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परमेश्वर अपने बच्चों के लिए भौतिक समृद्धि किस प्रकार प्रदान करता है?
परमेश्वर के वचन बाइबल में आरंभ से ही जीविका के लिए कार्य करना सिखाया गया है। परमेश्वर ने आदम को बनाया, उसी के लिए अदन की वाटिका लगाई, परन्तु उस वाटिका की देखभाल करने का कार्य आदम को सौंपा (उत्पत्ति 2:8, 15)। इस्राएल ने भी, वाचा की भूमि कनान की जंगल की यात्रा के दौरान, यद्यपि उन चालीस वर्षों में कुछ बोया या काटा नहीं, परन्तु उन्हें प्रति प्रातः उठकर अपने लिए मन्ना एकत्रित करने के लिए परिश्रम करना होता था; यदि वे ऐसा नहीं करते, तो दिन चढ़ने के साथ वह मन्ना जाता रहता था (निर्गमन 16:21)। कनान में पहुँचने का बाद भी, उन्हें उस स्थान को अपना बनाने के लिए युद्ध लड़ने पड़े, और उस उपजाऊ भूमि के लाभ अर्जित करने के लिए उसमें खेती और काम करना पड़ा। इस्राएल के शत्रुओं को पराजित करने के लिए जब परमेश्वर ने उनकी ओर से युद्ध किए तब भी, उन्हें जाकर युद्ध भूमि में पाँति बांधकर उपस्थित होना था (2 इतिहास 20:14-17), और उसके बाद युद्ध की लूट को एकत्रित करने के लिए जाना था (2 इतिहास 20:25)। परमेश्वर के किसी भी जन को आराम से घर बैठने के द्वारा कभी कुछ नहीं मिला, और आलसी होकर बिना कार्य किए परमेश्वर द्वारा उनकी जेबें भरने की प्रतीक्षा करने से भी किसी को कुछ प्राप्त नहीं हुआ है, वह चाहे आत्मिक आशीष हो या भौतिक; उन्हें सदा ही अपनी जीविका कमाने और परिवारों की देखभाल करने के लिए परिश्रम करना पड़ा है – यह हमारे आदि माता-पिता द्वारा किए गए प्रथम पाप की विरासत "और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा " (उत्पत्ति 3:19) का निर्वाह है। स्वयँ प्रभु यीशु मसीह ने भी अपनी सेवकाई आरंभ करने से पहले बढ़ई का कार्य किया था (मरकुस 6:3)। परमेश्वर के पवित्र आत्मा ने हमारे लिए अपने वचन में दर्ज करवा दिया है: " क्योंकि तुम आप जानते हो, कि किस रीति से हमारी सी चाल चलनी चाहिए; क्योंकि हम तुम्हारे बीच में अनुचित चाल न चले। और किसी की रोटी सेंत में न खाई; पर परिश्रम और कष्ट से रात दिन काम धन्धा करते थे, कि तुम में से किसी पर भार न हो। यह नहीं, कि हमें अधिकार नहीं; पर इसलिये कि अपने आप को तुम्हारे लिये आदर्श ठहराएं, कि तुम हमारी सी चाल चलो। और जब हम तुम्हारे यहां थे, तब भी यह आज्ञा तुम्हें देते थे, कि यदि कोई काम करना न चाहे, तो खाने भी न पाए। हम सुनते हैं, कि कितने लोग तुम्हारे बीच में अनुचित चाल चलते हैं; और कुछ काम नहीं करते, पर औरों के काम में हाथ डाला करते हैं। ऐसों को हम प्रभु यीशु मसीह में आज्ञा देते और समझाते हैं, कि चुपचाप काम कर के अपनी ही रोटी खाया करें।” (2 थिस्सलुनीकियों 3: 7-12)। पौलुस और उसके साथी, यद्यपि उनका प्राथमिक कार्य परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार और प्रसार था, फिर भी वे अपनी जीविका तथा औरों की सहायता के लिए कमाने के लिए परिश्रम करते थे (1 थिस्सलुनीकियों 2:7-10), और यही सभी को भी करना चाहिए। परमेश्वर के वचन में, कार्य करने वालों को निर्देश दिया गया है कि वे विश्वासयोग्यता से कार्य करें, यह मानकर कि वे मनुष्यों के लिए नहीं परन्तु परमेश्वर के लिए कर रहे हैं, और परमेश्वर