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परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 9
पिछले लेख में, पौलुस के द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग और उससे व्यवहार के उदाहरण के रूप में 1 कुरिन्थियों 2:4-5 पर विचार करते हुए, हमने देखा था कि वह तथा उसका सह-कर्मी, अपुल्लोस, दोनों ही पूर्णतः परमेश्वर पर ही निर्भर रहते थे, और जो भी वचन परमेश्वर उन्हें देता था, वे उसी का उपयोग करते थे, एक-दूसरे की सेवकाई में सहायता करते थे। उन में से कोई भी परमेश्वर का कार्य करने के लिए अपनी ही बुद्धि, ज्ञान, और योग्यताओं का उपयोग नहीं करता था; और न ही कभी पौलुस ने, एक अच्छा वक्ता न होने के कारण अपने आप को कभी हतोत्साहित अनुभव किया। अपनी सेवकाई के प्रत्येक पक्ष के लिए वे पूर्णतः परमेश्वर पर निर्भर रहते थे, और इसीलिए वे परमेश्वर के लिए इतने सफल और फलवन्त थे। जो शिक्षा हमने सीखी थी, वह थी कि परमेश्वर के द्वारा हमें सौंपी गई सेवकाई के निर्वाह के लिए, हमें भी हर बात में पूर्णतः परमेश्वर पर निर्भर रहने, उसके मार्गदर्शन और निर्देशों का पालन करने की आवश्यकता है। तब ही परमेश्वर हमें उपयोग करेगा, आशीष देगा, और अनन्तकालीन प्रतिफल देगा, चाहे हमारी कोई भी योग्यता अथवा दुर्बलता क्यों न हो। आज हम पौलुस की सेवकाई के विषय पर थोड़ा विचार करेंगे।
पौलुस 1 कुरिन्थियों 2:4 के अंत में कहता है कि उसका वचन और प्रचार “आत्मा और सामर्थ का प्रमाण था।” लेकिन इस से ठीक पहले पद में वह कहता है, “और मैं निर्बलता और भय के साथ, और बहुत थरथराता हुआ तुम्हारे साथ रहा” (1 कुरिन्थियों 2:3)। यह कोई विरोधाभास नहीं है, परन्तु कुरिन्थुस में उसकी सेवकाई (प्रेरितों 18:1-18) के दौरान उसकी दो प्रकार की स्थिति का उल्लेख है। शारीरिक रीति से पौलुस निर्बल, भयभीत, और डर से थरथराता हुआ था; संभवतः क्योंकि उसके विरुद्ध विरोध बढ़ता जा रहा था और उसे यहूदियों से शारीरिक हिंसा की धमकियाँ भी आ रही थीं (प्रेरितों 18:12-18), और परमेश्वर को उसे ढाढ़स देना पड़ा था (प्रेरितों 18:9)। यह कुछ वैसा ही था जैसा एलिय्याह ने ईज़ेबेल के हाथों, बाल के नबियों का संहार करने के बाद अनुभव किया था (1 राजाओं 19:1-9)। लेकिन आत्मिक रीति से, अपने प्रचार के द्वारा, उसने परमेश्वर पवित्र आत्मा की अधीनता और सामर्थ्य से सेवकाई करना प्रदर्शित किया था।
यह कई बार कहा भी गया है, और हमने देखा भी है कि परमेश्वर द्वारा पौलुस के लिए निर्धारित सेवकाई, प्राथमिक रीति से सुसमाचार का प्रचार करना था, और वह भी अन्यजातियों के मध्य में। लेकिन परमेश्वर ने उसे और भी वरदान दिए थे, जैसे कि सामर्थ्य के अनोखे कार्य करना, चंगाई देना, दुष्टात्माओं को निकालना, और मृतकों को भी जीवित कर देना (प्रेरितों 16:18; 19:11-12; 20:9-12; 28:8)। पौलुस को तब तक गुप्त रखी गई बातों के भेदों को समझने का भी वरदान मिला था (1 कुरिन्थियों 2:7; 4:1; इफिसियों 3:3-4)। लेकिन पौलुस कुरिन्थुस की मण्डली को स्मरण करवाता है कि जब वह उनके पास आया, तो उसने आ कर इनमें से किसी भी वरदान का प्रदर्शन नहीं किया, वरन परमेश्वर ने उन लोगों के लिए जो उसे दिया था – सुसमाचार (1 कुरिन्थियों 15:1-4), वही सुनाया। इसीलिए वह 1 कुरिन्थियों 2:2 में कहता है “क्योंकि मैं ने यह ठान लिया था, कि तुम्हारे बीच यीशु मसीह, वरन क्रूस पर चढ़ाए हुए मसीह को छोड़ और किसी बात को न जानूं।” दूसरे शब्दों में, कुरिन्थुस में परमेश्वर उस से केवल प्रभु यीशु मसीह के बारे में, उसके क्रूस पर चढ़ाए जाने के बारे में प्रचार चाहता था। जैसा हमने पहले भी देखा है, पौलुस ने कुरिन्थुस में लगभग डेढ़ वर्ष तक सेवकाई की (प्रेरितों 18:11), परमेश्वर का वचन सिखाता रहा।
अब, यहाँ पर हमें कुरिन्थुस शहर के बारे में कुछ ध्यान रखने की आवश्यकता है। जिस समय पौलुस ने कुरिन्थुस में सेवकाई की, वह यूनान का एक बहुत प्रमुख शहर था, व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। इस कारण से वहाँ पर सभी स्थानों से बहुत से लोगों का आना-जाना लगा रहता था, और वह एक मूर्तिपूजा का तथा नैतिक रीति से बहुत भ्रष्ट स्थान बन चुका था। ऐसे स्थान पर पौलुस ने परमेश्वर के वचन का प्रचार किया, किसे वाक्पटुता अथवा बुद्धि-ज्ञान-समझ के द्वारा नहीं, किन्तु सीधे साधारण शब्दों और शैली में। और फिर भी वह वहाँ पर एक कलीसिया को स्थापित कर सका और उसके इतने चाहने वाले हो गए कि वहाँ रहने वाले यहूदी उससे जलन रखने लगे और उसके शत्रु बन गए (प्रेरितों 18:6, 12)। यदि पौलुस कोई अच्छा वक्ता होता, या अपने बुद्धि-ज्ञान को प्रदर्शित करता, तो भी यह कहा जा सकता था कि उसके प्रचार के परिणाम उसकी इन योग्यताओं के कारण थे; लेकिन उस में ये योग्यताएँ थी ही नहीं। इसीलिए पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 2:4-5 में जो बात कही, कुरिन्थुस में उसकी सेवकाई के परिणाम उस बात की पुष्टि करते हैं। वहाँ पर उसकी सेवकाई की सफलता केवल उसके पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और आज्ञाकारिता में कार्य करने के द्वारा थी, और कोई भी उस सफलता का श्रेय, उसकी वाक्पटुता या बुद्धि-ज्ञान को नहीं दे सकता है।
एक बार फिर से यह हमारे सामने इस बात की पुष्टि करता है कि जब परमेश्वर के वचन का उपयोग और उस से व्यवहार परमेश्वर के मार्गदर्शन और उसकी आज्ञाकारिता में किया जाता है, परमेश्वर द्वारा सौंपी गयी सेवकाई पर केन्द्रित कर के किया जाता है, तो परिणाम किसी की भी कल्पना या विचारों से कहीं बढ़कर होते हैं। न तो वचन अथवा ज्ञान की उत्तमता, और न ही कोई अन्य योग्यता, वरन परमेश्वर को पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी रहना ही परमेश्वर को महिमा देने वाली एक सफल सेवकाई की आवश्यकताएँ हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 9
