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मंगलवार, 24 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 59 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 45

परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 13

 

    पिछले लेख में 1 कुरिन्थियों 4:6 में पौलुस द्वारा कही गई बात “लिखे हुए से आगे न बढ़ना” पर विचार करते हुए हमने यह देखा था कि परमेश्वर ने पौलुस और अपुल्लोस को पवित्र शास्त्र में दिए गए प्रावधान उपलब्ध किए, तथा जब और जहाँ परमेश्वर उन्हें उपयोग करना चाहता था, पवित्र आत्मा के द्वारा उन्हें उपयुक्त सन्देश उपलब्ध करवाता था। आज हम पौलुस द्वारा कही गई इस बात को आगे देखेंगे, उसके व्यवहारिक उपयोग को देखेंगे।


    दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई और प्रारम्भिक कलीसिया के समय, जो लोग पवित्र शास्त्र का अध्ययन करते थे, उन्हें पुराने नियम ही से उद्धार पाने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश के बारे में पता होना चाहिए था, क्योंकि सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र प्रभु यीशु मसीह के बारे में बताता है। और अपने शिष्यों के लिए, प्रभु यीशु ने, पर्याप्त प्रावधान भी किए थे जिससे कि वे बिना परमेश्वर के वचन की किसी बात की कमी-घटी का अनुभव किये, उसका प्रचार कर सकें, शिक्षा दे सकें। हमारे लिए पतरस ने इस बात की पुष्टि 2 पतरस 1:3-4 में की है, यह कहने के द्वारा की, कि प्रभु यीशु मसीह की पहचान के द्वारा (जो केवल पवित्र शास्त्र को जानने तथा सीखने से ही हो सकता है), परमेश्वर ने हमें – मसीही विश्वासियों को, सब कुछ जो जीवन और भक्ति से सम्बन्ध रखता है, तथा बुरी अभिलाषाओं के कारण होने वाली सँसार की सड़ाहट से छूटने, और ईश्वरीय स्वभाव के संभागी होने का मार्ग, दे दिया है।


    इस प्रकार से, तब पौलुस और अपुल्लोस को जो कुछ भी चाहिए था, चाहे पवित्र शास्त्र से अथवा प्रभु से, और आज हमें जो कुछ भी चाहिए, सुसमाचार का प्रचार करने के लिए या परमेश्वर के गुप्त भेदो की बातें, या वचन में से कुछ और भी बताने और सिखाने के लिए, किसी भी प्रकार के श्रोताओं को संबोधित करने के लिए, वह पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन तथा सामर्थ्य के द्वारा, परमेश्वर के वचन में हमारे लिए पहले से ही उपलब्ध करवा दिया गया है। पौलुस और अपुल्लोस की सेवकाई के समय यह उन्हें न केवल पुराने नियम में उपलब्ध था, बल्कि पवित्र आत्मा ने उनकी समझ को परमेश्वर के वचन की गूढ़ और गुप्त बातों को समझने के लिए भी खोल दिया था, उनकी सेवकाई में उन्हें सहायता प्रदान करने के लिए। इसलिए, पौलुस इस बात से भली-भांति अवगत था कि जो कुछ पवित्र शास्त्र में लिखा है, उसे उपलब्ध करवाया गया है, अपनी सेवकाई में प्रचार और शिक्षा देने के लिए, उसे उससे बाहर जाने की उसे कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन पवित्र आत्मा ने, भावी विश्वासियों के लिए इस बात को उस से लिखवा भी दिया, जिससे कि और लोग भी उससे तथा अपुल्लोस से यह सीखें कि अपनी सेवकाई में, परमेश्वर के वचन के प्रति अपने व्यवहार तथा उसका उपयोग करने में, सभी को 1 कुरिन्थियों 4:6 में पौलुस द्वारा कही गई बात “लिखे हुए से आगे न बढ़ना” का ध्यान रखना चाहिए।


    पहले, जब हमने 1 कुरिन्थियों 1:17 पर विचार किया था, तब हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर के वचन में मनुष्य की बुद्धि और समझ की मिलावट, क्रूस के सन्देश को और अधिक प्रभावी बनाने के स्थान पर, उसे व्यर्थ कर देती है। इसलिए, जैसे पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा कहा है, किसी को भी जीवन और भक्ति से संबंधित कुछ भी बताने और सिखाने के लिए, परमेश्वर के वचन से बाहर की किसी भी बात का सहारा लेने की कोई आवश्यकता अथवा विवशता नहीं है।


    आने वाले लेखों में हम पौलुस के लेखों में से कुछ उदाहरणों को देखेंगे, कुछ बातों को जो “लिखे हुए से आगे न बढ़ना” का उल्लंघन थीं, और जिनका उपयोग अन्य लोग कर रहे थे किन्तु पौलुस बड़े ध्यान से जिन से बचकर रहता था।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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Appropriately Handling God’s Word – 13

 

    In considering the background to Paul’s statement “not to think beyond what is written” in 1 Corinthians 4:6), we had seen in the previous article, the provisions made by God in the Scriptures then available to Paul and Apollos, and also how, through the Holy Spirit, they had also been provided the appropriate message, whenever and wherever God wanted to use them. Today we will look further into the application of this statement from Paul.


    In other words, at the time of the Lord’s earthly ministry and the time of the first Church, those who studied the Scriptures, they, from the Old Testament itself, were expected to know about salvation, about entering into God’s Kingdom since all of the Scriptures spoke of the Lord Jesus. And, for His disciples, the Lord Jesus had made adequate provisions, so that they could preach and teach without any want of appropriate God’s Word. For us, Peter affirms this further in 2 Peter 1:3-4, by saying that in the knowledge about the Lord Jesus (which could only be through knowing and learning the Scriptures), God has already given to us – the Christian Believers, everything that pertains to life and godliness, and also, how to become partakers of the divine nature, and the way to escape the corruption that is in the world through lust.


    Hence everything Paul and Apollos required then, whether from the Scriptures or from the Lord, and we need now, to preach the gospel, or the mysteries of God, or anything else from the Word of God, to any kind of audience, through the help and under the guidance and power of the Holy Spirit has already been made available to us by God in His Word. At the time of the ministry of Paul and Apollos, this was available to them not only from the Old Testament, but God the Holy Spirit had opened their understanding to the deeper and hidden meanings of the Scriptures; and, the Holy Spirit was also always in them to help them in their ministry. Therefore, Paul was well aware that there was no need for him to go to anything beyond what has been given in the Scriptures for his preaching and teaching related to his ministry. But the Holy Spirit, also had him write it for posterity, that others should learn from him and Apollos that in their ministry, in their handling the Word of God, everyone should follow what Paul has said, “not to think beyond what is written” (1 Corinthians 4:6).


    Earlier, when considering 1 Corinthians 1:17, we have also seen, that any addition or mixing of human wisdom and understanding in God’s Word, instead of making the message of the Cross more effective, only renders it vain. Therefore, as the Holy Spirit, through Paul has said, there is no need nor necessity for anyone to look to anything, or in any manner, go beyond God’s Word to teach and explain to anyone, anything, pertaining to life and godliness.


    In the subsequent articles, we will see from Paul’s writings, some things that were “beyond what is written”, things that some others were using, but Paul diligently avoided.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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