व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (1)
मनुष्य के असमर्थ होने के कारण
पिछले लेखों में हम देख चुके हैं कि केवल परमेश्वर ही भला है, और उसने अपनी भलाई, धार्मिकता, और पवित्रता के स्तर को अपने वचन, अपनी व्यवस्था के रूप में मनुष्यों के हाथों में उपलब्ध करवाया है। परमेश्वर का वचन ही मसीही विश्वासी के लिए भले या भलाई को परिभाषित करता है और उसकी पहचान करवाता है। अपने आदि माता-पिता, आदम और हव्वा के प्रथम पाप के वंशागत प्रभाव के कारण, मनुष्य पाप की दशा में जन्म लेता है, इसलिए जन्म से ही परमेश्वर और उसके वचन से दूर होता है, और अपने किसी भी प्रयास या कार्य से अपने आप को पाप और उसके दुष्प्रभावों से छुड़ा पाने में असमर्थ है। उसके पास परमेश्वर की व्यवस्था होते हुए भी, वह उस व्यवस्था का पालन कर पाने में असमर्थ है। किन्तु परमेश्वर ने, उसके पाप की दशा में होते हुए भी, मनुष्य के प्रति अपने प्रेम के कारण, प्रभु यीशु मसीह में होकर सारे संसार के सभी मनुष्यों के लिए वास्तव में भले हो सकने और परमेश्वर से मेल-मिलाप करने का मार्ग बनाकर उपलब्ध कर दिया है; उस व्यवस्था को जिसका पालन मनुष्य कर पाने में असमर्थ था, उसे मनुष्यों के सामने से पूरा करके हटा दिया है। पिछले लेख में हमने प्रेरितों 17:30 और रोमियों 2:16 के आधार पर यह देखना आरंभ किया था कि एक न एक दिन सभी मनुष्यों को अपने न्याय के लिए परमेश्वर के सामने खड़े होना है, किन्तु यदि वे अपने पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु को अपने उद्धारकर्ता स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, तो परमेश्वर मनुष्यों की अज्ञानता के बीते समयों की आनाकानी करने के लिए भी तैयार है।
हम इस प्रश्न पर आकर रुके थे कि परमेश्वर यह आनाकानी करने के लिए तैयार क्यों है? जिन बातों से परमेश्वर घृणा करता है, उन्हें सह नहीं सकता है, परमेश्वर मनुष्यों द्वारा उन बातों के करने के लिए उसे दण्ड देने से आनाकानी करने के लिए क्यों तैयार है? क्योंकि परमेश्वर प्रेमी, धीरजवंत, सहनशील और विलंब से क्रोध करने वाला सच्चा और खरा है, न्यायी है; किन्तु वह अन्यायी और कठोर नहीं है, वह अनुचित दोष लगाया जाना कभी स्वीकार नहीं करता है, और न कभी अनुचित दण्ड देता है। वह भली-भांति जानता और समझता है कि क्यों व्यवस्था हाथों में होते हुए भी मनुष्य उसका पालन करने नहीं पाया; व्यवस्था के द्वारा भला, धर्मी, और पवित्र बनने नहीं पाया। इसके दो मुख्य कारण हैं; पहला यह कि मनुष्य व्यवस्था का पालन कर पाने में असमर्थ है; और दूसरा यह कि व्यवस्था दिए जाने का उद्देश्य मनुष्य को भला, धर्मी, और पवित्र बनाना कभी था ही नहीं। आज से हम इनमें से पहले कारण को देखेंगे, और फिर आगे के लेखों में मनुष्य के व्यवस्था का पालन करने के लिए असमर्थ होने के कारण को भी समझेंगे; और फिर उसके बाद व्यवस्था के उद्देश्य को भी समझेंगे।
परमेश्वर ने आदम और हव्वा के साथ मानव जाति का आरंभ किया। वो पाप में गिर गए और परमेश्वर से उनकी संगति एवं सहभागिता भंग हो गई। उनकी संतान भी इसी पाप की प्रवृत्ति के साथ जन्म लेती रही और पीढ़ी-दर-पीढ़ी, बद से बदतर होती चली गई। अंततः नूह के समय तक परमेश्वर उनके पाप से इतना परेशान हो गया कि उसने उनका नाश करना ठान लिया, और नाश कर भी दिया; केवल नूह और उसका परिवार परमेश्वर की दृष्टि में बचाए जाने योग्य धर्मी ठहरे और परमेश्वर द्वारा ही बचाए भी गए।
इससे भी मनुष्यों से शिक्षा नहीं ली, वरन शीघ्र ही फिर परमेश्वर से दूर हो गए, नूह और उसकी संतान की बाद की पीढ़ियाँ शैतान के भरमाने में आकर परमेश्वर के विमुख होकर चलने लगीं, फिर से बुराइयों और मूर्तिपूजा में चली गईं।
तब परमेश्वर ने अन्य-जातियों, मूर्तिपूजकों में से अब्राहम को बुलाया (यहोशू 24:2-3), उससे वाचा बांधी, और उससे अपने लिए एक विशेष जाति बनाई, जिन्हें उसने अपने नियम और व्यवस्था दी; और परमेश्वर उस जाति की विशेष देखभाल करता रहा। किन्तु बाइबल में दिया गया उनका इतिहास गवाह है कि परमेश्वर के ये विशिष्ट लोग भी परमेश्वर के प्रति वफादार और आज्ञाकारी नहीं रहे; बारंबार पाप में गिरते रहे, परमेश्वर की ताड़ना सहकर कुछ समय के लिए सुधरते थे, फिर उसी दशा में चले जाते थे। और जब सब कुछ होने के बाद भी वे इस्राएली नहीं सुधरे और संभले, तो मलाकी के समय के बाद से परमेश्वर ने उनसे बात करना बंद कर दिया। फिर चार सौ वर्ष के बाद प्रभु यीशु ने ही आकर उनसे बात की।
साथ ही, उसी समय के दौरान, अब्राहम के उन वंशजों, यहूदियों, के अतिरिक्त का शेष संसार भी अपनी बुराइयों, मूर्तिपूजा, भलाई और धार्मिकता के विषय अपनी ही कल्पनाओं की बातों में पड़ा रहा। लेकिन मनुष्यों के प्रति उसके बड़े प्रेम, धीरज और सहनशीलता के कारण परमेश्वर उन्हें भी सहन करता रहा, और अभी तक भी कर रहा है:
फिर भी उन्हें खाने पीने को देता रहा, पृथ्वी से उनका नाश नहीं किया (मत्ती 5:45)।
अति हो जाने पर उनके मध्य भी चेतावनी के लिए अपने नबी भेजता था, जैसे नीनवे के लिए योना को भेजा।
उनके लिए अपने दरवाज़े बंद कभी नहीं किए; मिस्र से इस्राएलियों के साथ एक बहुत बड़ी मिली-जुली भीड़ भी निकल कर आई (निर्गमन 12:38), और यह भीड़ इस्राएलियों को बुराइयाँ करने के लिए उकसा कर (गिनती 11:4) परमेश्वर के विरुद्ध भड़काती भी रही। किन्तु परमेश्वर ने उन्हें भी प्रतिदिन स्वर्ग से अपना मन्ना दिया, चट्टान से पानी पीने को दिया, शत्रु के हमलों के समय इस्राएलियों के साथ ही उनकी भी रक्षा की, और उन्हें कभी किसी युद्ध में जाने के लिए नहीं कहा। एस्तेर के समय बहुत से लोग यहूदियों में मिल गए, उन्हें मना नहीं किया गया, और न ही उन्हें अलग रख कर उनके साथ कोई भिन्न व्यवहार किया गया (एस्तेर 8:17)।
साथ ही, जैसे परमेश्वर ने इस्राएलियों के हाथों में अपनी व्यवस्था दी, वैसे ही संसार के सभी लोगों के सामने परमेश्वर ने अपने विषय सृष्टि में प्रमाण भी रखे (रोमियों 1:20; भजन 19:1-4), और संसार के लोगों को उन बातों को देखने और समझने की सामर्थ्य भी दी, जैसे पूर्व से लोग आकाश के चिह्नों से प्रभु यीशु मसीह के जन्म की बात समझकर उसे देखने के लिए आए थे (मत्ती 2:2)।
इन सभी बातों के द्वारा परमेश्वर संसार को प्रभु यीशु मसीह के लिए और अंततः प्रभु द्वारा किए जाने वाले न्याय का सामना करने के लिए तैयार कर रहा था। परमेश्वर ने मनुष्य को उसके व्यवहार के इतिहास से दिखा दिया कि वह अपने प्रयासों और कार्यों द्वारा धर्मी होने के लिए कितना अक्षम है।
हव्वा ने वर्जित फल खाने के द्वारा परमेश्वर के समान होने, भले और बुरे का ज्ञान रखने, के मंसूबे बनाए थे। परमेश्वर ने आदम, हव्वा और उनकी संतानों को लगभग 4000 वर्ष का समय देने के द्वारा दिखा दिया कि उस ज्ञान को पा लेने के बाद भी वे शैतान के सामने कितने दुर्बल और अयोग्य हैं, उसका सामना नहीं कर सकते हैं।
कुल मिलाकर निष्कर्ष एक ही है, चाहे परमेश्वर मनुष्यों को अपनी व्यवस्था, याजक, देखरेख, और सुरक्षा प्रदान करे; या चाहे मनुष्यों को धर्मी बनने के लिए उनकी अपनी बुद्धि, समझ, कल्पनाओं और मन-गढ़न्त योजनाओं पर छोड़ दे; परिणाम एक ही है। जैसा हमने इस शृंखला के आरंभिक लेख में देखा था, अपने किसी भी प्रयास या कार्य से मनुष्य अपने आप से किसी भी रीति से भला, धर्मी, और पवित्र नहीं हो सकता है।
मनुष्य की अज्ञानता यही है कि यद्यपि वह शैतान और उसकी युक्तियों के सामने असमर्थ है; यद्यपि वह अपने प्रयासों और कर्मों के द्वारा कभी भी, किसी भी प्रकार से, शैतान की बातों पर विजयी हो पाने के लिए अक्षम है, फिर भी इनके लिए वह परमेश्वर द्वारा उसे दी जाने वाली सहायता को स्वीकार करने की बजाए, विभिन्न प्रकार के अपने ही व्यर्थ प्रयास करता ही रहता है। मनुष्य, परमेश्वर और उसकी बुद्धिमत्ता पर नहीं, अपितु, अपने ही ज्ञान, समझ, और कार्यों पर अधिक भरोसा रखता है, और शैतान के फंदों से निकलने नहीं पाता है।
यह एक प्रकट तथ्य है कि अदन की वाटिका में किए गए पहले पाप से लेकर, आज तक; सब कुछ जानते, देखते, पहचानते, और समझते हुए भी, उद्धार पाने के बाद और परमेश्वर के वचन को जानने के बाद भी, मनुष्य बारंबार, और बहुत बार न चाहते हुए भी, शैतान की युक्तियों में फंस जाता है और पाप में गिर जाता है। क्यों शैतान इतनी सरलता से मनुष्यों पर हावी हो जाता है, क्यों मनुष्य अपने आप से शैतान का सफलता से सामना नहीं करने पाता है, और यह उसकी अज्ञानता क्यों है, इन बातों को हम आगे के लेखों में देखेंगे। अभी के लिए हमें इस बात पर ध्यान करना है कि अब उनके पापों से उन्हें छुड़ाने वाले सारे जगत के उद्धारकर्ता, प्रभु यीशु मसीह, के आ जाने के बाद, परमेश्वर उनके इसी अज्ञानता के समय के व्यवहार की अनदेखी करके, उन्हें पश्चाताप करने और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता स्वीकार करने के लिए आज्ञा दे रहा है। जो इस पश्चाताप और प्रभु में विश्वास में नहीं आएंगे, वे फिर नाश हो जाएंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहोशू 1-3
मरकुस 16
Because of Man’s Incapability
In previous articles we've seen that God alone is good, and has made his standards of goodness, righteousness, and holiness available in the hands of men in the form of His Word, His Law. It is the Word of God that defines and identifies what is good or goodness for the Christian. Because of the inherited effect of the original sin of his fore-parents, Adam and Eve, man is born in a state of sin, therefore from birth is unreconciled with God and His Word. Therefore, through any of his efforts or actions he is unable to be redeemed from his sin and its deleterious consequences. Even though he has God's Law, he is unable to obey that law. But God, in spite of man's state of sin, because of his love for man, has in the Lord Jesus Christ made available the way for all human beings to be truly good and to be reconciled to God. In the Lord Jesus, the Law, which man was unable to obey, has been fulfilled and taken away. In the previous article, we began to see, based on Acts 17:30 and Romans 2:16, that eventually all must stand before God for their judgment. But if they are willing to repent of their sins and are ready to accept Jesus as Savior, then God is also ready to ignore the past times of ignorance of man.
We had stopped at the question, why is God willing to be reluctant to punish man? For the things that God can't bear, the things that He hates, why is God willing to forego punishing men for doing those things? It is because God is loving, patient, longsuffering, and slow to anger, true and upright; He is just; but he is not unfair, cruel and harsh. He never accepts an unfair accusation, and he never inflicts undue punishment. He knows very well and understands though while His Law was in man’s hands, why man could not follow it. Why by observing the Law man could not become good, righteous, and holy. There are two main reasons for this; The first is that man is inherently incapable of obeying the law; And the second is, that the Law was never intended to make man good, righteous, and holy. Starting today we will look at the first of these two reasons, and then in subsequent articles, we will also understand man's inability to obey the law; And then after that we will also look into the purpose of the giving of the Law.
