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गुरुवार, 24 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 11


व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (6)

 परमेश्वर की माँग - व्यवस्था का पालन नहीं, पश्चाताप (1)


प्रेरित पौलुस द्वारा, अथेने के घोर मूर्तिपूजा और परमेश्वर के लिए घृणित, अस्वीकार्य व्यवहार में लिप्त लोगों के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में किए गए प्रचार में, उनके परमेश्वर के प्रकोप से बचने और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल होने के लिए दिया गया समाधान था, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)। पौलुस के द्वारा कहलवाई गई इस बात में तीन रोचक तथा बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं। 


सबसे पहली तो यह कि परमेश्वर उन लोगों को उनके पापमय व्यवहार के लिए दण्ड देने की बजाए, उनके इन पापमय कार्यों को, जिनसे परमेश्वर घृणा करता है और सहन नहीं कर सकता है, उन्हें ही अज्ञानता के समय में किए गए कार्य मानकर, उन लोगों को दण्ड देने में आनाकानी करके, उन्हें पश्चाताप करके बच जाने का अवसर देना चाहता है। 


दूसरी बात है कि परमेश्वर की यही मनसा केवल अथेने के उन लोगों के लिए ही नहीं थी, वरन जैसा लिखा है “हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है”; अर्थात यही बात संसार के हर स्थान के सभी मनुष्यों के लिए भी थी, और अपने वचन में इसे लिखवा कर परमेश्वर ने इसे हर समय-काल के सभी लोगों के लिए भी लागू कर दिया। साथ ही, यह परमेश्वर की इच्छा मात्र नहीं है, यह पश्चाताप करना संसार के हर स्थान के हर मनुष्य के लिए परमेश्वर की आज्ञा है, चाहे वह मनुष्य कोई भी हो, कहीं भी और कभी भी रहता हो। प्रकट है कि इस आज्ञा में किसी के भी देश, धर्म, जाति, परिवार, धार्मिकता, ओहदे, सामाजिक मान-सम्मान, आदि की कोई भूमिका नहीं है; यह सभी के लिए, ईसाई धर्म का पालन करने वाले या मसीहियों के लिए भी ठीक वैसे ही लागू है, जैसे किसी अन्य के लिए। 


और तीसरी बात है कि यद्यपि पुराने नियम में, तथा मूसा के द्वारा दी गई व्यवस्था में परमेश्वर ने बारंबार कहा है कि जो व्यवस्था का पालन करेगा, वह जीवन में प्रवेश करेगा (लैव्यव्यवस्था 18:5; नहेम्याह 9:29; यहेजकेल 20:11; आदि। इसके अर्थ और अभिप्राय को हम आगे के लेखों में देखेंगे तथा समझेंगे), किन्तु फिर भी पुराने नियम और व्यवस्था का उत्तम ज्ञान और प्रशिक्षण पाए हुए भूतपूर्व फरीसी, पौलुस के द्वारा, परमेश्वर पवित्र आत्मा यह नहीं कहलवा रहा है कि वे लोग, और उनके समान ही सारे संसार के, हर समय और स्थान के, शेष सभी लोग भी, हर कोई तुरंत ही से व्यवस्था का पालन करें; व्यवस्था के अनुसार विधि-विधानों का निर्वाह करें, भेंट-बलिदान चढ़ाएं, याजकों के पास जाएं, और अपने पापों से बचने के लिए व्यवस्था में दिए गए धार्मिकता के नियमों का पालन करें। वरन सभी को परमेश्वर पश्चाताप करने की ही आज्ञा दे रहा है; सभी के लिए उसकी यही एक आज्ञा है; किसी के भी लिए, किसी भी परिस्थिति में, कोई भिन्नता नहीं है।


परमेश्वर क्यों इस व्यवहार को “अज्ञानता के समय  में किए गए कार्य” मानकर, उनके लिए आनाकानी करने और दण्ड से बचने का अवसर मनुष्यों को देना चाहता है, इसका विश्लेषण करते हुए, पिछले लेखों में हमने देखा है कि मनुष्य अपनी सृष्टि से ही शैतान और उसके दूतों का किसी भी प्रकार से सामना करने और उन पर जयवंत होने में असमर्थ है; जब तक कि वह यह सामना प्रभु परमेश्वर की अधीनता में, उसकी आज्ञाकारिता एवं मार्गदर्शन में न करे - और केवल तब ही वह शैतान और उसकी युक्तियों, उसकी भ्रामक बातों से बच कर उस पर जयवंत हो सकता है, अन्यथा कभी नहीं। व्यावहारिक जीवन में हमारे लिए इसका तात्पर्य है कि शैतान, जो आरंभ से ही झूठा है, और झूठ का पिता है (यूहन्ना 8:44), वह अपने झूठ, भ्रम, कुटिल युक्तियों, आदि बातों के द्वारा मनुष्य को बहका, भरमा, झूठ में फँसा कर, उससे जाने-अनजाने अनुचित और गलत व्यवहार करवाता रहता है। और मनुष्य को इसके विषय पता भी नहीं चलने पाता है कि वह कैसे शैतान के हाथों का खिलौना बनकर अपनी ही हानि करने में लगा हुआ है। परमेश्वर और उसकी बातों से, उसके मार्गों से भटक कर दूर हो रखा है, और शैतान की प्रेरणा से अपनी ही गढ़ी हुई धार्मिकता की बातों के पालन और निर्वाह के द्वारा, अपने आप को धर्मी, नैतिक और भला समझे हुए है। मिथ्या बातों के भ्रम में पड़ा हुआ अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य और उसे प्रसन्न करने वाला समझे हुए है; जबकि वास्तविकता इससे बिलकुल विपरीत है। और शैतान द्वारा बहकाया, भरमाया हुआ मनुष्य पाप में पड़ा हुआ परमेश्वर एवं स्वर्ग की ओर नहीं वरन अनन्त विनाश की ओर बढ़ता जा रहा।


न केवल शैतान और उसके दूत मनुष्य से हर प्रकार से सामर्थी हैं, वरन मनुष्य से अधिक बुद्धिमान भी हैं। इस बुद्धिमत्ता का प्रयोग वे मनुष्यों के विरुद्ध दुष्टता की कुटिल युक्तियों के द्वारा मनुष्यों को मूर्ख बनाकर, उन्हें बहका और भरमा कर पापमय व्यवहार और जीवन में जीने, और उन्हें पाप में गिराने के लिए करते हैं। साथ ही वे सत्य को मनुष्य से छिपाए रहते हैं, उसे सत्य के निकट आने ही नहीं देते हैं, सत्य को जानने और समझने ही नहीं देते हैं। उसने मनुष्यों की बुद्धि को अंधा कर रखा है, ताकि प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार की ज्योति उन पर चमकने न पाए (2 कुरिन्थियों 4:4)। सांसारिक, अपरिवर्तित मनुष्य, जो परमेश्वर के वचन को अपनी बुद्धि, ज्ञान, और क्षमता से जानना और सीखना चाहता है, उसके हृदय पर परमेश्वर के वचन के प्रति एक पर्दा पड़ा हुआ है, जो उसे मन्द-मति बना देता है। यह पर्दा तब ही उठता है जब व्यक्ति प्रभु की ओर फिरता है, पश्चाताप करके प्रभु को समर्पित जीवन जीने लगता है (2 कुरिन्थियों 3:14-16), और पवित्र आत्मा के द्वारा सिखाया जाता है (1 कुरिन्थियों 2:10-15)। 


इन बातों का प्रेरितों 17:30 की बात से, परमेश्वर द्वारा मनुष्यों के पापों को अज्ञानता के समय के कार्य मानकर, उनके विषय मनुष्य को दण्ड देने से आनाकानी करने, और दण्ड से बचने के लिए पश्चाताप करने की आज्ञा देने के साथ क्या संबंध है, इसे हम अगले लेख में देखेंगे। अभी के लिए, यदि आप एक मसीही विश्वासी है तो अपने जीवन को गंभीरता से जाँच कर देख लीजिए कि आपने प्रभु की इस आज्ञा का पालन किया है कि नहीं? यदि आप अभी भी अपने धर्म, डिनॉमिनेशन, उनके विधि-विधानों और अनुष्ठानों के निर्वाह के आधार पर अपने आप को परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य समझे बैठे हैं, तो आप शैतान द्वारा फैलाए गए धोखे के जाल में फंसे हुए हैं, और आपको आज, अभी, समय रहते इस धोखे से निकलने की आवश्यकता है; विलंब, अविश्वास, या बाद के लिए टालना बहुत भारी नुकसान करवा सकता है। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


  

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यहोशू 16-18  

  • लूका 2:1-24     


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Why Can't the Law save us? (6)

 God's demand - not obeying the law, but repenting (1)

The Apostle Paul while preaching under the guidance of God's Holy Spirit, to those in Athens, given to blatant idolatry and works detested by God, speaks to them about the way to their becoming acceptable to God, being restored to fellowship with God, and escaping His wrath. The God given solution was, "Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent" (Acts 17:30). There are three interesting and very important points in what Paul said here.


