Click Here for the English Translation
व्यावहारिक निहितार्थ – 3
जब तक कि व्यक्ति उस बात के बारे में जानकारी नहीं रखता है, वह न तो उसका उचित उपयोग कर सकता है, न ही उसकी सही देखभाल कर सकता है। और न ही उसे पता होगा कि किस बात या व्यवहार से उस की हानि हो सकती है, इसलिए उसे हानि से बचाकर सुरक्षित कैसे रखना है। परमेश्वर ने नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को विभिन्न प्रावधान दिए हैं जिनकी सहायता से वे अपनी बुलाहट के योग्य तथा परमेश्वर की सन्तान होने की गवाही का जीवन जी सकें। प्रत्येक मसीही विश्वासी, परमेश्वर ने उसे जो भी दिया है, उसका भण्डारी भी है; इसलिए यह उसकी ज़िम्मेदारी है कि न केवल उस प्रावधान को संभाल के रखे जो परमेश्वर ने उसे दिया है, बल्कि उसका उचित उपयोग, जैसा परमेश्वर चाहता है, भी करे। परमेश्वर द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी को दिए गए प्रावधानों में से एक है कि उसे परमेश्वर की कलीसिया का अंग बनाया गया है और उसे परमेश्वर की अन्य सन्तानों की सहभागिता में रखा गया है, और इनके लिए वह परमेश्वर का भण्डारी भी है। पिछले लेखों में हमने मत्ती 16:18 से परमेश्वर की कलीसिया के बारे में कुछ बुनियादी बातें सीखी हैं। अब हम उन सीखे गए तथ्यों के व्यावहारिक निहितार्थों के द्वारा, उन तथ्यों को उपयोग में लाना सीख रहे हैं। आज, इस के बारे में हमारे तीसरे लेख में, हम विश्वासियों द्वारा नियमित कलीसिया की सभाओं में सम्मिलित होने के बारे में देखेंगे, तब भी जब वहाँ लोगों का व्यवहार और वहाँ की परिस्थितियाँ प्रतिकूल न भी हों।
बाइबल दिखाती है कि प्रभु यीशु हमेशा ही सब्त के दिन आराधनालय में अथवा मन्दिर में जाया करता था; और वहाँ पर शिक्षा भी देता था (मत्ती 13:54; मरकुस 1:21; लूका 4:15; 6:6; यूहन्ना 6:59; 18:20)। यद्यपि उसे पता था कि उसके विरोधी वहाँ पर हमेशा ही रहते हैं, और वे उसके, उसके कार्यों के, और उसकी शिक्षाओं के विरुद्ध बोलने, तथा लोगों को उसके विरुद्ध भड़काने का कोई अवसर नहीं चूकते हैं; फिर भी इन बातों के कारण वह वहाँ जाने से कभी नहीं रुका। उसने केवल इस लिए कि धर्म के अगुवे और कुछ लोग उसे पसंद नहीं करते थे, उसके विरुद्ध बोलते थे, वहाँ जाना कभी बँद नहीं किया। परमेश्वर का वचन बाइबल इस बात की गवाही देती है कि सब्त के दिन परमेश्वर के घर में होना प्रभु की रीति थी, जिसे वह हमेशा निभाता था (लूका 4:16)। प्रभु यीशु सब्त के दिन न केवल आराधनालयों में सिखाया करता था (मत्ती 13:54; मरकुस 6:2; लूका 4:14-15, 16-20, 31-33), परन्तु जब वह यरूशलेम में होता था, तो वहाँ पर भी मन्दिर में जाया करता था, और वहाँ भी लोगों को सिखाया करता था (मरकुस 14:49; लूका 21:38; यूहन्ना 7:14; 8:2, 20)। वहाँ पर मिलने वाले अपमान और विरोध ने उसे कभी परमेश्वर के घर से दूर नहीं किया।
प्रभु यीशु के मृतकों में से पुनरुत्थान और फिर स्वर्गारोहण के पश्चात, उसके शिष्य आनन्द के साथ यरूशलेम के मन्दिर में जाया करते थे (लूका 24:52-53), यह जानते हुए भी कि यहूदी और उनके धार्मिक अगुवे उन्हें कतई पसंद नहीं करते हैं। हम यह भी देखते हैं कि जब यूहन्ना और पतरस प्रार्थना के समय मन्दिर में जा रहे थे, उस समय उन्होंने एक जन्म के लँगड़े को चंगा किया, जो फिर उनके साथ मन्दिर के अन्दर गया (प्रेरितों 3:1-8)। अर्थात, उन्हें उन लोगों के साथ प्रार्थना में जुड़ने में कोई संकोच नहीं था, जिन्होंने प्रभु को क्रूस पर चढ़ाया था; ऐसा इसलिए था क्योंकि वे वहाँ पर परमेश्वर का आदर करने, उसे महिमा देने के लिए जाते थे, न कि मनुष्यों को दिखाने या प्रसन्न करने के लिए। पिन्तेकुस्त के दिन के बाद, जब शिष्यों ने यरूशलेम में अपनी सेवकाई आरंभ कर ली, तो उन्हें ईश्वरीय निर्देश मिले कि वे मंदिर में प्रचार करें, और वह यह नियमित रीति से मन्दिर में तथा मंदिर के बाहर करने लगे (प्रेरितों 5:20, 25, 42), और वे ऐसा इसके कारण उन पर आए सताव के बावजूद करते रहे (प्रेरितों 5:28, 33, 40-42)।
