ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

शुक्रवार, 25 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 12


व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (7)

 परमेश्वर की माँग - व्यवस्था का पालन नहीं, पश्चाताप (2)


हम पिछले कुछ लेखों में अपरिवर्तित मनुष्य के पापों को परमेश्वर द्वारा “अज्ञानता के समय का पाप” कहे जाने को समझने का प्रयास कर रहे हैं। प्रेरित पौलुस द्वारा, अथेने के घोर मूर्तिपूजा और परमेश्वर के लिए घृणित, अस्वीकार्य व्यवहार में लिप्त लोगों के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में किए गए प्रचार में, उन लोगों के लिए परमेश्वर के प्रकोप से बचने और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल होने के लिए दिया गया समाधान था, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30); और इस समाधान में तीन रोचक तथा बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं:

1. परमेश्वर पाप के लिए तुरंत दण्ड देने के स्थान पर, उन पापों को अज्ञानता के समय में किए गए कार्य बता कर दण्ड, उनके से बच जाने का अवसर देता है।

2. पापी मनुष्यों द्वारा पापों के लिए पश्चाताप करना, सब जगह के सभी मनुष्यों के लिए, परमेश्वर की इच्छा-मात्र नहीं, आज्ञा है। 

3. परमेश्वर उन लोगों से, उनके पापों के समाधान के लिए, व्यवस्था का पालन करने के लिए नहीं कहता है, मन फिराने, पश्चाताप के द्वारा पापों की क्षमा पाने और विश्वास करने के लिए कहता है।


अब हमारे सामने प्रश्न है कि क्यों प्रेरितों 17:30 में परमेश्वर अपरिवर्तित मनुष्यों के घोर पापों को भी अज्ञानता के समय के कार्य मानकर, उनके विषय उन लोगों को दण्ड देने से आनाकानी करता है, उन्हें दण्ड से बचने का अवसर प्रदान करता है, सभी को अपने-अपने पापों के लिए पश्चाताप करने की आज्ञा देता है? असमंजस में डालने वाले इस प्रश्न का उत्तर परमेश्वर के चरित्र और गुणों में, उसके सच्चा खरा न्यायी होने में छुपा हुआ है। परमेश्वर के विषय व्यवस्थाविवरण 32:4 में लिखा है “वह चट्टान है, उसका काम खरा है; और उसकी सारी गति न्याय की है। वह सच्चा ईश्वर है, उस में कुटिलता नहीं, वह धर्मी और सीधा है।” व्यक्ति धर्मी हो या अधर्मी, पापी हो या उद्धार और पाप क्षमा पाया हुआ, परमेश्वर हर किसी के साथ अपनी सच्चाई, खराई, ईमानदारी, और पक्षपात रहित होने के अनुसार ही व्यवहार करता है। उसके ये गुण, उसका यह चरित्र बदलता नहीं है, सदा ही सभी के लिए समान बना रहता है, कार्यकारी रहता है।  


परमेश्वर हम मनुष्यों की रचना और क्षमता को भली-भांति जानता है; उसे सदा ध्यान रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही है: “क्योंकि वह हमारी सृष्टि जानता है; और उसको स्मरण रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही है” (भजन 103:14)।


परमेश्वर की यह कदापि इच्छा नहीं है कि मनुष्य किसी बुराई में फंसे, और गिरे; वह बुराई के द्वारा न तो परखा जाता है, और न ही वह बुराई से किसी की परीक्षा करता है: “जब किसी की परीक्षा हो, तो वह यह न कहे, कि मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है” (याकूब 1:13)। 


साथ ही परमेश्वर का आश्वासन भी है कि वह हमें हमारी सामर्थ्य से बाहर किसी परीक्षा में नहीं पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकासी का मार्ग भी देगा: “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको” (1 कुरिन्थियों 10:13)। इसी लिए परमेश्वर हम मनुष्यों को शैतान द्वारा धूर्तता और चतुराई से लाई गई हमारी सामर्थ्य से बाहर परीक्षाओं में गिर जाने और पाप कर बैठने के लिए मार्ग भी देने के लिए तैयार है।


परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा लेता है, जैसे उसने अब्राहम की परीक्षा की (उत्पत्ति 22:1), हिजकिय्याह को परखा (2 इतिहास 32:31)। किन्तु जब किसी की कोई परीक्षा शैतान के द्वारा होनी होती है, तो शैतान केवल परमेश्वर की अनुमति, और उसके द्वारा निर्धारित सीमाओं के अंदर ही कार्य कर सकता है, जैसे कि हम अय्यूब की परीक्षाओं से देखते हैं (अय्यूब 1:8, 12; 2:3, 6)।


