Click Here for the English Translation
पवित्र आत्मा से सीखना – 9
मसीही विश्वासियों को परमेश्वर के पवित्र आत्मा का, जो उन्हें उद्धार पाने के क्षण से, उन में हमेशा निवास करने के लिए प्रदान किया गया है, योग्य भण्डारी होना है। उन्हें पवित्र आत्मा उनके मसीही जीवन जीने और उन्हें परमेश्वर द्वारा सौंपी गई सेवकाई को योग्य रीति से करने में उनका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है। यद्यपि परमेश्वर पवित्र आत्मा, उन्हें परमेश्वर का वचन सिखाने के लिए, उन में विद्यमान है, फिर भी अधिकाँश मसीही वचन को सीखने के लिए अन्य मनुष्यों और उनकी रचनाओं की ओर मुड़ जाते हैं। इसका मुख्य कारण है पवित्र आत्मा से सीखने के लिए यत्न से प्रयास करने की, उसके प्रति एक अनुशासन, समर्पण, और आज्ञाकारिता की आवश्यकता का होना। और सामान्यतः लोग इस बात को करने के लिए तैयार नहीं होते हैं; इसलिए वे आसान तरीका अपना लेते हैं, यह मान लेते हैं कि वे मनुष्यों और उनकी रचनाओं से भी उतनी ही अच्छी रीति से सीख सकते हैं। क्योंकि कोई भी मनुष्य सिद्ध नहीं है, और न ही अचूक है, इसलिए जो मनुष्यों का अनुसरण करने और उन्हीं से सीखने पर अड़े रहते हैं; और यह भी सामान्यतः उन शिक्षाओं को बिना बाइबल से जाँचे-परखे और उनकी पुष्टि किए हुए ही स्वीकार कर लेने और मान लेने के साथ किया जाता है, वे लोग झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों में पड़ जाने के बहुत बड़े और वास्तविक जोखिम में बने रहते हैं। इस प्रकार की गलत शिक्षाओं का एक सामान्य उदाहरण है लोगों के द्वारा ज़ोर देकर बाइबल के शब्दों और वाक्यांशों का बाइबल से बाहर की रीति से उपयोग करना, अर्थात, ऐसे अर्थों और अभिप्रायों के साथ, जैसे उन शब्दों और वाक्यांशों के विषय बाइबल में कहीं नहीं दिया गया है।
लेकिन एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण तथ्य पर भी ध्यान कीजिए, इन ढीठ विश्वासियों के जीवनों में भी, जो स्वयं भी गलत शिक्षाओं में पड़ते हैं तथा औरों को भी उन को मानने और पालन करने के लिए कहते हैं, उन के जीवनों में भी परमेश्वर का प्रेम और अनुग्रह कार्यकारी रहता है। बाइबल में उन्हें कभी भी ‘अविश्वासी’ नहीं कहा गया है, और उन से परमेश्वर की सँतान होने का उनका ओहदा कभी वापस नहीं लिया गया है। यद्यपि उन्हें अपरिपक्व, बच्चों के समान, शारीरिक, आदि कहा गया है, लेकिन फिर भी उन्हें विश्वासी ही समझा गया है; ऐसे मसीही जिन्हें इन समस्याओं से बाहर निकल कर उन्नति करने की आवश्यकता है। परमेश्वर कभी किसी को न छोड़ता है और न त्यागता है।
हमने पिछले लेख में देखा है कि यदि ये मसीही अपने आप को सुधारने से इनकार करते हैं, और ढीठ बनकर मनुष्यों और मनुष्यों की शिक्षाओं से ही सीखने में बने रहते हैं, तो वे पवित्र आत्मा से परमेश्वर के वचन को सीखने में अपने लिए गंभीर बाधाएँ खड़ी कर लेते हैं। फिर पवित्र आत्मा उन्हें ‘अन्न’ या ‘ठोस भोजन’ नहीं देने पाता है, क्योंकि वे न तो उसे ग्रहण कर सकते हैं, और न ही पचा सकते हैं। इसलिए वह उन्हें अपरिपक्व, शारीरिक मसीहियों, आत्मिक शिशुओं और बच्चों का ही भोजन, अर्थात ‘दूध’ – आधारभूत आरंभिक शिक्षाएँ ही देता रहता है। ये छः आरंभिक शिक्षाएँ इब्रानियों 6:1-2 में दी गई हैं, और पश्चाताप से आरंभ कर के अंतिम न्याय तक की, मसीही जीवन के सम्पूर्ण वर्णक्रम के बारे में हैं। इसका निहितार्थ और व्यावहारिक बात है कि जो लोग मनुष्यों और मनुष्यों के कार्यों का अनुसरण करने वाले हैं, और जो लोग परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं में अपनी ही बुद्धि के विचार और अपनी ही गढ़ी हुई शिक्षाएँ मिलाते हैं, और फिर उन्हें परमेश्वर के वचन का सत्य कहकर प्रस्तुत करते हैं, तथा औरों से उन शिक्षाओं को स्वीकार करके उनका पालन करने के लिए कहते हैं, उन्हें केवल ‘दूध’ ही दिया जाएगा, और वे औरों को भी दूध परोसने तक ही सीमित रहेंगे। दूसरे शब्दों में, वे लोग जो बाइबल से बाहर की शिक्षाओं के गढ़ने वाले, समर्थक, एवं पालन करने और करवाने वाले होते हैं, उनका सीखना और सिखाना केवल इब्रानियों 6:1-2 के आरंभिक सिद्धान्तों तक ही सीमित रहेगा। जैसा कि प्रेरित पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 3:1-3 में कहा है, वे बस शिशुओं और बच्चों के आहार ‘दूध’ ही को ग्रहण कर सकते हैं, और इसलिए उन्हें केवल ‘दूध’ ही दिया जाएगा; कोई अन्न अथवा ठोस वस्तु नहीं।
पहली झलक में यह दावा एक अतिशयोक्ति, एक बढ़ा-चढ़ा कर कही गई बात प्रतीत होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह अच्छे से जाना जाता है कि बहुत सारे विश्वासी, अगुवे, प्रचारक और शिक्षक जो कि बाइबल की बातों को बाइबल से बाहर की रीति से उपयोग करने, सिखाने, और बढ़ावा देने की गलती में फँसे हुए हैं, उनके अनुयायी भी बहुत हैं, तथा वे बहुत प्रभावी संदेश भी देते हैं। न केवल उनके संदेशों को भली-भाँति स्वीकार किया जाता है, किन्तु बहुधा वे ‘पवित्र आत्मा की अगुवाई में,’ अपने प्रचार और शिक्षाओं में ‘गूढ़ सत्य’ और ‘नए प्रकाशन’ भी प्रस्तुत करते रहते हैं। इस प्रतीत होने वाले विरोधाभास को समझने के लिए हमें इस तथ्य के प्रति जागरूक रहना चाहिए कि नया-जन्म पाए हुए लगभग सभी विश्वासी, इन आरंभिक शिक्षाओं के बारे में जानते भी नहीं हैं; और इन में से प्रत्येक शिक्षा के साथ उसके कई अन्य पक्ष भी जुड़े हुए हैं। उदाहरण के लिए, इनमें से पहली शिक्षा, मरे हुए कामों से मन फिराना, को ही लीजिए, और उसके साथ जुड़े हुए परमेश्वर के प्रेम और अनुग्रह के बारे में सोचिए जो वह पाप में मरे हुए जन से करता है, मसीह के उद्धार देने वाले कार्य के बारे में, सुसमाचार और उसकी सामर्थ्य तथा प्रभावों, आदि, के बारे में सोचिए। अब, जो इन आरंभिक शिक्षाओं के बारे में जानते भी नहीं हैं, उनके लिए, गलत शिक्षा में पड़े हुए उस अगुवे, प्रचारक और शिक्षक के द्वारा दी गई प्रत्येक ‘व्याख्या’, प्रत्येक मात्र सतह को खुरचना भर ही ‘गूढ़ सत्यों’ को प्रकट करने के समान है, उनके लिए तो वे बातें ही परमेश्वर के वचन में से दिखाए गए ‘नया प्रकाशन’ हैं। किन्तु वास्तविकता में ये सभी ‘गूढ़ सत्य,’ और ‘नए प्रकाशन’ गलतियों में पड़े हुए उस अगुवे, प्रचारक और शिक्षक को पवित्र आत्मा से मिलने वाले ‘दूध’ का ही एक भाग हैं, जो उसने स्वयं भी ग्रहण किया तथा औरों को भी परोस दिया है; वे बातें वास्तव में कोई ‘ठोस भोजन’ या अन्न नहीं हैं।
जैसा कि पिछले लेख में हमने देखा है, यदि कोई इब्रानियों 5:10-12 पर विचार करे तो यह प्रकट हो जाता है कि मसीही विश्वासियों से यह अपेक्षा रखी जाती है कि वे इन आरंभिक शिक्षाओं की बातों से और आगे बढ़ेंगे, जिस से कि शिक्षक बनें, न कि इस आरंभिक स्तर पर ही अटके रहें। ज़रा उन महिमित बातों, प्रकाशनों, और अद्भुत, कल्पना से परे, वर्णन से बाहर स्वर्गीय दर्शनों के बारे में के बारे में सोचिए जिन्हें परमेश्वर ने अपने उन बच्चों के लिए तैयार कर के रखा है (1 कुरिन्थियों 2:9-10; 2 कुरिन्थियों 12:1-4) जो ढिठाई, तथा असिद्ध, गलती करने