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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 82
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (24)
व्यावहारिक मसीही जीवन के लिए आवश्यक बातों के सन्दर्भ में हम परमेश्वर के वचन के उदाहरणों और पदों से देख रहे हैं। वर्तमान में हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार में से चौथी बात, प्रार्थना के बारे में देखते आ रहे हैं। पिछले कुछ लेखों से हमने तथाकथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में वचन के आधार पर देखना आरम्भ किया है। हमने देखा है कि यह प्रभु यीशु द्वारा रट लेने और हर अवसर तथा परिस्थिति में दोहराते रहने के लिए दी गई कोई “प्रार्थना” नहीं है। वरन यह परमेश्वर से प्रभावी प्रार्थना करने के लिए, एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके अनुसार प्रभु के लोगों को अपनी व्यक्तिगत प्रार्थनाएं ढालनी चाहिएं। हमने इसके बारे में मत्ती 6:5-15 के आधार पर देखना आरम्भ किया है। पिछले लेख में हमने परमेश्वर से प्रार्थना करने से पूर्व की तैयारी के बारे में पद 5 और 6 से इस तैयारी के बारे में आरम्भिक बातें समझी हैं। इस सन्दर्भ में हमने पद पाँच से देखा है कि परमेश्वर से प्रार्थना, परमेश्वर से वार्तालाप करने के लिए ही होनी चाहिए। यह अपनी वाक्पटुता और आलंकारिक भाषा के प्रयोग द्वारा लोगों को सुनाने और प्रभावित करने, उनकी प्रशंसा और सराहना प्राप्त करने के लिए बोले शब्द नहीं होने चाहिए, अन्यथा उस प्रार्थना का परमेश्वर से कोई प्रतिफल नहीं मिलेगा। दूसरी बात, जिसे हमने पद 6 से देखा था, है कि सच्ची प्रार्थना एकान्त में, संसार के आकर्षणों से स्वयं को अलग करके केवल परमेश्वर के साथ जुड़कर की जाती है। आज हम यहीं से और आगे बढ़ेंगे और वचन से, प्रभु की शिक्षाओं से प्रार्थना के बारे में और सीखेंगे।
परमेश्वर पिता से खराई से प्रार्थना करने के लिए, मत्ती 6:7 में लिखा है, “प्रार्थना करते समय अन्यजातियों के समान बक बक न करो; क्योंकि वे समझते हैं कि उनके बहुत बोलने से उन की सुनी जाएगी।” अर्थात, परमेश्वर से की गई प्रार्थना का प्रभावी और कारगर होना, शब्दों की बहुतायत पर निर्भर नहीं है, विशेषकर कुछ शब्दों या वाक्यांशों को बारम्बार दोहराते रहने पर निर्भर नहीं है। कुछ लोगों की यह आदत होती है कि वे अपने कुछ प्रिय शब्द या वाक्यांश, अपनी प्रार्थना या आराधना में, हर वाक्य में बारम्बार दोहराते रहते हैं। यहाँ प्रभु यीशु ने इस प्रवृत्ति से निकलने, इसे बंद करने के लिए कहा है। साथ ही प्रभु ने इसे बक-बक करना और अन्यजातियों के समान प्रार्थना या आराधना करना कहा है, और इस तरह की प्रार्थना को “बक-बक करना” कहा है। ये प्रभु द्वारा प्रयोग किए गए तीखे शब्द हैं, जो बल देकर ऐसी प्रार्थना के व्यर्थ होने को दिखाते हैं। केवल यहाँ नए नियम में ही नहीं, परमेश्वर पवित्र आत्मा ने सुलैमान के द्वारा सभोपदेशक की पुस्तक में भी इस बात को लिखवाया है, “जब तू परमेश्वर के भवन में जाए, तब सावधानी से चलना; सुनने के लिये समीप जाना मूर्खों के बलिदान चढ़ाने से अच्छा है; क्योंकि वे नहीं जानते कि बुरा करते हैं। बातें करने में उतावली न करना, और न अपने मन से कोई बात उतावली से परमेश्वर के सामने निकालना, क्योंकि परमेश्वर स्वर्ग में हैं और तू पृथ्वी पर है; इसलिये तेरे वचन थोड़े ही हों” (सभोपदेशक 5:1-2)। परमेश्वर की प्रेरणा से सुलैमान ने यह स्पष्ट लिखा है कि अनावश्यक और अधिक बोलना, मूर्खों के समान बलिदान चढ़ाना और बुरा करना है; और परमेश्वर के सामने कहे गए मनुष्यों के वचन थोड़े होने चाहिएँ। मनुष्य को परमेश्वर के समीप, अपनी बात कहने के उद्देश्य से कम, और परमेश्वर की बात को सुनने के उद्देश्य के लिए अधिक जाना चाहिए। इन बातों से यह प्रकट है कि जहाँ तक सम्भव हो, परमेश्वर से प्रार्थना करने से पहले, प्रार्थना करने वालों को अपने अन्दर विचार कर लेना चाहिए कि वे परमेश्वर के सम्मुख क्यों जा रहे हैं? उससे क्या कहने के लिए जा रहे हैं? वे किन शब्दों का उसके सम्मुख उपयोग करेंगे? ताकि उनकी प्रार्थनाएं परमेश्वर की दृष्टि में अन्यजातियों की बक-बक या मूर्खों की बातें न लगें। साथ ही प्रार्थना करने वाले को परमेश्वर से केवल अपनी बात कहने के लिए ही नहीं, बल्कि उसकी बात को सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
फिर मत्ती 6:8 में, मत्ती 6:7 की बात को आगे बढ़ाते हुए, प्रभु यीशु ने कहा है, “सो तुम उन के समान न बनो, क्योंकि तुम्हारा पिता तुम्हारे मांगने से पहिले ही जानता है, कि तुम्हारी क्या क्या आवश्यकता है।” प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा है कि उनके माँगने से पहले ही परमेश्वर उनकी प्रत्येक आवश्यकता को, बात को जानता है। इसलिए परमेश्वर को कुछ समझाने, सिखाने की आवश्यकता नहीं है। हमारा सीधे, साफ, और संक्षिप्त शब्दों में अपनी बात को परमेश्वर से कहना, हमारी बात को परमेश्वर को स्वीकार्य, तथा प्रार्थना को प्रभावी और कारगर बनाता है। हम इस बात को प्रार्थना के बारे में आरम्भिक लेखों में पहले देख चुके हैं कि जब परमेश्वर हमारी आवश्यकताओं को पहले से ही जानता है, तो फिर हमें किसी भी बात के लिए उससे प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता है? मुख्यतः, प्रार्थना करने के द्वारा, हम स्वयं को, और अपने सुनने वालों को अपनी प्रार्थनाओं की सार्थकता और प्रार्थना, या परमेश्वर से वार्तालाप के विषय अपनी मानसिकता, को दिखाते हैं। जब हम अपने ही शब्दों को - चाहे मन ही में अथवा अपने कानों से, सुनते हैं तो हमें अधिक बेहतर रीति से पता चलता है कि हम अपनी प्रार्थनाएं सच्चे मन से परमेश्वर से कहने के लिए कर रहे हैं; या लोगों को सुनाने और उन्हें प्रभावित करने के लिए कह रहे हैं। क्योंकि जो प्रार्थनाएं परमेश्वर को सुनाने के लिए होंगी, वे परमेश्वर की इच्छा के, उसके निर्देशों के अनुसार होंगी; और जो मनुष्यों को सुनाने के लिए होंगी, लोगों पर प्रभाव जमाने के लिए होंगी, वे फिर लोगों की पसन्द के अनुसार, उन्हें प्रभावित करने वाली बातों के अनुसार होंगी। साथ ही यहाँ पर पद 8 के आरम्भिक वाक्य “सो तुम उन के समान न बनो” पर भी ध्यान कीजिए। यहाँ प्रभु अपने शिष्यों के सामने, प्रार्थना से सम्बन्धित एक चुनौती रख रहा है। प्रभु उन से कह रहा है कि प्रार्थनाओं को परमेश्वर को स्वीकार्य और कारगर बनाना उनके अपने हाथों में है। यह उन शिष्यों का अपना निर्णय और व्यवहार है कि वे क्या कहने, करने वाले बनाना चाहते हैं। प्रभु का उन्हें परामर्श है कि वे बक-बक करने वाले अन्यजातियों के समान न बनें; लेकिन इस परामर्श को व्यवहारिक करना, प्रत्येक शिष्य का व्यक्तिगत निर्णय और व्यवहार है।
प्रार्थना से पहले की तैयारियों के बारे में संक्षेप में देखने के बाद, अगले लेख में हम पद 9-13 में दी गई तथाकथित “प्रभु की प्रार्थना” पर, प्रभु द्वारा प्रार्थना के लिए दी गई रूपरेखा या ढाँचे पर विचार करना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 82
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (24)
We have been learning about living a practical Christian life through the examples and the text of God’s Word. Currently we have been considering the fourth of the four things given in Acts 2:42. For the past few articles we have been considering the so-called “Lord’s Prayer” on the basis of the Word of God. We have seen that it is not something given by the Lord to memorize, and then by rote keep reciting it on every occasion, in every circumstance. Rather, it is an outline, a framework for constructing and molding the personal prayers of the people of the Lord to make them effective. We have begun to consider this from Matthew 6:5-15. In the previous article we have seen and understood about the preliminary preparations that should be done before praying, from verses 5 and 6. In this context we have seen from verse five that praying should be to converse with God. It should not be to show-off our eloquence and use of figurative language to others for impressing them, nor should prayer be words spoken to gain the praise and appreciation of people; else, there will be no results of such prayers. The second thing that we learnt from verse 6 is that sincere prayer is said by isolating ourselves from the attractions and distractions of the world, and being joined only to the Lord. Today we will proceed further from here, and learn some more from the Word and the Lord’s teachings.
For praying sincerely to God the Father, it is written in Matthew 6:7, “And when you pray, do not use vain repetitions as the heathen do. For they think that they will be heard for their many words.” In other words, the impact and efficacy of the prayers made to God are not dependent upon the volume and type of words used, especially on habitually repeating some word or phrases over and over again. Some people are habituated to very frequently repeating their favorite words or phrases over and over again in every sentence, in their prayers or worship. Here the Lord has asked to stop such tendencies and come out of them. Moreover, the Lord has called doing this “vain repetition” and praying or worshiping like the heathen. These are sharp words, used by the Lord to emphatically show the vanity of such prayers. Not just here in the New Testament, but God the Holy Spirit also had the same thing written by Solomon in the Book of Ecclesiastes, “Walk prudently when you go to the house of God; and draw near to hear rather than to give the sacrifice of fools, for they do not know that they do evil. Do not be rash with your mouth, And let not your heart utter anything hastily before God. For God is in heaven, and you on earth; Therefore, let your words be few” (Ecclesiastes 5:1-2). Through the inspiration of God, Solomon has clearly written that speaking excessively and saying unnecessary things is like offering the sacrifice of fools, is evil. Man should approach God, more to listen to God than to make God listen to him; and man’s words spoken before God should be few. It is apparent from these that as far as it can be done, before praying to God, the person saying the prayer should ponder over it in his heart and see why he is approaching God? What is he going to say to Him? What words is he going to speak before Him? So that their prayers do not seem like vain repetitions of the fools and of heathen in the eyes of God. Moreover, those praying should not only approach God to speak to Him, but they should also be willing and prepared to listen to God.
Then, in Matthew 6:8, carrying the thought of Matthew 6:7 ahead, the Lord Jesus said, “Therefore do not be like them. For your Father knows the things you have need of before you ask Him.” The Lord has told His disciples that before they ask anything, God already knows about their needs and everything else. So, there is no need to try to make God understand anything, to teach and explain things to Him. Our saying what we have to say in a clear, straightforward, and succinct manner makes our prayers acceptable to Him, impactful and effective. We have already seen in the initial articles on prayer, why when God already knows about our needs, do we at all need to pray to Him for anything? Mainly, because by praying, we show to ourselves and to others listening to us, the meaningfulness of our prayers, and our mentality in our conversation with God. When we listen to our own words - whether in our hearts or through our ears, then we learn better whether we are sincerely saying our prayers to converse with God, or saying them for the sake of the people listening to us and to impress them. Because the prayers that are said for God to hear, they will be according to His will, and consistent with His instructions; whereas the prayers meant for people to hear, to impress the people, they will be according to what the people want to hear and to impress them. Also, consider and pay attention to the initial sentence of verse 8 “Therefore do not be like them.” Here the Lord is placing a challenge related to prayer, before His disciples. The Lord is saying to them that to make their prayers acceptable to God and effective, is in their own hands. It is the disciple’s own decision and behavior, what they want to say or do. The Lord’s advice to them is that they do not become like the heathen, vainly repeating things in their prayers; but to accept this advice and practically apply it in their lives, is each disciple’s personal decision and behavior.
Having briefly seen the preliminary preparations necessary before praying, from the next article, we will start considering the so-called “Lord’s Prayer” given in Matthew 6:9-13, seeing the outline and the framework for an effective prayer given to us by the Lord.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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