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कलीसिया से बहिष्कृत करना – 4
प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, जिस कलीसिया और सहभागिता में परमेश्वर ने उसे रखा है, वहाँ पर परमेश्वर का भण्डारी है, और उसे ऐसे काम करना है जिससे कलीसिया की बढ़ोतरी तथा अन्य विश्वासियों की आत्मिक उन्नति होने पाए। कलीसिया के कार्य और बढ़ोतरी से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों को देखने के बाद, वर्तमान में हम कलीसिया में अनुशासन बनाए रखने के बारे में विचार कर रहे हैं। कभी-कभी यह अनिवार्य हो जाता है कि किसी विश्वासी के ढीठ और अपश्चातापी होकर गलती करते रहने या गलती में बने रहने के लिए उसे कलीसिया और सहभागिता से पृथक और बहिष्कृत किया जाए। हमने पिछले लेखों में मत्ती 5:23-24 और मत्ती 18:15-17 से देखा है कि यह पृथक और बहिष्कृत करने के लिए प्रभु ने निर्देश और प्रक्रिया दी है। पिछले लेख में हमने मत्ती 18:17a से देखा था कि यह कार्य, बात को सम्पूर्ण कलीसिया के समक्ष लाने के बाद ही किया जाना है, लेकिन साथ ही यह भी देखा था कि यह किसी भी मनुष्य द्वारा लिया जाने वाला निर्णय नहीं है, अर्थात, किसी भी पास्टर, या अगुवे, या अन्य किसी भी नेतृत्व करने वाले का, न ही किसी कलीसिया की समिति का अथवा कलीसिया के सम्पूर्ण सभा का है, बल्कि यह परमेश्वर द्वारा एक विशेष परिस्थिति के लिए स्थापित किए गए विकल्प का स्वतः ही कार्यान्वित हो जाना है। पिछले लेख में हमने बहुत संक्षिप्त में मत्ती 18:17b से देखा था कि यद्यपि प्रभु ने इस ढीठ और अपश्चातापी विश्वासी के लिए कहा है कि “...तू उसे अन्य जाति और महसूल लेने वाले के ऐसा जान” लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हो सकता है कि उस से सारे सम्बन्ध और संपर्क तोड़ दिया जाए और उसे कलीसिया तथा सहभागिता से पूर्णतः निष्कासित कर दिया जाए, काट कर अलग कर दिया जाए। आज हम प्रभु द्वारा कही गई इस बात पर विचार करेंगे और उसे समझेंगे कि यह कहने से प्रभु का अभिप्राय क्या है।
प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई के समयों में यहूदियों के अन्य-जातियों और महसूल लेने वाले के साथ व्यवहार और सम्बन्धों के विषय लिखी हुई विभिन्न बातों पर ध्यान कीजिए। महसूल लेने वाले सामान्य यहूदी समाज द्वारा किसी भी व्यवहार और संगति से दूर रखे जाते थे, क्योंकि वे रोमी शासकों के लिए काम करते थे, यहूदियों से कर वसूल करते थे, और बहुधा अपने ही समुदाय से आवश्यकता से अधिक और बल पूर्वक लेने के दोषी होते थे। इसलिए, यहूदी उन्हें पसन्द नहीं करते थे, और उनके साथ मेल-जोल रखने से दूर रहते थे। किन्तु ये महसूल लेने वाले यहूदी समाज से बाहर नहीं निकाले गए थे, उनका यहूदी होना समाप्त नहीं कर दिया गया था। वे अभी भी यहूदी ही थे, किन्तु उन्हें पापी और नीच माना जाता था, और समाज द्वारा उनके साथ मेल-जोल नहीं रखा जाता था, उन्हें नीचा समझा और जताया जाता था, और इस तरह से उन्हें उनके ही लोगों के द्वारा अपमानित किया जाता था। किन्तु साथ ही, ऐसा भी नहीं था कि उनके साथ हर संपर्क काट दिया गया था, और कोई भी व्यक्ति उनके साथ किसी प्रकार से भी कैसा भी मेल-जोल नहीं रखता था। हम मरकुस 2:15-16 और लूका 5:29-30 में देखते हैं कि जब महसूल लेने वाले मत्ती ने, प्रभु यीशु का शिष्य बन जाने के बाद, अपने घर में एक बड़ी दावत की, तब अन्य महसूल लेने वालों और पापियों के साथ उसने फरीसियों और