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मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 35

 

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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 32

 

    सुसमाचार से सम्बन्धित बाइबल की शिक्षाओं पर विचार करते हुए, हमने पहले के लेखों में देखा है कि सुसमाचार का मर्म या सार हमें 1 कुरिन्थियों 15:1-4 तथा गलतियों 1:4 में दिया गया है। हमने यह भी देखा है कि सुसमाचार, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 15:3-4 में लिखा है, पवित्र शास्त्र के अनुसार है, अर्थात बाद में परमेश्वर के वचन में जोड़ी गई बात नहीं, बल्कि पुराने नियम में उसके बारे में पहले से बताया गया है। हमने 1 कुरिन्थियों 15:1-2 पर विचार करते समय, देखा है कि सुसमाचार हमें परमेश्वर के द्वारा दिया गया है, और जिस रूप में परमेश्वर ने दिया है, उसी रूप में वचन की सेवकाई करने वालों को उसे प्रचार करना है, और सुनने वालों को उसे ग्रहण करना है। किसी के भी द्वारा कोई अन्य सुसमाचार-वृतान्त रचने की कोई आवश्यकता नहीं है, और न ही परमेश्वर द्वारा दिए गए सुसमाचार में कोई बदलाव, कोई ‘सुधार’ किया जाना चाहिए, किसी के भी द्वारा नहीं, कभी भी नहीं, किसी भी कारण से नहीं। किसी नए सुसमाचार की रचना करने को, या उसे बदलने को सुसमाचार को बिगाड़ना, और ऐसा करने वालों को श्रापित कहा गया है (गलतियों 1:6-9)। मानवीय बुद्धि और समझ के द्वारा सुसमाचार में कोई भी परिवर्तन करना, उसके प्रभाव को बढ़ाने की बजाए, उसे अप्रभावी बना देता है (1 कुरिन्थियों 1:17)। शैतान इस बात को भली-भान्ति जानता और समझता है, और इसी लिए अपना भरसक प्रयास करता है कि किसी प्रकार से लोगों के द्वारा उनका अपना ही सुसमाचार का संस्करण बनवाए, और/या जान-बूझ कर अथवा अनजाने में, सुसमाचार में बिगाड़ उत्पन्न करें। हाल ही के लेखों में हमने उन कुछ आम तरीकों को देखा था जिनके द्वारा शैतान लोगों से सुसमाचार में बिगाड़ लाने के प्रयास करता है। आज से, 1 कुरिन्थियों 15:1-2 पर वापस आते हुए, हम एक और बात को देखना आरम्भ करेंगे जो इन पदों में सुसमाचार के व्यक्ति के जीवन में प्रभावी होने के बारे में लिखी गई है।

    इन दो पदों में, पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा यह लिखाया है कि सुसमाचार को ग्रहण करने वालों को उसमें स्थिर बने रहना चाहिए (पद 1), और उसे स्मरण भी रखना चाहिए, अर्थात उसे दृढ़ता से थामे रहना चाहिए (पद 2), अन्यथा सुसमाचार में विश्वास करना व्यर्थ होगा। इसलिए, सुसमाचार और परमेश्वर के वचन को मात्र सुन लेना, यह चाहे कितनी ही बार क्यों न किया जाए, व्यक्ति के जीवन में कभी प्रभावी नहीं होगा। आरम्भ के लेखों में, 2 इतिहास 34 में राजा योशिय्याह के जीवन से पश्चाताप या मन-फिराव के बारे में सीखते समय, हमने सच्चे पश्चाताप के चिह्नों को देखा था, कि उसमें परमेश्वर के वचन के द्वारा कायल होना, पश्चातापी व्यक्ति के जीवन में स्पष्ट परिवर्तन प्रकट होना, और उसके द्वारा अन्य लोगों को भी पश्चाताप करने के लिए प्रोत्साहित करना दिखाई देने लगते हैं। यहाँ 1 कुरिन्थियों 15:1-2 में हम एक बार फिर से परमेश्वर के वचन को थामे रहने और परमेश्वर द्वारा दिए गए सुसमाचार में स्थिर बने रहने के महत्व को देखते हैं। याकूब ने भी परमेश्वर के वचन का पालन करने, न कि केवल उसे सुनने वाले होने के महत्व को दिखाया है (याकूब 1:22-25)। इसे समझना और अपने जीवन में इसे लागू करना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि अनेकों कपटी या निष्ठाहीन मसीही विश्वासी, तथा ईसाई या मसीही धर्म का पालन करने वाले लोग, असंख्य बार, अनेकों अवसरों पर, अपने डिनॉमिनेशन की पुस्तक में से अपने सिद्धान्तों को, उसमें लिखी पश्चाताप और पापों के अंगीकार की प्रार्थनाओं को, और अपने आप को परमेश्वर को समर्पित कर देने के निर्णयों को पढ़ते हैं, ताकि अपने डिनॉमिनेशन की रीतियों और रिवाज़ों को पूरा करें। किन्तु वास्तविकता में, उनके जीवन पहले के समान ही, अपरिवर्तित, बने रहते हैं, सच्चे पश्चाताप के चिह्न उनके जीवनों में नहीं पाए जाते हैं। उनमें कोई भी आत्मिक वृद्धि दिखाई नहीं देती है, बस कुछ लोग “धार्मिक बनो, भले बनो, भला करो” के सिद्धान्त का अपने जीवनों में पालन करने के प्रयास करते हैं। लेकिन ये सभी यही सोचते हैं कि उन रीतियों और रिवाज़ों का पालन करने तथा उन सिद्धांतों और प्रार्थनाओं को पढ़ लेने के द्वारा उन्होंने भी सच्चा पश्चाताप किया है, और परमेश्वर को स्वीकार्य हो गए हैं। ये वे केवल सुनने वाले हैं जो अपने आप को धोखा देते हैं, जो उन्हें प्रचार किये गए सुसमाचार और परमेश्वर के वचन को थामे नहीं रहते हैं, उस में स्थिर बने नहीं रहते हैं।

    प्रभु यीशु मसीह ने मत्ती 13:3-9, 18-23 में, बीज – परमेश्वर का वचन, बोने वाले के दृष्टान्त में, 4 प्रकार की भूमियों की बात कही थी। बीज बोने वाले ने अपने बीज को चारों भूमियों पर बोया; मार्ग के किनारे की पहली भूमि ने तो वचन को अपने अन्दर ग्रहण ही नहीं किया और आकाश के पक्षियों ने उसे उठा लिया; दूसरी और तीसरी प्रकार की भूमि ने अपने अन्दर बीज को ग्रहण तो किया, और उसे अंकुरित भी होने दिया, किन्तु बीज बढ़कर फलवन्त नहीं हो सका और अन्ततः नष्ट हो गया; केवल चौथी प्रकार की भूमि में ही बीज बढ़कर फलवन्त होने पाया। पहले तीन उन लोगों को दिखाते हैं जो उन्हें प्रचार किये गए परमेश्वर के वचन को थामे नहीं रहते हैं, सुसमाचार में स्थिर बने नहीं रहते हैं। परमेश्वर का वचन उनमें बढ़ता और फलवन्त नहीं होता है, वरन निष्फल और व्यर्थ हो जाता है; इसे ही पौलुस, 1 कुरिन्थियों 15:2 में, “तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ” कहता है। जैसा याकूब ने लिखा है, ये परमेश्वर के वचन को केवल “सुनने वाले” ही हैं, उसका “पालन करने” वाले नहीं, और इस प्रकार से वे स्वयं को धोखा देते हैं (याकूब 1:22)।

    अगले लेख में हम बाइबल से उन लोगों के कुछ और उदाहरणों को देखेंगे जिन्होंने प्रभु के पीछे चलने वाले होने का दावा तो किया, किन्तु वे थे नहीं, और समय के साथ उनकी वास्तविकता, विभिन्न प्रकार से प्रकट हो गई।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 32

 

    While considering Biblical teachings related to the gospel, we have seen in earlier articles that the crux of the gospel has been given to us in 1 Corinthians 15:1-4 and Galatians 1:4. We have also seen that the gospel, as it says in 1 Corinthians 15:3-4 is according to the Scriptures, i.e., is not a later addition to God’s Word, but has been foretold in the Old Testament. In considering 1 Corinthians 15:1-2, we had seen that the gospel has been given to us by God, and is meant to be preached by the ministers of God’s Word, and received by the listeners, in the same form as God as given it. There is no need for anyone to create some other gospel narrative, nor should the God given gospel be altered or modified in any way, by anyone, on any grounds. Creating another gospel narrative, or modifying it in any way has been called perverting the gospel, and those who do this have been called cursed (Galatians 1:6-9). Any use of human wisdom and understanding to alter the gospel in any manner, only serves to render it ineffective (1 Corinthians 1:17), instead of making it more effective. Satan knows and understands this very well, and therefore tries his utmost to have people create their own version of the gospel, and/or pervert the God given gospel. In the recent articles we have seen some of the common ways in which Satan gets people to pervert the gospel, knowingly, or unknowingly. Coming back to 1 Corinthians 15:1-2, from today we will begin to see another thing mentioned here, for the gospel to be effective in a person’s life.

    In these two verses, we see that the Holy Spirit through the Apostle Paul has had it written down, that the receivers of the gospel must stand firm in the gospel (vs. 1), and hold fast to the gospel-Word that is preached to them (vs. 2), else believing in the gospel is vain. So, just hearing the gospel and God’s Word, no matter how many times that is done, will never be effective in a person’s life. Earlier, while considering about repentance, through King Josiah’s life as given in 2 Chronicles 34, we had seen that the hallmarks of true repentance are being convicted by God’s Word despite being religious and devout, the changes true repentance brings in the repenting person’s life, and he develops a desire to encourage others to repent as well. Here, in 1 Corinthians 15:1-2, we once again see the importance of standing in and holding fast to the God’s Word and the God given gospel. James has also pointed out the importance of being the doers of God’s Word, instead of merely being listeners (James 1:22-25). It is very important to understand this and apply it in one’s life, since amongst the insincere Believers, and the followers of the Christian religion, countless times, on various occasions, people read out aloud their creeds, their prayers of repentance and confession of sins, and their decisions of submitting their lives to God, from their denominational books, to fulfil their denominational rituals. But in reality, their lives remain the same, unchanged, the hallmarks of true repentance remain missing from their lives. There is no spiritual growth evident in them, other than some trying to follow the “be religious, be good, and do good” dictum in their lives. But by virtue of having participated in those rituals, spoken out those creeds and prayers, they think and believe that they too have repented and become acceptable to God. They are the listeners who deceive themselves, who do not stand in the truth of the gospel, who do not hold fast the Word that is preached to them in God’s Word the Bible.

    The Lord Jesus in the parable of the sower of the seed – God’s Word, in Matthew 13:3-9, 18-23; spoke of 4 kinds of soils. The sower sowed his seed on all 4 kinds of soils; the first kind, by the wayside, never received the seed, and the birds of the air ate it away; the second and third kind did receive the seed, took it within themselves, allowed it to sprout, but the seed could not grow to bear fruit in them and eventually was wasted; it was in the fourth kind of soil that the seed could not only sprout and grow, but also multiply and bring forth fruit. The first three represent those who do not hold fast to the Word preached to them, who do not take a stand in the gospel for God. God’s Word does not multiply and bear fruit for God in their lives, but is wasted, goes vain; this is what Paul means to say when he writes “unless you believed in vain” (1 Corinthians 15:2). As James has said, these are the “hearers” of God’s Word, not the “doers” and thus they only deceive themselves (James 1:22).

    In the next article we will see some more examples from the Bible of those claimed to the followers of the Lord, but were not, and with time, in various ways, their truth became evident.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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