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सोमवार, 7 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 26 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 17

 

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 17

पापों के समाधान के लिए परमेश्वर की विधि – व्यवस्था पालन नहीं पश्चाताप करना (भाग 2)

    पिछले लेख में हमने देखा था कि उद्धार पाया हुआ व्यक्ति भी, जब भी परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं के बाहर निकलता है, परमेश्वर का अनाज्ञाकारी होता है, तो वह शैतान को उसे पाप में गिरा देने का अवसर प्रदान करता है; और शैतान इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाता है, उद्धार पाए हुए को भी पाप में गिरा देता है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि पाप में गिरे हुए उद्धार पाए हुए व्यक्ति के लिए भी परमेश्वर द्वारा वही, एक ही समाधान दिया गया है – पापों का अंगीकार करना, उनके लिए पश्चाताप कर लेना, और बहाल हो जाना (1 यूहन्ना 1:9)।


    इसका यह अर्थ नहीं है कि उद्धार पाए हुए व्यक्ति को परमेश्वर ने पाप करते रहने का लाइसेंस दे दिया है, जैसा बहुत से लोग इस बात को लेकर कहते हैं। यह हमारा विषय नहीं है, बहुत संक्षेप में, बाइबल स्पष्ट सिखाती है कि यद्यपि पाप करने से उद्धार तो नहीं जाता है, किन्तु पाप करने के लिए ताड़ना अवश्य होती है (1 कुरिन्थियों 11:31-32; इब्रानियों 12:5-10)। साथ ही, पाप हमारे अनन्तकाल के प्रतिफलों की भी हानि करता है; ऐसे बहुत से लोग होंगे जो अनन्तकाल में प्रवेश तो करेंगे, किन्तु खाली हाथ करेंगे, और फिर खाली हाथ ही रहेंगे (1 कुरिन्थियों 3:13-15)। इसलिए उद्धार पाने के बाद लापरवाही करना और पाप करना कोई हल्की बात नहीं है, उसका बहुत भारी दुष्परिणाम है; उद्धार पाया हुआ व्यक्ति पाप करके हल्के में नहीं छूट जाता है।  


    इसलिए यह प्रकट है कि हम उद्धार पाए हुए लोगों के लिए भी पापों के समाधान, उनके दुष्परिणामों से बचने का वही मार्ग है, जो उद्धार न पाए हुए लोगों के लिए है - पापों का अंगीकार करके, उनके लिए पश्चाताप करना। ध्यान दीजिए, एक बार फिर, यहाँ पर भी परमेश्वर ने इस समाधान के लिए अपनी व्यवस्था का पालन करने की कोई बात नहीं कही; और न ही शैतान ने प्रभु के लोगों पर व्यवस्था का उल्लंघन या पालन न करने का दोष लगाया। अर्थ स्पष्ट है, चाहे उद्धार पाया हुआ व्यक्ति हो, अथवा उद्धार नहीं पाया हुआ हो, परमेश्वर के मानक, कार्यविधि, समाधान बदलते नहीं हैं; सभी के लिए एक ही हैं, सभी के लिए समान ही हैं। और परमेश्वर दोनों के प्रति धैर्य रखता है, पर्याप्त समय देता है, क्रोध और न्याय करने में यथासंभव विलंब करता है (2 पतरस 3:9)।


    यह देखने और समझने के बाद कि संसार के हर मनुष्य के लिए, चाहे वह स्वाभाविक और अपरिवर्तित हो, या उद्धार पाया हुआ हो, उसके पापों का समाधान केवल और केवल उसके द्वारा अपने पापों के पश्चाताप के द्वारा है, व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, अब हमारे लिए प्रेरितों 17:30 के दूसरे भाग “... अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” को समझना आसान हो जाता है। जब पश्चाताप करने और मन फिराने के अलावा और कोई मार्ग है ही नहीं तो परमेश्वर, जो कभी झूठ नहीं बोलता है, धोखा नहीं देता है (गिनती 23:19) किसी से क्यों कुछ और करने को कहेगा? वह क्यों किसी को भी उसके पापों के निवारण के लिए व्यवस्था के पालन के लिए कहेगा, चाहे वह व्यवस्था परमेश्वर की दी हुई हो अथवा भी किसी धर्म, मत, या डिनॉमिनेशन के द्वारा बनाई और दी हुई हो? क्योंकि हर व्यवस्था, मनुष्य को पापों से बचाने के लिए व्यर्थ और अयोग्य है, इसीलिए खरा और सच्चा परमेश्वर मनुष्यों को वही करने की आज्ञा देता है जो उचित और योग्य है - मन फिराव। यदि फिर भी मनुष्य परमेश्वर की कही बात को अस्वीकार करके, अपनी ही करना चाहेगा, तो फिर परिणामों के लिए स्वयं ही ज़िम्मेदार होगा, परमेश्वर को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकेगा। 


