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पवित्र आत्मा के तीन प्रयोजन - यूहन्ना 16:12-13
पिछले लेख में हमने देखा था कि एक बार फिर प्रभु यीशु मसीह ने परमेश्वर पवित्र आत्मा को “सत्य का आत्मा” कह कर संबोधित किया; अर्थात पवित्र आत्मा से संबंधित और उनकी हर बात केवल सत्य ही होगी, और वे केवल सत्य ही का मार्ग बताएंगे; वे किसी भी प्रकार के प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष असत्य के साथ कभी किसी रूप में सम्मिलित नहीं होंगे। साथ ही हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार ‘सत्य’ प्रभु यीशु मसीह और उनका वचन है। तात्पर्य यह हुआ कि परमेश्वर पवित्र आत्मा की हर बात प्रभु यीशु मसीह और उनके वचन की बातों में से होगी, उन शिक्षाओं और बातों के साथ संगत होगी, कभी उनसे भिन्न अथवा अतिरिक्त नहीं होगी। साथ ही हमने यह भी देखा था कि बाइबल से संबंधित किसी भी सिद्धांत को स्वीकार करने से पहले, उसे तीन बातों के आधार पर जाँच लेना चाहिए; ये बातें हैं - i. सुसमाचारों में प्रचार किया गया; ii. प्रेरितों के काम में व्यावहारिक मसीही या मण्डली के जीवन में प्रदर्शित किया गया; iii. पत्रियों में उसकी व्याख्या की गई या उसके विषय सिखाया गया। जिस बात में ये तीनों गुण नहीं हैं, उसे तुरंत स्वीकार नहीं करना चाहिए; बेरिया के विश्वासियों के समान (प्रेरितों 17:11) वचन से यह देखना चाहिए कि जो कहा और बताया जा रहा है, वास्तव में पवित्र शास्त्र में वैसा ही लिखा है या नहीं - यह खरे आत्मिक ज्ञान का चिह्न है 1 कुरिन्थियों 2:15।
यूहन्ना 16:13 में परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा ‘तुम्हें’ अर्थात प्रभु यीशु के शिष्यों की सार्वजनिक मसीही सेवकाई से संबंधित तीन बातों का उल्लेख है:
(i) वह सब सत्य का मार्ग बताएगा;
(ii) वह अपनी ओर से नहीं कहेगा, परंतु जो कुछ सुनेगा, वही कहेगा;
(iii) वह आने वाली बातें बताएगा।
आज परमेश्वर पवित्र आत्मा के नाम से बहुतायत से किए जाने वाले भ्रामक प्रचार, गलत शिक्षाओं, और मन-गढ़न्त बातों के संदर्भ में, उन बातों और शिक्षाओं को जाँचने और परखने, उनकी सत्यता को जानने और पहचानने के लिए, ऐसी शिक्षाओं और उनके प्रचारकों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के लिए, ये तीनों बातें बहुत सहायक तथा महत्वपूर्ण हैं।
(i) ) वह सब सत्य का मार्ग बताएगा: पहली बात जो प्रभु यीशु मसीह ने याहन पर कही है, वह है कि पवित्र आत्मा सब सत्य का मार्ग बताएगा। यह मसीह यीशु के शिष्य पर यह ज़िम्मेदारी रखता है कि वह हर बात के विषय परमेश्वर पवित्र आत्मा से मार्गदर्शन मांगे और ले, विशेषतः उन बातों के लिए जो नई अथवा वचन में दी गई बातों से भिन्न प्रतीत होती हैं। गलत शिक्षाओं और सिद्धांतों के सभी प्रचारक सामान्यतः परमेश्वर के वचन की शिक्षा के विपरीत, सांसारिक सुख-समृद्धि-संपत्ति या लाभ प्राप्त करने ही की बातें करते हैं (1 यूहन्ना 2:15-17), और पापों से पश्चाताप करने, प्रभु यीशु को समर्पित जीवन जीने, और परमेश्वर के वचन को सीखने और पालन करने पर जोर देने की बजाए शारीरिक चंगाई के बारे में बातें करते हैं। उनके प्रचार में पापों के लिए पश्चाताप करने (प्रेरितों 