वाले मनुष्यों और उनकी रचनाओं से सीखना छोड़कर, अपने आप को पवित्र आत्मा के अधीन ले आएँगे, और उस से, जो वचन सिखाने के लिए उन्हें दिया गया है, परमेश्वर के वचन को सीखेंगे। लेकिन जो असिद्ध, गलती करने वाले मनुष्यों और उनकी रचनाओं से ही सीखने की ज़िद्द पर अड़े रहते हैं, वे यह अपेक्षा क्यों रखें कि पवित्र आत्मा उन्हें कुछ सिखाएगा, जब वे उसकी अधीनता में आने के लिए तैयार नहीं हैं; और न ही वे यत्न से प्रयास कर के उस से सीखने, उसकी बात स्वीकार करने, और उसके निर्देशों का पालन करने, उन्हें अपने जीवन में लागू करने के लिए तैयार हैं।
साथ ही, जैसा कि पवित्र आत्मा ने बाइबल में लिखवाया है, परमेश्वर के वचन में कुछ भी जोड़ने, या उस में से कुछ हटाने की अनुमति किसी को भी नहीं है (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। इसलिए, सत्य का आत्मा होने के नाते, वह कभी भी किसी भी बाइबल से बाहर की शिक्षा, अथवा किसी भी असत्य अथवा झूठी शिक्षा का, उस के द्वारा दी गई शिक्षाओं में मिलाए जाने के साथ कभी सहमत नहीं होगा। इसलिए वह मनुष्य के विचारों और बुद्धि की बातों के बाइबल की बातों के साथ जोड़े जाने, और फिर इस मिली-जुली बात को परमेश्वर के सत्य के समान प्रस्तुत किए जाने का साथ तो कभी भी नहीं देगा। इसे थोड़ा गंभीरता से सोचिए, यदि यह करने की अनुमति हो, तो फिर यह एक शैतानी युक्ति होगी जो चालाकी से परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट करने, गलत व्याख्याओं और झूठी शिक्षाओं को सही ठहराने, और इस तरह से परमेश्वर के वचन के प्रति सन्देह उत्पन्न करने और उसे विश्वास करने योग्य नहीं रहने देने, उसे अस्वीकार्य बनाने के लिए कार्यान्वित की हुई होगी।
अगले लेख से हम देखेंगे कि विश्वासी को किस प्रकार से परमेश्वर पवित्र आत्मा से सीखना चाहिए जिस से कि वह उन्नति करे, परिपक्व हो, और एक जयवन्त जीवन जिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Learning from the Holy Spirit – 9
Christian Believers are to be worthy stewards of God’s Holy Spirit, given to them at the very moment of their salvation, to reside in them always. The Holy Spirit has been given to them to be their Helper, Companion, Teacher, and Guide, in their Christian living and for carrying out their God given ministries. Though God the Holy Spirit is with them to teach them God’s Word, yet most Christians turn to other men and their works to learn God’s Word. The main reason is because learning from the Holy Spirit requires a diligent effort with discipline, commitment, and obedience towards Him. Something, which people usually are unwilling to do; therefore, they take the easy way out of assuming that they can equally well learn from men and their works. Since no man is perfect, nor is anyone infallible, therefore those who adhere to being followers of men and learning from them, which is usually done without cross-checking and verifying the teachings from God’s Word, therefore, they remain highly prone to learning some false teachings and wrong doctrines. One common example of these erroneous teachings is the emphatic use of Biblical words and phrases, in an unBiblical manner, i.e., with meanings not given at all in the Bible about those words and phrases.