शास्त्रियों को भी बुलाया, और वे भी उस दावत में उन अन्य लोगों के साथ सम्मिलित हुए। इसका निहितार्थ है कि महसूल लेने वाले मत्ती के यहूदी धार्मिक अगुवों के साथ अच्छे सम्बन्ध थे, तभी उसने उन्हें दावत के लिए बुलाया, और उन्होंने निमंत्रण को स्वीकार भी किया और दावत में आए भी; यद्यपि वे लोग न तो महसूल लेने वालों को, न पापियों को, और न ही प्रभु यीशु को पसन्द करते थे। इसी प्रकार से हम देखते हैं कि जब प्रभु यीशु इन लोगों के साथ बैठते थे, उन्हें सिखाते थे, उन्हें चंगा करते थे, उनके साथ खाते थे, तो बहुधा उस भीड़ में ये यहूदी धार्मिक अगुवे भी होते थे; अर्थात ये अगुवे उन नीच समझे जाने वाले लोगों के साथ ही मिले-जुले रहते थे (मत्ती 9:10-11; लूका 5:17; 15:1-2)। इसलिए हम देखते हैं कि यद्यपि सामान्यतः, यहूदी समाज द्वारा महसूल लेने वालों को पसंद नहीं किया जाता था, और उन्हें अपमानित करने के लिए उनके साथ मेल-जोल नहीं रखा जाता था, किन्तु फिर भी महसूल लेने वालों को यहूदी समाज से बिल्कुल निष्कासित नहीं कर दिया गया था। यद्यपि उनके साथ मेल-जोल बहुत सीमित था, लेकिन वे अभी भी यहूदी समाज का भाग थे।
इसी प्रकार से, मत्ती 23:15 में प्रभु द्वारा फरीसियों को लगाई गई फटकार में हम देखते हैं कि फरीसी अन्य-जातियों के साथ संपर्क रखते थे, उन्हें यहूदी बनाने का प्रयास किया करते थे। चाहे अन्य-जातियों का मन्दिर में आना स्वीकार्य नहीं था (प्रेरितों 21:27-29), फिर भी उस समय के यहूदी धार्मिक अगुवे उनके साथ कुछ संपर्क और व्यवहार बना कर रखते थे। इसलिए, महसूल लेने वालों के समान, यद्यपि अन्य-जातीय लोग स्वीकार्य तो नहीं थे, किन्तु वे एक पूर्णतः तिरस्कृत और काट कर अलग किए गए लोग भी नहीं थे। लेकिन, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रभु यीशु ने उनके साथ कभी अपना संपर्क और व्यवहार समाप्त नहीं किया, बल्कि उसे तो महसूल लेने वालों और पापियों का मित्र कहा जाता था (मत्ती 9:10-11; 11:19)।
इसलिए, बाइबल के इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, अब हम प्रभु द्वारा कही गए बात “...तू उसे अन्य जाति और महसूल लेने वाले के ऐसा जान” को बेहतर समझ सकते हैं – इसका अर्थ है ऐसे गलती करने वाले के साथ संपर्क और व्यवहार को न्यूनतम स्तर का कर लेना और उसके साथ सामाजिक बर्ताव रखने से बचे रहना, जिससे कि इस प्रकार पृथक और अपमानित किए जाने के द्वारा उसे अपनी गलती का एहसास हो, वह अपने दोष को समझे, और अपने किए के लिए पश्चाताप करे; किन्तु उसे कलीसिया और समाज से काट कर अलग नहीं करना। फिर भी, किसी भी हाल में, प्रभु तो उससे प्रेम करता ही है, वह फिर भी परमेश्वर की सन्तान है; किन्तु अभी के लिए विश्वासियों के समाज को उससे कुछ दूरी बना लेनी चाहिए और उसे अपनी गतिविधियों में सम्मिलित नहीं करना चाहिए। जैसा कि हमने पिछले लेख में देखा है, पूर्णतः पृथक और बहिष्कृत किए जाने के विभिन्न निहितार्थों और अभिप्रायों के कारण, प्रभु के कथन का कदापि यह अर्थ नहीं हो सकता है कि गलती करने वाले विश्वासी को पूर्णतः मसीही समाज से काट कर अलग कर दिया जाए, उसे निकाल कर फेंक दिया जाए, जैसा कि सामान्यतः प्रभु की बात से समझा जाता है। बाइबल इस दृष्टिकोण का कोई समर्थन नहीं करती है, जैसा कि अगले लेख में और अधिक स्पष्ट हो जाएगा।
इससे उन लोगों पर, विशेषकर कलीसिया में नेतृत्व करने वालों पर, जो इस मान्यता का पक्ष लेते हैं, तथा औरों से भी यही करवाते हैं कि जिनके साथ उन लोगों के अपने मतभेद और कलह है, उनसे सभी संपर्क और व्यवहार को काट डालना चाहिए, यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उन्हें अपनी धारणा को परमेश्वर के वचन के आधार पर जाँचना और परखना चाहिए; उनकी समझ और व्यवहार में यह आ जाना चाहिए कि वे गलती कर भी रहे हैं और करवा भी उसका रहे हैं, जिसे सुधारे जाने की आवश्यकता है। उन्हें यह एहसास होना चाहिए कि क्योंकि उद्धार कभी खो नहीं सकता है; एक बार जो परमेश्वर की सन्तान बन गया वह हमेशा सन्तान बना रहेगा, यह स्तर कभी बदला नहीं जा सकता है; और क्योंकि कलीसिया प्रभु की देह और दुल्हन है, इसलिए उसकी देह और दुल्हन के किसी भी भाग को कभी भी काट कर अलग नहीं किया जा सकता है, फेंका नहीं जा सकता है – न तो प्रभु कभी यह करता है और न ही वह किसी को कभी ऐसा करने देगा, किसी मनुष्य के यह कर पाने की तो कोई संभावना ही नहीं है। प्रभु अपने तरीके से, अपने समय में, उस गलती करने वाले विश्वासी की, उसकी ढिठाई और गलतियों के लिए ताड़ना करेगा (इब्रानियों 12:5-12), वह अपने किए के लिए दण्ड पाने से बचेगा नहीं, उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी; किन्तु विश्वासी कभी भी प्रभु और उस की कलीसिया का भाग होने से अलग नहीं किया जाएगा; इसलिए कोई भी मनुष्य यह करने का निर्णय कैसे ले सकता है और इसे औरों से क्योंकर लागू करवा सकता है?
इस अनुशासनात्मक कार्यवाही के समय और परिणामों के बारे में हम अगले लेख में और आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Excommunication From the Church – 4
Every Born-Again Christian Believer, as God’s steward of the Church and the fellowship where God has placed him, must function in a manner that contributes to the growth of the Church and progress in spiritual life of the other Believers. Having seen the various aspects related to Church functioning and growth, we are now considering maintaining discipline in the Church amongst the congregation. At times it becomes necessary to exclude or excommunicate some errant Believer for his stubborn and unrelenting behavior. We have seen in the previous articles from Matthew 5:23-24 and Matthew 18:15-17 that the Lord has given the instructions and the process through which this excluding or excommunication should be done. In the last article we saw from Matthew 18:17a that although this must only be done after bringing the matter to the Church congregation, but we also learnt that deciding to do this is not any man’s decision, i.e., not any Pastor’s, or Elders’s, or any other leader’s decision, nor the decision of any Church committee or even the Church congregation, but an automatic implementation of a God given option for the situation. In the last article it had briefly been mentioned from Matthew 18:17b that though the Lord has said for this stubborn, unrelenting Believer, “let him be to you like a heathen and a tax collector” but it cannot mean cutting off all relationships and communication and altogether putting him away, totally cutting him off from the Church and fellowship. Today we will consider and understand what the Lord means when He says this.