किन्तु अदन की वाटिका में शैतान द्वारा आदम और हव्वा को भरमाना, न तो परमेश्वर की इच्छा में था, उन उसके लिए परमेश्वर ने शैतान को अनुमति दी थी, और न ही शैतान के लिए परमेश्वर द्वारा कोई सीमा निर्धारित की गई थी। परमेश्वर पहले से ही शैतान के धूर्त प्रयासों के विषय सचेत था, इसीलिए आदम और हव्वा को शैतान की धूर्तता से बचाए रखने के लिए, परमेश्वर ने उन्हें एक सीधी, स्पष्ट, छोटी सी आज्ञा दे रखी थी; और साथ ही अनाज्ञाकारिता का दुष्परिणाम भी बता रखा था - “तब यहोवा परमेश्वर ने आदम को यह आज्ञा दी, कि तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है: पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना: क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाए उसी दिन अवश्य मर जाएगा” (उत्पत्ति 2:16-17)। किन्तु शैतान ने उन्हें अपनी बातों में, कुटिलता में फँसा कर, अनाज्ञाकारिता के लिए उकसाया, और पाप में गिरा दिया। और तब ही से पाप करने की प्रवृत्ति ने मनुष्य में प्रवेश कर लिया, और सभी में फैल गई “इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)।


जैसा हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि शैतान और उसके दूत मनुष्य से हर प्रकार से सामर्थी हैं, वरन मनुष्य से अधिक बुद्धिमान भी हैं। इस बुद्धिमत्ता का प्रयोग वे मनुष्यों के विरुद्ध दुष्टता की कुटिल युक्तियों के द्वारा मनुष्यों को मूर्ख बनाकर, उन्हें बहका और भरमा कर पापमय व्यवहार और जीवन में जीने, और उन्हें पाप में गिराने के लिए करते हैं। साथ ही वे सत्य को मनुष्य से छिपाए रहते हैं, उसे सत्य के निकट आने ही नहीं देते हैं, सत्य को जानने और समझने ही नहीं देते हैं। इसलिए, आदम और हव्वा में होकर मानव-जाति के विरुद्ध किया गया शैतान का यह कार्य, कुटिलता तथा सच्चाई को छुपा कर झूठ या अज्ञानता के अन्तर्गत करवाया गया कार्य था। मनुष्य जो कि शैतान से सामर्थ्य और बुद्धि में कम है, उसे धोखे में फँसा कर, उसकी सामर्थ्य के बाहर की परीक्षा में डालकर उसे पाप में गिराने का कार्य था।

 

आदम और हव्वा के द्वारा पाप करने के बाद, परमेश्वर ने उन्हें पाप को मान लेने, और उसके लिए क्षमा मांगने का अवसर दिया। किन्तु वे पाप को मानने के स्थान पर एक दूसरे पर और परमेश्वर पर भी दोष लगाते रहे, आदम ने हव्वा को बनाने और देने के लिए परमेश्वर को जिम्मेदार ठहराया (उत्पत्ति 3:12-13); और उन्होंने अवसर को गँवा दिया, दण्ड भुगतने की स्थिति में आ गए। इसीलिए हमारा सच्चा, खरा, ईमानदार, और न्यायी परमेश्वर स्वाभाविक, अपरिवर्तित मनुष्यों द्वारा किए गए पापों को अज्ञानता के समय में किए गए पाप मानकर, उनके लिए दण्ड देने में आनाकानी करता है, सभी मनुष्यों को वैसे ही पश्चाताप का अवसर देता है जैसा उसने आदम और हव्वा को दिया था।


जो लोग पापों से पश्चाताप कर लेने, प्रभु यीशु मसीह को अपना जीवन समर्पित कर देने, उद्धार पा लेने के बाद भी पाप में गिर जाते हैं, उनके लिए परमेश्वर के व्यवहार और समाधान को हम अगले लेख में देखेंगे। अभी के लिए, यदि आप एक मसीही विश्वासी है तो अपने जीवन को गंभीरता से जाँच कर देख लीजिए कि आपने पापों के लिए पश्चाताप करने की प्रभु की इस आज्ञा का पालन किया है कि नहीं? यदि आप अभी भी अपने धर्म, डिनॉमिनेशन, उनके विधि-विधानों और अनुष्ठानों के निर्वाह के आधार पर अपने आप को परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य समझे बैठे हैं, तो आप शैतान द्वारा फैलाए गए धोखे के जाल में फंसे हुए हैं, और आपको आज, अभी, समय रहते इस धोखे से निकलने की आवश्यकता है; विलंब, अविश्वास, या बाद के लिए टालना बहुत भारी नुकसान करवा सकता है।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

  

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यहोशू 19-21   

  • लूका 2:25-52 


*****************************************************************

Why can't the law save us? (7)

 God's demand - not obeying the law, repenting (2)

In the last few articles, we've been trying to understand why God has called the sins of the unregenerate man the "sins of the time of ignorance". The Apostle Paul while preaching under the guidance of God's Holy Spirit, to those in Athens, given to blatant idolatry and works detested by God, speaks to them about the way to their becoming acceptable to God, being restored to fellowship with God, and escaping His wrath. The God given solution was, "Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent" (Acts 17:30). There are three interesting and very important points in what Paul said here.:

1. Instead of immediately punishing them for their sins, God gives an opportunity for them to be saved from their punishment, by treating those sins as done in times of ignorance.