In the previous article, while considering 1 Corinthians 2:4-5, as an example of how Paul utilized and handled God’s Word in his God given ministry, we had seen that both he and his co-worker, Apollos fully depended upon God, and whatever Word God gave them, they used that, supplementing each-other’s ministry. Neither of them resorted to their own wisdom, knowledge, and abilities for doing God’s work; nor was Paul ever daunted by his not being an eloquent orator. They totally depended upon God for every aspect of their ministry, and that is why they were so successful and fruitful for the Lord. The lesson we learnt was that in utilizing and handling God’s Word for our God assigned ministries, we too need to totally depend upon God, follow His guidance and instructions. Then, God will use us, bless us, and give us eternal rewards, despite any inabilities or weaknesses we may be having. Today we will look at the subjects of Paul’s ministry.
Paul says at the end of 1 Corinthians 2:4 that his speech and preaching were a “demonstration of the Spirit and power.” But in the immediately preceding verse, he says “I was with you in weakness, in fear, and in much trembling” (1 Corinthians 2:3). This is not a contradiction, but mention of the two states that Paul was in in his ministry in Corinth (Acts 18:1-18). Physically, Paul was weak, afraid, even trembling with fear; the probable cause was the growing opposition and threats of physical violence from the Jews (Acts 18:12-18), and God had to strengthen him (Acts 18:9). This was something like what Elijah experienced at the hands of Jezebel, after killing the prophets of Bal (1 Kings 19:1-9). But spiritually, in his preaching, he demonstrated his ministering under the Spirit of God, and in power, through the contents of his preaching.
We have seen, and it has been stated many times that Paul’s God assigned ministry, primarily was preaching the gospel, and that too amongst the Gentiles. But God had also given him other gifts, e.g., of doing various miracles and wonders, of healing, of casting out demons, and even of raising the dead back to life (Acts 16:18; 19:11-12; 20:9-12; 28:8). Paul had also been given the gift of understanding mysteries that had been kept hidden till then (1 Corinthians 2:7; 4:1; Ephesians 3:3-4). But Paul reminds the Corinthian Church, that when came to them, he did not show-off any of these gifts, but just preached that which God had given him for them – the gospel (1 Corinthians 15:1-4). Therefore, he says in 1 Corinthians 2:2 “For I determined not to know anything among you except Jesus Christ and Him crucified.” In other words, in Corinth, God wanted him to preach about the Lord Jesus Christ; and Him being crucified. As we have seen earlier, Paul ministered in Corinth for about one and a half years (Acts 18:11), teaching the Word of God.
Here we need to keep something about the city of Corinth in mind. At the time Paul ministered in Corinth, it was a very prominent city of Greece, and a very prominent place of commerce. Because of this, many people from all over used to travel through Corinth, and it had developed an idolatrous and morally a very degraded culture. In such a place, Paul preached the Word of God, about Lord Jesus and His crucifixion, not with excellence of speech or wisdom, but in simple straightforward language, and still was able to establish a Church there, and gained such a following that the Jews there became jealous and became his enemies (Acts 18:6, 12). If Paul had been a good orator, or been able to show-off his knowledge, it could be said that his results were because of these abilities; but he did not have these abilities. Therefore, what Paul says in 1 Corinthians 2:4-5 is affirmed by Paul’s results in Corinth. The success of his ministry was only because of his working under the guidance and power of the Holy Spirit, and no one could attribute it to either his eloquence or wisdom.
This once again affirms to us that when God’s Word is utilized and handled under the guidance and obedience of God, focused on the God assigned ministry, the results can far exceed anything we can think of or imagine. Not excellence of speech and wisdom, or any other human ability, but submission and obedience to God are the requisites of an effective ministry that glorifies God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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