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गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

परमेश्वर का वचन – बाइबल / Bible – The Word of God – 2

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रूपरेखा

शब्द बाइबल यूनानी भाषा के शब्द ‘ता बिबलिआ’ (ta biblia) से आया है। बिबलिआ शब्द का अर्थ होता है “पुस्तकें”। बाइबल अपने मूल स्वरूप में 66 पुस्तकों का संकलन है। ये 66 पुस्तकें, अलग-अलग समयों में, अलग-अलग लेखकों द्वारा, भिन्न स्थानों, भिन्न भाषाओं, और भिन्न परिस्थितियों में लिखी गईं; किन्तु संकलित हो जाने के बाद, ये अब आरंभ से लेकर अंत तक एक पुस्तक हैं। बाइबल की पुस्तकों को मुख्यतः दो भागों में रखा गया है – पुराना नियम (39 पुस्तकें) तथा नया नियम (27 पुस्तकें)। पुराने नियम का आरंभ उत्पत्ति की पुस्तक से, परमेश्वर द्वारा जगत की सृष्टि, मनुष्य की सृष्टि, मनुष्य के पाप में गिरने के वर्णन, और मनुष्यों को पाप से छुड़ाने के लिए आने वाले उद्धारकर्ता की प्रतिज्ञा के साथ होता है। और नए नियम की अंतिम पुस्तक, प्रकाशितवाक्य, जगत के अंत और समस्त संसार के न्याय की भविष्यवाणी की पुस्तक है, जो संसार के सभी लोगों के द्वारा परमेश्वर को अपने जीवनों का हिसाब देने, और उनका दंड अथवा प्रतिफल पाने, पाप तथा मृत्यु से मुक्त नई सृष्टि और परमेश्वर के अनन्तकालीन राज्य के बारे में बताती है। इस प्रकार, बाइबल वर्तमान जगत के आरंभ से लेकर इस जगत के अंत तक का विवरण देती है; और फिर परमेश्वर के साथ आशीषपूर्ण अनन्त काल के आरंभ की प्रतिज्ञा तथा उस अनन्त काल की एक झलक के साथ समाप्त होती है।

       पुराना नियम प्रभु यीशु मसीह के जन्म से पहले लिखी गई 39 पुस्तकों का, जो परमेश्वर द्वारा यहूदियों को दिया गया परमेश्वर का वचन भी हैं, संकलन है। सम्पूर्ण पुराने नियम के सभी वृतांतों का मूल विषय, जगत का आने वाले उद्धारकर्ता, प्रभु यीशु मसीह है। पुराने नियम की सभी पुस्तकें प्रभु यीशु मसीह के बारे में आलंकारिक अथवा सांकेतिक रीति से, या भविष्यवाणियों के द्वारा बताती हैं। इन पुस्तकों में प्रभु यीशु मसीह की विभिन्न बातों को, उन से संबंधित भविष्यवाणियों को, उनके गुणों, उनके कार्यों, सारे जगत के सभी लोगों के उद्धार के लिए उनके बलिदान और मृतकों में से पुनरुत्थान को, पहले से ही बता कर लिख दिया गया है: “तब मैं ने कहा, देख, मैं आ गया हूं, (पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है) ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूं” (इब्रानियों 10:7)। 

       इसीलिए प्रभु यीशु मसीह ने उनके मारे जाने, गाड़े जाने और फिर मृतकों में से जी उठने के बाद की घटनाओं के कारण असमंजस और अविश्वास में डांवांडोल हो रहे अपने शिष्यों से कहा, “तब उसने उन से कहा; हे निर्बुद्धियों, और भविष्यद्वक्ताओं की सब बातों पर विश्वास करने में मन्‍दमतियों! क्या अवश्य न था, कि मसीह ये दुख उठा कर अपनी महिमा में प्रवेश करे? तब उसने मूसा से और सब भविष्यद्वक्ताओं से आरम्भ कर के सारे पवित्र शास्त्रों में से, अपने विषय में की बातों का अर्थ, उन्हें समझा दिया” (लूका 24:25-27); तथा “फिर उसने उन से कहा, ये मेरी वे बातें हैं, जो मैं ने तुम्हारे साथ रहते हुए, तुम से कही थीं, कि अवश्य है, कि जितनी बातें मूसा की व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं और भजनों की पुस्तकों में, मेरे विषय में लिखी हैं, सब पूरी हों। तब उसने पवित्र शास्त्र बूझने के लिये उन की समझ खोल दी। और उन से कहा, यों लिखा है; कि मसीह दु:ख उठाएगा, और तीसरे दिन मरे हुओं में से जी उठेगा। और यरूशलेम से ले कर सब जातियों में मन फिराव का और पापों की क्षमा का प्रचार, उसी के नाम से किया जाएगा” (लूका 24:44-47)।

       नया नियम प्रभु यीशु मसीह के जन्म के वर्णन के साथ आरंभ होता है। नए नियम की आरंभिक 4 पुस्तकें प्रभु यीशु मसीह की जीवनी हैं, और अंतिम पुस्तक इस वर्तमान जगत के अंत और न्याय की भविष्यवाणी की पुस्तक, प्रकाशितवाक्य है। इनके मध्य प्रभु यीशु मसीह के अनुयायियों की मंडली बनने, संसार भर में फैलाने, और उससे संबंधित मसीही विश्वास की शिक्षाएं हैं।

       पुराने नियम की अंतिम पुस्तक “मलाकी” है; और नए नियम की प्रथम पुस्तक “मत्ती रचित सुसमाचार” है। मलाकी और मत्ती के मध्य 400 वर्ष का अंतराल है जिसमें परमेश्वर ने कोई प्रकाशन नहीं दिया, कोई बात नहीं लिखवाई। अर्थात, प्रभु यीशु मसीह से संबंधित पुराने नियम की हर शिक्षा और भविष्यवाणी, उनके जन्म से भी कम से कम 400 वर्ष या उससे अधिक पहले की है!

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

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English Translation

Outline

The word Bible comes from the Greek word 'ta biblia'. The word Biblia means "books". The Bible in its original form is a compilation of 66 books. These 66 books were written at different times, by different authors, in different places, in different languages, and in different circumstances; But having been compiled, it is now a single book from beginning to end. The books of the Bible are mainly divided into two parts - the Old Testament (39 books) and the New Testament (27 books). The Old Testament begins with the book of Genesis, with a description of God's creation of the world, the creation of man, man's fall into sin, and the promise of a Savior to come to redeem man from sin. And the last book of the New Testament, Revelation, is the book of prophecy of the end of the world and the judgment of the world. Revelation is the book which shows that all people of the world will have to give an account of their lives to God, and will accordingly have to receive their punishment or reward; finally it also shows the end of sin and death and the new creation and the eternal kingdom of God. Thus, the Bible gives details from the beginning of the present creation to the end of this creation; And it culminates with the promise of the beginning of the blessed eternity with God and then ends with a glimpse of that eternity.


The Old Testament is a compilation of 39 books written before the birth of the Lord Jesus Christ, which also constitute the Word of God given by God to the Jews. The central theme of all accounts throughout the Old Testament is, the prophesied Savior of the world, the Lord Jesus Christ. All the books of the Old Testament tell of the Lord Jesus Christ in a figurative way, or through prophecies. In these books, various aspects of the Lord Jesus Christ, prophecies related to Him, His attributes, His works, His sacrifice for the salvation of all the people of the whole world and the resurrection from the dead, have been written in advance. : "Then I said, 'Behold, I have come-- In the volume of the book it is written of Me-- To do Your will, O God.'" (Hebrews 10:7).


That is why the Lord Jesus Christ said to His disciples, who were in confusion and disbelief about the events related to His death, burial, and resurrection from the dead, “Then He said to them, "O foolish ones, and slow of heart to believe in all that the prophets have spoken! Ought not the Christ to have suffered these things and to enter into His glory?" And beginning at Moses and all the Prophets, He expounded to them in all the Scriptures the things concerning Himself" (Luke 24:25-27); And "Then He said to them, "These are the words which I spoke to you while I was still with you, that all things must be fulfilled which were written in the Law of Moses and the Prophets and the Psalms concerning Me." And He opened their understanding, that they might comprehend the Scriptures. Then He said to them, "Thus it is written, and thus it was necessary for the Christ to suffer and to rise from the dead the third day, and that repentance and remission of sins should be preached in His name to all nations, beginning at Jerusalem” (Luke 24:44-47).


The New Testament begins with a description of the birth of the Lord Jesus Christ. The first 4 books of the New Testament are a biography of the Lord Jesus Christ, and the final book is the book of Revelation, the prophecy of the end of this present world and judgment of the world. In between, are the books telling about the beginnings of the assemblies of the Believers and followers of the Lord Jesus Christ, their spreading all over the world, and the Christian teachings related to the Christian Believers and assemblies.


"Malachi" is the last book of the Old Testament; And the first book of the New Testament is the "Gospel of Matthew." There is a gap of 400 years between Malachi and Matthew in which God did not give any revelation, did not write anything. That is, every Old Testament teaching and prophecy related to the Lord Jesus Christ dates back to at least 400 years or more before His birth!


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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