ही उन्हें उसका प्रतिफल देगा (कुलुस्सियों 3:22-25; 1 पतरस 2:18-21)। इसलिए समृद्ध होने के लिए सबसे पहली बात जो मसीही विश्वासी को पूरी करनी है वह है एक सत्यनिष्ठ, ईमानदार, और उद्यमी व्यक्ति होना, उसे सौंपे गए कार्यों एवं दायित्वों का निर्वाह अपने विश्वास, और अपने प्रभु की गवाही के लिए करना और उससे अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह की महिमा करना (1 पतरस 2:12) यह भरोसा रखते हुए कि परमेश्वर उसकी निष्ठा और उद्यम का उचित प्रतिफल, अपने समय और विधि से अवश्य देगा।
दूसरे, जैसा कि पौलुस के जीवन से प्रगट है, अपने सांसारिक कार्यों के अतिरिक्त, हमें परमेश्वर के कार्यों के लिए भी समय और अवसर के खोजी रहना है, ऐसा करना अति आवश्यक है। उसकी प्रत्येक नया जन्म पाई सन्तान के लिए, परमेश्वर ने पहले से ही करने के लिए कुछ-न-कुछ निर्धारित करके रखा हुआ है (इफिसियों 2:10), और उसके अनुसार उन्हें आवश्यक वरदान भी प्रदान किए हैं। इसके लिए वह उपयुक्त अवसर हमारी ओर भेजता है, जिससे परमेश्वर द्वारा निर्धारित हमारी सेवाकाईयों का हम निर्वाह कर सकें। यदि हम जो कार्य परमेश्वर चाहता है कि हम करें, उसके प्रति निश्चित नहीं हैं, तो हमें परमेश्वर से इसके विषय और जानकारी लेने के लिए प्रार्थना में समय बिताना चाहिए। हमारी सेवकाई के कार्यों के लिए परमेश्वर की इच्छा जानने का एक संकेत हमारे पास आने वाली सेवकाई के प्रकार के अवसर हो सकते हैं, या वह सेवकाई जो हमें रुचिकर लगती है, या वह जिसे हम देखते हैं कि बहुधा लोग हमें सौंपते हैं। हमें अपने आप को परमेश्वर की सेवकाई के लिए परमेश्वर को, हमारी मण्डली या कलीसिया को, और हमारी संगति को, उपलब्ध करना चाहिए, और हमें परमेश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए कि वह हमें उन दायित्वों में लेकर चले जो वह चाहता है कि हम निभाएं। 3 यूहन्ना 1:2 में लिखा है: “हे प्रिय, मेरी यह प्रार्थना है; कि जैसे तू आत्मिक उन्नति कर रहा है, वैसे ही तू सब बातों मे उन्नति करे, और भला चंगा रहे।” दूसरे शब्दों में, परमेश्वर की कार्यविधि के अनुसार, हमारी भौतिक समृद्धि, हमारी आत्मिक समृद्धि के साथ जुड़ी हुई है। जैसे जैसे हम आत्मिक रीति से समृद्ध होते जाते हैं, हम भौतिक रीति से भी समृद्ध होते जाते हैं। हम जब परमेश्वर के कार्यों के प्रति सजग और उद्यमी होते हैं, परमेश्वर हमारी तथा हमारे परिवारों की देखभाल के प्रति कार्यरत होता है।
तीसरा, हमारे पास अभी जो भी आमदनी है, हमें जो भी मिलता है, वह चाहे कितना भी कम या अधिक हो, हमें उसमें से अपना दशमांश अवश्य देना चाहिए। परमेश्वर ने दशमांश देने के लिए कभी किसी न्यूनतम आय सीमा को निर्धारित नहीं किया, जिसे जो भी मिलता था, उसे उतने में से ही दशमांश देना था। हम परमेश्वर को जितना अधिक देंगे, परमेश्वर उसके अनुपात में उतना अधिक हमें लौटा कर देगा। हम जो भी कमाते हैं, चाहे थोड़ा या बहुत, हमें उसमें से नियमित और ईमानदारी से दशमांश निकालकर चर्च या मण्डली में दे देना चाहिए, न कि उसे अपनी इच्छा अथवा समझ के अनुसार परमेश्वर के नाम में कहीं खर्च कर देना चाहिए। जैसा कि मलाकी 3:10 में लिखा है, हमें उसे परमेश्वर के भवन में लाना और देना है; इसके बाद ही शेष भाग को अपनी आवश्यकताओं के लिए प्रयोग करना चाहिए; और हम स्वयं देखेंगे कि परमेश्वर इसके द्वारा हमें कैसे आशीषित करता है। इस बात का बहुत अच्छा उदाहरण कि कैसे परमेश्वर दशमांश देने के उसके वचन पर विश्वास और पालन करने वालों को आशीषित करता है विलियम कोलगेट का जीवन है, जो विश्वप्रसिद्ध कोलगेट टूथपेस्ट बनाने वाली कंपनी का संस्थापक था: (https://en.wikipedia.org/wiki/William_Colgate)। इसलिए, हमें शैतान को हमारे मनों में यह भय नहीं उत्पन्न करने देना चाहिए कि हम दशमांश देना आर्थिक रीति से बर्दाशत नहीं करने पाएँगे, क्योंकि इस भय के पालन के द्वारा वह हमारी आशीषें हम से चुरा लेता है; वरन, हमें परमेश्वर और उसके वचन पर भरोसा रखते हुए नियमित दशमांश देना चाहिए। बिना पहले बीज बोए कोई भी फसल नहीं काट सकता है; हमारी आशीषों की फसल के लिए हमारे दशमांश ही वे बोया गया बीज हैं – बोए गए बीज की गुणवत्ता और मात्रा ही मिलने वाली फसल की मात्रा और गुणवत्ता को निर्धारित करती है।
चौथा, हमें परमेश्वर से प्रार्थना करना और जानना चाहिए कि अपने रोज़गार को और उन्नत बनाने के लिए क्या हमें और अध्ययन या प्रशिक्षण लेना चाहिए कि नहीं। आजकल इंटरनेट के माध्यम से अध्ययन, प्रशिक्षण तथा कार्य करने के अनेकों साधन और अवसर उपलब्ध हैं, जिनका हम सदुपयोग कर सकते हैं, जिससे हम कमा भी सकते, और साथ ही अपने कार्य तथा अपनी आय को बढ़ा भी सकते हैं।
यह सब परमेश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन में करने के द्वारा, हम पाएँगे कि किसी प्रकार से हमें यह सब करने के लिए पर्याप्त समय भी मिलेगा, और इसके लिए आवश्यक सामर्थ्य तथा बुद्धिमता भी, जिससे हम न केवल अपना वर्तमान सांसारिक कार्य भी भली भांति करने पाएंगे वरन परमेश्वर के लिए भी उपयोगी रहेंगे, अपने परिवारों की देखभाल भी करने पाएँगे, और आवश्यक अध्ययन या प्रशिक्षण के द्वारा अपनी आय की वृद्धि के लिए व्संसाधन भी जुटा भी सकेंगे। जब यह सब परमेश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन में किया जाएगा, तो इन सभी दायित्वों के योग्य निर्वाह के संघर्ष में विजय दिलवाना परमेश्वर का दायित्व होगा; और हमें बस अपने आप को उस युद्ध भूमि में खड़े होकर परमेश्वर के कार्य को देखना होगा और फिर जाकर आशीष को एकत्रित करना होगा।
कठिन समयों में सान्तवना तथा प्रोत्साहन के लिए बाइबल का एक बहुत अच्छा खण्ड है यशायाह 40:27-31 “हे याकूब, तू क्यों कहता है, हे इस्राएल तू क्यों बोलता है, मेरा मार्ग यहोवा से छिपा हुआ है, मेरा परमेश्वर मेरे न्याय की कुछ चिन्ता नहीं करता? क्या तुम नहीं जानते? क्या तुम ने नहीं सुना? यहोवा जो सनातन परमेश्वर और पृथ्वी भर का सृजनहार है, वह न थकता, न श्रमित होता है, उसकी बुद्धि अगम है। वह थके हुए को बल देता है और शक्तिहीन को बहुत सामर्थ देता है। तरूण तो थकते और श्रमित हो जाते हैं, और जवान ठोकर खाकर गिरते हैं; परन्तु जो यहोवा की बाट जोहते हैं, वे नया बल प्राप्त करते जाएंगे, वे उकाबों के समान उड़ेंगे, वे दौड़ेंगे और श्रमित न होंगे, चलेंगे और थकित न होंगे।”
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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How does God provide material prosperity for His children?