Consider the various records of the interactions of the religious leaders of the Jews, with the Gentiles and the tax collectors during the time of the earthly ministry of the Lord. The tax collectors were shunned from the general Jewish community and fellowship, because they were working for the Roman government, to collect taxes from the Jews, and were often guilty of over-charging and extortion even from their own community. Therefore, the Jews did not like them, and avoided keeping company with them. But these tax collectors had not altogether been removed from the community, they had not ceased being Jews. They still were Jews, but were considered sinners and lowly, and were generally avoided and looked down upon by the community, and were thus humiliated by their own people. Moreover, it was not that all contacts with them had been totally cut off, and nobody ever mingled with them in any way. We see in Mark 2:15-16 and Luke 5:29-30, when Matthew the tax collector, having become a disciple of the Lord Jesus, held a feast, along with the other tax collectors and sinners, he had also invited the Pharisees and the Scribes, and they also joined them in that feast. This implies that Matthew the tax collector had good contacts and relations with the Jewish religious leaders, so he invited them to the feast in his house, and they did accept the invitation and joined the feast, though they neither liked the tax collectors, nor the sinners, nor the Lord Jesus. Similarly, the Jewish religious leaders were very often present with the crowd where the Lord was sitting with these people and teaching them, healing them; in other words, these religious leaders did not keep themselves aloof from those whom the considered sinners and lowly. So, we see that though the tax collectors, generally speaking, were disliked and avoided by the Jewish community to humiliate them, but the tax collectors had not been totally put away from the Jewish community. Though the social interaction with them was very limited, but they were still a part of the Jewish community.
Similarly, we see from the Lord Jesus’s admonition to the Pharisees in Matthew 23:15, that the Pharisees did communicate with the heathens to try to convert them to Judaism. Though the heathens were not allowed or accepted in the Temple (Acts 21:27-29), yet the Jewish religious leaders of that time did maintain a level of contact and communication with them. Therefore, like the tax collectors, the heathens too were unpopular, but not a de-barred or absolutely shunned community. But much more importantly, the Lord Jesus never cut-off any contact or mingling with them; rather, He was called a friend of the tax collectors and sinners (Matthew 9:10-11; 11:19).
So, keeping these Biblical facts in mind, now we can understand better the Lord’s statement “let him be to you like a heathen and a tax collector” – it means minimizing contact with such an errant Believer and generally avoiding social interactions with him, so that through such isolation and humiliation he is brought to the point of realizing his faults and guilt, and feeling remorse for his deeds; but do not altogether cast him away from the Church and the congregation. In any case, the Lord still loves him, he is still a child of God; but for now, the general community of the Believers should keep some distance from him, and not involve him in their activities. As we have seen in the last article, because of the various implications and connotations of a complete exclusion or excommunication, as it usually taken to mean, the Lord’s statement simply cannot mean totally cutting off a Believer from the Church or community, and discarding him. The Bible does not support such a point of view, as will become clearer in the next article.
This should make those people, especially those Church leaders, who advocate cutting off all contacts and interactions with the ones they have their differences and conflicts, and make others also do the same, seriously evaluate their stand by the Word of God, and correct their erroneous understanding and the wrong practices they have been preaching, teaching, and implementing in the Church. They should realize that since salvation cannot ever be lost; once a child of God, is always a child of God, his this status is irrevocable; and since the Church is the Body and Bride of the Lord, no part of this Body or Bride can ever be cut-off and thrown away, not in the least by any man, whosoever he may be; therefore no truly Born-Again Believer can be or will ever be put away from the Church of the Lord – neither by the Lord nor by any man. The Lord in his own way and time will chasten the errant Believer for his stubbornness and errors (Hebrews 12:5-12), he will not go unpunished and will surely have to bear the heavy consequences; but the Believer will never cease to be a part of the Lord or His Church; so how can any man decide and decree otherwise?
We will see some more aspects related to the duration and eventual outcome of this disciplinary action in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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