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भाग लेने के अभिप्राय (2)
पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रभु की मेज़ में भाग लेना कोई रीति नहीं है, जिसमें किसी डिनॉमिनेशन, या समुदाय, या गुट के नियमों और परंपराओं के अनुसार, जैसे अच्छा लगे वैसे भाग लिया जा सकता है। पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 10:16-22 में से देखा है कि परमेश्वर का वचन यह बताता है, और परमेश्वर यह आशा रखता है कि उसके प्रभु भोज में भाग लेने वाले संसार के लोगों से भिन्न जीवन और व्यवहार रखेंगे; उनके लिए यह अनिवार्य है। इस खण्ड से हमने यह भी देखा था कि जो प्रभु की मेज़ में भाग लेते हैं उन पर दो अभिप्रायों - प्रभु के साथ निकट संगति या सहभागिता का जीवन जीना, और भाग लेने वालों के मध्य एकता होना; तथा एक ज़िम्मेदारी, संसार से अलगाव का जीवन जीने का उल्लेख किया गया है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाले प्रभु यीशु मसीह के साथ निकट की संगति और सहभागिता रखने की पुष्टि करते हैं और अपनी इस प्रतिबद्धता को दोहराते हैं।
प्रभु भोज में भाग लेने का दूसरा अभिप्राय, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 10:17 में लिखा है, भाग लेने वालों को एकता में रहना है। यहाँ पर पद 16 में भी एक वचन में ‘कटोरा’ और ‘रोटी’ के प्रयोग के द्वारा इसी बात को कहा गया है, जिसे फिर पद 17 में और स्पष्ट कह दिया गया है। जब हम सुसमाचारों में दिए गए प्रभु यीशु मसीह द्वारा प्रभु भोज की स्थापना के वृतांतों को देखते हैं, तो वहाँ पर भी प्रभु यीशु ने एक ही रोटी ली और शिष्यों को उसी में से खाने के लिए कहा, और एक ही कटोरा लिया और सभी शिष्यों को उसी एक कटोरे में से ही पीने के लिए कहा। प्रभु द्वारा ऐसा करने, एक रोटी और एक ही कटोरे को उपयोग करने के तात्पर्य को यहाँ पद 17 में बताया गया है, “इसलिये, कि एक ही रोटी है सो हम भी जो बहुत हैं, एक देह हैं: क्योंकि हम सब उसी एक रोटी में भागी होते हैं।” एक रोटी प्रभु यीशु की एक देह का प्रतीक है, उस एक रोटी में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाले अपनी एकता को प्रकट करते हैं, उनके प्रभु यीशु के द्वारा एक कर दिए जाने को दिखाते हैं, कि अब वे प्रभु यीशु की एक देह हैं। इसी बात को पद 18 में एक और उद्धरण से समझाया गया है, पुराने नियम की उपासना के उदाहरण के द्वारा। जो वेदी पर चढ़ाए गए बलिदानों में से खाते थे, ऐसा करने से वे न केवल वेदी के साथ, वरन, परस्पर भी एक हो जाते थे - यहाँ पर प्रयुक्त एकवचन “इस्राएली” पर ध्यान करें, यहाँ बहुवचन “इस्राएलियों”, या “यहूदियों”, या अन्य कोई बहुवचन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।
नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी मसीह की देह और दुल्हन हैं (इफिसियों 5:23-27) न कि ‘कई देह और कई दुल्हनें’। यहूदियों के लिए तो यह कल्पना से भी बाहर था कि वे अन्य-जातियों के साथ कोई संपर्क रखें (प्रेरितों 10:28), उनके साथ एक होकर रहने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। लेकिन इफिसियों 2:11-22 में पौलुस, पवित्र आत्मा के द्वारा इसी बात को समझाता है, ज़ोर देता है, और बाध्य करता है कि प्रभु यीशु मसीह में होकर यहूदी और अन्य-जाति एक हो गए हैं इसलिए उस एकता को जीकर भी दिखाएं। प्रभु यीशु की कलीसिया का आरंभ इसी एकता के साथ हुआ था (प्रेरितों 2:44-47)। पौलुस इस 1 कुरिन्थियों की पत्री का आरंभ कोरिन्थ की कलीसिया के सदस्यों से अपनी विभाजित करने वाले प्रवृत्ति को छोड़कर एक होकर रहने के आग्रह के साथ करता है (1 कुरिन्थियों 1:10-13); और फिर प्रभु भोज से संबंधित उनकी गलतियों को सुधारने तथा गलतफहमियों को ठीक करने के खण्ड, 1 कुरिन्थियों 11:17-34 की चर्चा का आरंभ भी इस एकता को बनाए रखने की बात पर फिर से बल देने के द्वारा करता है (11:17-19)। नए नियम में, मसीही विश्वासियों की इस एकता पर हमेशा ही बहुत बल दिया गया है, और इसे सर्वाधिक महत्व की बात दिखाया गया है, क्योंकि इसी में कलीसिया की सामर्थ्य, शक्ति, और योग्यता है (मत्ती 18:19-20)। इसीलिए शैतान हमेशा ही, किसी न किसी रीति से, एकता को भंग करने के प्रयास करता है। किन्तु प्रभु यीशु मसीह ने प्रभु भोज के द्वारा, मसीही विश्वासियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वे मिल जुलकर एकता में रहें। बजाए इसके कि एक दूसरे से अलग होकर और पृथक गुट बनाकर रहें, परस्पर खड़ी हुई दीवारों को बना कर रखें, व्यर्थ की अहं की बातों के द्वारा शैतान को विभाजित करने के अवसर दें, प्रभु यीशु मसीह के विश्वासी होने के नाते यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इस एकता के लिए प्रयास करें और उसे बना कर रखें; क्योंकि अन्ततः एक दिन हम इसके लिए प्रभु को जवाबदेह भी होंगे, नहीं बनाए रखने का उत्तर भी देना होगा। आज कलीसिया में मेल करवाने वालों (मत्ती 5:9) की बहुत आवश्यकता है, जिससे कि वह शैतान की युक्तियों के सामने स्थिर खड़ी रह सके, और शैतानी शक्तियों पर जयवंत जीवन को दिखा सके।
जैसे कि प्रभु भोज में भाग लेने वाले इस अभिप्राय की पुष्टि करते हैं और उसे दोहराते हैं कि वे प्रभु यीशु के साथ निकट संगति और सहभागिता में रहते हैं; उसी प्रकार से, प्रभु भोज में भाग लेते समय वे इस बात की भी पुष्टि करते हैं और उसे दोहराते हैं कि वे प्रभु की देह - उसकी कलीसिया के अन्य सदस्यों के साथ एकता में भी रहते हैं। इन अंत के दिनों में, हमारे विश्वास में स्थिर खड़े रहने तथा अपनी गवाही के प्रति सच्चे और खरे होने के लिए यह एकता बहुत आवश्यक है, अनिवार्य है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