2. That all men everywhere repent for their sins is God’s command, not a mere desire expressed by God.

3. God is not asking the people to obey the Law; but to repent, to seek forgiveness of sins, and to believe in the Lord Jesus, for the redressal of their sins.


Now the question before us is why in Acts 17:30 is God refusing to punish even those who are unregenerate, the unsaved? Why is He willing to consider the grievous sins of unconverted men to be acts of ignorance, and give them the opportunity to escape punishment, by commanding them to repent of their sins? The answer to this confusing question lies in the character and attributes of God, in His being the honest and upright Judge. Deuteronomy 32:4 says of God, “He is the Rock, His work is perfect; For all His ways are justice, A God of truth and without injustice; Righteous and upright is He." Whether a person is righteous or unrighteous, sinner or saved and forgiven, God treats everyone according to His truth, integrity, honesty, and non-partisans character. These qualities of His, His character never ever changes; His character and attributes always remain the same for all.


God knows all too well the creation and capabilities of us humans; He always remembers that man is dust: “For He knows our frame; He remembers that we are dust" (Psalm 103:14).


It is never in the will of God that man should ever be ensnared by evil, and fall into sin. He is neither tempted by evil, nor does He tempt anyone with evil: “Let no one say when he is tempted, "I am tempted by God"; for God cannot be tempted by evil, nor does He Himself tempt anyone" (James 1:13).


Also, it is God's assurance that He will not allow us to be tempted beyond our ability, but will also give us a way out of the temptation: “No temptation has overtaken you except such as is common to man; but God is faithful, who will not allow you to be tempted beyond what you are able, but with the temptation will also make the way of escape, that you may be able to bear it" (1 Corinthians 10:13). That's why God is ready to give us humans the opportunity and the way to be delivered from the consequences of the devious and cunning tricks of Satan, his satanic devices that are beyond our capabilities to manage, through which he leads us into sin. 


God does test his people, just as he tested Abraham (Genesis 22:1), and Hezekiah (2 Chronicles 32:31). But when someone is to be tested through Satan, then for that testing Satan can only act with God's permission, and only within the limits set by God, as we see from Job's trials (Job 1:8, 12; 2:3, 6).


But the deception of Adam and Eve by Satan in the Garden of Eden was neither in God's will, nor had God permitted Satan to do so, nor was there any limit set by God for Satan. To protect Adam and Eve from Satan's deviousness, God had already anticipated Satan’s tricks, and had given  Adam and Eve a simple, clear, straightforward command, and had also warned them about the consequences of disobedience - "Then the Lord God commanded Adam, that you may eat the fruit of all the trees of the garden without knocking: but the tree of the knowledge of good or evil, you shall never bear the fruit of it." food: for the day you eat its fruit you will surely die" (Genesis 2:16-17). But Satan tricked them through his words, and his wickedness, enticed them into disobedience, and made them fall into sin. And from then onwards the desire to sin entered man, and spread to all "Therefore, just as through one man sin entered the world, and death through sin, and thus death spread to all men, because all sinned" (Romans 5:12).


As we have seen in the previous articles, Satan and his angels are stronger and more intelligent than man in everything. They use their devious intelligence to trick men, to mislead and deceive them, to make them live a sinful life and a behavior abhorrent to God, and to keep them in sin, by devious schemes of wickedness against humans. At the same time, they keep the truth hidden from man, do not allow him to come near to the truth, do not allow him to know and understand the truth. Therefore, this act of Satan, committed against mankind through Adam and Eve, was done by concealing the truth and in wickedness. It was an act done under falsehood or deliberate contrived ignorance. Man, who is inferior in power and intelligence than Satan, was trapped through deception, by tempting him beyond his power thereby leading him into sin.


After Adam and Eve sinned, God gave them the opportunity to confess their sin, and ask for forgiveness for it. But instead of admitting their sin, they blamed each other and God as well for it; Adam blamed God for creating and giving Eve to him (Genesis 3:12-13); and so, they lost the opportunity, and had to face the punishment. That is why our true, upright, honest, and just God refuses to immediately punish the natural, unregenerate men for their sins; rather, considering their sins as acts committed in times of ignorance, He gives all men the opportunity to repent, just as He did with Adam and Eve.


We will see God's behavior and solution towards sin committed by those who have repented of their sins, have committed their lives to the Lord Jesus Christ, and yet have fallen into sin, even after being saved. For now, if you are a Christian, take a serious look at your life to see if you have obeyed the Lord's command for repentance. If you still consider yourself righteous and acceptable to God on the basis of your religion, denomination, the observance of their statutes and rituals, then you are in the trap of deceit spread by Satan, and you need to get out of this deception today, now, while you have the time and opportunity. Procrastination, unbelief, or postponing for a later time can do great harm.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

  

Read the Bible in a Year:

  • Joshua 19-21

  • Luke 2:25-52



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें