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व्यावहारिक निहितार्थ – 10
नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, परमेश्वर द्वारा उन्हें प्रदान किये गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों के लिए, परमेश्वर को उत्तरदायी हैं। इन प्रावधानों और विशेषाधिकारों में से हम जिसके बारे में वर्तमान में सीख रहे हैं वह है परमेश्वर द्वारा हमें उसकी कलीसिया का अंग बनाना और अपने अन्य सन्तानों की सहभागिता में रखना। इन विशेषाधिकारों के भण्डारी होने के नाते, यह विश्वासियों की ज़िम्मेदारी है कि वह कलीसिया की बढ़ोतरी और अन्य विश्वासियों की आत्मिक उन्नति में योगदान करें। हम देख चुके हैं कि परमेश्वर के वचन की कलीसिया में तथा विश्वासियों के मध्य उचित सेवकाई, दोनों – गुणवत्ता एवं मात्रा में, कलीसिया और विश्वासियों की बढ़ोतरी और उन्नति को निर्धारित करती है; और पिछले लेखों में हमने इसके कुछ पक्षों को देखा है। इससे पिछले लेख में हमने इस संदर्भ में 1 तीमुथियुस 1:3-4 को देखना आरंभ किया है, और 1 तीमुथियुस 1:3 से देखा है कि पौलुस ने तीमुथियुस को निर्देश दिया कि उसने जो इफिसुस की कलीसिया में सिखाया है, उससे भिन्न किसी शिक्षा को, किसी के भी द्वारा नहीं सिखाने दे; तथा साथ ही यह भी देखा था कि तीमुथियुस को यह ज़िम्मेदारी किस प्रकार से निभानी है। प्रेरितों 20:18-27 में, पौलुस इफिसियों की मण्डली के अगुवों के साथ, उनके मध्य में अपनी सेवकाई का अवलोकन करता है। आज हम प्रेरितों के इसी खण्ड से उस “शिक्षा” के बारे में देखेंगे, जो पौलुस ने इफिसुस में दी थी, और जिसके लिए तीमुथियुस को निर्देश दिया कि सुनिश्चित करे कि अन्य लोगों के द्वारा भी वही शिक्षा दी जा रही है। पौलुस की इस शिक्षा का सार प्रेरितों 20:18-20, 27 में मिलता है, जहाँ से हम इसे देखेंगे, और फिर 1 तीमुथियुस 1:4 पर भी थोड़ा विचार करेंगे।
प्रेरितों 20:18-20, 27 के इन पदों से हम पौलुस द्वारा उल्लेखित की जा रही “शिक्षा” के मुख्य बिंदुओं को देख और समझ सकते हैं, जिनके लिए वह तीमुथियुस को निर्देश दे रहा है कि केवल उसी का पालन किया जाए और किसी के भी द्वारा कुछ अन्य बात का प्रचार अथवा सिखाया न जाना न हो। तात्पर्य यह है कि वह जो इफिसुस की मण्डली के लिए इतना अनिवार्य था, कि तीमुथियुस को उसका पालन किया जाना सुनिश्चित करना ही था, वही आज, हमारे वर्तमान कलीसियाओं और मण्डलियों के लिए भी उतना ही आवश्यक एवं अनिवार्य है। और इसीलिए, विश्वासियों को, परमेश्वर के भण्डारी होने के नाते, यह सुनिश्चित करना है कि उन शिक्षाओं का पालन किया जाए। यहाँ, प्रेरितों 20 के पदों में, पौलुस द्वारा पालन की और सिखाई जाने वाली बातों का सार इस प्रकार है:
पद 18: पौलुस इस बारे में दृढ़ निश्चय था कि उनके मध्य एक आदर्श जीवन व्यतीत करे, अर्थात, उसने पहले अपने विश्वास और उसके अभिप्रायों को अपने सुनने वालों के समक्ष, उसके आस-पास के लोगों के मध्य, जी के और करके दिखाया, उसके बाद उसका प्रचार किया, और फिर अपने प्रचार के समर्थन में जो वह कहता था, उसे करता भी था।
पद 19: यह करते हुए, पौलुस का प्राथमिक उद्देश्य प्रभु की सेवा करना था – परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला, न कि मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला (गलतियों 1:10) बनकर रहना था। पौलुस के मन में इफिसुस के लोगों के पापों के लिए, जो घोर मूर्ति-पूजा और व्यभिचार में पड़े हुए थे, गहरा संताप था, और वह उनके लिए रो-रो कर परमेश्वर से प्रार्थना करता था। उसके विरुद्ध उनके द्वारा लाए गए प्रतिरोध और समस्याओं के बावजूद वह नम्रता और सहनशीलता के साथ उनके मध्य परमेश्वर के वचन की सेवा किया करता था; उसका विरोध करने वाले उन “परमेश्वर के लोगों” और परमेश्वर द्वारा दिए गए पवित्र-शास्त्र का पालन करने का दावा करने वाले यहूदियों के मध्य भी। दूसरे शब्दों में, पौलुस के प्रचार और शिक्षाओं ने, परमेश्वर के वचन का पालन करने का दावा करने वाले उन “परमेश्वर के लोगों” के जीवनों में पाई जाने वाली गलतियों और कमियों को उजागर किया था; और इस से वे विचलित हो गए थे। इसलिए, बजाए अपने आप को जाँचने-परखने और सुधारने के, उन्होंने प्रत्युत्तर में, पौलुस को ही ऐसी बातें प्रचार करने और सिखाने से रोक देने के प्रयास किए। किन्तु पौलुस उनके द्वारा उसके विरुद्ध खड़ी की जा रही समस्याओं से घबराए और रुके बिना, अपनी सेवकाई में लगा ही रहा। सीखने के लिए पाठ यह है कि खोए हुओं के लिए मनों में एक सच्चा बोझ, विरोध के बावजूद सेवकाई में डटे रहना, और नम्रता का जीवन जीना, परमेश्वर के वचन की सेवकाई करने वाले सेवक के गुण होने चाहिएं।
पद 20, 27: पौलुस को जो प्रचार करना और सिखाना था, उसके लिए उसके पास अपने द्वारा निर्धारित की गई कोई व्यक्तिगत रूपरेखा या योजना नहीं थी। हमने पिछले लेखों में देखा है कि पौलुस पवित्र आत्मा पर निर्भर रहता था कि उसे प्रचार करने और सीखने के लिए उपयुक्त वचन दे। पवित्र आत्मा की अगुवाई में वह कलीसिया को, जो कुछ भी उनके लाभ के लिए था, उसे का प्रचार करता और उन्हें सिखाता था, और इस प्रकार उसने उन्हें “पूरी रीति से परमेश्वर की सारी मनसा” बिना झिझके बता दी। दूसरे शब्दों में, पवित्र आत्मा ने अपनी योजना और मार्गदर्शन में, अपनी अगुवाई में, और अपने तरीके से उसे वचन की सभी बातें सिखाने की सामर्थ्य एवं समझ-बूझ दी, जो संभवतः वह अपनी बुद्धि से नहीं करने पाता, कुछ छोड़ देता या बताना भूल जाता, या कुछ बातों को अनावश्यक समझ लेता; किन्तु पवित्र आत्मा की योजना और मार्गदर्शन में वह सब कुछ सिखा सका। यह हमें स्पष्ट करता और समझाता है कि क्यों पौलुस ने तीमुथियुस को निर्देश दिया और इस बात पर जोर दिया कि उसने जो इफिसुस में रहते हुए उन्हें सिखाया और प्रचार किया था, उसके अतिरिक्त और कुछ न सिखाया और बताया जाए – क्योंकि वही “पूरी रीति से परमेश्वर की सारी मनसा” थी; वही इफिसुस की मण्डली को जाननी और सीखनी थी, और यही आज हमारे लिए भी उतनी ही आवश्यक है। जैसा कि यहाँ पद 20 में दिया गया है, पौलुस ने यह तीन तरीकों से किया – उसने यह प्रचार और शिक्षा “तुम्हारे” यानि की सामूहिक कलीसिया या मण्डली को दी, बाहर लोगों के सामने जा कर यह किया, और घर-घर जाकर प्रचार किया तथा उन्हें सिखाया। यह हमें वचन की सेवकाई के उन तीन भागों को दिखाता है जो वचन के प्रभावी होने के लिए किए जाने चाहिएं, जिससे की कलीसिया की बढ़ोतरी तथा विश्वासियों की आत्मिक उन्नति हो सके।
पद 21: अपने विश्वास की गवाही देना और सुसमाचार प्रचार करना, “परमेश्वर की ओर मन फिराना, और हमारे प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करना चाहिए” पौलुस की सेवकाई का अनिवार्य और अभिन्न अंग था। पौलुस का मुख्य उद्देश्य पवित्र शास्त्र के बारे में अपने ज्ञान और समझ को दिखाना, या अपनी वाक्पटुता प्रदर्शित करना, या सुनने वालों को पसन्द आने वाले संदेश देना नहीं था; वरन वह लोगों को पश्चाताप और प्रभु यीशु में विश्वास के लिए बुलाना चाहता था। तीमुथियुस को लिखी गई निर्देश की अपनी दोनों पत्रियों में, पौलुस ने उस से भी यही करने के लिए कहा है (1 तीमुथियुस 4:11, 15-16; 2 तीमुथियुस 4:1-5)।
इसके बाद, 1 तीमुथियुस 1:4 में, पौलुस ज़ोर देकर तीमुथियुस को, प्रचार और शिक्षा देने में, कहानियों (अर्थात मनुष्यों द्वारा गढ़ी और रची गई बातों) और अनन्त वंशावलियों पर मन लगाने के विरुद्ध सचेत करता है। दूसरे शब्दों में, प्रचार करने और शिक्षा देने में, जिस बात को उपयोग किया जा रहा है और जैसे वचन को प्रस्तुत किया जाता है, परिणाम पर उसका भी प्रभाव होता है, इसलिए वह कोई मन-गढ़न्त नहीं बल्कि बाइबल की खरी और सच्ची बात ही होना चाहिए। इस पद में पौलुस तीमुथियुस को इसके लिए भी सचेत करता है कि परमेश्वर के वचन को सिखाने के लिए कहानियों और अनन्त वंशावलियों के उपयोग के द्वारा, अर्थात मनुष्यों की गढ़ी हुई बातों और तर्कों के द्वारा केवल विवाद ही उत्पन्न होते हैं, उनसे कोई आत्मिक उन्नति नहीं होने पाती है। अर्थात, यद्यपि ये बातें और ऐसा प्रचार रोचक और आकर्षक प्रतीत हो सकता है, और लोग उसकी सराहना भी कर सकते हैं, किन्तु इन कहानियों और अनन्त वंशावलियों के उपयोग के द्वारा कलीसिया अथवा विश्वासियों की न तो उन्नति और न ही बढ़ोतरी होती है। इसलिए, जैसे तब तीमुथियुस के लिए था, वैसे ही आज भी परमेश्वर के वचन के सेवकों के लिए है कि वे केवल परमेश्वर के वचन को ही अपने प्रचार और शिक्षाओं में उपयोग करें; प्रचार के हर एक अवसर के लिए पवित्र आत्मा से मांगें और सीखें, और फिर जैसे पवित्र आत्मा उनसे व्याख्या करवाता है, उनका मार्गदर्शन करता है, उसे वैसे ही सुनने वालों को बता दें, न कि अपनी ही कहानियों और घटनाओं की रचना करें, जो कि व्यर्थ और निष्फल ही ठहरेंगी।
अगले लेख में हम इस से आगे देखेंगे, तथा वचन के कुछ अन्य खण्डों से परमेश्वर के वचन की सेवकाई के विषय में कुछ और सीखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Practical Implications – 10
The Born-Again Christian Believers, as stewards of the provisions and privileges given to them by God, are accountable to Him for them. Of these provisions and privileges, the one we have currently been learning about is having been made members of God’s Church and been brought into fellowship with God’s other children, by God. As stewards of these privileges, it is the responsibility of the Believers to see that the Church grows and the Believers progress in their spiritual lives. We have seen that proper ministry of God’s Word, in quality as well as quantity, in the Church and amongst the Believers determines this growth and progress of the Church as well as the Believers; and in the previous articles we have seen some aspects of this. In the last article we started considering 1 Timothy 1:3-4, and in our consideration of 1 Timothy 3, where Paul asks Timothy to ensure that no other doctrine, other than the one he had taught to the Ephesian Church is taught by the others, we had seen how Timothy had to ensure this. In Acts 20:18-27, Paul reminisces with the Elders of the Ephesian Church about his ministry amongst them. Today, we will see from this passage in Acts about the “doctrine” that Paul had taught in Ephesus, and had asked Timothy to ensure was being followed by others also, from its summary given in Acts 20:18-20, 27; and also consider 1 Timothy 1:4 regarding the ministry of God’s Word.
In these verses from Acts 20:18-20, 27, we see the main features of this “doctrine” that Paul is referring to, in asking Timothy to ensure that they are followed, and nothing new is brought in by anybody in their preaching and teaching. The implication is that what was so necessary for the Ephesian Church, that Timothy was to ensure adherence to it, is equally necessary for the present-day Churches, and the Believers, as God’s stewards, need to ensure that these doctrines are adhered to. Paul’s doctrinal points that he practiced, as summarized here in Acts 20, are:
Verse 18: Paul made it appoint to live an exemplary life amongst them, i.e., he first practiced and demonstrated his faith and its implications in his life amongst his audience, the people around him, then he preached about it, and continued to support his preaching by living out what he preached.
Verse 19: In doing this, Paul’s primary intention was to serve the Lord – be a God pleaser, and not a man pleaser (Galatians 1:10). Paul had a deep burden for the sin of the people in Ephesus who were given to idolatry and debauchery, and he pleaded to God for them with tears. He ministered God’s Word to them in humility, patiently putting up with the opposition and problems being brought upon him by his detractors – the Jews, the “people of God,” who claimed to follow the Scriptures given by God. In other words, Paul’s preaching and teaching exposed the errors and deficiencies in the lives of these “people of God,” who claimed to follow the Scriptures, which made them uncomfortable. So, instead of evaluating and correcting themselves, they responded by trying to stop Paul from preaching and teaching such things; but Paul persevered, undaunted by the problems they brought against him. The lesson to learn is that a heartfelt burden for the lost, perseverance even in opposition, and humility should be the characteristics of ministers of God’s Word.
Verse 20, 27: Paul did not have his own agenda for the preaching and teaching he was to do. We have seen in the previous articles that Paul depended upon the Holy Spirit to give him the appropriate Word to preach and teach. Under the guidance of the Holy Spirit, he preached and taught to the Church, all that was helpful for them, in this manner he unhesitatingly declared to them the “whole counsel of God” as guided by the Holy Spirit. In other words, the Holy Spirit gave him the plan and outline, and then under His guidance and appropriate manner gave him the ability and wisdom to preach and teach everything from God’s word. Had Paul done this on his own, then quite likely he might not have been able to do it as well through his own wisdom; he could have left out some things, could have forgotten to mention some other things, could have felt that preaching and teaching some other things was not necessary, etc.; but in the planning and guidance of the Holy Spirit he could teach them the whole counsel of God. This clearly explains to us why Paul gave this instruction to Timothy and insisted that what he had taught and preached to them while he was with them in Ephesus, only that should be taught and preached by others, and nothing other than that, since that was the “whole counsel of God;” that was what the Ephesian Church needed to know and learn, and is equally important and necessary for us as well, today. As mentioned here in verse 20, Paul did this through three methods – preaching and teaching to the “you,” i.e., the Church, i.e., the congregation, preaching publicly to those outside the Church, preaching and teaching from house to house. This shows us the three components that must be carried out for the Word ministry to be effective, for the Church and the Believers to grow.
Verse 21: Witnessing for his faith and preaching the Gospel, “repentance toward God and faith toward our Lord Jesus Christ” was an essential and integral part of Paul’s ministry. Paul’s main intention was not showing off his knowledge and understanding of the Scriptures, nor his eloquence, nor his ability of delivering messages that would be pleasing to the audience; but calling people to repentance and faith in the Lord Jesus. In both his letters of instructions to Timothy, Paul has emphasized to him for doing the same (1 Timothy 4:11, 15-16; 2 Timothy 4:1-5).
Then in 1 Timothy 1:4 Paul expressly cautions Timothy against going after fables (i.e., man-made stories) and endless genealogies, in his preaching and teachings. In other words, the content and manner of the preaching and teaching the Word also has a bearing on the outcome, and should not be contrived, but should be truly and sincerely be Biblical. In this verse Paul also cautions Timothy that resorting to using fables and genealogies, i.e., using man-made stories and arguments to preach and teach God’s Word only causes disputes, and does not bring about godly edification; which only comes in faith. In other words, though they may seem interesting and attractive, though people may appreciate them, but these fables and genealogies never bring about growth and edification of the Church or believers. Hence, as it was then for Timothy, similarly today the ministers of God’s Word should make it a point to stick to God’s Word, learn what is to be preached on each occasion from the Holy Spirit, expound it to the audience as the Holy Spirit leads them to do, instead of creating stories and scenarios on their own, which will be vain and fruitless.
We will carry on from here in the next article, and look at some other aspects of the ministry of God’s Word from some other passages.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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