who only think and care about fulfilling the requirements of the christian ‘religion’, they are not serious and sensitive towards the instructions and commandments of God, rather they are only interested in fulfilling the rituals and formalities of a ‘religion’, for which they have made their own concepts and remain entangled only in them – which Biblically is wrong, and unacceptable.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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