The concept of working for a living has been there since the very beginning in God’s Word the Bible. God made Adam, planted the Garden of Eden for him, but gave him the responsibility of working in it and maintaining it (Genesis 2:8, 15). Even Israel, in their wilderness journey to the promised land of Canaan, although they did not sow or reap any harvest during the forty years journey, yet they had to labor every morning to gather their quota of manna; if they failed to do so, it was gone as the day progressed (Exodus 16:21). Once in Canaan, they had to fight to possess the land, and then to cultivate it to receive it's benefits. Even when God fought for Israel to defeat their enemies, they still had to go and position themselves in the battle ground (2 Chronicles 20:14-17), and only then go and gather the loot for themselves (2 Chronicles 20:25). None of Gods people got anything by sitting back at home, or taking it easy and just waiting for God to fill in their pockets, with whether spiritual or physical blessings; they always had to work for their living and maintaining their families - a fulfillment of the legacy "In the sweat of your face you shall eat bread" (Genesis 3:19) of the first sin our fore-parents committed. Even the Lord Jesus worked as a carpenter (Mark 6:3) till the time He began His ministry. The Holy Spirit, through the Apostle Paul has laid it down in Gods Word for us: "For you yourselves know how you ought to follow us, for we were not disorderly among you; nor did we eat anyone's bread free of charge, but worked with labor and toil night and day, that we might not be a burden to any of you, not because we do not have authority, but to make ourselves an example of how you should follow us. For even when we were with you, we commanded you this: If anyone will not work, neither shall he eat. For we hear that there are some who walk among you in a disorderly manner, not working at all, but are busybodies. Now those who are such we command and exhort through our Lord Jesus Christ that they work in quietness and eat their own bread” (2 Thessalonians 3: 7-12). Paul and his companions, although primarily engaged in Gods ministry of spreading the gospel, also worked for a living and for helping others (1 Thessalonians 2:7-10), and so should everybody else. Workers are exhorted in the Word of God to faithfully do their work, as to the Lord and not to men, and God will reward them for it (Colossians 3:22-25; 1 Peter 2:18-21). Hence, the first thing for a Believer to do to be prosperous is to be a sincere, honest, hardworking person, fulfilling his assigned responsibilities so as to be a witness for his faith, for his Lord, and to glorify the savior Lord Jesus Christ (1 Peter 2:12) through his work, trusting God to reward his sincerity and hard-work, in God's own time and manner.
Secondly, as is evident from the life of Paul, besides the secular work, we should always be determined to find time and opportunity to engage in God's Work as well – it is of paramount importance. God has already determined something or the other to be done by everyone one of His Born Again children (Ephesians 2:10), and has accordingly given us the required gifts. He sends opportunities our way, appropriate to our God ordained ministries, for us to fulfill. If we are not aware or sure of the work God wants us to do for Him, then we should spend time in praying and inquiring from God about it. An indicator of God's desire for us can be the various spiritual activity opportunities that either often come our way, or we find interesting to do, or others often entrust us with. We should make ourselves available to God, to our Church, and to our fellowship, and should ask God to lead us into the things that He wants us to do. It says in 3 John 1:2 “Beloved, I pray that you may prosper in all things and be in health, just as your soul prospers”. In other words, our physical prosperity, in Gods scheme of things, is linked to our spiritual prosperity. As we prosper spiritually, we will also prosper physically. When we take care of God's work, God takes care of us and our family.
Thirdly, we should make it a point to tithe from whatever little we presently have or get. God never set a lower or minimum limit to earnings for tithing. The more we give to God, God returns even more back to us. From whatever we earn, little or much, we should faithfully and regularly tithe and give our tithe portion into the Church, without spending it in the name of God according to our own fancy. We ought to bring and put it into the house of God as it says in Malachi 3:10; only then should we use the rest for our needs; and we will see for ourselves how God blesses us for it. A very good example of how God blesses those who trust Him for His Word of blessing through tithing is the life of William Colgate, the founder of the world famous Colgate toothpaste: (https://en.wikipedia.org/wiki/William_Colgate). Therefore we should not let Satan create an apprehension or fear in our mind about not being able to afford tithing and cheat us out of our blessings; rather, we should trust God and do it regularly. No one can reap a harvest, without first sowing some seed; our tithe is the seed sown for our harvest - the quality and quantity of the seed sown determines the quality and quantity of the harvest we will receive.
Fourthly, we ought to pray to God and ask for His will about studying/training further and thereby improving our job opportunities. Now-a-days there are many online courses and part-time or on-the-job study opportunities, which we can make use of, so as to be earning, as well as improving our work and salary prospects.
By doing these in the guidance and will of God, we will find that somehow we will be able to find the time, strength and wisdom to not only do our present job well, but also do God's work, look after our family, and also study for improving our prospects and do well in the further studies/training. When done in the will and guidance of God, the battle to balance these responsibilities will not be ours but the Lords; we will only have to position ourselves in the battlefield, and then go in to gather the spoils.
A great portion from Gods Word for encouragement in trying times is Isaiah 40:27-31 “Why do you say, O Jacob, And speak, O Israel: "My way is hidden from the Lord, And my just claim is passed over by my God"? Have you not known? Have you not heard? The everlasting God, the Lord, The Creator of the ends of the earth, neither faints nor is weary. His understanding is unsearchable. He gives power to the weak, And to those who have no might He increases strength. Even the youths shall faint and be weary, And the young men shall utterly fall, But those who wait on the Lord Shall renew their strength; They shall mount up with wings like eagles, They shall run and not be weary, They shall walk and not faint” and I encourage you to claim it for yourself.”
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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