    अगले लेख में हम देखेंगे कि यदि व्यवस्था पापों का समाधान देने के लिए असमर्थ है, अयोग्य है, तो परमेश्वर ने उसे दिया क्यों? और फिर यह क्यों कहा कि इसके पालन के द्वारा मनुष्य को जीवन मिलेगा? किन्तु अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अभी भी व्यवस्था, या नियमों, विधियों, रीतियों आदि के पालन के द्वारा परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरने में विश्वास रखते हैं, तो आपके लिए अभी समय और अवसर है कि अपनी इस गलत धारणा को सुधार लें, और परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार पश्चाताप और मन-फिराव के द्वारा परमेश्वर के साथ अपने संबंधों को ठीक कर लें।  


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

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Why The Law Cannot Save Us – 17

God’s Prescribed Solution for Sin – Repentance, not Law (Part 2)

 

    We had seen in the last article that a saved person, whenever he steps out of the boundaries set by God, disobeys God, he then provides Satan an opportunity to make him fall in sin; and Satan makes full use of this opportunity, and gets even a saved person to fall in sin. We had also seen that for a saved person who has fallen in sin, God has given one and the same solution – acceptance of sins and repentance for them, to be restored (1 John 1:9).


    This does not mean that God has given the saved person an open license to continue to sin, as many people assume about this. This is not our topic of discussion, but in short, the Bible clearly teaches that although committing sin does not cause anyone to lose their salvation, but committing sin does result in chastisement (1 Corinthians 11:31-32; Hebrews 12:5-10). At the same time, sin also causes loss to our eternal rewards. There will be many people who will enter eternity, but will be empty-handed, and remain empty-handed for all eternity (1 Corinthians 3:13-15). Therefore, being careless and sinning after being saved is not a light thing, it has very heavy consequences. A saved person cannot take this casually since he is not let off lightly after committing a sin.


    So now it is clear that for us saved Christians, the way of resolving sins, escaping their consequences, is just the same as for the unsaved people - by confessing sins, and repenting for them. Once again, notice that even here God did not ask to follow His Law to resolve this situation. Nor did Satan, while accusing the people before the Lord, accuse them of violating, or not following the Law. The implication is clear: whether the person is saved, or is not saved, God's standards, method of working, and solutions do not change; they always remain the same for all. And God is always sufficiently patient with both, giving enough time, as long as He possibly can to delay His retribution and judgment (2 Peter 3:9).


    So, after seeing and understanding that for every person in the world, whether natural and unregenerate, or saved, the solution of his sins is only and only through his repenting of his sins, and not by keeping the Law, it is now easier for us to understand the second part of Acts 17:30 "... now commands all men everywhere to repent." Why would God, who never lies, never deceives (Numbers 23:19), ask anyone to do anything else, when there simply is no other way but to repent? Why would He ask anyone to obey the Law for the remission of his sins, whether that Law was given by God or, even created and given by any religion, creed, or denomination? Because every law is futile and inapplicable to save man from sin. Therefore, the upright and true God commands men to do only what is correct and worthy— to repent. If still man would like to do his own thing, rejecting what God said, then he himself will be responsible for the consequences, and will not be able to hold God responsible for them.


    In the next article we will see that if the Law is incapable, inapplicable, to provide a solution for sins, then why did God give it? And then why is it said that by following it man will get life? But for now, if you are a Christian, and still believe in being justified in the sight of God by observing the Law, or rules, ordinances, customs, etc., now is the time and opportunity for you to come out of this misconception, repent, and mend your relationship with God through obeying God's command.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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