इसी प्रकार से हम पौलुस के जीवन और सेवकाई से भी देखते हैं कि, यद्यपि उसे परमेश्वर द्वारा मुख्यतः अन्यजातियों के मध्य सेवकाई करने के लिए नियुक्त किया गया था (प्रेरितों 9:15; गलतियों 1:16; 2:7), फिर भी अपनी सेवकाई की यात्राओं में, वह हमेशा पहले स्थानीय यहूदी आराधनालय में जाता था, और वहाँ पर सुसमाचार प्रचार करता था (प्रेरितों 13:14-15; 14:1; 17:1-2; 17:10; 17:16-17; 18:4; 18:19; 19:8)। केवल जब वे उसे वहाँ से बाहर निकाल देते थे, तब ही वह आराधनालय में जाना बँद करता था; वह भी इसलिए नहीं क्योंकि उन्होंने उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया और उसे आदर नहीं दिया, बल्कि इसलिए क्योंकि उसे अन्दर जाने और प्रचार करने की अनुमति ही नहीं रहती थी। वह जहाँ कहीं भी जाता था, उसे पता था कि देर-सवेर यहूदी उसका विरोध अवश्य करेंगे और उसके लिए परेशानियाँ खड़ी करेंगे; लेकिन जब तक उसके पास अवसर होता था, वह हमेशा अपनी सेवकाई आराधनालय से ही आरंभ करता था, वचन के अनुसार सत्य को बोलने से नहीं रुकता था, और वहाँ से लोगों – यहूदियों और अन्यजातियों, का ध्यान आकर्षित कर लेने के बाद, वह यहूदी आराधनालय के बाहर भी अपनी सेवकाई ज़ारी रखता था, अन्यजातियों और यहूदियों, दोनों के मध्य, जो भी उसकी बात सुनना चाहता था।
उपरोक्त हवालों से हम पौलुस की सेवकाई से सम्बन्धित एक और महत्वपूर्ण बात को भी देखते हैं, वह सबत के दिन आराधना के लिए आराधनालय में जाया ही करता था; और इसी से उसे उस स्थान के समाज में उन्हें सुसमाचार प्रचार करने के लिए मार्ग मिलता था; कभी-कभी तो उसे प्रचार के लिए निमंत्रण भी दिया गया (प्रेरितों 13:14-15)। अतः, यह जानते हुए भी कि देर-सवेर उस पर विरोध और सताव अवश्य ही आएँगे, और तब उसे आराधनालय जाना बँद करना पड़ेगा, पौलुस ने, जहाँ कहीं भी वह जाता था वहाँ पर न तो सब्त के दिन आराधना के लिए परमेश्वर के भवन में जाना छोड़ा, और न ही वहाँ पर जाकर परमेश्वर के वचन का सत्य और सुसमाचार का प्रचार करना छोड़ा। यह सभी विश्वासियों के लिए एक महत्वपूर्ण शिक्षा है, विशेषकर उनके लिए जो कलीसिया या मण्डली न जाने के बहानों की तलाश में रहते हैं। जैसा कि हमने इन निहितार्थों के पहले लेख में देखा था, जब तक कि विश्वासी को कलीसिया या मण्डली से बाहर नहीं निकाल दिया जाता है, उसे सक्रिय रहते हुए वहाँ सम्मिलित होते रहना ही चाहिए, चाहे वहाँ उसे कैसी भी बातों का सामना क्यों न करना पड़े।
तो हम चाहे प्रभु यीशु के, या उसके शिष्यों के, या पौलुस के जीवन और उदाहरण को देखें, परमेश्वर का वचन हमें यही दिखाता है कि परिस्थितियाँ और समस्याएं चाहे जो भी हों, प्रभु यीशु के अनुयायियों को परमेश्वर के भवन में आराधना तथा अन्य सभाओं के लिए सम्मिलित होना ही चाहिए। क्योंकि वहीं से परमेश्वर उन्हें उसके लिए उपयोगी होने, सुसमाचार प्रचार करने, और अपनी सेवकाइयों में फलवन्त होने के अवसर प्रदान करेगा। कलीसिया में नहीं जाने के तरीकों और बहानों की बजाए, कलीसिया का भण्डारी होने के नाते, मसीही विश्वासी की ज़िम्मेदारी है कि वह हमेशा कलीसिया की सभाओं में सम्मिलित हो, वहाँ पर केवल एक मूक दर्शक बनकर ही नहीं रहे वरना वहाँ पर अपने समय का सदुपयोग करे, और कलीसिया या मण्डली की उन्नति एवं बढ़ोतरी में सक्रिय भूमिका निभाए – इस पर हम अगले लेख से विचार करना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
******************************************************************
English Translation
Practical Implications – 3
Unless a person knows about a particular thing, he can neither properly utilize it, nor look after it appropriately. He will also not know what can harm it, therefore, how to keep it safe and secure from harm. God has given to the Born-Again Christian Believers various provisions for them to live a life worthy of their calling, as well as one that witnesses to the world of their being God’s children, through their help. Every Christian Believer is a steward of whatever God has given him; so, it is his responsibility to not only keep that provision safe but also to utilize it worthily, in the manner God wants him to. One of God’s provisions to every Christian Believer is his being made a member of God's Church and brought into fellowship with other of God’s children, and he is also a steward of God for these. In the past articles we have learnt various fundamental things about the Church of God, using Matthew 16:18 as our lead verse. We are now putting those facts to use, by learning their practical implications. Today, in our third article on this topic, we will see about the Biblical point of view on Believers regularly attending Church and fellowship, even despite receiving an unpalatable behavior and unfavorable circumstances.
The Bible shows us that the Lord Jesus always went to the synagogue or the Temple on the Sabbath; and He also taught there (Matthew 13:54; Mark 1:21; Luke 4:15; 6:6; John 6:59; 18:20). Though He knew that His detractors were always there and they never lost an opportunity to speak against Him, His works, and His teachings, and to stir up the people against Him; yet all this never stopped Him from going there. He never gave up on it just because the religious leaders and some people did not like Him, and spoke against Him over there. God’s Word the Bible testifies that it was customary for Him to attend worship in God’s House on the Sabbath (Luke 4:16). The Lord Jesus not only preached in the Synagogues on the Sabbath (Matthew 13:54; Mark 6:2; Luke 4:14-15, 16-20, 31-33), but when in Jerusalem, He also went to the Temple, and taught the people in the Temple premises (Mark 14:49; Luke 21:38; John 7:14; 8:2, 20). The presence of humiliation and opposition over there, never made Him stay away from the House of God.
After the Lord’s resurrection and ascension to heaven, the disciples used to go to the Temple in Jerusalem joyfully (Luke 24:52-53), although they knew that the Jews and their religious leaders there did not like them of their Lord one bit. We see that it was when Peter and John were going into the Temple at the prayer time, that they healed the man lame from birth, and then he accompanied them inside the Temple (Acts 3:1-8). So, they had no problems in joining those, who had crucified the Lord, for prayers in the Temple; this was because they went there to honor and glorify God, not please men or show themselves to others. After the day of Pentecost, once the disciples had started their ministry in Jerusalem, they were divinely instructed to preach in the Temple, and the disciples started doing that regularly, inside and outside the Temple (Acts 5:20, 25, 42), and they did so despite the persecution it brought (Acts 5:28, 33, 40-42).
Similarly, we see from the life and ministry of Paul, that although he was appointed by the Lord to primarily be His minister amongst the Gentiles (Acts 9:15; Galatians 1:16; 2:7), still, in his missionary journeys, he always first went to the local Jewish synagogue and preached the gospel there (Acts 13:14-15; 14:1; 17:1-2; 17:10; 17:16-17; 18:4; 18:19; 19:8). It was only when they thrust him out, that he stopped going to the Synagogue; not because they did not respect him and treat him well there, but because he no longer had permission to enter in there or preach the gospel there. Wherever he went, he knew that sooner or later the Jews will oppose him and cause trouble for him, but while he had the opportunity, he always started his ministry from the Synagogue, never hesitated to speak the truth according to God’s Word, and having caught the attention of the people, the Jews as well as the Gentiles from there, he carried on in his ministry in that place outside the Synagogue, amongst the Gentiles and the Jews, whoever cared to listen to him.
In the above-mentioned references, we see another important thing about Paul’s ministry, he made it a point to join the worship in the Synagogue on the Sabbath days; and that is what gave him an opening into the community to preach the gospel to them, even being invite to do so (Acts 13:14-15). So, even though Paul knew that sooner or later opposition and persecution will follow, and he will have to stop going to the Synagogue, but wherever he went, this never kept him from joining worship in God’s house on the Sabbath day, nor did he keep himself from preaching the truth of God’s Word and the gospel there. This should serve as an important lesson for all Believers, especially those who look for excuses to skip attending the Church or the Assembly. As we have seen in the first article on these implications, until the Believer is cast out of the church or Assembly, he should remain active and be attending there, no matter what he may have to face from there.
So, whether we look at the Lord Jesus’s life and example, or of His disciples, or of Paul, the Word of God shows us that whatever be the circumstances or possible problems, the followers of the Lord Jesus ought to make it a point to attend worship and other meetings in the house of God. For from there God will provide them opportunities to be useful for Him, spread the gospel, and be fruitful in their ministries. Instead of looking for ways to avoid going to the Church, as part of stewardship towards the Church, the Christian Believer's Responsibility is to make sure that he always attends Church, in the Church he should not just be a silent spectator but makes the most of his time there, and also actively contributes to growth of the Church or the Assembly – we will start considering about this from the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें