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आरम्भिक बातें – 94
विश्वासियों का न्याय – 8
पिछले लेख में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में से अन्य खण्डों को देखा है जो इस की पुष्टि करते हैं कि न्याय मसीही विश्वासियों का ही होगा, प्रभु यीशु के द्वारा किया जाएगा, खुले में और निष्पक्ष होगा, बिना किसी भी पूर्वाग्रह के किया जाएगा। हमने यह भी देखा है कि प्रत्येक व्यक्ति के बारे में सब कुछ – चाहे भला है या बुरा, चाहे उनके जीवनों में है या उनके मनों में, उसे खुला और प्रकट कर दिया जाएगा, और तब सब के सामने प्रत्येक को उचित न्याय और उपयुक्त प्रतिफल तथा परिणाम दिए जाएँगे, इसलिए किसी को भी उन्हें या किसी अन्य को जो प्राप्त हुआ है उसके बारे में कोई सन्देह नहीं होगा। यह बात 1 कुरिन्थियों 3:13-15 की इस बात की भी पुष्टि करती है कि प्रत्येक के काम बारीकी से और बड़े ध्यान से जाँचे जाएँगे, कुछ भी बिना जाँचे नहीं बचेगा, ताकि फिर “...हर एक व्यक्ति अपने अपने भले बुरे कामों का बदला जो उसने देह के द्वारा किए हों पाए” (2 कुरिन्थियों 5:10), अर्थात, प्रभु प्रत्येक व्यक्ति के भले और बुरे दोनों का हिसाब लेगा, और उस आँकलन के अनुसार फिर उनके लिए जो कुछ भी उपयुक्त एवं उचित है, वे प्रतिफल और परिणाम उन्हें प्रदान करेगा।
कोई भी, किसी भी प्रकार के पाखण्ड का जीवन जी कर, उसके लिए उत्तरदायी होने से किसी भी तरह से बच नहीं सकता है; हर एक बात उजागर कर दी जाएगी, खोली जाएगी और उसका न्याय किया जाएगा। दाऊद ने सुलैमान को सचेत किया था कि परमेश्वर हृदयों को जाँचता है और विचार में भी उत्पन्न होने वाली बातों को समझता है “और हे मेरे पुत्र सुलैमान! तू अपने पिता के परमेश्वर का ज्ञान रख, और खरे मन और प्रसन्न जीव से उसकी सेवा करता रह; क्योंकि यहोवा मन को जांचता और विचार में जो कुछ उत्पन्न होता है उसे समझता है। यदि तू उसकी खोज में रहे, तो वह तुझ को मिलेगा; परन्तु यदि तू उसको त्याग दे तो वह सदा के लिये तुझ को छोड़ देगा” (1 इतिहास 28:9)। प्रभु यीशु ने यही बात यूहन्ना 2:24-25 में कही है “परन्तु यीशु ने अपने आप को उन के भरोसे पर नहीं छोड़ा, क्योंकि वह सब को जानता था। और उसे प्रयोजन न था, कि मनुष्य के विषय में कोई गवाही दे, क्योंकि वह आप ही जानता था, कि मनुष्य के मन में क्या है।”
लेकिन यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि मन की बातों को खुला और उजागर करने, तथा उन्हें भी उसी प्रकार जाँचने, जैसे कि वे की गई बातें हों, का क्या कारण है? वे बातें तो केवल विचारों में ही हैं, कार्यान्वित तो हुई नहीं हैं, तो फिर उन्हें किया हुआ क्यों समझना? इन प्रश्नों का उत्तर मत्ती 5:27-28, मरकुस 7:20-23, और याकूब 1:13-15 जैसे खण्डों से मिल जाता है। ये हवाले दिखाते हैं कि पाप मन में विचार के समान आरम्भ होता है, हृदय में ही पनपता और बढ़ता है, और अवसर पाकर व्यक्ति के द्वारा वह पाप कर दिया जाता है। इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में वे पाप जिन्हें हम अपने हृदयों में स्थान देते हैं और मनों में जिन के बारे में सोचते रहते हैं, उन्हीं पापों के समान हैं जो किए गए हैं – क्योंकि देर-सवेर वे कर दिए जाएँगे – शैतान यह निश्चित करेगा कि वे कर दिए जाएँ। इससे यह प्रकट हो जाता है कि क्यों हृदय या मनों की बातों को उजागर करके उनका भी न्याय किया जाएगा। समाधान केवल एक ही है कि किसी भी पापमय विचार को हृदय या मन में कदापि कोई स्थान न पाने दें, वरन अपने हृदय या मन को परमेश्वर के वचन से भर लें (भजन 119; कुलुस्सियों 3:16)।
एक बाइबल के विपरीत, किन्तु अधिकाँश ईसाइयों या मसीहियों में, यहाँ तक कि मसीही विश्वासियों में भी प्रचलित गलत धारणा है कि यदि उचित जीवन जीने के द्वारा उसे बनाकर न रखा जाए, तो व्यक्ति का उद्धार खो सकता है। इस तर्क का आधार यह धारणा है कि यदि उद्धार हमेशा के लिए है, कभी जा नहीं सकता है, तब तो फिर उद्धार पाने के बाद कोई भी जितना चाहे, उतने पाप कर सकता है, बिना किसी बात से डरे अपने मन के अनुसार चल सकता है, क्योंकि उसने तो हर हाल में स्वर्ग जाना ही है। यह हमारी चर्चा का विषय नहीं है, और इसे हम कुछ अन्य विषयों के साथ पहले के कुछ लेखों में देख चुके हैं, इसलिए हम इसकी चर्चा में नहीं जाएँगे। लेकिन जो परमेश्वर और उसके न्याय से सम्बन्धित इस गलत धारणा को मानते हैं, उन्हें उपरोक्त से तथा पिछले लेखों से यह ज्ञात हो गया होगा कि किसी के भी द्वारा की गई अथवा विचारी गई किसी भी बात की जवाबदेही से, कोई भी कभी भी बचेगा नहीं। उन्हें एक बार फिर से 1 कुरिन्थियों 3:13-15 पर और पिछले लेखों में लिखी गई बातों पर विचार करना चाहिए। हर एक को, हर बात के लिए – वह चाहे भली हो या बुरी, एक विस्तृत और बारीकी से माँगा गया हिसाब देना ही होगा, और उस आँकलन के अनुसार मिलने वाले प्रतिफल और परिणाम लेने ही होंगे। साथ ही जैसे इब्रानियों 12:5-11 में लिखा है, यहाँ इस पृथ्वी पर भी, प्रभु अपने बच्चों की ताड़ना भी करता है, और उनकी जो अयोग्य और अनुचित जीवन जीते ही रहते हैं, बहुत कठोरता से भी करता है। इसलिए उद्धार अनन्तकालीन और स्थाई तो है, लेकिन यह किसी के लिए भी पाप करते रहने की अनुमति नहीं है; कोई भी परमेश्वर को न तो हल्के में ले सकता है, न उसकी अनाज्ञाकारिता में बना रह सकता है, न उसे ठट्ठों में उड़ा सकता है; जो ऐसा करेगा, वह अपने किए के दुष्परिणाम भी भोगेगा।
अगले लेख से हम देखना आरंभ करेंगे कि किस प्रकार से परमेश्वर की पापों के लिए क्षमा और उन्हें भुला देना, और उसके द्वारा व्यक्ति के द्वारा किए गए कामों – भले या बुरे, का हिसाब लेना, बिना किसी विरोधाभास के परस्पर मेल खाते हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 94
Judgment of Believers – 8
In the last article we have seen other passages from God’s Word the Bible that confirm that the judgment will be of the Christian Believers, will be done by the Lord Jesus, openly and impartially, without any bias of any sort. We have also seen that everything, about every person – whether it is good or bad, whether in their lives or in their heart, will first be made public and open, and then in the presence of everyone a fair assessment and giving of appropriate rewards and consequences will be done, so no one will have any doubts about what they or anyone else has received. This also lends support to what we considered in the previous article from 1 Corinthians 3:13-15, that everyone’s works will be thoroughly and minutely examined, nothing will escape, so “…that each one may receive the things done in the body, according to what he has done, whether good or bad” (2 Corinthians 5:10), i.e., the Lord will take into account both the good as well as the bad of every person, and accordingly, impartially give to each one whatever rewards and consequences they are worthy of.
No one can live a hypocritical life of any manner, and get away with it; everything will be uncovered, brought out and judged. David had warned Solomon that God searches and knows even the intents of the thoughts in one’s heart “As for you, my son Solomon, know the God of your father, and serve Him with a loyal heart and with a willing mind; for the Lord searches all hearts and understands all the intent of the thoughts. If you seek Him, He will be found by you; but if you forsake Him, He will cast you off forever” (1 Chronicles 28:9). The Lord Jesus affirmed it in John 2:24-25 “But Jesus did not commit Himself to them, because He knew all men, and had no need that anyone should testify of man, for He knew what was in man.”
But it may be asked, why lay open and evaluate even the things in one’s heart, things that have not been done or acted upon, but just thought about? Why should they be tried as if they were done by the person? Why this opening up will be done can be understood in light of passages like Matthew 5:27-28, Mark 7:20-23, and James 1:13-15. These references show that all sin begins as thoughts in a person’s heart, sins grow there in the heart, and at an opportune moment, those sins get committed by the person. Therefore, God regards any sinful thoughts given place and pondered over in our hearts, as equivalent to sins that we have already committed – since sooner or later they will be committed – Satan will ensure that they are done. Thereby it becomes apparent why even the things in one’s heart will be revealed and judged. The only remedy is to not let anything sinful stay in our hearts at all, rather fill our hearts with God’s Word (Psalm 119:11; Colossians 3:16).
There is an unBiblical but popular misconception prevalent amongst most Christians and even the Christian Believers, that salvation can be lost, unless it is maintained by a proper Christian lifestyle. The basis of this argument is that if salvation is permanent and eternal, then after being saved, anyone can sin to their hearts content, and not fear anything, since they will go to heaven in any case. This is not the topic for our discussion, and it has also been discussed in some earlier articles in other topics, so we will not be going into its details now. But to those who hold this wrong concept about God and His judgment, from the above and what we have seen in the preceding articles, it should be evident to them that no one will get away from any thing done or even thought of by anyone; ponder again over what has been said about 1 Corinthians 3:13-15. Everyone will have to give a detailed and minute account, and receive the rewards and consequences of all that they have thought and done – good as well as bad. Moreover, as is written in Hebrews 12:5-11, even here on earth, the Lord chastens, at times severely, those of His children who live in an unworthy manner. So, salvation is eternal and permanent, but it is not a license to sin for anyone; no one can mock or disobey God, or take Him lightly, and get away with it.
How the forgiveness and forgetting of our sins by God, and His judgment of both good and bad of every person meet without any contradiction, we will begin to consider this from the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Dew of heaven falling on mount Zion🙂
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