2:38), प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास द्वारा उद्धार (प्रेरितों 15:11; 16:31), प्रभु यीशु के शिष्य बनने और उससे आने वाले मन-परिवर्तन के बारे में (रोमियों 12:1-2; 2 कुरिन्थियों 5:17), और अपने आप को संसार में यात्री और परदेशी होकर सांसारिक नहीं वरन स्वर्गीय वस्तुओं पर मन लगाने (1 पतरस 2:11; कुलुस्सियों 3:1-2), मसीही विश्वास और सेवकाई में दुख आने और उठाने की अनिवार्यता (फिलिप्पियों 1:29; 2 तिमुथियुस 3:12), आदि, सुसमाचार की बातें या तो होती ही नहीं हैं, अथवा बहुत कम होती हैं। उनका प्रचार, और जीवन मुख्यतः पार्थिव, नश्वर, शारीरिक सुख-सुविधा की बातों से ही संबंधित होता है। और फिर वे यह सब पवित्र आत्मा की ओर से अथवा उनकी अगुवाई में होकर कहने का दावा करते हैं। वे शरीरों के विचित्र हाव-भाव-हरकतों और मुँह से अजीब-अजीब आवाज़ें निकालकर लोगों को प्रभावित करने और यह विश्वास दिलाने के प्रयास करते हैं कि यह सब पवित्र आत्मा उनमें होकर कर रहा है या उनसे करवा रहा है। जबकि पवित्र आत्मा के संबंध में ऐसी कोई शिक्षा, कोई बात परमेश्वर के वचन में कहीं नहीं दी गई है। तो फिर वह ‘सत्य का आत्मा’ जो केवल सत्य अर्थात परमेश्वर के वचन और प्रभु यीशु की बातों का मार्ग बताता है, वह यह सब कैसे कर सकता है? या तो प्रभु यीशु की कही यूहन्ना 16:13 की बात झूठ है, अन्यथा पवित्र आत्मा के नाम पर किए जा रहे ये भ्रामक एवं नाटकीय प्रचार और व्यवहार झूठ हैं।
(ii) वह अपनी ओर से नहीं कहेगा, परंतु जो कुछ सुनेगा, वही कहेगा: इस प्रकार का गलत प्रचार करने वालों में एक और बात बहुधा देखी जाती है - वे पवित्र आत्मा की ओर से नए दर्शन, नई शिक्षाएं, नई बातें बोलने के दावे करते हैं। किन्तु प्रभु यीशु मसीह ने यहाँ पर परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय स्पष्ट कहा है कि वे “अपनी ओर न कहेगा, परंतु जो कुछ सुनेगा, वही कहेगा”; साथ ही प्रभु यीशु मसीह ने इससे पहले कहा था “परन्तु सहायक अर्थात पवित्र आत्मा जिसे पिता मेरे नाम से भेजेगा, वह तुम्हें सब बातें सिखाएगा, और जो कुछ मैं ने तुम से कहा है, वह सब तुम्हें स्मरण कराएगा” (यूहन्ना 14:26)। अब जब परमेश्वर का वचन अपनी पूर्णता में लिखा जा चुका है, अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में स्थापित हो चुका है (भजन 119:89), साथ ही प्रभु यीशु द्वारा कही गई उपरोक्त बातों को भी ध्यान में रखते हुए, तो फिर यह कैसे संभव है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा उस वचन के अतिरिक्त और कुछ नया किसी मनुष्य को बताए या सिखाए? यह तो उपरोक्त बातों के विरुद्ध होगा, उन्हें झूठ दिखाएगा - जो ‘सत्य के आत्मा’ पवित्र आत्मा के गुणों के विरुद्ध है। एक और बार हमारे समान फिर वही आँकलन आ जाता है - या तो परमेश्वर का वचन सही है, तो फिर ये प्रचारक और उनकी शिक्षाएं और व्यवहार झूठे होंगे; अन्यथा ये प्रचारक और उनके दावे सही हैँ, तो फिर परमेश्वर के वचन की शिक्षाएं स्थिर, स्थापित और सच्ची नहीं हैं, वरन परिवर्तनीय हैं, अविश्वासयोग्य हैं क्योंकि लिखा कुछ है और हो कुछ और ही रहा है! आप किस पर विश्वास करेंगे - परमेश्वर और परमेश्वर के वचन पर या मनुष्य और उसके वचन, व्यवहार, और दावों पर?
(iii) वह आने वाली बातें बताएगा: एक और बात जिसका दावा ये भ्रामक एवं नाटकीय प्रचार और व्यवहार करने वाले अकसर करते हैं, वह है “भविष्यवाणियाँ”। अवश्य ही प्रभु यीशु ने शिष्यों से कहा कि पवित्र आत्मा 'तुम्हें' अर्थात प्रभु यीशु के शिष्यों को आने वाली बातें बताएगा। किन्तु यदि नए नियम की बातों के आधार पर इस बात को देखें, तो इस बात का जो अर्थ सामने आता है वह है कि पवित्र आत्मा मसीही सेवकाई और सुसमाचार प्रचार के दौरान शिष्यों को आने वाली बातों को बताता है, अर्थात उन्हें सचेत रखता था। ऐसा बिलकुल नहीं था कि पवित्र आत्मा लोगों को अपना ढिंढोरा पीटने और अपने आप को लोगों के सामने भविष्यद्वक्ता दिखा कर वाह-वाही लूटने के लिए कहता था। वरन वह सुसमाचार प्रचार में लगे प्रभु के शिष्यों को हर परिस्थिति के लिए तैयार और आगाह रखता था, जो शिष्यों की सेवकाई के लिए बहुत महत्वपूर्ण बात थी (प्रेरितों 9:16; 13:4; 20:22-23; 21:4, 11; 23:16)। दूसरी बात, यदि लोगों द्वारा “पवित्र आत्मा की ओर से” मिली और की जा रही भविष्यवाणियों के विषयों को देखें, और उनके पूरा होने का आँकलन करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि उन “भविष्यवाणियों” के विषय और सामग्री, सामान्यतः परमेश्वर के वचन से बाहर या अतिरिक्त होते हैं - जो, जैसा हम ऊपर देख चुके हैं, पवित्र आत्मा की ओर से किया जाना संभव नहीं है। साथ ही यदि उनके पूरे होने के आधार पर आँकलन करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन की शिक्षा से देखें, तो लिखा है , “और यदि तू अपने मन में कहे, कि जो वचन यहोवा ने नहीं कहा उसको हम किस रीति से पहचानें? तो पहचान यह है कि जब कोई नबी यहोवा के नाम से कुछ कहे; तब यदि वह वचन न घटे और पूरा न हो जाए, तो वह वचन यहोवा का कहा हुआ नहीं; परन्तु उस नबी ने वह बात अभिमान कर के कही है, तू उस से भय न खाना” (व्यवस्थाविवरण 18:21-22)। अर्थात दोनों ही रीति से ऐसे लोगों द्वारा की जा रही “भविष्यवाणियों” के परमेश्वर की ओर से होने की पुष्टि नहीं होती है। फिर भी ये लोग, बेधड़क होकर, परमेश्वर पवित्र आत्मा के नाम से कुछ भी कहते और करते रहते हैं; तथा लोग सच्चाई की पहचान करने और फिर स्वीकार करने के स्थान पर, उनकी बातों में आकर मूर्ख बनते रहते हैं, उनके पीछे चलते रहते हैं।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो यह आपके लिए अनिवार्य है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय वचन में दी गई शिक्षाओं को गंभीरता से सीखें, समझें और उनका पालन करें; और सत्य को जान तथा समझ कर ही उचित और उपयुक्त व्यवहार करें, सही शिक्षाओं का प्रचार करें। आपको अपनी हर बात का हिसाब प्रभु को देना होगा (मत्ती 12:36-37)। जब वचन आपके हाथ में है, वचन को सिखाने के लिए पवित्र आत्मा आपके साथ है, तो फिर बिना जाँचे और परखे गलत शिक्षाओं में फँस जाने, तथा मनुष्यों और उनके समुदायों और शिक्षाओं को आदर देते रहने के लिए उन गलत शिक्षाओं में बने रहने के लिए कोई उत्तर नहीं दे सकेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि आप जैसी भी दशा में हैं, उसी में परमेश्वर आपको स्वीकार कर लेगा, और सदा काल के लिए अपना बना लेगा। साथ ही क्या किसी पापी मनुष्य के लिए कहीं और यह संभव है कि परमेश्वर स्वयं आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको धर्मी बनाए; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को तथा अपनी धार्मिकता को औरों पर प्रकट करे, आपको खरा आँकलन करने और सच्चा न्याय करने वाला बनाए; तथा आप में होकर पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 68-69
रोमियों 8:1-21
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Three Purposes of the Holy Spirit - John 16:12-13
We had seen in the previous article that in our lead verses once again the Lord Jesus had addressed the Holy Spirit as “the Spirit of Truth.” This clearly indicates that everything related to the Holy Spirit, and whatever He says will only be the truth, He will only tell the correct way and the right things, and He will never be involved in anything that is not the truth, directly or indirectly, evidently or obscurely. We had also seen that according to the Bible, Lord Jesus and His Word are “truth.” Therefore, the implication is that everything that the Holy Spirit says or teaches or reveals will only be from the Lord Jesus Christ and His Word, will be consistent with them, and will never be different from what the Lord Jesus has already stated. Another thing that we had seen was that before accepting anything as a doctrine, it should be examined and evaluated Biblically, and three characteristics help us to ascertain whether or not it is truly Biblical; these three things are: (i) they must have been preached in the Gospels, i.e., must have been preached and taught by the Lord Jesus; (ii) they must have been evidently present and seen in the first Church, i.e., they must be recorded in the Book of Acts; (iii) they must have been expounded upon in the letters or epistles, i.e., the Holy Spirit must have affirmed those teachings and behavior, and He must have got written things related to those teachings and doctrines in God’s Word. If all of these three characteristics are not seen or present in any teaching or doctrine, then it must not immediately be accepted, no matter who is stating them, or telling and teaching about them, howsoever famous and knowledgeable he may be. We should, like the Believers of Berea (Acts 17:11), first prayerfully and carefully examine and evaluate from God’s Word whether what is being preached and taught really and factually is according to God’s Word or not, and only then accept it, believe in it. Doing this is a sign of a mature spiritual person (1 Corinthians 2:15).
In John 16:13 “However, when He, the Spirit of truth, has come, He will guide you into all truth; for He will not speak on His own authority, but whatever He hears He will speak; and He will tell you things to come”, we see three things related to the public ministry of the disciples, into which “He, the Spirit of truth” will guide “you”, i.e., the disciples of the Lord Jesus. These three things are:
(i) He will guide you into all truth;
(ii) He will not speak on His own authority, but whatever He hears He will speak;
(iii) He will tell you things to come.
Today, a lot of wrong preaching and teaching is going on in the name of the Holy Spirit. These three things stated by the Lord Jesus regarding the work of the Holy Spirit in Christian Ministry are very important and form the basis to examine and evaluate the truth and learn about these teachings being true or not, and to decide whether or not to accept the preachers and teachers putting forth doctrines and messages in the name of the Holy Spirit.
(i) He will guide you into all truth: The first thing that the Lord Jesus said is that the Holy Spirit will guide the disciples into all truth. This places the responsibility upon the Lord’s disciple to seek guidance about everything from God the Holy Spirit, especially before accepting and believing anything that seems new or different from what is given in God’s Word. Generally speaking, the preachers and teachers of wrong messages and doctrines, usually only talk about worldly things, prosperity, temporal gains, contrary to God’s Word (1 John 2:15-17), and about physical healings instead of teaching about the gospel and related matters, and emphasizing upon learning and obedience to God’s Word. In their preaching and teachings the things related to the Gospel, i.e., repentance for sins (Acts 2:38), receiving salvation through coming into faith in the Lord Jesus (Acts 15:11; 16:31), making disciples of the Lord Jesus, and living a changed life because of change of heart and mind through becoming disciples of the Lord (Romans 12:1-2; 2 Corinthians 5:17), considering yourself as pilgrims and travelers in this world and therefore not getting involved with worldly things, rather being attached to heavenly things (1 Peter 2:11; Colossians 3:1-2), it being mandatory to suffer persecution and pain in Christian life and ministry (Philippians 1:29; 2 Timothy 3:12) etc., are either not there, or are a very small and insignificant part of their message and ministry. Instead, their preaching and teaching is mainly concentrated upon the perishable physical body, physical things, and worldly amenities. And then they claim to say all of this through the Holy Spirit. They try to impress people and make them believe through strange bodily gestures, odd behavior, and making incoherent illegible sounds, that all of this is being done by the Holy Spirit. Whereas, nowhere in the Bible, any such teaching has ever been given or even implied about the Holy Spirit. So, then, He, “the Spirit of truth”, who only does and tells the truth and about the teachings and way of the Lord Jesus, how can He do all these unBiblical things and behavior? Either, what the Lord has said in John 16:13 is incorrect and a lie, or, these dramatic unBiblical things being said and done in the name of the Holy Spirit are false and unacceptable.
