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शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

पवित्र आत्मा प्राप्त करने से संबंधित गलत शिक्षाएं (ज़ारी) / Wrong Teachings Regarding Receiving the Holy Spirit (Contd.)


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पवित्र आत्मा की निन्दा करने का पाप की समझ (भाग-2)


हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता से भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं। इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्‍वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं। जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार। साथ ही इस पद में सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है, कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बाइबल से देखने, जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है।

 

पिछले लेखों में हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, प्रभु यीशु से संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को देखने के बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से देखना आरंभ किया है। हम देख चुके हैं कि प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के नया जन्म या उद्धार पाते ही, तुरंत उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में आकर उसके अंदर निवास करने लगता है, और उसी में बना रहता है, उसे कभी छोड़ कर नहीं जाता है; और इसी को पवित्र आत्मा से भरना या पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना भी कहते हैं। वचन स्पष्ट है कि पवित्र आत्मा से भरना या उससे बपतिस्मा पाना कोई दूसरा या अतिरिक्त अनुभव नहीं है, वरन उद्धार के साथ ही सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा का आकर निवास करना ही है। इन गलत शिक्षकों की एक और बहुत प्रचलित और बल पूर्वक कही जाने वाले बात है “अन्य-भाषाओं” में बोलना, और उन लोगों के द्वारा “अन्य-भाषाओं” को अलौकिक भाषाएं बताना, और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग के द्वारा इससे संबंधित कई और गलत शिक्षाओं को सिखाना। इसके बारे में भी हम देख चुके हैं कि यह भी एक ऐसी गलत शिक्षा है जिसका वचन से कोई समर्थन या आधार नहीं है। प्रेरितों 2 अध्याय में जो अन्य भाषाएं बोली गईं, वे पृथ्वी ही की भाषाएं और उनकी बोलियाँ थीं; कोई अलौकिक भाषा नहीं। हमने यह भी देखा था कि वचन में इस शिक्षा का भी कोई आधार या समर्थन नहीं है कि “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना की भाषाएं हैं। इस गलत शिक्षा के साथ जुड़ी हुई इन लोगों की एक और गलत शिक्षा है कि “अन्य-भाषाएं” बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण है, जिसके भी झूठ होने और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग पर आधारित होने को हमने पिछले लेख में देखा है। पिछले लेख में हमने यह भी देखा था कि उन लोगों के सभी दावों के विपरीत, न तो प्रेरितों 2:3-11 का प्रभु के शिष्यों द्वारा अन्य-भाषाओं में बोलना कोई “सुनने” का आश्चर्यकर्म था, न ही अन्य भाषाएं प्रार्थना करने की गुप्त भाषाएँ हैं, और न ही ये किसी को भी यूं ही दे दी जाती हैं, जब तक कि व्यक्ति की उस स्थान पर सेवकाई न हो, जहाँ की भाषा बोलने की सामर्थ्य उसे प्रदान की गई है। एक और दावा जो ये पवित्र आत्मा और अन्य-भाषाएँ बोलने से संबंधित गलत शिक्षाएं देने वाले करते हैं, है कि व्यक्ति अन्य-भाषा बोलने के द्वारा सीधे परमेश्वर से बात करता है। इसके तथा कुछ संबंधित और बहुत महत्वपूर्ण बातों के बारे में हम पिछले दो लेखों में देख चुके हैं कि उनका यह दावा भी वचन की कसौटी पर बिलकुल गलत है, अस्वीकार्य है।


   इन गलत शिक्षा फैलाने वालों की एक और प्रमुख शिक्षा, जिसे वे अपने बचाव के लिए प्रयोग करते हैं, है “पवित्र आत्मा की निन्दा कभी क्षमा न होने वाला पाप है।” यह समझने के लिए कि यह “निरादर” या “निन्दा” वास्तव में है क्या, और यह क्यों केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा ही के विरुद्ध ही क्षमा नहीं हो सकता है, हमने पिछले लेख से परमेश्वर के वचन में से कुछ तथ्यों एवं शिक्षाओं को देखना आरंभ किया है, और त्रिएक परमेश्वर के तीनों स्वरूपों, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के बारे में अपने इस विषय के संदर्भ से देखा है। आज हम देखेंगे कि लूसिफर का पाप क्यों क्षमा नहीं हो सकता था; और यह भी समझेंगे कि वचन के अनुसार प्रभु यीशु मसीह द्वारा कही गई बात के संदर्भ में जिसका दुरुपयोग ये लोग करते हैं, निन्दा (blasphemy) शब्द का वास्तव में क्या अर्थ और अभिप्राय होता है। 

लूसिफर का पाप क्यों कभी क्षमा नहीं हो सकता, और हमारे लिए उसके क्या अभिप्राय हैं?