But take note of another very important fact, of the love and grace of God operative even for these recalcitrant people of God, who not only themselves fall into, but also mislead others into believing, and following erroneous teachings. They have never been called ‘unbelievers’ in the Bible, and their status of being God’s children has never been revoked from them. Though they have been called immature, childish, carnal, etc., in the Bible, but they are still considered as Believers; as Christians who need to get out of these problems and grow up. God never gives up on, or abandons anyone.
We have seen in the last article that if these Christians fail to correct themselves and stubbornly insist on being followers of men and men’s teachings, then they severely restrict their learning God’s Word from the Holy Spirit. The Holy Spirit is then unable to give them ‘solid food,’ since they are incapable of receiving and digesting it. So, He continues to feed them with the food of immature, carnal Christians, the spiritual babies and children, i.e., ‘milk’ – the basic elementary principles. These six elementary principles are given in Hebrews 6:1-2, and starting from repentance, cover the whole spectrum of Christian life, up to eternal judgement. The implication, and practical application is that those who are followers of men and men’s works, and those who bring their own thoughts and contrived teachings into teachings from God’s Word, present them to others as truths from God’s Word, and ask others to accept and follow those teachings as God’s truth, will only receive and will remain confined to receiving ‘milk’ and serving it to others. In other words, for the proponents of unBiblical teachings, as well as their followers, their learning and teachings will remain confined to the elementary principles of Hebrews 6:1-2. As the Apostle Paul has said in his letter to the Corinthians in 1 Corinthians 3:1-3, all they can handle, and therefore all they will receive is milk, the food of babies; nothing solid.
This assertion, at first glance is likely to be seen as an exaggeration, and overstatement. This is because many Believers, elders, preachers, and teachers who are caught up in the errors of using, teaching, and promoting Biblical terms in an unBiblical manner, are well known to also have a large following, and give impressive messages. Their messages are not only very well received and accepted, but they often seem to bring out ‘deeper truths’ and ‘newer expositions’ in their preaching and teachings, under the ‘guidance of the Holy Spirit.’ To understand this apparent contradiction, we need to remain aware of the fact that by far the vast majority of the Born-Again Christians, are not even aware of these elementary principles; and each of these elementary principles has numerous facets to it. Take for example the first of these principles – repentance from dead works, and think of the associated aspects of God’s love and grace in the regeneration of those dead in their sins, of Christ’s work for salvation of mankind, of the gospel with its power and effects, etc. and similarly various aspects associated with every elementary principle. Now, to those who are not even aware of these principles, every ‘exposition,’ every scratching of the surface of these principles will seem like bringing out ‘deeper truths,’ will be a new and fascinating revelation from God’s Word, being given by that errant elder, or preacher and teacher. But essentially, these ‘deeper truths,’ and ‘new revelations’ are only a component of the ‘milk’ that the errant elder, or preacher and teacher has received from the Holy Spirit and has passed on to others, and not any ‘solid food.’
But when one ponders over Hebrews 5:10-12, as shown in the previous article, it becomes apparent that the Christian Believers are expected to rise higher, go beyond these elementary principles, to become ‘teachers’, and not remain stuck at this elementary stage. Just think of what glories, what revelations, what fascinating, unimaginable, indescribable heavenly visions God has kept available for those of His children (1 Corinthians 2:9-10; 2 Corinthians 12:1-4) who would stop being stubborn, would stop learning from imperfect, fallible men, subject themselves to the Holy Spirit, and make diligent efforts to learn God’s Word from Him, their actual Teacher, given to them for God for learning God’s Word. But those who insist on learning from imperfect, fallible men and their works, why should they expect the Holy Spirit to teach them anything, when they are unwilling to submit to His authority, and be diligent to learn, accept, and apply His instructions in their lives?
Moreover, as the Holy Spirit has had written in the Bible, no additions or subtractions to God’s Word are permissible (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). Therefore, being the Spirit of Truth, He will never agree to anything unBiblical or untrue or false to be mixed and served with His teachings. He will never go with any unBiblical things added to the Biblical teachings; least of all anything of human thoughts and wisdom to be added to God’s Word, and presented as God’s truth. Give it a serious thought, if this were to be permitted, then, this would be a subtle satanic way of corrupting God’s Word, of justifying the false interpretations and wrong teachings, and thereby creating grounds to doubt and falsify God’s Word, make it unreliable and unacceptable.
From the next article we will start looking at how a Believer should start learning from God the Holy Spirit, to grow up and be mature, and to live an overcoming life.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें