ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 16


Click Here or the English Translation

पवित्र आत्मा द्वारा परिपक्वता - यूहन्ना 16:12-13


पिछले लेख में हमने देखा था कि मसीही विश्वास और सेवकाई से संबंधित कुछ बातें और कुछ शिक्षाएं ऐसी भी हैं, जिन्हें समझने और मानने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा की सहायता की आवश्यकता होती है, जैसा प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं शिष्यों से कहा है। इसका एक उदाहरण हमें यूहन्ना 6:60-66 में हमें मिलता है, जहाँ आने वाले समय में स्थापित किए जाने वाले प्रभु-भोज से संबंधित प्रभु की शिक्षाओं को उनके उस समय के कई शिष्य समझ नहीं सके, सहन नहीं कर सके, और इस कारण प्रभु यीशु को छोड़कर चले गए। उद्धार पाने के साथ ही, तुरंत ही पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी में आकर निवास करने लगता है, किन्तु जब तक उद्धार पाया हुआ व्यक्ति पवित्र आत्मा की अगुवाई में, उनकी आज्ञाकारिता में चलने न लगे, तब तक उसमें मसीही जीवन जीने के लिए वह परिपक्वता और समझ-बूझ विकसित नहीं होती है, जो समय के अनुसार हो जानी चाहिए। पौलुस ने कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को उनके अपरिपक्व व्यवहार के लिए उलाहना दिया, उन्हें बालक और शारीरिक कहा (1 कुरिन्थियों 3:1-4) क्योंकि उनके अंदर पवित्र आत्मा के फलों (गलातियों 5:22-23) दिखाई देने की बजाए सांसारिकता का व्यवहार दिखाई दे रहा था। इसी प्रकार से इब्रानियों का लेखक भी अपने पाठकों को झिड़कता है, क्योंकि वे अभी भी मसीही विश्वास में आने के उनके समय के अनुसार उनसे अपेक्षित परिपक्वता तक नहीं पहुँचे थे, उन्हें अभी भी मसीही विश्वास की मूल बातें समझना और सीखना आवश्यक था (इब्रानियों 5:11-14)।

 

अर्थात मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा की उपस्थिति, स्वतः ही उसे मसीही सेवकाई के लिए उपयुक्त नहीं बना देती है। हर व्यक्ति को मसीही जीवन जीना, उसमें बढ़ना, और परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता में रहना सीखना पड़ता है; और परमेश्वर पवित्र आत्मा इसमें सहायक तथा मार्गदर्शक होता है। यदि व्यक्ति सीखने और मानने वाला न बने, सांसारिक बातों में ही लगा रहे (इफिसियों 4 अध्याय), तो इससे पवित्र आत्मा शोकित होता है (इफिसियों 4:30)। पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस प्रेरित ने लिखा, “पर मैं कहता हूं, आत्मा के अनुसार चलो, तो तुम शरीर की लालसा किसी रीति से पूरी न करोगे” (गलातियों 5:16); अर्थात जीवन में सांसारिकता तथा शरीर की लालसाओं की पूर्ति की अभिलाषाएं यह प्रमाणित करते हैं कि उद्धार पाया हुआ व्यक्ति अभी पवित्र आत्मा के चलाए नहीं चल रहा है, मसीही परिपक्वता की ओर अग्रसर नहीं है। इसके विपरीत उस व्यक्ति का बदला हुआ जीवन, उसके जीवन में दिखने वाले पवित्र आत्मा के फल, उसका परमेश्वर के वचन को प्राथमिकता देना और उस वचन की आज्ञाकारिता में चलते रहना, उसके जीवन तथा व्यवहार से सांसारिक लोगों का पाप, धार्मिकता, और न्याय के विषय कायल होना, आदि बातें प्रत्यक्ष प्रमाण होते हैं के व्यक्ति में पवित्र आत्मा विद्यमान है, और वह व्यक्ति पवित्र आत्मा के चलाए चल रहा है।


यूहन्ना 16:13 में, पवित्र आत्मा के शिक्षक होने के कार्य के संबंध में एक बार फिर उन्हें 'सत्य का आत्मा' कहा गया है; अर्थात उनकी हर बात सत्य है, और वे केवल सत्य ही का मार्ग बताएंगे; वे किसी भी असत्य के साथ कभी सम्मिलित नहीं होंगे। परमेश्वर का वचन बाइबल ही ‘सत्य’ को पुराने तथा नए नियम में परिभाषित करती है:

भजन 119:160 तेरा सारा वचन सत्य ही है; और तेरा एक एक धर्ममय नियम सदा काल तक अटल है

यूहन्ना 14:6 यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता

यूहन्ना 17:17 सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर: तेरा वचन सत्य है


अर्थात, जिस सत्य की बात वचन में की जाती है, वह सांसारिक मानकों और परिभाषाओं के अनुसार नहीं है, वरन परमेश्वर के वचन, तथा प्रभु यीशु मसीह और उनकी शिक्षाओं के अनुसार ‘सत्य’ है। इसका सीधा और स्पष्ट तात्पर्य है कि जो भी व्यवहार एवं शिक्षा परमेश्वर के वचन में नहीं दी गई है, अथवा प्रभु यीशु मसीह के जीवन, व्यवहार, और शिक्षाओं में देखने को नहीं मिलती है, वह सब मसीही जीवन, विश्वास, और सेवकाई के संबंध में असत्य है, अनुचित है। ऐसी हर शिक्षा और व्यवहार  मसीही विश्वासी के लिए अस्वीकार्य है, क्योंकि, जैसा कि प्रभु यीशु मसीह ने कहा, हर असत्य शैतान की ओर से होता है, शैतान ही झूठ का पिता है (यूहन्ना 8:44)। मसीही विश्वास एवं सेवकाई में सही शिक्षा और सिद्धान्तों की पहचान करने के लिए उसमें तीन गुण विद्यमान होने चाहिएं: i. उसे सुसमाचारों में प्रचार किया गया हो, अर्थात प्रभु यीशु मसीह द्वारा कहे और सिखाए गए होना। ii. वे प्रेरितों के काम में व्यावहारिक मसीही या मण्डली के जीवन में प्रदर्शित किए गए हों; अर्थात उनका प्रथम एवं आरंभिक मंडलियों द्वारा माना गया और पालन किया गया होना चाहिए। iii. पत्रियों में उसकी व्याख्या की गई या उसके विषय सिखाया गया हो; अर्थात परमेश्वर पवित्र आत्मा ने उन शिक्षाओं और व्यवहारों की पुष्टि की है, और उनसे संबंधित और बातें को भी परमेश्वर के वचन में सिखाया तथा लिखवाया है। जिस भी शिक्षा, व्यवहार, या बात में ये तीनों गुण नहीं हैं, उसे तुरंत स्वीकार नहीं करना चाहिए, उसे बताने वाला चाहे कोई भी हो, कितना भी प्रसिद्ध और ज्ञानी क्यों न हो। पहले, सचेत होकर तथा प्रार्थना के साथ, बेरिया के विश्वासियों के समान (प्रेरितों 17:11), वचन से यह देखना चाहिए कि जो उस शिक्षा अथवा व्यवहार में कहा और बताया जा रहा है, वास्तव में पवित्र शास्त्र में वैसा ही लिखा है या नहीं - यह करना कोई आपत्तिजनक बात नहीं वरन खरे आत्मिक जन होने का चिह्न है 1 कुरिन्थियों 2:15।


यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो क्या आप किसी मसीही सेवकाई में भी संलग्न हैं? आपके लिए यह करना अनिवार्य है क्योंकि परमेश्वर पिता ने अपनी सभी संतानों के लिए कुछ-न-कुछ सेवकाई पहले से तय की हुई है (इफिसियों 2:10), और आपका उसे पूरा न करना, अनाज्ञाकारिता है, आपके अनन्त जीवन के प्रतिफलों के लिए हानिकारक है। आप जिन बातों, शिक्षाओं, व्यवहार का पालन करते हैं या औरों को उन्हें सिखाते और उन से करवाते हैं, उनके विषय बहुत सचेत रहने वाले और उन्हें परमेश्वर के वचन के अनुसार खराई से जाँचने वाले बनें। अन्यथा शैतान अपनी चतुराई से आपको आकर्षक तथा प्रबल लगने वाली किन्तु गलत शिक्षाओं और व्यवहार के द्वारा बहका कर बहुत नुकसान में फंसा देगा (2 कुरिन्थियों 11:3; कुलुस्सियों 2:4, 6-8)।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि आप जैसी भी दशा में हैं, उसी में परमेश्वर आपको स्वीकार कर लेगा, और सदा काल के लिए अपना बना लेगा। साथ ही क्या किसी पापी मनुष्य के लिए कहीं और यह संभव है कि परमेश्वर स्वयं आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको धर्मी बनाए; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को तथा अपनी धार्मिकता को औरों पर प्रकट करे, आपको खरा आँकलन करने और सच्चा न्याय करने वाला बनाए; तथा आप में होकर पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 66-67 