परमेश्वर की पवित्रता, वैभव, और महानता के विरुद्ध मनुष्यों द्वारा किए गए निरादर के पाप को यदि हमारे लिए क्षमा योग्य बना दिया जाता, तो फिर परमेश्वर के उच्च तथा निष्पक्ष न्याय की मांग होगी कि प्रधान स्वर्गदूत, लूसिफर द्वारा परमेश्वर की पवित्रता, वैभव, और महानता के विरुद्ध किए गए निरादर के पाप को भी क्षमा मिलनी चाहिए – और यह परमेश्वर की पवित्रता, वैभव, महानता, और पूर्ण सार्वभौमिकता का उपहास हो जाएगा। लूसिफर का पाप न केवल अत्यंत जघन्य था, वरन क्योंकि उसके पतन के समय, किसी ने भी किसी के पाप की कोई कीमत नहीं चुकाई थी, जैसे कि मसीह यीशु ने हमारे लिए चुका दी है, इसलिए पाप के लिए कोई प्रायश्चित का समाधान उपलब्ध भी नहीं था; इसका निवारण दंड के द्वारा ही संभव था, और यही किया भी गया।

 

साथ ही, हम वचन से यह भी देखते हैं कि न तो लूसिफर ने और न ही उसके दूतों ने कभी अपने पापों के लिए कोई पश्चाताप किया, उनके लिए सच्चे मन से क्षमा माँगी। वे तो आरंभ से ही परमेश्वर के कार्यों में बाधा और बिगाड़ उत्पन्न करते आ रहे हैं, परमेश्वर के वचन और शिक्षाओं को भ्रष्ट करके उनका दुरुपयोग ही करते चले आ रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में, मात्र क्षमा की प्रार्थना कर लेने की औपचारिकता को स्वीकार किए जाने का अर्थ होता स्वर्गीय स्थानों में अनियंत्रित अव्यवस्था एवं अराजकता को निमंत्रण देना। क्योंकि तब, कोई भी सृजा गया प्राणी अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर लेता और, बस क्षमा मांग कर उसके परिणामों से बच निकालता –  और यह कदापि स्वीकार नहीं की जा सकने वाली स्थिति हो जाती।

 

इसलिए पृथ्वी पर भी पापों की क्षमा के लिए सच्चे और वास्तविक पश्चाताप और समर्पण को ही आधार बनाया गया है (2 कुरिनथियों 7:10), पश्चाताप के बाद ही पाप-क्षमा है (मरकुस 1:15; प्रेरितों 2:38); एक प्रथा के अनुसार या औपचारिकता में पापों की क्षमा माँग लेना न पर्याप्त है और न स्वीकार्य। इसलिए यह अनिवार्य था कि लूसिफर से उसके द्वारा किए गए परमेश्वर के निरादर के पाप का हिसाब लिया जाए और उसे पाप का उचित एवं उपयुक्त दण्ड भोगने का उदाहरण बना कर प्रस्तुत किया जाए। लूसिफर को उचित दण्ड दिया ही जाना था; ऐसा दण्ड जो उसके पाप के घोर और जघन्य होने के अनुपात में कम से कम उतना ही घोर और जघन्य तो हो। यदि परमेश्वर के निरादर का पाप एक के लिए क्षमा होने योग्य नहीं है, तो फिर परमेश्वर के निष्पक्ष न्याय के अनुसार, यह औरों के लिए भी क्षमा नहीं किया जा सकता है। हम पिछले लेख में देख चुके हैं कि इसे परमेश्वर पिता और प्रभु यीशु के विषय क्यों लागू नहीं किया जा सकता है; इसीलिए, पवित्र आत्मा के विरूद्ध निरादर या निन्दा के पाप को भी कभी क्षमा नहीं किया जा सकता है।

बाइबल के अनुसार, प्रभु यीशु मसीह द्वारा कही गई “परमेश्वर पवित्र आत्मा की निन्दा” क्या है?

अब हम देखते हैं की शब्द ‘निंदा या निरादर’ का, उसके क्षमा न हो सकने वाले पाप के सन्दर्भ में, परमेश्वर के वचन में अभिप्राय क्या है। हम मिकल्संस एन्हांस्ड डिक्शनरी ऑफ़ द ग्रीक एंड हीब्र्यु टेस्टामेंट्स (Mickelson’s Enhanced Dictionary of the Greek and Hebrew Testaments) से देखते हैं कि यह शब्द “निन्दा”, यूनानी शब्द “ब्लास्फेमियो” (स्ट्रौंग्स/Strongs G989) से आया है, जिसका अर्थ है:

1. धिक्कारना, अपशब्द के साथ विरोध में बोलना, हानि पहुंचाना।

2. कलंकित करना, किसी की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाना, बदनाम करना।

3. (विशेषतः) किसी के प्रति निरादर पूर्वक बोलना।


इस शब्द की उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि, यह निरादर या निन्दा का पाप एक ऐच्छिक, जानबूझकर योजनानुसार किया गया कार्य है; जो तथ्यों पर आधारित हो सकता है अथवा नहीं भी हो सकता है, वरन जो तथ्यों का दुरुपयोग करके उन तथ्यों के यथार्थ से बिलकुल भिन्न अभिप्राय देने के द्वारा किया गया भी हो सकता है। और साथ ही यह केवल व्यक्ति को नीचा दिखाने और बदनाम करने के उद्देश्य से किया गया होगा – जो करना चाहे सही हो या गलत। सीधे शब्दों में अर्थ यह है कि, किसी का निरादर या निन्दा करना, उस व्यक्ति को दुष्ट कहना और इस बात का प्रचार करना है, यह भली-भांति जानते हुए भी कि वह व्यक्ति बुरा नहीं है; और उसके बुरा न होने के प्रमाण होते और जानते हुए भी, केवल उसे बदनाम करने के उद्देश्य से, जानबूझकर ऐसा करना।


इस विषय के संदर्भ में, यह बहुत ध्यान देने और भली-भांति समझने की बात है कि जैसा कि बाइबल में दिखाया गया है, पवित्र आत्मा के विरुद्ध निरादर या निन्दा का पाप, पवित्र आत्मा या उसकी सामर्थ्य अथवा कार्यों के प्रति असमंजस में होना या अनिश्चित होना, या उस पर संदेह करना, या उसके विषय कोई स्पष्टीकरण की अपेक्षा करना, या उसके विषय कही जा रे=यही बात के लिए वचन से कुछ और अधिक खुलासा अथवा विवरण माँगना, आदि नहीं है। यह इस बात से भली-भांति प्रकट होता है कि यद्यपि प्रभु के कार्य पवित्र आत्मा के अभिषेक और सामर्थ्य के साथ किए गए थे (प्रेरितों 10:38), किन्तु फिर भी अनेकों को, जिन में नए नियम के कुछ बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति भी सम्मिलित हैं, प्रभु पर, तथा पवित्र आत्मा की अगुवाई और सामर्थ्य द्वारा की गई उसकी सेवकाई के प्रति न केवल संदेह था, यहाँ तक कि अविश्वास भी था:

  • यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले को संदेह हुआ की क्या प्रभु वह प्रतिज्ञा किया हुआ मसीहा था भी की नहीं (मत्ती 11:2-3); 

  • प्रभु के शिष्यों को ही उस पर संदेह था की वह वास्तव में है कौन (मरकुस 4:38-41); 

  • प्रभु यीशु के अपने भाई, जिनमें याकूब और यहूदा भी थे जिनकी पत्रियां नए नियम में विद्यमान हैं, आरंभ में वे भी उस पर विश्वास नहीं रखते थे (यूहन्ना 7:5); 

  • दुष्टात्मा के वश में लड़के के पिता को संदेह था कि वह उसके पुत्र को ठीक कर सकता है कि नहीं (मरकुस 9:24); 

  • मृतक लाज़रस की बहिन मारथा को संदेह था, कि प्रभु लाज़रस को मृतकों में से जिलाने पाएगा (यूहन्ना 11:21-28); 

  • थोमा को प्रभु के पुनरुत्थान पर संदेह था (यूहन्ना 20:25) इत्यादि। 


किन्तु इन में से किसी को भी प्रभु ने उनके प्रश्नों, संदेहों, और अविश्वास के कारण कभी भी ‘क्षमा न हो पाने वाले पाप’ का दोषी न तो कहा और न इसके लिए उन्हें दण्डित किया। 


इसके अतिरिक्त: 

  • वचन में यह भी उदाहरण है कि पवित्र आत्मा का प्रतिरोध करने और उसके अनाज्ञाकारी होने की निंदा अवश्य की गई है (प्रेरितों 7:51-53), परन्तु इस भी “कभी क्षमा न होने वाला पाप” नहीं कहा गया है।

  • यहाँ तक कि प्रभु के विरोध में भद्दी या अपमानजनक भाषा के उपयोग को (पतरस द्वारा प्रभु का तीन बार, अन्ततः असभ्य भाषा के प्रयोग के साथ भी किया गया इनकार – मत्ती 26:69-74), भी बाइबल में अनादर या क्षमा न होने वाला पाप नहीं कहा गया है। 

  • हमें यह स्मरण करना और ध्यान करना आवश्यक है कि केवल फरीसी, सदूकी, और शास्त्री ही नहीं थे जिन्होंने प्रभु यीशु में दुष्टात्मा होने का दोषारोपण किया था, आम लोगों में से भी कई लोगों ने यही कहा था (मत्ती 10:25; मरकुस 3:21; यूहन्ना 7:20; 8:48, 52; 10:20); परन्तु इन में से किसी भी अवसर पर प्रभु यीशु ने न तो उन्हें क्षमा न होने वाले पाप का दोषी कहा और न ही उन्हें इसके विषय सचेत किया। 


उपरोक्त वचन के सभी उदाहरणों में, प्रभु के विरुद्ध बोलना परमेश्वर पवित्र आत्मा के विरुद्ध बोलना था जिसके अभिषेक और सामर्थ्य से प्रभु अपनी सेवकाई कर रहा था, जैसा हम प्रेरितों 10:38 से देख चुके हैं। इन उदाहरणों के आधार पर, यह बिलकुल स्पष्ट है कि वचन के अनुसार, जन-साधारण द्वारा प्रभु या पवित्र आत्मा पर संदेह करना, किसी असमंजस के लिए स्पष्टीकरण की लालसा रखना या मांगना, अविश्वास रखना, उनके विषय अनुचित या अभद्र भाषा अथवा व्यवहार का प्रयोग करना, आदि “कभी न क्षमा होने वाला पाप” नहीं हैं, क्योंकि उन लोगों ने ये सभी बातें की हैं, और प्रभु ने कभी उसे उनके द्वारा “कभी न क्षमा होने वाला पाप” किया जाना नहीं कहा है। 


अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसे निरादर या निन्दा को “कभी न क्षमा होने वाला पाप,” प्रभु ने केवल वचन के ज्ञानियों और शिक्षकों, फरीसियों से ही क्यों कहा है (मरकुस 3:28-30 और लूका 12:10)? इसे हम अगले लेख में देखेंगे।

 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित इन गलत शिक्षाओं में न पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यहेजकेल 5-7 

  • इब्रानीयों 12


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English Translation

Understanding The Sin of Blasphemy Against the Holy Spirit (Part-2)


We have been seeing in the previous articles that one of the ways the childlike, immature Christian Believers can be identified is that they can very easily be deceived, beguiled and misled by wrong doctrines and false teachings. Satan and his followers bring in their wrong doctrines and misinterpretations of God’s Word through people who masquerade as apostles, ministers of righteousness, and angels of light (2 Corinthians 11:13-15). These deceptive people and their false messages, their teachings appear to be very attractive, interesting, knowledgeable, even very reverential and righteous; but there is always something or the other that is extra-Biblical or unBiblical mixed into them. These wrong teachings and false doctrines are mainly about three topics, as God the Holy Spirit got it written down through the Apostle Paul in 2 Corinthians 11:4 “For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!” - the Lord Jesus Christ, the Holy Spirit, and the Gospel. In this verse a very important way to identify the false and the correct, discern between them, and escape from being beguiled by Satan is also given - that which is the truth about these three topics has already been given and written in God’s Word. Therefore, by cross-checking every teaching and doctrine from the Bible, the true and the false can be discerned; that which is not already present in God’s Word is false, and their preacher is a preacher of satanic deceptions.


In the previous articles, after seeing some commonly preached and taught false things about the Lord Jesus, we had started to look into the wrong things often taught and preached about the Holy Spirit. About the Holy Spirit, we have seen that every truly Born-Again Christian Believer automatically receives the Holy Spirit from God, at the very moment of his being saved. From that moment onwards, the Holy Spirit comes to reside in him in all His fullness, stays with him forever, never leaves him; and Biblically this is also known as being filled by the Holy Spirit or the baptism with the Holy Spirit. Another very popular and emphatically stated wrong teaching of these preachers and teachers of deceptions is about “speaking in tongues”, their claim that the “tongues’ are super-natural languages, and some other related wrong teachings. Regarding this we have seen that these are also wrong teachings which have no support or affirmation from the Bible. The speaking in “tongues” in Acts 2 were the known and understood languages of the earth and not any super-natural languages. We also seen that quite unlike their claims, “tongues” are not any “prayer language”, and neither is speaking in tongues is proof of receiving the Holy Spirit - the Bible does not offer any affirmation or support to any of these. Rather, the Bible very clearly shows that their emphatic claims about these are patently false and unBiblical. They are nothing more than their concocted notions made up through misuse and misinterpretation of Biblical facts.


To cover up their concocted notions made up through misuse and misinterpretation of Biblical facts, and to prevent people from analyzing their claims and raising questions, they use fear as a tactic. If anyone tries to examine their false notions, they discourage him from doing so by telling them that they are committing the unpardonable sin of the blasphemy of the Holy Spirit, and should back-off, stop doing this, simply accept what has been said, else they will face very serious consequences from God. From the last article we had started looking into the veracity of these claims made by them, and had considered in context of the Holy Trinity, God the Father, God the Son, and God the Holy Spirit, the Triune God, why blasphemy could be considered as unpardonable only against the Holy Spirit, and not against God the Father and the Lord Jesus. Today we will see why Lucifer’s sin was unforgiveable, and will also understand from God’s Word what does the word “blasphemy” mean in context of the Lord Jesus making the statement that these people misuse.


Why was Lucifer’s sin unpardonable, and what are its implications for us today?

If the sin of dishonoring God by men, in the face of His holiness, majesty, and sovereignty had been considered “forgivable” by God, then His high standards of equitable justice would also demand that the archangel Lucifer be also considered for being forgiven his sin of dishonoring God’s holiness, majesty, and sovereignty - and this would have made a mockery of God’s holiness, majesty, and sovereignty. Not only was Lucifer’s sin heinous, but since at the time of his committing the sin, no one had paid the price of anyone’s sin, as the Lord Jesus has paid for us, therefore, there was no atonement and remedy available for sin at that time; the only remedy that could be implemented was that sin be punished, and that is what was done.


Moreover, from the Word of God, we also see that there is no record or mention of either Lucifer, or any of the angels that fell with him, ever repented and asked for God’s forgiveness for what they had done. They have been obstructing and spoiling God’s works since the beginning, have been corrupting and misusing God’s instructions continually. In such a situation, even if they had perfunctorily said “sorry” and such an apology had been accepted, then it would have meant inviting anarchy and chaos in the heavenly realms. Since then, any creature could have done anything they felt like doing and then could have escaped its consequences by perfunctorily saying “sorry” - and this would have given rise to a totally unacceptable situation in heaven.


It is for this reason that even on earth, the basis of forgiveness of sins is only a heartfelt sincere, actual repentance and submission to the Lord (2 Corinthians 7:10), the forgiveness of sins comes only after repentance (Mark 1:15; Acts 2:38); asking forgiveness of sins as a mere formality or a ritual is neither sufficient nor acceptable. Therefore, it was imperative that an account be taken of God’s dishonor committed by Lucifer, and he be made an example of receiving appropriate and just punishment for sin. Lucifer had to receive a just punishment; a punishment which would be proportional to the severity of his heinous sin. If dishonouring God cannot be considered forgivable for one, then by the standards of God’s justice, it cannot be considered forgivable for anyone else either. We have already seen in the last article why this principle cannot be applied to God the Father and the Lord Jesus Christ, but only to God the Holy Spirit. Therefore, the sin of dishonouring, or, blasphemy against the Holy Spirit can never be forgiven.


According to the Bible, what is the “blasphemy of the Holy Spirit” spoken of by the Lord Jesus?

Now we will consider the meaning of the word ‘blasphemy’ or dishonouring, in context of the unforgivable sin, from the Word of God. According to “Mickelson’s Enhanced Dictionary of the Greek and Hebrew Testaments” this word has come from the Greek word ‘blasphemia’ (Strongs G989), which means:

  1. blasphemy, i.e., to speak against in an abusive manner, to cause harm;

  2. evil speaking, i.e., to speak in a derogatory manner to cause harm to one’s honor, to slander someone;

  3. railing, i.e., to speak dishonorably about someone.

    It is evident from the above definition that the sin of speaking dishonorably against, or to blaspheme someone is something done knowingly, willingly, deliberately or intentionally. This can be based on facts, or, not based on facts; it can even be done by misusing and misinterpreting facts to deliberately give them a different meaning. It can even be something done intentionally with the sole purpose of denigrating or defaming someone, whether rightly or wrongly. In simple straightforward words, to blaspheme against someone is to call someone evil, spread this around, well knowing that the person is actually not evil; and although there being no proof of the person being bad, say disrespectful things about him deliberately or intentionally.


We need to be very clear and understand very well, that as shown by the Bible, in context of our topic of discussion, the sin of dishonoring or blasphemy against the Holy Spirit, is not being in any confusion or uncertainty about the power and works of the Holy Spirit, or, having any doubts about Him, or, wanting to have any clarification or explanation about Him, or, asking for some details and verification from God’s Word about what is said about Him - none of these constitutes blasphemy against the Holy Spirit. This is made amply evident from the fact that although the works of the Lord Jesus were done by the anointing and power of the Holy Spirit (Acts 10:38), but still many people, which includes many very important persons of the New Testament, not only had doubts, but even unbelief on the Lord and His ministry being through the guidance and power of the Holy Spirit; as we can see from the following examples:

  • John the Baptist came into doubts whether the Lord was the promised Messiah or not (Matthew 11:2-3);

  • The disciples of the Lord had doubts about who He actually was (Mark 4:38-41);

  • In the beginning, even the brothers of the Lord Jesus, which included James and Jude, whose epistles we have in the New Testament, did not believe in Him (John 7:5);

  • The father of the demon-possessed boy had doubts whether the Lord will be able to cure his son (Mark 9:24);

  • Martha the sister of deceased Lazarus had doubts whether the Lord will be able to raise her brother from the dead (John 11:21-28);

  • Lord’s disciple Thomas doubted on the resurrection of the Lord Jesus (John 20:25); etc.


But none of the above have ever been castigated as guilty of committing the ‘unpardonable sin’, although they had questions, doubts, and unbelief about the Lord and His works, done under the anointing and power of the Holy Spirit; and have never been punished for doing so.


Besides the above:

  • God’s Word shows that although resisting the Holy Spirit and being disobedient to Him have been severely spoken against (Acts 7:51-53), but this has not been called the “unpardonable sin”.

  • Even the use of vulgar language against the Lord Jesus (Peter denied the Lord three times, even using inappropriate language - Matthew 26:69-74) has not been called the “unpardonable sin”.

  • We need to remember and keep in mind that it was not only the Pharisees, Sadducees, and the Scribes who had accused the Lord of having an evil spirit; many amongst the common people had also said the same about Him (Matthew 10:25; Mark 3:21; John 7:20; 8:48, 52; 10:20); but never did the Lord say that they had committed the ‘unpardonable sin’ nor did He admonish and caution them about it.


In all these examples, speaking against the Lord was speaking against the Holy Spirit under whose anointing and with whose power He was working, as we have seen from Acts 10:38. It is evident and clear from these examples that according to God’s Word, the general public having doubts about the Lord and the Holy Spirit, or, being in uncertainty and expecting or asking for some clarification, having unbelief, using inappropriate language about them, etc., none of these has ever been called the ‘unpardonable sin’ by the Lord Jesus in the Bible, although people have been guilty of one or the other of the above against the Lord.


This raises the question that then why did the Lord Jesus call this dishonor and blasphemy committed only by the Pharisees and the others knowledgeable about the Scriptures as the ‘unpardonable sin’ (Mark 3:28-30 and Luke 12:10)? We will see this in the next article.


If you are a Christian Believer, then it is very essential for you to know and learn that you do not get beguiled and misled into wrong teachings and doctrines about the Holy Spirit; neither should you get deceived, nor should anyone else be deceived through you. Take note of the things written in God’s Word, not on things spoken by the people; always cross-check and verify all messages and teachings from the Word of God. If you have already been entangled in wrong teachings, then by cross-checking and verifying them from the Word of God, hold to only that which is the truth, follow it, and reject the rest.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • Ezekiel 8-10 

  • Hebrews 13



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