God started the human race with Adam and Eve. They fell into sin and lost their fellowship and companionship with God. Their children were also born with this tendency of sin and from generation to subsequent generation, they went from bad to worse. Eventually, by the time of Noah, God was so distraught by their sin that He decided to destroy them, and did destroy them too; Only Noah and his family were found righteous in God's sight and were saved by God.
Men did not learn due lessons even from this, but soon turned away from God again. The subsequent generations of Noah and his children succumbed to Satan's delusions, and turned away from God, into evil and idolatry once again.
Then, God called Abraham from amongst the Gentiles, pagans (Joshua 24:2-3), made a covenant with him, and through him made a special nation for himself, to whom he gave his Word and the Law; And God continued to take special care of that nation. But their history, given in the Bible, bears witness that even these special people of God were not loyal and obedient to God. They repeatedly fell into sin, but under the chastisement of God, they would reform for some time, then would slip back into their same deplorable condition. And when the Israelites did not reform and recover despite God’s every effort, God stopped talking to them from the time of Malachi. Then after four hundred years the Lord Jesus came and spoke to them.
Also, during this time, people other than those of Abraham's descendants, i.e. the Jews, i.e. the rest of the people of the world, they too got mired in their own fantasies, in all sorts of evils and idolatry, in their false concepts according to their imaginations regarding goodness, and righteousness. But because of His great love, patience, and long-suffering toward humans, God continued to endure them as well, and still continues to do so. We see from the Bible, regarding the Gentiles that despite their being far from God:
He kept giving them food and drink, not destroying them from the earth (Matthew 5:45).
When their evil was too much, He also sent his prophets to warn among them, as Jonah was sent to Nineveh.
He has never closed His doors upon them; e.g., A great mixed multitude also came out of Egypt with the Israelites (Exodus 12:38), and this mixed multitude continued to incite the Israelites to do evil (Numbers 11:4) against God. But God still gave them His manna from heaven every day, gave them water from the Rock to drink, protected them as well as the Israelites during enemy attacks, and never asked them to go to war. At Esther's time many people became Jews, they were not forbidden, nor were they isolated and treated differently (Esther 8:17).
Also, just as God put his Law into the hands of the Israelites, so God also placed evidence of himself in His creation for all the people of the world to see and recognize Him (Romans 1:20; Psalm 19:1-4). And He gave to the people of the world the ability to see and understand those things; e.g., as people from the east had come at the birth of the Lord Jesus Christ seeing and understanding by the signs in heaven (Matthew 2:2).
Through all these things, God was preparing the world to receive the Lord Jesus Christ and ultimately the Lord's judgment. God showed man through the history of his behavior how incapable he is to be righteous by his own efforts and actions.
Eve had plans to be wise like God, through gaining the knowledge of good and evil, by eating the forbidden fruit. God showed Adam, Eve, and their descendants by giving Adam, Eve, and their descendants about 4000 years of time, that even after gaining that knowledge, they could not face Satan; He demonstrated to them how weak and unworthy they were.
The overall the conclusion, in either case is the same. Whether God provides His Law, priesthood, care, and protection to humans; Or whether He leaves men to their devices, to their own wisdom, understanding, fantasies and concocted plans to become righteous; the result is the same. As we saw in the opening article of this series, by no means can a man become good, righteous, and holy by his own efforts.
The ignorance of man is that although he is incapable of successfully facing the devil and his devices, although man is incapable of ever, in any way, overcoming the deviousness of Satan by his own efforts and deeds, yet instead of accepting the help that God gives him for these, he chooses to take recourse to various forms of his own methods and foolishness, perceiving it as his wisdom and ability. He keeps on trying in vain; rather than to trust in God instead of his own wisdom, knowledge, understanding, and deeds, and is therefore, unable to escape Satan's snares.
It is an apparent fact that from the first sin committed in the Garden of Eden, to the present day; despite knowing, seeing, recognizing, and understanding everything; even after being saved and knowing the Word of God, man repeatedly, and many times unwillingly, falls into Satan's devices and into sin. Why does Satan so easily dominate humans, why is man not able to successfully face Satan on his own, and why this is his ignorance; we will see these things in the following articles. For now, what we have to note and ponder upon is that with the coming of the Lord Jesus Christ, the Savior of all the world, who redeems them from their sins; God, is willing to forgive the ignorant behavior of men, and therefore, is commanding them to repent and accept the Lord Jesus as Savior. Those who will not come to this repentance and faith in the Lord will perish.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
Joshua 1-3
Mark 16
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