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पवित्र आत्मा से सीखना – 10
प्रत्येक नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी में, उसके उद्धार पाने के क्षण से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा निवास करने लगता है, उसे परमेश्वर के द्वारा दिया जाता है, कि मसीही जीवन को जीने तथा परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई ज़िम्मेदारियों को भली-भाँति निभाने में उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक हो। पवित्र आत्मा का एक उद्देश्य है मसीही विश्वासियों को परमेश्वर का वचन, बाइबल को सिखाना; और परमेश्वर द्वारा दिए गए पवित्र आत्मा तथा परमेश्वर के वचन के भण्डारी होने के नाते, प्रत्येक विश्वासी को पवित्र आत्मा के बारे में, और परमेश्वर के वचन को सीखना है। यद्यपि लगभग प्रत्येक विश्वासी चाहता है कि ऐसा हो, लेकिन दुःख की बात है कि वास्तव में बहुत ही कम मसीही विश्वासी, उसके लिए आवश्यक प्रयास के द्वारा, इसे इच्छा से कार्य में परिवर्तित करते हैं। जिस प्रकार से मसीही जीवन एक लापरवाही से जिए जाने वाला आरामदेह जीवन नहीं है वरन उसमें यत्न से प्रयास करने पड़ते हैं; उसी प्रकार से पवित्र आत्मा से सीखने में भी न केवल यत्न से प्रयास, बल्कि साथ ही पवित्र आत्मा के प्रति एक अनुशासन, प्रतिबद्धता, और आज्ञाकारिता की आवश्यकता भी होती है। और क्योंकि अधिकाँश लोग यह करने के लिए तैयार नहीं होते हैं, इसलिए वे मनुष्यों और उनकी रचनाओं से सीखने का सरल मार्ग चुन लेते हैं, यह मानते हुए कि इस से भी बाइबल को उतनी ही अच्छे से सीखा जा सकेगा। क्योंकि कभी भी कोई भी मनुष्य बिना किसी त्रुटि का, अचूक, और सिद्ध नहीं होता है, इसलिए उनकी रचनाओं में भी यही त्रुटियाँ, चूक, और असिद्धता बनी रहती है, और दिखती रहती है। इसलिए जो विश्वासी मनुष्यों तथा उनकी रचनाओं से सीखने पर निर्भर बने रहते हैं, वे अपने आप को झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों में फँसने के जोखिम में डाले रहते हैं।
हमने यूहन्ना 14:26 और यूहन्ना 16:14-15 से देखा था कि पवित्र आत्मा के सिखाने का तरीका है कि वह प्रभु के वचनों को विश्वासी को स्मरण करवाता है और उन्हीं वचनों में से लेकर उसे बताता है। इसलिए पवित्र आत्मा से सीखने के लिए तीन बातों की आवश्यकता होती है, और तीनों को पूरा करने के लिए विश्वासी की ओर से समय और प्रयास आवश्यक है। ये तीन बातें हैं:
पहली, विश्वासी के अंदर परमेश्वर के वचन का संग्रह या भण्डार होना चाहिए, जिस में से लेकर पवित्र आत्मा विश्वासी को परमेश्वर के वचन में लिखी हुई बातों को याद दिलाएगा, और परिस्थिति के अनुसार उसे उपयुक्त वचन को लेकर बताएगा। इसलिए उसे परमेश्वर का वचन पढ़ते रहने और याद करने में समय बिताना चाहिए।
दूसरा, विश्वासी को न केवल परमेश्वर के वचन को पढ़ने के लिए, बल्कि उसका अध्ययन भी करने के लिए उचित समय देना चाहिए। इसके लिए विश्वासी को परमेश्वर तथा उसके वचन को अपने जीवन में प्राथमिक स्थान देने के लिए तैयार रहना चाहिए, और पवित्र आत्मा के निर्देशों का पालन करने के लिए समर्पित एवं आज्ञाकारी भी रहना चाहिए।
तीसरा, विश्वासियों को उन्हें मनुष्यों से मिली बाइबल से बाहर की शिक्षाओं को, जिन पर वे भरोसा करते आए हैं, पवित्र आत्मा से मिली शिक्षाओं के साथ मिलाना नहीं चाहिए। पवित्र आत्मा से मिलने वाली शिक्षाएँ हमेशा ही परमेश्वर के वचन में लिखे हुए के साथ पूर्णतः सहमत और संगत होंगी; जबकि मनुष्यों की शिक्षाओं में बाइबल के साथ असंगतियों और बाइबल से बाहर की व्याख्याओं को देखा जा सकता है।
एक बार फिर, अधिकाँश विश्वासी इन तीन आवश्यकताओं को पूरा नहीं करने पाते हैं, और इसलिए पवित्र आत्मा से सीखने नहीं पाते हैं। पिछले कुछ लेखों में हमने इन तीनों बातों को कुछ विस्तार से देखा है। आज से हम वह देखना आरंभ करेंगे जो परमेश्वर का वचन सीखने के लिए विश्वासी को करना चाहिए, एक बार जब वह पवित्र आत्मा से सीखने का निर्णय ले लेता है, प्रतिबद्ध हो जाता है।
परमेश्वर पवित्र आत्मा से सीखने की इच्छा रखने वालों को पहला काम करना है अपने अंदर से साँसारिक रवैये और व्यवहार को निकाल कर परमेश्वर के वचन के ‘निर्मल आत्मिक दूध’ की लालसा रखनी है, “इसलिये सब प्रकार का बैर भाव और छल और कपट और डाह और बदनामी को दूर करके। नये जन्मे हुए बच्चों के समान निर्मल आत्मिक दूध की लालसा करो, ताकि उसके द्वारा उद्धार पाने के लिये बढ़ते जाओ” (1पतरस 2:1-2 )। हमने 1 कुरिन्थियों 3:3 से देखा है कि “बैर भाव और छल और कपट और डाह और बदनामी” विश्वासी की अपरिपक्वता, उस के अभी भी बच्चा ही होने के चिह्न हैं; और इसके कि वह आधारभूत बातों, आरंभिक शिक्षाओं से आगे नहीं बढ़ेगा, और उसे कुछ अधिक नहीं सिखाया जा सकता है। इसलिए, अधिक तथा बेहतर सीखने के लिए, विश्वासी को शरीर की इन बातों को अपने में से निकाल बाहर करना होगा।
ध्यान दीजिए, पतरस यह नहीं लिख रहा है कि “परमेश्वर से प्रार्थना करो कि वह इन बातों को तुम्हारे जीवन में से निकाल दे” जैसा कि वे लोग जो बाइबल की बातों की बाइबल से बाहर व्याख्या करते हैं, कहना और प्रार्थना करना सिखाते हैं। पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखते हुए, पतरस मसीही विश्वासी पर ही यह करने की ज़िम्मेदारी रखता है; उन्हें ही प्रयास कर के इन बातों को निकाल बाहर करना है। पौलुस ने अपने जीवन के उदाहरण से दिखाया कि यह कैसे करना है, “परन्तु मैं अपनी देह को मारता कूटता, और वश में लाता हूं; ऐसा न हो कि औरों को प्रचार कर के, मैं आप ही किसी रीति से निकम्मा ठहरूं” (1कुरिन्थियों 9:27)। पौलुस यहाँ यह नहीं कह रहा है कि वह परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि वह उसकी देह को वश में लाए; वरन वह स्वयं इसे करता है। पौलुस ने यही बात तीमुथियुस को भी सिखाई, “तौभी परमेश्वर की पड़ी नेव बनी रहती है, और उस पर यह छाप लगी है, कि प्रभु अपनों को पहचानता है; और जो कोई प्रभु का नाम लेता है, वह अधर्म से बचा रहे। बड़े घर में न केवल सोने-चान्दी ही के, पर काठ और मिट्टी के बरतन भी होते हैं; कोई कोई आदर, और कोई कोई अनादर के लिये। यदि कोई अपने आप को इन से शुद्ध करेगा, तो वह आदर का बरतन, और पवित्र ठहरेगा; और स्वामी के काम आएगा, और हर भले काम के लिये तैयार होगा” (2 तीमुथियुस 2:19-21)। प्रमुख कर के ज़ोर दी गई बातों पर ध्यान दीजिए – परमेश्वर के वचन की शिक्षा यही है कि स्वयं विश्वासियों को ही यह कार्य करना है। बाइबल में कहीं ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जहाँ परमेश्वर ने किसी से उसकी ज़िम्मेदारी को लेकर उसके लिए उसे पूरा कर के दिया है।
परमेश्वर ने विश्वासियों को यह करने के लिए उपयुक्त सँसाधन दिए हैं, और उन्हें अपना पवित्र आत्मा दिया है कि उनकी सहायता और मार्गदर्शन करे। लेकिन वे अपनी ज़िम्मेदारी को वापस परमेश्वर को पकड़ा कर निश्चिंत होकर नहीं बैठ सकते हैं कि अब परमेश्वर ले लेगा और इसे पूरा कर देगा। यदि परमेश्वर इस प्रकार की प्रार्थनाओं को स्वीकार कर के उन से उनके कार्य को ले ले, तो फिर उसका वचन त्रुटिपूर्ण हो जाएगा – वह कहता कुछ है, और कर के कुछ और ही देता है। साथ ही यह 1 कुरिन्थियों 10:13 की प्रतिज्ञा को झूठा ठहरा देगा, तथा यह अभिप्राय देगा कि परमेश्वर सर्वज्ञानी, सिद्ध, और त्रुटि रहित नहीं है, क्योंकि उसने अपने बच्चे पर कुछ ऐसा आ लेने दिया जो उस बच्चे के सहने की क्षमता से बाहर है, और अब उस बच्चे को परेशानी छुड़ाने के लिए परमेश्वर को स्वयं इस काम को करना पड़ रहा है। इस प्रकार की गलत शिक्षाओं द्वारा बहकाया गया विश्वासी जितना अधिक समय बाइबल के बाहर की गढ़ी हुई धारणाओं में बना रहेगा, वह अपनी आशीषों की उतनी ही अधिक हानि उठाएगा, और पवित्र आत्मा से उतना ही कम सीखेगा और उन्नति करेगा।
हम इसके बारे में अगले लेख में ज़ारी रखेंगे और उन्नति करने के लिए परमेश्वर के वचन रूपी निर्मल आत्मिक दूध की लालसा रखने के बारे में सीखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 10
Every Born-Again Christian Believer has God the Holy Spirit residing in him since the moment of his salvation, given to him by God, to be his Helper, Companion, Teacher, and Guide, for living his Christian life and being able to worthily fulfil his God assigned ministry. One of the purposes of the Holy Spirit is to teach the Believer the Word of God, the Bible; and as stewards of the God given Holy Spirit and of the Word of God, ever Believer is to learn about the Holy Spirit and learn the Word of God. Though practically ever Believer may desire this to happen, but, sadly, hardly any Christian Believer actually puts the desire into practice, by putting in the effort required to learn from Him. Just as Christian life is not an easy-going life of casual living, but requires diligent efforts; similarly, learning from the Holy Spirit not only requires a diligent effort, but also a discipline, commitment, and obedience towards Him. Something, which people usually are unwilling to do. Therefore, they take the easy way out of assuming that they can equally well learn the Bible from men and their works. Since no man is ever inerrant, infallible, and perfect, therefore their works and their output also carries this same tendency of being error prone, fallible, and imperfect that keeps becoming evident now and then. Those Believers who rely on learning from men and their works therefore render themselves prone to falling into erroneous teachings and wrong doctrines.