  • रोमियों 7

******************************************************************

English Translation

Discernment and Maturity Through the Holy Spirit - John 16:12-13


In the previous article we have seen that, as the Lord Jesus has said, there are some things of the Christian Faith and Ministry that can only be understood by the help of the Holy Spirit. We had seen an example of this in John 6:60-66, where some of the then disciples of the Lord could not understand what the Lord was saying about the Lord’s Table, could not bear it, therefore left the Lord Jesus and went away. With salvation, the Holy Spirit of God comes to reside in the Christian Believer, but unless and until the saved person starts walking in obedience to the promptings of the Holy Spirit, the requisite maturity and understanding does not develop in him, as it ought to according to the time since salvation. Paul admonished the Christian Believers of the Church in Corinth, and for their immature behavior called them babes and carnal (1 Corinthians 3:1-4), because instead of the fruits of the Holy Spirit (Galatians 5:22-23) being evident from their lives, they were exhibiting a life of worldliness. Similarly, the writer or Hebrews too admonishes his readers, since they had not reached the maturity expected from them for their being in the Christian Faith, and they still needed to learn the fundamental principles of the Christian Faith (Hebrews 5:11-14).


In other words, the presence of the Holy Spirit within a Christian Believer does not by itself make him ready and prepared for Christian ministry. Every person has to learn to live the life of Christian Faith, to grow in it, and to live in obedience to God; and God the Holy Spirit is their helper and guide in doing so. If the person is unwilling to learn and obey, persists in worldly ways, then that grieves the Holy Spirit. Paul, under the guidance of the Holy Spirit wrote, “I say then: Walk in the Spirit, and you shall not fulfill the lust of the flesh” (Galatians 5:16); this shows that if a saved person is living a life of worldliness and of fulfilling the desires of the flesh, then he is not living and walking in obedience to the Holy Spirit and is not on the way to spiritual maturity. In contrast, his changed life, the presence of the fruits of the Spirit in his life, his giving the priority to God’s Word and living in obedience to it, and the people of the world feeling convicted for sin, righteousness, and judgment by his life, are all evidences of not only the Holy Spirit being present in him, but his walking according to the Spirit as well.


In John 16:13, in relation to His work as a teacher, the Holy Spirit has once again been called “the Spirit of Truth”; i.e., everything about Him is the truth, and He will only show the way of truth, and will never be involved in any untruth or anything false. The Word of God, the Bible, defines “truth” in both the Old as well as the New Testaments:

Psalms 119:160 “The entirety of Your word is truth, And every one of Your righteous judgments endures forever.”

John 14:6 “Jesus said to him, I am the way, the truth, and the life. No one comes to the Father except through Me.

John 17:17 “Sanctify them by Your truth. Your word is truth.”


In other words, the truth that is talked of in God’s Word, is not according to worldly standards and definitions, but is according to the Word of God and the teachings of the Lord Jesus Christ. The simple, straightforward implication is that any behavior, preaching, and teaching that has not been given in the Bible; or, is not seen in the life, behavior, and teachings of the Lord Jesus, is not the “truth”, is inappropriate. All such teachings and behavior are unacceptable for the Christian Believer, because, as the Lord Jesus has Himself said, everything false and untrue is from Satan, for he is the father of all lies (John 8:44). In Christian Faith and Ministry, to recognize and accept Biblically true teachings and doctrines, three characteristics ought to be seen in them: (i) they must have been preached in the Gospels, i.e., must have been preached and taught by the Lord Jesus; (ii) they must have been evidently present and seen in the first Church, i.e., they must be recorded in the Book of Acts; (iii) they must have been expounded upon in the letters or epistles, i.e., the Holy Spirit must have affirmed those teachings and behavior, and He must have got written things related to those teachings and doctrines in God’s Word. If all of these three characteristics are not seen or present in any teaching or doctrine, then it must not immediately be accepted, no matter who is stating them, or telling and teaching about them, howsoever famous and knowledgeable he may be. We should, like the Believers of Berea (Acts 17:11), first prayerfully and carefully examine and evaluate according to God’s Word whether what is being preached and taught really and factually is according to God’s Word or not - doing this should not become a point of contention, but should be seen as a sign of a mature spiritual person (1 Corinthians 2:15).


If you are Christian Believer, then are you also involved in Christian Ministry? It is mandatory for you to be doing this, since God the Father has determined some ministry or the other for each and every one of His children (Ephesians 2:10). Your not carrying out the assigned ministry is disobedience, and is detrimental for your heavenly rewards and eternal benefits. Whatever things, teachings, and behavior you exhibit, or preach and teach to others, be very careful and discerning about them, that they should all be absolutely according to God’s Word; else Satan will easily beguile you  in wrong teachings and behavior, and bring you to great harm (2 Corinthians 11:3; Colossians 2:4, 6-8).


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 66-67 

  • Romans 7




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें