परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 8
प्रेरित पौलुस से परमेश्वर के वचन का उपयोग करने, उससे व्यवहार करना सीखने के लिए हम 1 कुरिन्थियों 2:4-5 को देख रहे हैं। हम ने पिछले लेख में देखा था कि यद्यपि पौलुस बड़ी प्रभावी पत्रियाँ लिख सकता था, लेकिन वह एक प्रभावी वक्ता के रूप में नहीं जाना जाता था। लेकिन इसके कारण उसने अपने आप को कभी किसी रीति से सीमित नहीं समझा, और उसकी इस अयोग्यता के बावजूद, परमेश्वर ने उसे बहुत सामर्थी रीति से उपयोग किया, क्योंकि वह हमेशा ही परमेश्वर को पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी रहता था। परमेश्वर के वचन का उपयोग करने, उस से व्यवहार करने में हमेशा ही पौलुस का उद्देश्य कभी भी अपने लिए कोई महिमा अथवा प्रशंसा प्राप्त करना नहीं होता था, किन्तु परमेश्वर द्वारा उसे दी गई सेवकाई द्वारा सारी महिमा परमेश्वर ही को देना होता था। पिछले लेख में हमने पौलुस द्वारा अपनी सेवकाई में अपनी ही बुद्धि के उपयोग के बारे में देखना आरम्भ किया था, और आज उसे ही ज़ारी रखेंगे।
यद्यपि पौलुस यहूदियों के पवित्र शास्त्र, हमारे पुराने नियम, को बहुत अच्छे से जानता था, किन्तु उसके श्रोता, गैर-यहूदी या अन्यजाति, जिनके बीच परमेश्वर ने उसे सेवकाई सौंपी थी, उस पवित्र शास्त्र को नहीं जानते थे। इसलिए पौलुस के पास कोई तरीका ही नहीं था कि वह उनके मध्य पवित्र शास्त्र के बारे में अपने ज्ञान, बुद्धि, और समझ को प्रदर्शित कर सके। उन लोगों को उस सुसमाचार, उस सन्देश को बताने और समझाने के लिए, जो सन्देश परमेश्वर उन लोगों को देना चाहता था, पौलुस को पहले उसे परमेश्वर से प्राप्त करना होता था, और तब ही वह उसे उन लोगों को देने पाता था, और वह यही किया करता था (1 थिस्सलुनीकियों 4:1-2)। इस तरह, हम देखते हैं कि परमेश्वर ने पौलुस और उसकी सेवकाई के लिए बातों को इस तरह से नियोजित किया था, कि शैतान किसी भी प्रकार से उसे अपने चंगुल में फंसा कर उसे और उस के ज्ञान, बुद्धि, समझ को, औरों के लिए तथा स्वयं उसके लिए भी ठोकर का कारण नहीं बना सकता था। और पौलुस इसके बारे में बहुत स्पष्ट था, वह खुल कर मान लेता है कि उसका प्रचार उसके अपने किसी ज्ञान-बुद्धि अथवा योग्यता के द्वारा नहीं था (1 कुरिन्थियों 2:1, 4)। क्योंकि पौलुस केवल वही प्रचार करता और सिखाता था जो उसे प्रभु से प्राप्त होता था (1 कुरिन्थियों 11:23), इसी लिए वह बड़े आधिकारिक तौर से, निःसंकोच होकर, अपने सन्देश को सभी को दे सकता था, बिना कभी भी किसी के भी द्वारा किसी भी प्रकार से गलत ठहराए जाने या किसी त्रुटि में होने के कहे जाने भय के; और न ही कोई उस पर वचन के दुरुपयोग का कभी दोष लगा सकता था।
पौलुस ने इसी बात को कुछ भिन्न शब्दों में, इससे अगले अध्याय में, अर्थात 1 कुरिन्थियों 3:5-8 में भी कहा; यहाँ पर वह परमेश्वर के वचन के बोए जाने को कहने के लिए बीज बोने के रूपक का उपयोग करता है। यहाँ, वह पद 5 में कहता है कि उसे और अपुल्लोस को बीज, अर्थात वह वचन जो उन्हें बोना था, वह परमेश्वर ही ने दिया; फिर पद 6 में वह कहता है कि परमेश्वर ने जो दिया था, उसे उसने बोया, और अपुल्लोस ने उसे सींचा, लेकिन उसे बढ़ाने वाला, अर्थात, उसे उगाने और उसमें फल लाने वाला परमेश्वर ही था। इसीलिए, वह पद 7-8 में सारा श्रेय परमेश्वर को देता है, अपने लिए अथवा अपने सहकर्मी अपुल्लोस के लेने के लिए कुछ भी नहीं रख छोड़ता है।
कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी अपनी दूसरी पत्री के समापन की ओर आते हुए, 2 कुरिन्थियों 9:10 में, पौलुस इसी रूपक का उपयोग करते हुए परमेश्वर को “बोने वाले को बीज” देने वाला बताता है। अर्थात, परमेश्वर ही है जो बीज, यानी कि अपना वचन उन्हें देता है जो सेवकों के समान उसे समर्पित हो जाते हैं; उन्हें जो अपने ही ‘बीजों’ को बोने और सींचने वाले नहीं, वरन परमेश्वर के द्वारा दिए गए ‘बीज’ बोने और सींचने वाले होते हैं। और तब परमेश्वर अपने बीज को बढ़ाता है, अर्थात अपने बीज से फल और फसल देता है; जो मनुष्य की बुद्धि और ज्ञान के ‘बीज’ के साथ हो पाना संभव नहीं है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया, बीज प्राप्त करने से लेकर फसल प्राप्त करने तक, पूर्णतः परमेश्वर पर ही निर्भर है। यदि कोई प्रभु के लिए एक पूर्णतः समर्पित और केवल उसी का आज्ञाकारी सेवक, जैसा कि पौलुस था, बनने के लिए तैयार है, तो परमेश्वर न केवल उन्हें उपयुक्त संसाधन, अर्थात समय, स्थान, और आवश्यकता के अनुसार लोगों के लिए उपयुक्त वचन उपलब्ध करवाएगा, जिसे उन लोगों के मध्य दिए जाने की आवश्यकता है, और सेवकों से उन संसाधनों का सही उपयोग भी करवाएगा, वरन उनके प्रयासों पर आशीष और उनके कार्य के लिए प्रतिफल भी देगा (1 कुरिन्थियों 2:8)। अब, जब सभी कुछ परमेश्वर से ही है, और लाभांश स्वर्गीय तथा अनन्तकालीन हैं, तो फिर नश्वर मानवीय सोच, ज्ञान, और बुद्धि की कोई आवश्यकता या महत्व रह ही नहीं जाता है।
इसलिए परमेश्वर के वचन के उपयोग और उसके साथ व्यवहार के सर्वोत्तम परिणामों के लिए, हमें वही और वैसा ही करना चाहिए जैसा पौलुस ने किया – परमेश्वर से पूछें, उसी पर निर्भर रहें, उसे आप को बता लेने दें कि कहाँ पर, कब, कैसे, और क्या कहना है। तब परमेश्वर का वचन कभी निष्फल नहीं जाएगा, वरन जिस काम के लिए भेजा गया है उसे करेगा (यशायाह 55:11); और अपने समय था तरीके से परमेश्वर न केवल आशीष देगा, वरन अनन्तकालीन प्रतिफल भी देगा। किन्तु यदि हम कार्यों को अपनी समझ और बुद्धि से, अपने तरीकों से करने लग जाएँगे, तो वह व्यर्थ या निष्फल परिश्रम ठहरेगा जो आशीष और प्रतिफल नहीं बल्कि परेशानियाँ लाएगा। अगले लेख में हम उन विषयों को देखेंगे जिन्हें पौलुस ने अपनी सेवकाई में, वचन के उपयोग तथा उस के साथ व्यवहार के लिए प्रयोग किया।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 8
In learning from the Apostle Paul about utilizing and handling God’s Word, we have been considering 1 Corinthians 2:4-5. We saw in the previous article that though Paul could write impressive letters, yet he was not known to be an impressive speaker. But he never felt handicapped because of this, and despite this inability, God used him mightily, since he always remained fully surrendered and obedient to God. Paul’s aim in utilizing and handling God’s Word was never to gain any glory or appreciation for himself, but to give God all the glory through his ministry, that had been entrusted to him by God. We had started to consider about Paul’s wisdom and in the previous article, and will carry on with it today.
Though Paul was very well versed in the Scriptures of the Jews, i.e., our Old Testament, but his audience, the Gentiles, amongst whom God had appointed him his ministry were not. Therefore, Paul could not in any way show-off his knowledge and his wisdom of those Scriptures to them. To convey and make them understand the gospel, the message that God wanted him to deliver to the Gentiles, Paul had to first receive it from God, and then pass it on, and that is what he used to do (1 Thessalonians 4:1-2). Hence, we see that God had so arranged things for Paul and his ministry, that there was no way that Satan could manipulate and turn his wisdom into becoming a stumbling block for him and others. And Paul is very frank about this, he openly admits that his preaching was not with any of his wisdom or ability of his own (1 Corinthians 2:1, 4). Because Paul preached and taught only what he received from the Lord (1 Corinthians 11:23), therefore, he could very authoritatively, unhesitatingly present his message to everyone, without fear of ever being proven wrong, or in error, in any manner; and no one could accuse him of misusing God’s Word in any manner.
Paul says the same in different words, in the next chapter, i.e., in 1 Corinthians 3:5-8, where he uses the analogy of sowing seed to illustrate his sowing God’s Word. Here, in v. 5 he says God gave to him and Apollos, the seed, i.e., the Word they had to sow; then in v. 6, he says that he planted what God had given, and Apollos watered or nurtured that seed, but the increase, i.e., its growing and bringing fruit was from God. Therefore, in v. 7-8 he gives the entire credit to God, keeping nothing for himself or his colleague, Apollos.
Paul uses the same analogy as he concludes his second letter to the Corinthians, in 2 Corinthians 9:10, naming God as the one who “supplies seed to the sower.” So, it is God who provides the seed, i.e., His Word, to those who submit to Him as His laborers, i.e., those willing to plant and water not their own, but the seed provided by Him; and then God gives the increase from His seed, i.e., the fruit or the harvest through His Word, and not through words of man’s wisdom. The whole process, from receiving the seed to receiving the harvest is totally dependent upon God. If one is willing to be a fully surrendered and completely obedient only to the Lord type of laborer, like Paul was, then, God will not only provide the appropriate resources to them, i.e., His appropriate Word for the time, place, and need, of the people amongst whom it has to be used, and have them use His resources appropriately, but will also bless their efforts and eventually reward them for their labor (1 Corinthians 2:8). When everything is from God, and the returns are heavenly and eternal, then there is no need or scope of any temporal human wisdom.
Therefore, to get the best results for utilizing and handling God’s Word, we need to do it in the manner Paul used to do it – ask God, depend upon Him, let Him tell you what to share, where, when, and how. Then, God’s Word will never go vain but accomplish what it was sent for (Isaiah 55:11); and in His time and manner, God will not only give blessings, but will also give eternal rewards. But if we start doing things our own way, according to our own wisdom, then it will be a vain labor that will create problems instead of any blessings and rewards. In the next article we will consider the subjects of Paul’s utilizing and handling God’s Word, in his ministry.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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