(ii) He will not speak on His own authority, but whatever He hears He will speak: Another thing that is commonly seen amongst these teachers and preachers of wrong doctrines is that they claim to receive new visions, new doctrines, and new teachings from the Holy Spirit. But here, the Lord Jesus has very clearly stated about the Holy Spirit that “He will not speak on His own authority”, rather, “but whatever He hears He will speak” which is a re-affirmation of what the Lord Jesus had previously said: “But the Helper, the Holy Spirit, whom the Father will send in My name, He will teach you all things, and bring to your remembrance all things that I said to you” (John 14:26). Now, in light of these categorical statements by the Lord Jesus, and keeping in mind the fact that the Word of God has been fully written down, and settled in heaven for eternity (Psalm 119:89), how is it at all possible that God the Holy Spirit will tell something other than what has been given in the Bible, something new that has not been stated before? If He were to do so, it would be going against God’s Word and His ministry, will be a lie, will be against the characteristics of “the Spirit of truth.” So once more we are brought back to the same assessment, either God’s Word is true and supreme, in which case, these teachers and preachers will be false and liars; or else, God’s Word is not settled, absolute, established, and immutable, since it can be altered, and added to, in which case it becomes unreliable and incomplete, and one can never be sure when some new thing may be added to it, and something else may be taken away from it! Now, what will you believe in - on God and His Word, or on a man and what he claims, on his strange unBiblical behavior and utterances?
(iii) He will tell you things to come: Another false thing that these preachers and teachers of wrong doctrines and messages very emphatically speak about are “prophecies.” Undoubtedly, the Lord Jesus did say to His disciples that the Holy Spirit will tell them the “things to come.” But when we look at this statement in context of the things and happenings in the New Testament, then the meaning of this statement that comes forth is that the Holy Spirit would keep them informed and caution them about what lay ahead for the disciples during their ministry and preaching the gospel. Nowhere in the New Testament do we find that the Holy Spirit ever caused the disciples to ‘blow their own trumpet’ or to present themselves before the people as “Prophets” and garner glory and praise from people, as is very commonly seen about these false preachers and teachers today. Rather, the Holy Spirit kept the disciples engaged in ministry and gospel preaching, aware of what lay ahead for them, so that the disciples remained prepared and ready for the coming events (Acts 9:16; 13:4; 20:22-23; 21:4, 11; 23:16). Secondly, if we examine and evaluate the “prophecies” that these people claim to receive from the Holy Spirit, consider their topics or themes, and check how many were fulfilled, if any at all, then it becomes very clear that the topics and themes of those “prophecies” are usually about worldly things, worldly prosperity, and non-spiritual issues, which, as we have seen above is not possible that the Holy Spirit will do. Also, if we check them out on the basis of those “prophecies” being fulfilled, then hardly any would stand up to this evaluation. In this regard, God’s Word says, “And if you say in your heart, 'How shall we know the word which the Lord has not spoken?' When a prophet speaks in the name of the Lord, if the thing does not happen or come to pass, that is the thing which the Lord has not spoken; the prophet has spoken it presumptuously; you shall not be afraid of him” (Deuteronomy 18:21-22). In other words, on both counts, their so-called “Prophecies” fail on being confirmed through God’s Word. But still, these people, undaunted, keep on saying and doing whatever comes to their minds in the name of the Holy Spirit. But even more dismaying is the fact that people instead of checking them out through God’s Word and calling their bluff, foolishly continue to run after them, follow them, praise them, fulfill their demands, and keep getting cheated and looted by them in various ways.
If you are a Christian Believer, then it is mandatory for you to learn about God the Holy Spirit from the Word of God, know and understand the Biblical truths, and follow them. Make it a point to discern the truth of the various claims being made, only then accept them, and preach only the Biblical truth, nothing else; for you will have to give an account to the Lord of everything you say (Matthew 12:36-37). When you have the Word of God in your hands, and the teacher of the Word, the Holy Spirit is with you to help you learn, then how will you be able to explain your getting caught in, being involved with, and preaching wrong teachings, and honoring the sects, denominations, and people who spread these false teachings?
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 68-69
Romans 8:1-21
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