First of all, instead of punishing those people for their sinful behavior, God was willing to consider their sinful acts, the very deeds that God hates and cannot tolerate, as acts done in times of ignorance. Through being reluctant to punish them, He wants to give them a chance to repent and be saved.


Secondly, God intended this not only for the people of Athens, but as it is written "commands all men everywhere to repent"; i.e., the same was also applicable for all human beings in every place of the world. And by getting it written in His Word, God also made it applicable to all people of all time-periods. Moreover, it is not just God's will, it is God's command to every human being in every place of the world, that they repent; no matter who the person is, wherever and whenever he lives. It is evident that in the applicability of this commandment, there is no role of any one's country, religion, caste, family, supposed state righteousness, position, social honor, etc.; It is universally and equally applicable to all, including those professing to be Christians, in much the same way as for anyone else.


And thirdly, although in the Old Testament, and in the Law given by Moses, God has repeatedly said that the one who keeps the Law will enter life (Leviticus 18:5; Nehemiah 9:29; Ezekiel 20:11; etc. We will see and understand its meaning and practical application in later articles), but still through Paul, a former learned Pharisee, one who was very well versed in the knowledge of the Old Testament and of the Law, God the Holy Spirit is neither asking him to say to those people, nor to all the rest of the people of the world, of all times and places, that everyone should get down to following the Law immediately. That they should start fulfilling the ordinances according to the Law, make offerings and sacrifices, go to the priests, and follow the prescribed laws of righteousness in order to be delivered from the consequences of their sins. Rather, instead of asking them to obey the Law, God is commanding everyone everywhere to repent. This is His one and only command to rectify this situation, meant for all; for anyone under any circumstances; there is no difference - this command remains the same.


In previous articles, while analyzing why God considers this sinful behavior of man to be “things done in times of ignorance", thereby giving the disobedient and sinful people opportunity to avoid punishment, we have seen that humans from the time of their creation are created lower than Satan and his angels. Therefore, they are unable by any means to face and overcome them; unless they face them under the submission, obedience and guidance of the Lord God - and only then can man overcome Satan and his devious devices, and his delusions; never otherwise. For us, in our day-to-day practical life this means that Satan, who is a liar from the beginning, and the father of lies (John 8:44), tricks, deceives, and misguides man through his lies, delusions, devious tricks, etc. And man, entrapped by Satan’s deviousness, inadvertently or unknowingly keeps on living and behaving inappropriately, wrongly, and sinfully. Man is so caught up in Satan’s devious deceptions that he does not even realize how he actually is actively engaged in harming himself by becoming a toy in the hands of Satan. He has no idea how, though he has turned away from God and His Word, and from God’s ways, yet keeps thinking himself to be righteous, moral, and good, through practicing his contrived piety, and living out his self-devised righteousness, inspired by Satan. Man, not only remains convinced of his own falsehood, but also considers himself to be acceptable and pleasing to God because of it; whereas the reality is quite the opposite. And man, deceived by Satan, continues to move not towards God and heaven, but towards eternal destruction in his unresolved state of sin.


Not only are Satan and his angels stronger than man in every way, but they are also wiser than man. They use this intelligence of theirs against humans, to fool men, to mislead and deceive them, to get them to live in sinful behavior and a life unacceptable to God, to keep them entrapped in their state of sin, by devious schemes of wickedness. At the same time, they keep the truth hidden from man, do not allow him to come near to the truth, do not allow him to know and understand the truth. Satan has blinded the minds of men, so that the light of the gospel of the Lord Jesus Christ may not shine upon them (2 Corinthians 4:4). The earthly, unregenerate man, who seeks to know and learn the Word of God with his own wisdom, knowledge, and ability, has a veil over his heart regarding the Word of God, which makes him incapable of understanding the truth of God’s Word. This veil is raised and taken away only when one turns to the Lord, when one repents and lives a life submitted to the Lord (2 Corinthians 3:14–16), and begins to be taught by the Holy Spirit (1 Corinthians 2:10–15).


What does this have to do with Acts 17:30, with God considering man's sins to be acts of ignorance, His being reluctant to punish man about them, and commanding man to repent to avoid punishment? We will see it in the next article. For now, if you are a Christian, take a serious look at your life to see if you have obeyed the Lord's command for repentance. If you still consider yourself righteous and acceptable to God on the basis of your religion, denomination, the observance of their statutes and rituals, then you are in the trap of deceit spread by Satan, and you need to get out of this deception today, now, while you have the time and opportunity. Procrastination, unbelief, or postponing for a later time can do great harm.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

  

Read the Bible in a Year:

  • Joshua 16-18

  • Luke 2:1-24


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