We had seen from John 14:26 and John 16:14-15, the way the Holy Spirit teaches is by bringing the Lord’s Words to remembrance of the Believers and taking those Words and declaring them to the Believers. Therefore, learning from the Holy Spirit requires three things, and fulfilling these three requires time and effort on the part of the Believer. These three things are:
First, the Believer should have a ‘stock’ or repository of God’s Word in him, for the Holy Spirit to be able to bring things written in God’s Word to the Believer’s remembrance, to take them up from within him and declare them to him as per the situation. Therefore, he must spend time reading and memorizing God’s Word.
Second, the Believer’s should give adequate time to not only just read, but also to study God’s Word. For this, the Believer must be committed to give God and His Word the priority in his life, and be surrendered to follow and obey the instructions of the Holy Spirit.
Third, the Believers should not mix up man’s unBiblical teachings that they have received and have been relying upon, with the teachings given by the Holy Spirit to them. The Holy Spirit’s teachings will always be completely consistent with what has been written in God’s Word; whereas man’s teachings might have inconsistencies and unBiblical interpretations.
Once again, most Believers falter on these three requirements, and therefore are unable to learn from the Holy Spirit. In the previous few articles we have considered these three things in some detail. From today, we will start looking at what the Believer needs to do, once he commits himself to learning from the Holy Spirit, and decide to put in the required diligent effort.
The first thing that those who want to learn from God the Holy Spirit need to do is get rid of their worldly attitude and behavior, and develop a sincere desire for ‘the pure milk of the Word of God’ “Therefore, laying aside all malice, all deceit, hypocrisy, envy, and all evil speaking, as newborn babes, desire the pure milk of the word, that you may grow thereby” (1 Peter 2:1-2). We have seen from 1 Corinthians 3:3 that things like “malice, deceit, hypocrisy, envy, and evil speaking” are all indicators of immaturity, of the Believer still being a child, and that he will not progress beyond the basics, the elementary principles; not much can be taught to him. Therefore, to learn more and better, the Believer has to take out from within him the tendencies of the flesh.
Notice that Peter does not say “pray to God to remove these things from your life” as those who preach and teach unBiblical interpretations and applications of Biblical terms say and do. Writing under the guidance of the Holy Spirit, Peter puts the responsibility upon the Believers to do this; it is they who are to make efforts to lay these things aside. Paul showed how to do this from his own life, “But I discipline my body and bring it into subjection, lest, when I have preached to others, I myself should become disqualified” (1 Corinthians 9:27). Paul does not say here that he prays to God to discipline his body; rather it is he who does it. Paul taught the same to Timothy, “Nevertheless the solid foundation of God stands, having this seal: "The Lord knows those who are His," and, "Let everyone who names the name of Christ depart from iniquity." But in a great house there are not only vessels of gold and silver, but also of wood and clay, some for honor and some for dishonor. Therefore, if anyone cleanses himself from the latter, he will be a vessel for honor, sanctified and useful for the Master, prepared for every good work” (2 Timothy 2:19-21). Take note of the emphasized portions – the teachings from God’s Word are that the Believers must do this themselves. There is no example in the Bible of God ever having taken over from someone to fulfil their responsibility for them.
God has given Believers the necessary resources for it, and has given the Holy Spirit to help and guide them in doing this. But they cannot hand their responsibility back to God, and be content that now God will take over and do it for them. If God were to answer such prayers and take over from them, then His Word will become erroneous – He has said one thing, and is willing to do another. It will falsify the promise of 1 Corinthians 10:13, and imply that God is not omniscient, perfect, and inerrant, since He has let something beyond His child’s capacity to come upon him, and therefore, now to deliver His child from troubles, God Himself must step in. The longer the misguided Believers carry on in their unBiblical assumptions, the more loss they will suffer of their blessings and the less they will learn and grow through the Holy Spirit.
We will carry on about this in the next article, and learn about desiring the pure milk of the Word, to grow in our Christian lives.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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