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शनिवार, 30 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 35 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 21

परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 6

 

    परमेश्वर के वचन के प्रति मसीही विश्वासी के भण्डारी होने के सन्दर्भ में हम देखते आ रहे हैं कि शैतान किस प्रकार से परमेश्वर के वचन पर आक्रमण करता है, उस में फेर-बदल करवाता है, और इस प्रकार से उसे अप्रभावी और व्यर्थ मनुष्य का वचन बना देता है। हमने उल्लेख किया था कि परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट और अप्रभावी करने के शैतान के दो मुख्य तरीके हैं। पहला मुख्य तरीका, जो कि बहुत कुटिल और अप्रत्यक्ष है, शैतान समर्पित मसीही विश्वासियों, बाइबल के शिक्षकों और प्रचारकों द्वारा बाइबल के लेख और वाक्यांश को लेकर उनको उन अर्थ और अभिप्रायों के साथ उपयोग करवाता है जो उनके लिए बाइबल में नहीं दिए गए हैं। और दूसरा मुख्य तरीका है, शैतान द्वारा बाइबल के लेखों में कुछ जोड़ देना या उस में से कुछ हटा देना, और इस तरह प्रत्यक्ष रीति से परमेश्वर के वचन के लेख में बदलाव ले आना। पिछले लेखों में हमने पहले मुख्य तरीके के तीन स्वरूपों को देखा है। गलती के ये तीनों स्वरूप सामान्यतः किए जाते हैं, लेकिन बहुधा या तो पहचाने नहीं जाते हैं, नहीं तो, यदि पहचाने भी जाएँ तो भी या तो उनकी अनदेखी कर दी जाती है, अथवा उन्हें गलती स्वीकार ही नहीं किया जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये गलतियाँ, चाहे जान-बूझकर अथवा अनजाने में, कलीसिया के अगुवों, प्रमुख लोगों, बाइबल के जाने-माने प्रचारकों और शिक्षकों के द्वारा की जाती हैं, और ये लोग तथा इनके अंध-भक्त किसी गलती अथवा आलोचना को सहज ही स्वीकार नहीं करते हैं। जिन तीन स्वरूपों को हम अभी तक देख चुके हैं, वे हैं: पहला, बाइबल के सही लेख का एक गलत अर्थ और अभिप्राय के साथ उपयोग करके ऐसे सन्देश देना जो उन लेखों के लिए बाइबल में कहे ही नहीं गए हैं; दूसरा है परमेश्वर के पक्ष में तो बात को कहना, किन्तु ऐसी बातें जो परमेश्वर की दृष्टि में सही नहीं हैं या जो परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हैं, चाहे वे परमेश्वर के प्रति आदर और श्रद्धा के साथ ही क्यों न कही गई हों; और इस गलती का तीसरा स्वरूप जिसे हमने पिछले लेख में देखा था, वह था मसीही विश्वास का जीवन जीने में मनुष्यों के द्वारा बनाए गए नियमों, विधियों, परम्पराओं आदि के निर्वाह की अनिवार्यता को बाइबल के लेखों के दुरुपयोग के द्वारा जायज़ ठहराना।


    आज से हम इस गलती के एक चौथे स्वरूप को देखना आरम्भ करेंगे, जो है बाइबल के सही लेखों का दुरुपयोग करके उनसे बाइबल के विरुद्ध ऐसी धारणा को बताना, जो लोगों को, यहाँ तक कि नया जन्म पाए हुए परमेश्वर के लोगों को भी बहका कर, उन्हें अपने कर्मों के आधार पर अपने उद्धार को बनाए रखने पर भरोसा रखने, तथा अपने भले और भक्ति के कार्यों के द्वारा परमेश्वर को स्वीकार्य बने रहने की ओर ले जाती है। यह शैतान की एक ऐसी युक्ति है जो लोगों के प्रभु परमेश्वर के अनुग्रह पर भरोसा रखने की बजाए, उन्हें अपने प्रयासों, योग्यताओं, और कर्मों के द्वारा परमेश्वर को ग्रहण योग्य होने पर भरोसा करवाती है। इस युक्ति का आधार अदन की वाटिका में शैतान द्वारा हव्वा से, जो उस समय निष्पाप दशा में थी, कही गयी बात है, ‘तुम भले बुरे का ज्ञान पाकर परमेश्वर के तुल्य हो जाओगे’ (उत्पत्ति 3:5)। शैतान जो हव्वा को समझा रहा था, वह था, भले और बुरे में अंतर पहचानने की क्षमता प्राप्त कर लेने के बाद तुम परमेश्वर के तुल्य हो जाओगे, और तुम में भी अपने आप को शुद्ध और पवित्र रखने के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं उसकी योग्यता आ जाएगी।


    यदि शैतान का यह तर्क सही था, तो इसका अर्थ है कि मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा अपने आप को शुद्ध और पवित्र रख सकता है, और इसलिए परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता की अनिवार्यता के बिना ही स्वर्ग जाने के योग्य बन सकता है। हव्वा शैतान के इस बहकावे में आ गई, और उसने भी पाप कर दिया, साथ ही आदम से भी करवा दिया। यद्यपि आदम और हव्वा ने भले और बुरे में पहचान करना तो सीख लिया, किन्तु उन्हें कभी भी शुद्ध पवित्र, और निष्पाप बने रहने की क्षमता प्राप्त नहीं हुई। इसकी बजाए, वे और उनके वंशज हमेशा के लिए पाप से दूषित हो गए, उन में पाप करने तथा हमेशा ही परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता, तथा उन्हें जो सही लगता है वही करते रहने का स्वभाव आ गया। इस प्रकार से, जैसा कि सँसार तथा इस्राएल के इतिहास से प्रकट है, शैतान सरलता से मानव-जाति को कुटिलता से उपयोग करने और परमेश्वर का अनाज्ञाकारी बनाए रखने में सफल हो गया। यद्यपि उनके पास परमेश्वर की आज्ञाएं और निर्देश उपलब्ध थे, फिर भी परमेश्वर के लोगों इस्राएल के लिए भी स्थिति में कोई भिन्नता नहीं थी।


    लेकिन प्रभु यीशु मसीह के जगत का उद्धारकर्ता और छुड़ाने वाला बनकर आने के बाद शैतान के लिए समस्या खड़ी हो गई। प्रभु यीशु मसीह द्वारा समस्त मानव जाति के पापों के लिए क्रूस पर दिए गए बलिदान, उनके गाड़े जाने, और मृतकों में से जी उठने के द्वारा उन सभी के लिए जो उस पर विश्वास करते हैं, उद्धार का मार्ग खुल गया। अब जो प्रभु यीशु पर और उसमें होकर मिलने वाले उद्धार पर विश्वास करता है, अपना जीवन प्रभु को समर्पित करता है, उसके पाप क्षमा हो जाते हैं, वे परमेश्वर की सन्तान और हमेशा उसके साथ स्वर्ग में रहने वाले बन जाते हैं। इन नया जन्म और उद्धार पाए हुए लोगों को, परमेश्वर के मार्गों से भटकाने, और परमेश्वर की बजाए अपने प्रयासों पर भरोसा रखने की अपनी कुटिल युक्ति में फँसा लेने के लिए शैतान के सामने अब दोहरी समस्या है। उनके लिए शैतान की पहली समस्या है कि मसीही विश्वासी को परमेश्वर के इस आश्वासन से कैसे भटकाए कि उसके जीवन भर के सारे पाप हमेशा के लिए क्षमा हो गए हैं और उसका उद्धार कभी नहीं जाएगा; और दूसरी समस्या है उद्धार पाए हुए मनुष्य को किस तरह से यह मानने के जाल में फँसाए कि उसे परमेश्वर के अनुग्रह पर नहीं परन्तु अपने भले कामों पर भरोसा रखना है, और इसके द्वारा उसे परमेश्वर की आशीषों के मार्ग से भटका दे।


    शैतान जानता है कि नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी कभी उद्धार नहीं खोएगा, हमेशा ही परमेश्वर की संतान बना रहेगा, स्वर्ग का वारिस रहेगा। लेकिन शैतान उसमें होकर और उसके साथ दो बातें करना चाहता है। एक है जहाँ तक हो सके और जितना हो सके उसकी आशीषों की हानि करे, और दूसरा, सँसार के लोगों सामने मसीही विश्वासी के गिरे हुए जीवन और गवाही के द्वारा सँसार के पापियों और अविश्वासियों में यह भावना बैठाना कि उद्धार पाने और मसीही विश्वासी बनने से कोई लाभ नहीं है, फिर भी कर्मों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। पहली बात से मसीही विश्वासी की हानि होगी, और दूसरी से शैतान का लाभ होगा। इसे कार्यान्वित करने के लिए शैतान ने एक बड़ी चालाकी की युक्ति बनाई है, परमेश्वर के वचन के सही लेखों के दुरुपयोग के द्वारा उन्हें अनुचित अर्थ और अभिप्राय देना और विश्वासियों को गलत मार्ग पर भटका देना। इसके बारे में हम अगले लेख में देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Altering God’s Word – 6

 

    In a Christian Believer’s stewardship towards the Word of God, we have been seeing how Satan subtly attacks God’s Word, gets it altered, and thereby converts it into an ineffective and vain word of man. We have mentioned that of the two major forms of corrupting God’s Word, one, that is much more devious is that he very often and very subtly induces the committed Christian Believers, the Bible preachers and teachers, to preach and texts or phrases from the Bible with meanings and implications not given for those texts in the Bible. The second major form, is of Satan either adding to or subtracting from God’s Word and thereby evidently changing its text. In the previous articles, we have seen three forms of this first main error. These errors are frequently committed, but very often unrecognized, and even if recognized, still usually either ignored or unaccepted as error. This happens because these errors are often, whether knowingly or unknowingly, but commonly practiced by Church leaders, elders, reputed Bible preachers and teachers; and neither they nor their blind followers easily accept any mistakes or criticism. The three forms we have seen so far are: one is to use the right Biblical text to wrongly convey a Biblically unintended message through it; second, is to say things in favor of God, but in a manner that is not correct in the eyes of God, things that are not acceptable to God, even though they have been said reverentially and to honor Him; and the third form of this error, which we saw in the last article is, justifying the role or the necessity of some kinds of works, observance of some man-made rules, regulations, customs etc. in man’s life of salvation through misuse of Biblical texts.


    From today we will begin to see a fourth form of the misuse of correct Biblical texts, to preach and teach an unBiblical notion, designed to drive people, even the saved, the Born-Again people of God, into trusting maintaining their salvation on the basis of works, and believing that they can keep themselves justified before God through their good works, or works of godliness. This is another satanic ploy to make people believe not in the love and grace of the Lord God, but on their own efforts, abilities, and works to be, or to remain acceptable to God. The underlying basis of this ploy is what Satan had said to Eve, who was in a sinless condition, in the Garden of Eden, ‘you will be like God, knowing good and evil’ (Genesis 3:5). What Satan was implying to Eve was that you will become equivalent to God and because of knowing how to discern between good and evil, you will also have the capability of deciding what to do and what not to do in your lives to keep yourself pure and holy.


    If Satan’s contention was correct, then it means that man can keep himself pure and holy through his works, and thereby qualify for being in heaven, without the help and necessity of man’s obedience to God and His Word. Eve fell for the ploy and sinned, and also made Adam commit the same sin. Though Adam and Eve did learn to discern between good and evil, but they never got the capability of staying pure, holy and sinless. Instead, they and their posterity forever became tainted by sin, got a sinful nature, of always disobeying God and His Word, and the tendency of doing what seemed right to them in their thinking. So, as is evidenced by the history of mankind and of Israel, Satan could easily continue to manipulate mankind and make them disobey God. The situation was no different for Israel, the people of God even though God had given to them His Commandments and instructions.

But after the coming of the Lord Jesus as the redeemer and savior of mankind, Satan ran into a problem. After the Lord Jesus atoned for the sins of entire mankind through His sacrifice on the Cross of Calvary, being buried and being resurrected from the dead, the way of salvation was opened for everyone who believes in Him. Those who now believe on the Lord Jesus and His salvation for them, have submitted their lives to Him, their sins are forgiven, and they become children of God, to be with Him for eternity in heaven. For these Born-Again Christian Believers, Satan has a two-fold problem in making man accept his devious deviation from God’s ways, of relying on self-efforts, instead of trusting God. Satan’s first problem is, how to mislead and trap the Christian Believer’s into disregarding God’s assurance of all of his sins of his entire life-time have eternally been forgiven, and he will never loose his salvation; and second problem is how to entangle a saved man into the trap of not relying on God’s grace, but on his doing good works, and thereby deviate him away from God’s path of blessings for him.


    Satan knows that a Born-Again Christian Believer will never lose his salvation, will always remain a child of God, entitled to heaven. But there are two things that Satan wants to do to, and through the Believer; one is to harm him by losing his blessings as much as possible, and secondly, through presenting a poor life and testimony of the Believer to the people of the world, make the sinners and unbelievers not to trust on Christ Jesus for salvation and for becoming a Believer, since they will still have to rely on their works. The former will harm the Believers, and the latter will benefit Satan by corrupting and rendering ineffective the message of the Gospel. To achieve this Satan has deployed a very clever strategy through misuse of God’s Word, through using the right Biblical texts, in a Biblically unintended way; and we will look at this in the next article.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 34 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 20

परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 5

 

    परमेश्वर के वचन के प्रति मसीही विश्वासी के भण्डारी होने के सन्दर्भ में हम देखते आ रहे हैं कि किस प्रकार से शैतान बड़े चुपके से और चालाकी से परमेश्वर के वचन पर आक्रमण करता है, उसमें फेर-बदल करवाता है, और उसे परिवर्तित करके मनुष्य का व्यर्थ और अप्रभावी वचन बना देता है। हम उल्लेख कर चुके हैं कि शैतान न केवल परमेश्वर के वचन में जोड़ने या उसमें से कुछ निकालने के द्वारा यह करता है, किन्तु यह भी कि इससे भी बढ़कर वह बड़ी कुटिलता से बहुधा समर्पित मसीही विश्वासियों, बाइबल के प्रचारकों और शिक्षकों को उकसाता है कि बाइबल के लेखों और वाक्यांशों को लेकर ऐसे अर्थ और अभिप्राय के साथ प्रचार करें जो उनके लिए बाइबल में नहीं दिए गए हैं। हमने कलीसिया के अगुवों और बाइबल के प्रचारकों तथा शिक्षकों द्वारा इस अकसर की जाने वाली गलती के दो स्वरूप देखे हैं; और यह भी देखा है कि या तो उनकी यह गलती पहचानी ही नहीं जाती है, अथवा उसकी अवहेलना की जाती है या उसे अस्वीकार कर दिया जाता है। इन दो में से पहला स्वरूप था बाइबल के लेख को सही स्वरूप में लेना किन्तु उसके द्वारा बाइबल के बाहर का गलत अर्थ और सन्देश व्यक्त करना; और दूसरा स्वरूप था परमेश्वर के पक्ष में तो बात कहना, किन्तु अनजाने में ही ऐसी बातें कहना जो या तो सही नहीं हैं, अथवा यद्यपि वे परमेश्वर की भक्ति और आदर में कही गई हैं, किन्तु परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हैं। आज हम इस गलती के एक तीसरे स्वरूप को देखेंगे, उद्धार में मनुष्य के द्वारा किसी प्रकार के कार्यों की भूमिका को सही ठहराना।


    यह तीसरी प्रकार की गलती है, बाइबल के लेखों के द्वारा मनुष्य के उद्धार के जीवन में उसके किसी प्रकार के कार्यों की अनिवार्यता को सही ठहराना; यह उपरोक्त पहली गलती – बाइबल के सही लेख को गलत अर्थ देकर उपयोग करना से बहुत मिलता-जुलता है। उद्धार के जीवन में कुछ विशेष कर्मों को घुसाने की इस गलती को दो स्वरूपों में देखा जाता है। एक है कि मसीही विश्वास का जीवन जीने के लिए, विश्वास के साथ उस कलीसिया के बनाए हुए कुछ रीति-रिवाज़ और नियम भी निभाने होते हैं; और दूसरा है कि विश्वास के साथ ‘परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए भला करो, भले बनो, अन्यथा उद्धार खोया जा सकता है’ के सिद्धान्त को भी मानना है। आज हम इन दोनों में से पहले स्वरूप को देखेंगे, अर्थात कलीसिया के रीति रिवाज़ और नियम मानने की आवश्यकता।


    इस गलती का आरंभ पहली कलीसिया के समय से ही हो गया था। हम कलीसिया के इतिहास से जानते हैं कि कलीसिया का आरंभ, जैसा प्रेरितों 2 अध्याय में दिया गया है, पतरस द्वारा यरूशलेम में पर्व मनाने आए हुए भक्त यहूदियों के मध्य किए गए प्रचार से हुआ था। सुसमाचार का आरंभिक प्रचार यरूशलेम और यहूदियों में हुआ था और उन्हीं में से उद्धार पाए हुए लोग आरंभिक कलीसिया में जुड़ते जा रहे थे। जब सुसमाचार का प्रसार हुआ, तो फिर गैर-यहूदी, अर्थात अन्य-जातीय लोग भी उद्धार पा कर कलीसियाओं में जुड़ने लगे। तब यहूदी विश्वासियों और अन्य-जाति विश्वासियों के मध्य एक विवाद उठ खड़ा हुआ – प्रेरितों 15 अध्याय देखिए। कुछ यहूदी विश्वासी इस बात के लिए बहुत ज़ोर देने लगे कि अन्य-जाति विश्वासियों को भी खतना करवाने और यहूदी परम्पराओं का पालन करना अनिवार्य है। हम पौलुस की सम्पूर्ण सेवकाई में देखते हैं कि उसे किस प्रकार से इस समस्या का अनेकों तरह से सामना करना पड़ा था, और कैसे वह बारम्बार सिखाता और डाँटता भी रहा कि सभी मसीही विश्वासियों के लिए मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था की सभी परम्पराएँ प्रभु यीशु मसीह द्वारा पूरी करके मार्ग से हटा दी गई हैं। इसलिए अब किसी भी मसीही विश्वासी को मूसा की व्यवस्था और उसकी परम्पराओं के निर्वाह की कोई आवश्यकता नहीं है (रोमियों 10:4; गलातियों 3:10-14; कुलुस्सियों 2:13-14)। उन यहूदी विश्वासियों को इस बात का एहसास करने की आवश्यकता थी कि उद्धार केवल परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा, विश्वास और केवल विश्वास ही के द्वारा है; वह विश्वास जो प्रभु यीशु पर, जो समस्त मानव-जाति के पापों के प्रायश्चित के लिए प्रभु द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान पर, और जो प्रभु के मृतकों में से फिर से जी उठने पर है। इसलिए अब किसी को भी लौट कर परमेश्वर की मूसा के द्वारा दी गई व्यवस्था और उसकी परम्पराओं पर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है; यद्यपि यहूदी उसी व्यवस्था और परम्पराओं के द्वारा परमेश्वर से जुड़े हुए थे और संसार के सभी लोगों में अनुपम थे।


    हम एक बार फिर से देखते हैं कि किस प्रकार से शैतान ने पवित्र शास्त्र के लेख को लिया, और परमेश्वर के भक्त लोगों के द्वारा उसमें पवित्र शास्त्र के बाहर के अर्थ और अभिप्राय जुड़वाए, और फिर उन्हीं से परमेश्वर के लोगों तथा उद्देश्यों के विरुद्ध उसका दुरुपयोग करवाया, जबकि वे लोग अपने विचारों और मान्यताओं में यही सोच रहे थे कि वे परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता में सही कार्य कर रहे हैं। जैसा पौलुस ने रोमियों 3:20-22 में लिखा है, व्यवस्था कभी किसी को भी धर्मी ठहराने के लिए नहीं दी गई थी, बल्कि वह पाप की पहचान करवाने के लिए, अर्थात लोगों को यह बताने के लिए कि परमेश्वर की दृष्टि में पाप क्या है, दी गई थी; जबकि धर्मी होना केवल प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करने के द्वारा ही है। इसी प्रकार से इब्रानियों का लेखक भी इब्रानियों 10:1 में वही बात कहता है जो यशायाह ने यशायाह 1:11-15 में कही थी, कि व्यवस्था के पालन से कभी भी कोई भी धर्मी नहीं ठहर सकता है, जो व्यवस्था की बातों का पालन करते हैं, वे भी परमेश्वर की दृष्टि में अशुद्ध ही रहते हैं।


    परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों, और नियमों के पालन पर ज़ोर देना केवल उस समय, उसी युग में ही नहीं किया जाता था; बल्कि सारे ईसाई या मसीही विश्वासियों के समाज में यह आज भी बहुत मानी तथा प्रचलित बात है। प्रत्येक मसीही डिनॉमिनेशन, मत, संप्रदाय के अपने ही नियम, परम्पराएँ, रीति-रिवाज़, आदि होते हैं, और केवल वे लोग ही, जो मनुष्यों द्वारा गढ़े गए इन नियमों, परम्पराओं, और रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं, उस मण्डली का एक भाग हो सकते हैं, उसके लाभ ले सकते हैं। यदि कोई उनके साथ जुड़ना चाहता है, तो उसे पहले अपनी पिछली मण्डली की बातों को छोड़ना पड़ता है और फिर इस मण्डली की इन बातों को अपनाना पड़ता है, अन्यथा उन्हें उस मण्डली की “सदस्यता” और उसके लाभ नहीं दिए जाएँगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि इस बारे में बाइबल क्या कहती है, और जुड़ने की इच्छा रखने वाला परमेश्वर द्वारा उद्धार पाया हुआ उसके परिवार का वैध सदस्य है, प्रभु यीशु मसीह में किए गए विश्वास के द्वारा मसीह की देह और दुल्हन, अर्थात मसीह की कलीसिया का एक भाग है। यदि उन्हें उस मण्डली के साथ जुड़ना है, तो फिर उस मण्डली के रीति-रिवाज़ों, परम्पराओं, और नियमों का पालन करना ही होगा, अन्यथा वे बाहर रहें। परमेश्वर के लोगों की मण्डलियों में परमेश्वर के नहीं, मनुष्यों के बनाए हुए नियमों और रीतियों का पालन किया जाता है। साथ ही मंडलियों के अगुवों और ज़िम्मेदार लोगों का यह भी प्रयास रहता है कि मण्डली के लोगों को औरों से पृथक और बिना मेल-जोल बढ़ाए हुए रखा जाए। वे नहीं चाहते हैं कि मंडली के लोग औरों से मिलने-जुलने वाले, अन्य मसीही विश्वासियों के साथ एक होकर रहने वाले, परमेश्वर की अन्य संतानों के साथ संगति रखने वाले बनें। किसी के भी द्वारा “बाहर” के किसी भी विश्वासी के साथ मेल-जोल या संगति रखने को बल देकर मना किया जाता है, ऐसा करने के लिए उन्हें डाँटा भी जाता है। और यह सब मसीह यीशु में होकर प्रेम, क्षमा, मेल-मिलाप, और एक-मनता रखने के सुसमाचार का प्रचार करते हुए किया जाता है। और फिर इसे उचित ठहराने के लिए बाइबल के लेखों का उपयोग मन-गढ़ंत रीति से तथा एक विशिष्ट मानवीय विचार का समर्थन करने के प्रयासों के द्वारा किया जाता है – बाइबल के लेख का बाइबल के विपरीत रीति से उपयोग करना।


    यह हमारे आरम्भिक कथन की एक और पुष्टि है कि शैतान परमेश्वर के समर्पित लोगों का, बाइबल के लेखों का जानते-बूझते हुए अथवा अनजाने में दुरुपयोग करने के लिए इस्तेमाल कर सकता है और करता भी है। बहुधा, बिना उनके इस बात को समझे, शैतान मसीही विश्वासियों को फंसा कर, उन से मसीही विश्वास और जीवन के लिए अनुपयुक्त बातें करवाता और कहलवाता है; जो परमेश्वर और उसके वचन के विरुद्ध भी हो सकती हैं तथा मसीही गवाही और सुसमाचार प्रचार के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। लेकिन जो यह करते हैं, वे यही सोचते रहते हैं कि वे परमेश्वर के प्रति भक्ति और श्रद्धा का कार्य कर रहे हैं, परमेश्वर के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को दिखा रहे हैं। इसीलिए वे इस व्यवहार को औरों को भी प्रचार करते हैं, इसे सिखाते हैं यह मानते हुए कि वे उन्हें सही मार्ग पर चलाने में सहायता कर रहे हैं। दुःख की बात है कि ऐसे अगुवों और उनके अनुयायियों को उनकी गलती का एहसास करवाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि वे अपने आप को बाइबल पर ही आधारित और सही समझते रहते हैं। उन्हें इस बात के लिए कायल करना बहुत कठिन होता है कि जिसे वे परमेश्वर को प्रसन्न करने वाली बात समझ रहे हैं, वह वास्तव में परमेश्वर को अप्रसन्न कर रही है, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन के साथ छेड़-छाड़ और उसके वचन में फेर-बदल कर रहे हैं, और यह परमेश्वर से प्रतिफल मिलने का नहीं, उनके विरुद्ध उसके प्रतिशोध का कारण होगा, उनके लिए भी और उनकी अनुयायियों के लिए भी। अगले लेख में हम इसी गलती के दूसरे स्वरूप के बारे में देखेंगे – उद्धार के लिए कर्मों की अनिवार्यता पर बल देना, अन्यथा उद्धार खोया जा सकता है।   


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Altering God’s Word – 5

 

    In a Christian Believer’s stewardship towards the Word of God, we have been seeing how Satan subtly attacks God’s Word, gets it altered, and thereby converts it into an ineffective and vain word of man. We have mentioned that Satan not only adds to or subtracts from God’s Word, but much more deviously, he very often and very subtly induces the committed Christian Believers, the Bible preachers and teachers, to preach and texts or phrases from the Bible with meanings and implications not given for those texts in the Bible. We have seen two forms of this frequent, but unrecognized and usually either ignored or unaccepted, error that is often inadvertently but commonly practiced by Church leaders, elders, Bible preachers and teachers. One is to use the right Biblical text to wrongly convey a Biblically unintended message through it; and the second one, which we saw in the previous article, is to say things in favor of God, but, again inadvertently, in a manner that is not correct in the eyes of God, things that are not acceptable to God though they have been said reverentially and to honor Him. We will see a third form of this error today, justifying the role of forms of some ‘works’ in salvation of man.


    This is third form of the error, of trying to justify the necessity of some kinds of works in man’s life of salvation through Biblical texts It is very similar to the first kind of error – use the right Biblical text, but ascribe wrong meanings to it. This error of inserting the necessity of certain works in the life of salvation is seen in two forms, one is that to live a life of Christian Faith, faith has to be accompanied by the fulfilling and obeying certain rituals and traditions of that Church; and the second is along with faith also accept the ‘do good and be good to be acceptable to God, or else salvation will be lost’ doctrine. Today we will consider the first form, i.e., about the necessity of following church rituals and traditions.


    This error started off with the beginning of the first Church itself. We know from the history of the Church that the Church began with the preaching of Peter in Jerusalem amongst the devout Jews gathered there to observe the Jewish feasts, as is recorded in Acts 2. The initial preaching of the gospel and the people being saved and being joined to the initial Church was from the Jews in Jerusalem. As the gospel spread, and the non-Jewish people, the Gentiles, were also saved and started to be joined to the Church. Then a contention amongst the Jewish converts and the Gentile converts arose – see Acts chapter 15. Some of the Jewish converts insisted that the Gentile converts should also be circumcised and be made to follow the Jewish customs. We see throughout Paul’s ministry, how he repeatedly had to face this problem in various forms, and how he kept teaching and admonishing that Mosaic Law and customs have been fulfilled for all Believers by the Lord Jesus, and have now been taken out of the way. Therefore, now no Christian Believer needs to do anything to fulfil the Mosaic Law and customs stated in it (Romans 10:4; Galatians 3:10-14; Colossians 2:13-14). Those Jewish converts and Believers needed to realize that salvation is by the grace of God, through faith and faith alone, in the Lord Jesus Christ, in in His sacrifice on the Cross of Calvary to atone for the sins all of mankind, and His resurrection from the dead. Therefore, no one needs to revert back to the customs and rituals given in the Law delivered to Israel by God through Moses, although it is those God given Laws and customs that have connected the Israelites to God and made them unique amongst the people of the world.


    We once again see how Satan has taken the Scriptural text, made godly people ascribe extra-Scriptural meanings and implications to it, and then made them misuse it to make it work contrary to Gods people and purposes, while in their minds and belief they thought that they were rightly doing things in obedience to God and His Word. As Paul through the Holy Spirit says in Romans 3:20-22, the Law was never meant to justify anyone, it was meant to provide the knowledge of sin, i.e., what is sin in God’s eyes; whereas righteousness is through faith in the Lord Jesus Christ. Similarly, the author of Hebrews says in Hebrews 10:1, what Isaiah had said in Isaiah 1:11-15, that observing the customs of the Law can never make anyone perfect, those who do them, still remain unclean in God’s eyes.


    This insistence on traditions, rituals and customs was not done just at that time, in that Church age; rather, it is rampant all over Christendom even today. Every Christian denomination, sect, and cult has its own set of rules and regulations, customs, procedures etc. and only those who adhere to these man-made, contrived laws are considered a part of that congregation and are allowed the benefits of being in that congregation. If anyone wants to join them, then they have to forego what they followed in their former denomination, or sect, or cult, and accept these laws of this denomination, sect, or cult; or else they will be denied the “membership” and benefits. It matters little, if any at all, what the Bible has to say about it all, and that they have been saved by God, are the bona fide members of God’s family, His Born-Again children by faith in the Lord Jesus, a part of Christ’s body and bride, i.e., His Church. If they have to be a part of that denomination, sect, or cult, then they have to fulfil the rites, regulations, and customs, follow the rules; or stay out and away. Man’s, not God’s rules and customs govern the congregations of God’s people; and efforts of the leaders and elders are directed at segregating and excluding from others, rather than including and assimilating, or even fellowshipping with the other children of God. Any attempts by anyone at mixing or fellowshipping with Believers from ‘outside’ are strongly discouraged and even reprimanded. Yet, all of this is done while preaching a gospel of love, forgiveness, and unity by faith in Christ, and is justified by using Biblical texts in a manner contrived to suit a particular line of thinking – i.e., using Biblical text in an unBiblical way.


    This is another Biblical affirmation of our initial statement, that Satan can and does mislead God’s committed people to knowingly or unknowingly use Biblical texts in unBiblical ways. Often, without their realizing it, Satan traps Christian Believers into doing and saying things inappropriate or unnecessary for Christian faith and life; things that may even be contrary to God and His Word, and harmful for the Christian witness, the spread of the gospel. But those who do this keep thinking that they are being godly and reverent, are expressing their love and commitment to God, and they preach and teach to others also to do the same in the belief that they are leading them on the right way. Sadly, it is very difficult to make such leaders and their followers realize and accept their error, because they firmly believe that they are Biblically correct. To convince them that what they are thinking to be pleasing to God, is actually displeasing to God because of their tampering with His Word and altering it; and it is inviting not rewards but retribution from God, for themselves as well as their followers. In the next article we will see the second form of this error – insisting on works along with salvation, or else salvation can be lost.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.



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गुरुवार, 28 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 33 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 19

परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 4

 

    पिछले लेख में हमने प्रभु यीशु की तीन परीक्षाओं से, जिनका विवरण मत्ती 4:1-11 और लूका 4:1-13 में दिया गया है, देखा था कि शैतान ने किस तरह से परमेश्वर के वचन का, प्रभु यीशु के विरूद्ध दुरुपयोग करने का प्रयास किया। हमने देखा था कि शैतान ने न तो वचन में कुछ जोड़ा, और न ही उसमें से कुछ घटाया, अर्थात उसने परमेश्वर के वचन के लिखित स्वरूप में कोई फेर-बदल नहीं किया; बल्कि उसे प्रभु यीशु के सामने ऐसे अर्थ और अभिप्रायों के साथ रखा, जो वचन में उन लेखों के लिए उपयोग नहीं किए गए थे। शैतान के द्वारा बाइबल के लेख का बाइबल से बाहर के अभिप्राय के लिए उपयोग करना, उस वचन का दुरुपयोग करना ठहरा। आज भी शैतान इसी युक्ति का प्रयोग परमेश्वर के लोगों में होकर करता है, उन भक्त लोगों के द्वारा, अनजाने में ही बाइबल के लेखों का बाइबल के बाहर के अभिप्रायों के साथ, परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति, अपने प्रेम और श्रद्धा को व्यक्त करने वाले वाक्यांशों और शब्दों के रूप में उपयोग करवाता है। ऐसा करने के द्वारा, बिना शैतान की युक्ति को समझे, अनजाने में ही प्रभु के ये भक्त लोग, परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग करने लगते हैं, उसे भ्रष्ट कर देते हैं और परमेश्वर का नहीं वरन मनुष्य का वचन बना देते हैं। आज हम बाइबल के इसी तथ्य का एक और स्वरूप देखेंगे, पुराने नियम के एक उदाहरण के द्वारा; और फिर इसके आगे के लेखों में हम अनजाने में ही परमेश्वर के वचन का योग्य भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी का निर्वाह न करने की इस गंभीर गलती के कुछ अन्य उदाहरण भी देखेंगे।


    परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट करने और उसका दुरुपयोग करने का एक अन्य तरीका पुराने नियम में देखने को मिलता है, अय्यूब तथा उसके के मित्रों के उदाहरण में। बहुत ही संक्षेप में, घटनाक्रम इस प्रकार से है: अय्यूब, अपने समय में पृथ्वी के सभी मनुष्यों की तुलना में एक अनुपम धार्मिक व्यक्ति था, और परमेश्वर ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि वह अपने समय के सभी मनुष्यों से बढ़कर खरा और सीधा था (अय्यूब 1:1, 8; 2:3)। परमेश्वर ने शैतान को अनुमति दे दी कि वह अय्यूब और परमेश्वर के प्रति उसकी प्रतिबद्धता की परीक्षा कर ले; और यह करने के लिए शैतान ने अय्यूब के पास जो कुछ भी था, उसका परिवार, उसकी धन-संपत्ति, यहाँ तक कि उसका स्वास्थ्य, सभी को नष्ट कर डाला; किन्तु फिर भी अय्यूब परमेश्वर के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध बना रहा (अय्यूब 2:9-10)। पुस्तक के आगे के अध्यायों में हम देखते हैं कि अय्यूब अपने कष्ट उठाने के लिए शिकायत तो करता है, और जानना चाहता है कि परमेश्वर ने क्यों उसके साथ यह अन्याय किया है, किन्तु उसने परमेश्वर के विरुद्ध कभी कुछ नहीं बोला (अय्यूब 7:19-21; 13:3; 16:11-14; 19:6-11; इत्यादि)। अय्यूब की दशा के बारे में जानकारी मिलने पर उसके मित्र उसे सान्त्वना देने के लिए आते हैं। किन्तु, अय्यूब के साथ होने वाली चर्चा में, वे बारंबार उसे कुछ गलत करने, कोई पाप करने का दोषी ठहराने का प्रयास करते रहते हैं, जिसके कारण परमेश्वर उसे इस प्रकार से दण्ड दे रहा है। उन्होंने परमेश्वर को सही और अय्यूब ही को उसकी इस दशा के लिए ज़िम्मेदार ठहराया। पुस्तक के अंत में हम देखते हैं कि परमेश्वर अय्यूब से बातें करता है, और अय्यूब को अपनी सामर्थ्य और महिमा के बारे में स्मरण करवाता है। परमेश्वर से सामना होने पर अय्यूब को अपनी वास्तविक, पापमय दशा का एहसास होता है, और वह तुरन्त पश्चाताप करके परमेश्वर से क्षमा याचना करता है (अय्यूब 40:3-5; 42:1-6)। लेकिन इसके बाद जो होता है, वह बहुत रोचक, और हमारी वर्तमान चर्चा के लिए बहुत महत्वपूर्ण भी है।


    परमेश्वर अय्यूब 42:7-9 में कहता है,और ऐसा हुआ कि जब यहोवा ये बातें अय्यूब से कह चुका, तब उसने तेमानी एलीपज से कहा, मेरा क्रोध तेरे और तेरे दोनों मित्रों पर भड़का है, क्योंकि जैसी ठीक बात मेरे दास अय्यूब ने मेरे विषय कही है, वैसी तुम लोगों ने नहीं कही। इसलिये अब तुम सात बैल और सात मेढ़े छांट कर मेरे दास अय्यूब के पास जा कर अपने निमित्त होमबलि चढ़ाओ, तब मेरा दास अय्यूब तुम्हारे लिये प्रार्थना करेगा, क्योंकि उसी की मैं ग्रहण करूंगा; और नहीं, तो मैं तुम से तुम्हारी मूढ़ता के योग्य बर्ताव करूंगा, क्योंकि तुम लोगों ने मेरे विषय मेरे दास अय्यूब की सी ठीक बात नहीं कही। यह सुन तेमानी एलीपज, शूही बिल्दद और नामाती सोपर ने जा कर यहोवा की आाज्ञा के अनुसार किया, और यहोवा ने अय्यूब की प्रार्थना ग्रहण की।” यद्यपि अय्यूब परमेश्वर के सामने प्रश्न उठा रहा था, कह रहा था कि उसके साथ अन्याय हो रहा है, परमेश्वर से स्पष्टीकरण माँग रहा था; लेकिन फिर भी परमेश्वर ने अय्यूब की बातों को गलत और परमेश्वर के विरुद्ध नहीं माना। किन्तु दूसरी ओर, अय्यूब के तीन मित्रों, एलीपज, बिल्दद और सोपर के लिए परमेश्वर कहता है कि उन्होंने परमेश्वर के बारे में सही बात नहीं कही है और इसलिए वह उनसे क्रोधित है। परमेश्वर उन से कहता है कि वे अय्यूब से कहें कि उनके लिए प्रार्थना करे, अन्यथा उन्हें परमेश्वर के बारे में गलत कहने के दुष्परिणामों को झेलना होगा। उनके पक्ष में की गई अय्यूब की प्रार्थना के बाद परमेश्वर उन्हें क्षमा कर देता है, और अय्यूब की सारी हानि की भी भरपाई कर देता है।


    यद्यपि इस पूरी पुस्तक में इन तीनों ने परमेश्वर के पक्ष में, और अपने मित्र अय्यूब के विरुद्ध होकर बात की है, किन्तु फिर भी परमेश्वर उनके कहे को स्वीकार नहीं करता है, उनके तर्कों को “परमेश्वर के बारे में ठीक बात” नहीं, बल्कि “मूढ़ता” मानता है। दूसरी और यद्यपि अय्यूब परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करता है, धर्मी होने के बावजूद उसे दुःख दिए जाने के लिए स्पष्टीकरण माँगता है, लेकिन परमेश्वर उस पर क्रोधित नहीं होता है। अपने वर्तमान विषय के लिए इस सब से हम क्या शिक्षा लेते हैं? महत्व, परमेश्वर के पक्ष में बोलने अथवा परमेश्वर के विरुद्ध शिकायत करने का नहीं है; महत्व इस बात का है कि जो भी कहा जाए वह सत्य ही होना चाहिए, कोई मन-गढ़ंत बात नहीं। चाहे बात परमेश्वर के पक्ष में ही क्यों न बोली जाए, किन्तु यदि जो बोला गया है वह परमेश्वर के गुणों और चरित्र, उसके वचन, और परमेश्वर ने अपने बारे में जो प्रकट किया है, उसके अनुसार, उसके अनुरूप नहीं है, तो न तो परमेश्वर उसे स्वीकार करेगा, और न ही उसके लिए किसी को कोई प्रतिफल देगा। बल्कि, जो बातें परमेश्वर के पक्ष में भी बोली गई, प्रचार की गई, सिखाई गई हैं, वे यदि उसके अनुरूप नहीं हैं जो परमेश्वर ने अपने बारे में अपने वचन में लिखवा दिया है, तो परमेश्वर उन्हें उसके बारे में कही गई ठीक बात नहीं बल्कि मूढ़ता की बात मानता है; और ऐसी बातें फिर उस से प्रतिफल के नहीं वरन उसके प्रतिशोध के योग्य ठहरती हैं।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Altering God’s Word – 4

 

    In the previous article we have seen from the example of the three ‘Temptations of Christ’, recorded in Matthew 4:1-11 and Luke 4:1-13, how Satan tried to misuse God’s Word against the Lord Jesus. We saw that Satan did not add to, or, subtract from God’s Word, i.e., he did not alter God’s Word in its textual form; but presented it to the Lord Jesus with meanings and implications that were not associated with it in God’s Word. It was this use of Biblical text in an extra-Biblical way that made it a misuse of God’s Word. Today too, Satan causes God’s people to unknowingly, in their belief of expressing godliness, love, and reverence for God, commit the same error of using Biblical text in an extra-Biblical manner. Thus, without understanding the satanic ploy, these godly people of the Lord, inadvertently, misuse God’s Word, corrupting it, turning it into man’s Word, and not God’s any longer. Today we will see another aspect of this Biblical truth, from an Old Testament example; and in the subsequent articles consider some more Biblical affirmations about this very serious, but often unrealized and grossly neglected manner of stewardship of God’s Word.


    Another variation of this corruption and misuse of God’s Word is seen in the Old Testament, in the example of Job and his friends. Very briefly stated, the overall scenario is: Job was a uniquely righteous man amongst those on earth at the time he lived, and even God vouched for his being upright and righteous than anyone else at that time (Job 1:1, 8; 2:3). God allowed Satan to test Job and his commitment to God by permitting Satan to destroy everything Job had, his family, wealth, possessions, and even his health; but through it all Job remained steadfast and committed towards God (Job 2:9-10). We see in the subsequent chapters of the book that although Job did complain about his suffering, wanting to know why God is being unfair with him, but Job never spoke against God (Job 7:19-21; 13:3; 16:11-14; 19:6-11; etc.). On hearing of Job’s condition, his friends came to console him. But in their discussions with Job, they repeatedly kept trying to convince him that he must have done something wrong, sinned in some way, and that is why God was punishing him. They tried to justify God and what God had allowed to come upon Job, and blame Job for his condition. At the end of the book, we see that God speaks with Job, and reminds Job of God’s power and Majesty. On being confronted by God and His Majesty, Job realizes his actual condition of sinfulness and he immediately repents, and seeks God’s forgiveness (Job 40:3-5; 42:1-6). But what follows next, is very interesting and of great relevance to our point of discussion here.


    God says in Job 42:7-9, “And so it was, after the Lord had spoken these words to Job, that the Lord said to Eliphaz the Temanite, "My wrath is aroused against you and your two friends, for you have not spoken of Me what is right, as My servant Job has. Now therefore, take for yourselves seven bulls and seven rams, go to My servant Job, and offer up for yourselves a burnt offering; and My servant Job shall pray for you. For I will accept him, lest I deal with you according to your folly; because you have not spoken of Me what is right, as My servant Job has." So Eliphaz the Temanite and Bildad the Shuhite and Zophar the Naamathite went and did as the Lord commanded them; for the Lord had accepted Job.” Although Job was questioning God and alleging that he has not been fairly dealt with, wanting an explanation from God about it; yet God did not consider Job’s arguments and statements as against wrong and against Him. On the other hand, to three of Job’s friends, Eliphaz, Bildad, and Zophar, God says that they have not spoken what was right about Him and therefore He is offended at them. God tells them to ask Job to pray for them, else they will face His wrath for misrepresenting Him in their words. It is at the intervention of Job in favor of his friends that God forgives them, and restores Job’s losses.


    Although throughout the book of Job, these three have spoken in favor of God and against their friend Job, yet God does not accept what they said, considers their arguments as not being “what is right about God”, but a “folly.” On the other hand, although Job has his complaints against God, yet God does not feel offended at Job wanting an explanation from Him for his sufferings despite being righteous. What is the lesson we draw from this for our current topic? It is not speaking for God or having complaints against Him that matters; whatever it may be, it has to be the truth, and not made-up things. Even if spoken in favor of God, if what is spoken is not according to God’s Word, God’s attributes and characteristics, according to what God has revealed Himself to be, then God will neither accept those words spoken in His favor nor reward anyone for them. Rather, things favorably spoken, preached, and taught about God, but not actually in accordance with what God’s Word says about Him, God considers them as “not spoken of Me what is right” and “folly”, and they invite God’s retribution not rewards for those who do so.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.



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बुधवार, 27 सितंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 32 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 18

परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 3

 

    पिछले लेख में हमने देखा था कि कैसे शैतान बड़े चुपके से और बहुत चालाकी से परमेश्वर के समर्पित और भक्त लोगों में होकर काम करता है, उन लोगों को जो परमेश्वर के वचन को अच्छे से जानते हैं, उससे सिखाते और प्रचार करते हैं, परमेश्वर के प्रति उनके प्रेम, श्रद्धा, समर्पण, आदि की अभिव्यक्तियों में, उन से बाइबल के लेखों और वाक्यांशों में उनकी समझ और इच्छा के अनुसार कुछ बातें जुड़वा देता है, बाइबल के उन लेखों और वाक्यांशों को उस अर्थ और अभिप्राय के साथ उपयोग करवाता है जो बाइबल में नहीं दिया गया है। ये दोनों ही बातें, अपनी ओर से बाइबल के लेखों और वाक्यांशों में कुछ जोड़ना, और बाइबल की बातों के अर्थ और अभिप्राय में अपनी समझ के अनुसार कुछ जोड़ना, परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट करने के, उसे मनुष्य के वचन में बदल देने के स्वरूप हैं, चाहे बाहर से वह वचन परमेश्वर का ही कहा और देखा जाता है।


    बहुत से मसीही विश्वासियों के लिए इस बात को समझना या स्वीकार करना कठिन होगा, और उनके लिए उससे भी अधिक कठिन होगा इसे अपने जीवनों में सुधारना। ऐसा करना विशेषकर उनके लिए कठिन होगा जिन्होंने ने ऐसी अभिव्यक्तियों को अपने पसंदीदा और अति आदरणीय अगुवे, मार्गदर्शक, और शिक्षक से लिया और सीखा है। इसे सुधारना उनके लिए भी कठिन होता है जिनके लिए बाइबल की इन बातों को बाइबल के बाहर के अर्थों के साथ औपचारिक रीति से बोलते और उपयोग करते हुए प्रार्थना और आराधना चढ़ाने की आदत हो गयी है। उनके लिए आदत में होकर बोली जाने वाली ये रटी हुई अभिव्यक्तियाँ, प्रत्येक प्रार्थना और आराधना – चाहे वह व्यक्तिगत हो अथवा सार्वजनिक, में उपयोग करने के लिए “मान्यता प्राप्त मानक” और “आवश्यक” बातें हैं; और वे इन्हें औरों को, नए मसीही विश्वासियों को भी सिखाते हैं।


    हम शैतान के इस बहुत चालाकी द्वारा और चुपके से परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट करने के प्रयास को बाइबल के कुछ उदाहरणों के द्वारा देखेंगे और समझेंगे। हम आज एक उदाहरण को देखेंगे, और फिर अगले लेख में अन्य को भी देखेंगे।


    प्रभु यीशु के बपतिस्मे के तुरंत बाद, और सेवकाई से ठीक पहले शैतान द्वारा ली गई उनकी परीक्षा पर ध्यान कीजिए। यद्यपि प्रभु की यह परीक्षा चालीस दिन तक चली थी (लूका 4:2), किन्तु हमारे लिए परमेश्वर के वचन में केवल अंतिम तीन परीक्षाएँ ही लिखी गई हैं। इन लिखी गई तीन परीक्षाओं में शैतान प्रभु के सामने उस समय उपलब्ध पवित्र शास्त्र, हमारा वर्तमान पुराना नियम, में लिखी हुई बातों को लेकर आता है। शैतान द्वारा लाई गई प्रत्येक परीक्षा के प्रत्युत्तर में प्रभु उसे उसी पवित्र शास्त्र की एक और बात कह कर चुप करता है। हमारे वर्तमान सन्दर्भ के लिए ध्यान देने योग्य बात है कि न तो प्रभु ने कभी शैतान पर किसी अन्य शास्त्र से लेकर कुछ कहने का दोष लगाया, और न ही उसे पवित्र शास्त्र के लेख में कुछ फेर-बदल कर के प्रभु के सामने प्रस्तुत करने का दोषी ठहराया। दूसरे शब्दों में, शैतान ने पवित्र शास्त्र के वास्तविक लेख का ही उपयोग किया, किन्तु उसे ऐसे अनुचित अर्थ और अभिप्रायों के साथ उपयोग किया जो पवित्र शास्त्र में उस लेख के लिए नहीं दिए गए हैं। यह भी ध्यान कीजिए कि शैतान की बात का उत्तर देने के लिए, न तो प्रभु ने शैतान को परमेश्वर के शब्दों को बदलने का दोषी ठहराया, और न ही उसके द्वारा पवित्र शास्त्र से लेकर कही बात को वापस सही करने के लिए उसमें कुछ सुधार या परिवर्तन किया। शैतान की युक्ति का प्रत्युत्तर देने के लिए परमेश्वर को केवल उस बात का वास्तविक अर्थ और अभिप्राय स्पष्ट करना पड़ा, जो प्रभु ने पवित्र शास्त्र के एक अन्य भाग के उपयोग के द्वारा कर दिया।


    इसलिए, शैतान की गतिविधियों से संबंधित बाइबल के इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि यह संभव है कि बाइबल के किसी बात का हवाला दिए जाते समय बाइबल का वास्तविक लेख तो कहा जाए, किन्तु उसे बाइबल के बाहर के अर्थ और अभिप्राय, वे जो उस लेख के बारे में बाइबल में नहीं लिखे गए हैं, देने के द्वारा उसे परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट करने के लिए दुरुपयोग किया जाए। साथ ही इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि शैतान ने यह प्रभु यीशु के साथ किया जो स्वयं ही, देहधारी होकर आया हुआ जीवता वचन था! यदि शैतान स्वयं परमेश्वर, देहधारी स्वरूप में “वचन” ही के विरुद्ध वचन के गलत अर्थ और अभिप्राय लाने की यह हिमाकत, यह धूर्तता कर सकता है, तो हमारे साथ क्यों नहीं करेगा? यद्यपि वह उस अचूक, सर्वज्ञानी, सर्वसामर्थी, अनन्तकालीन प्रभु के विरुद्ध कदापि सफल नहीं हो सकता था, लेकिन यह हमारे लिए सत्य नहीं है। शैतान बड़ी सरलता से हमें कभी भी भरमा और बहका सकता है अगर हम परमेश्वर के वचन के लेख और अर्थ तथा अभिप्रायों के प्रति पूर्णतः सच्चे और ईमानदार, उसका ठीक वैसे ही पालन तथा उपयोग करने वाले नहीं होंगे जैसा कि उसके विषय बाइबल में लिखा गया है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Altering God’s Word – 3

 

    In the previous article we have seen how Satan very subtly and cleverly induces the committed and godly people, people well versed in the Scriptures, those who preach and teach the Word of God, to inadvertently, as an expression of their love, reverence, and commitment for God, to add things to Biblical texts and phrases, and to use them with meanings and implications not written about them in the Bible; things that are according to their own understanding and desires, but not stated in the Bible. Both of these, adding things from one’s own side, and adding meanings and implications according to one’s own understanding, are forms of corrupting God’s Word, of converting it to man’s word, though on the outside it is said and seen as God’s Word.


    For many Christian Believers, this may be a difficult or problematic concept to accept and understand, and will be even more difficult to correct in their lives. It is especially so for those who have taken and accepted these expressions from their favorite and esteemed leader, guide, or elder. It is also very difficult for those to correct, who are now are habituated to using these extra-Biblical forms and meanings of Biblical expressions by rote, perfunctorily, as “standard” or “necessary” expressions of offering prayers and worship to God, whether privately or publicly, as well passing them on to others, the new Believers in Christ.


    We will try to clarify and understand this subtle but devious ploy of Satan to corrupt God’s Word, through some Biblical examples. We will take one example today, and then consider others in the next article.


    Consider the ‘Temptations of Christ’ by Satan, immediately after His baptism, and just before He started His public ministry. Though He was tempted for forty days by the devil (Luke 4:2), yet only the last three temptations have been recorded for us in God’s Word. In these three recorded temptations, the devil brings before the Lord Jesus things written in the then available Scriptures, the present Old Testament. For each temptation, the Lord countered and silenced the devil with another quote from the same Scriptures. For our present context, the thing to note here is that the Lord never accused Satan of either quoting from some other scripture, or of altering the Scriptural text, while stating it to Him. In other words, Satan used the actual Scriptural text, but did so with an inappropriate meaning and implication. Satan misapplied and thereby misused Scriptural text, by ascribing meanings and implications to it that were never given, meant, or implied about it in the Scriptures. Take note that, in answering Satan, the Lord did not accuse him of changing the text of God’s Word, nor did the Lord have to correct any of the texts that Satan quoted to the Lord, to revert them back to their actual form. To counter Satan’s ploy, all that the Lord did was to clarify the actual meaning and implication of the Scriptural text that Satan was misusing to tempt Him, by using another Scriptural text.


    So, it is evident from this Biblical example of satanic activities that an actual Biblical text while being quoted, can also be misused by ascribing non-Biblical meanings and implications to it, thereby subverting and corrupting God’s Word. And also note that Satan did this with the Lord Jesus – the Living Word who became flesh! If Satan can have the audacity to attempt this against God, against ‘The Word’ Himself, then why will he not do it against us? Though he could never have been successful in any of his attempts against the infallible, omniscient, omnipotent, eternal Lord; but the same does not hold true for us, and Satan can easily mislead us, unless we remain totally true and adherent to God’s Word, in its text as well as its meaning, implications, and use, just as it has been given in the Bible.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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