निर्गमन 14-15
मत्ती 17
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Implications of Participation (2)
In the previous articles we have seen that participating in the Lord’s Table is not a ritual that can be indulged in according to rules or traditions of any denomination, sect, or group. In the last article, from 1 Corinthians 10:16-22 we have seen that God’s Word prescribes, and God expects that the participants in His Holy Communion will live a life and behave differently than the people of the world; doing this is incumbent upon them. From this passage we had seen that for those who partake of the Lord’s Table, two implications – living a life of communion or fellowship with the Lord, and unity amongst the participants; and one responsibility of living a life of separation from the world, are stated here. We had then seen further that through participation in the Holy Communion, the participants affirm and renew their commitment of being, and living in close fellowship with the Lord Jesus.
The second implication of participating in the Lord’s Holy Communion is that the participants have to live in unity, as it says in 1 Corinthians 10:17. In verse 16 too, through the use of singular ‘cup’ and singular ‘bread’, the same thing was shown, and is stated more clearly in verse 17. When we study the institution of the Lord’s Table by the Lord Jesus as given in the Gospel accounts, there too, the Lord took one bread and gave it to His disciples, for all of them to eat from that one bread; and similarly, He took one cup, and asked the disciples to drink from that one cup. The Lord’s implication of doing this, of using one bread and one cup, is stated in verse 17 here, “For we, though many, are one bread and one body; for we all partake of that one bread.” The one bread represents the one body of the Lord Jesus, by partaking in that one bread, the partakers denote their unity, their being joined together through the Lord Jesus, now as one body of the Lord Himself. This is then further exemplified in verse 18 through the use of an Old Testament act of worship. Those who ate of the sacrifices made on the altar, were thereby united not only with the altar, but even amongst themselves - note the use of singular Israel at the beginning of this verse, instead of using a term like “the Israelites”, or “the Jews”, or some other plural expression.
The Born-Again Christian Believers are said to be the body and bride of Christ (Ephesians 5:23-27) and not ‘bodies and brides.’ It was unimaginable for the Jews to even communicate with the Gentiles (Acts 10:28), let alone ever be united with them. But in Ephesians 2:11-22, Paul, through the Holy Spirit explains, emphasizes, and exhorts for this very unity between the Jewish and Gentile Believers, effected through the Lord Jesus. The Church started off with this understanding of unity (Acts 2:44-47). Paul, in this letter of 1 Corinthians, starts of by exhorting the Corinthian Church members to stop their divisive tendencies and remain united (1 Corinthians 1:10-13); and then in the section on correcting their errors and misunderstandings about the holy Communion (1 Corinthians 11:17-34), he starts off the discourse by re-emphasizing maintaining this unity (11:17-19). In the New Testament, this unity of the Christian Believers has always been strongly emphasized upon, and considered to be of paramount importance, because in this unity is the strength, power, and capability of the Church (Matthew 18:19-20). Therefore, Satan always tries to disrupt this unity, one way or another. But the Lord Jesus, through the Holy Communion has made it imperative for the Believers to live in unity. Instead of looking for ways and excuses of separating and segregating ourselves from each other, of keeping intact our mutual barriers, of letting Satan divide us through petty ego issues, as Believers in the Lord Jesus, it is our responsibility, that we strive for and maintain this unity; for eventually we will be accountable to the Lord for not maintaining it. The Church today is sorely in need of the peacemakers (Matthew 5:9), so it can stand up to the wiles of the devil and demonstrate a life victorious over the satanic forces.
Just as the participants affirm and renew their commitment to being in close fellowship with the Lord and living accordingly; similarly, while participating in the Holy Communion they also affirm and renew their commitment of living in unity with the other members of the body of Christ - His Church. It is the urgent need of the hour that we be true to this commitment, to be able to stand firm in our Faith and true to our witness in these end times.
If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Exodus 14-15
Matthew 17
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