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पवित्र आत्मा की निन्दा को कभी न क्षमा होने वाला पाप क्यों कहा गया है? - 1
कभी न क्षमा होने वाला पाप – “पवित्र आत्मा की निन्दा या निरादर” को लेकर बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ हैं, जिसके कारण इस अभिव्यक्ति का दुरुपयोग भी किया जाता है। यह निंदनीय है कि बहुत से प्रचारक तथा शिक्षक, मसीही विश्वासियों के मनों में अनुचित भय जागृत करने के लिए इस धारणा का दुरुपयोग करते हैं, जिससे कोई उनसे, उनके कार्यों और शिक्षाओं के लिए प्रश्न न कर सके। ऐसा करके ये लोग, प्रश्न करने वालों पर “पवित्र आत्मा का निरादर” करने का भय एवं आरोप लगाने के द्वारा, उनकी बहुत सी गलत सैद्धांतिक एवं विश्वास संबंधी शिक्षाओं, तथा उनके जीवन में पाए जाने वाले अनुचित व्यवहार के प्रति लोगों के मुंह बंद करते हैं। यह समझने के लिए कि यह “निरादर” वास्तव में है क्या, और यह क्यों केवल पवित्र आत्मा के विरुद्ध ही क्षमा नहीं हो सकता है, हमें परमेश्वर के वचन में से कुछ तथ्यों एवं शिक्षाओं को देखना होगा।
सर्वप्रथम, यह केवल पवित्र आत्मा के विरुद्ध ही क्यों कहा गया है?
परमेश्वर का वचन बाइबल हमारे प्रभु परमेश्वर को त्रिएक परमेश्वर दिखाती है, परमेश्वर पिता, परमेश्वर पुत्र – प्रभु यीशु मसीह, और परमेश्वर पवित्र आत्मा। ये तीनों हर प्रकार से और हर बात में पूर्णतः एक और सामान हैं, इन तीनों में कोई भी, किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है – पवित्र त्रिएक परमेश्वर – एक परमेश्वर तीन व्यक्तित्वों में। तो फिर ऐसा क्यों है की केवल “पवित्र आत्मा के निरादर” के लिए ही इतने कठोर परिणाम दिए गए हैं, और इन ही परिणामों का न तो कोई संकेत और न ही कोई दावा परमेश्वर पिता, या परमेश्वर पुत्र – प्रभु यीशु के विरुद्ध किए गए निरादर के लिए कहा गया है?
इसे समझने के लिए त्रिएक परमेश्वर के तीन व्यक्तित्वों के संबंध में कुछ बारीकियों को देखना होगा।
परमेश्वर पुत्र – प्रभु यीशु मसीह, जब पृथ्वी पर हमारे उद्धारकर्ता बन कर आए, तो वे अपनी स्वर्गीय महिमा, वैभव, स्वरूप, और स्थान को छोड़कर आए थे। बाइबल बताती है कि मानव स्वरूप में उन्होंने अपने आप को स्वर्गीय महिमा से शून्य कर लिया और वे स्वर्गदूतों से थोड़ा कम किए गए थे (फिलिप्पियों 2:5-8; इब्रानियों 2:9)। इस मानवीय स्वरूप में, वे संसार के पाप उठाने और संसार के छुटकारे के लिए बलिदान होने के लिए आए थे। इसके लिए उनका, तुच्छ समझा जाना, उनके विरुद्ध बोला जाना, उनका दुःख और ताड़ना सहना, और संसार के लोगों से तिरिस्कृत एवं निरादर होना, पूर्वनिर्धारित था (यशायाह 53)। उन्हें भी वही सब अनुभव करना और सहना था जिसमें होकर संसार के लोग निकलते हैं; उन्हें किसी भी अन्य मनुष्य के सामान जीवन जीना था (इब्रानियों 4:15; 5:7-8), और अंततः क्रूस की श्रापित मृत्यु सहन करनी थी। उनके इस मानवीय स्वरूप और अस्तित्व के सन्दर्भ में, मृत्यु सहने के लिए स्वर्गदूतों से कुछ कम किए जाने से, उनका यह मानवीय स्वरूप उनके त्रिएक परमेश्वरीय स्वरूप से कुछ “कम” था। इसलिए उनके मानवीय स्वरूप की निंदा या निरादर का दोष, जिसे उन्हें सहना ही था, परमेश्वर पवित्र आत्मा के निरादर से कुछ कम और भिन्न होता। क्योंकि हमारे प्रभु को हमारे उद्धार का मार्ग प्रदान करने की अपनी सेवकाई के दौरान अपमान और तिरिस्कार सहना निर्धारित किया गया था, इसलिए उनके (अर्थात उनके मानव स्वरूप के) विरुद्ध कही गई, या कही जाने वाली निंदनीय बातों को क्षमा न हो सकने वाल पाप कहना उनके पृथ्वी पर आने के उद्देश्य को ही विफल कर देता, और संसार को छुटकारे के स्थान पर नाश में भेज देता। इसलिए परमेश्वर पुत्र की निंदा को क्षमा न हो सकने वाला पाप नहीं कहा जा सकता था।
परमेश्वर पिता के संदर्भ में, शब्द “परमेश्वर” और “पिता” सभी संस्कृतियों और धर्मों में सामान्यतः प्रयोग किए जाने वाले शब्द हैं, जिन्हें नास्तिक और धर्म को न मानने वाले भी प्रयोग करते रहते हैं; बहुधा सौगंध खाने और अपशब्दों के साथ भी, जैसे कि, “अरे मेरे परमेश्वर/या ख़ुदा” “परमेश्वर नाश करे,” “परमेश्वर के श्रापित,” “परमेश्वर की सौगंध” आदि। किसी व्यक्ति द्वारा इन शब्दों का प्रयोग करने का यह अर्थ नहीं है कि वह इन्हें पवित्र त्रिएक परमेश्वरत्व में से पिता परमेश्वर के लिए प्रयोग कर रहा है। इसी प्रकार से शब्द “पिता” भी संसार भर में अनेकों अभिप्रायों के साथ प्रयोग किया जाता है, और इसे भी बहुधा अपशब्दों और सौगंध लेने में भी प्रयोग किया जाता है। इसलिए शब्द “पिता” तथा शब्द “परमेश्वर”, जो कि किसी भी मत अथवा धर्म में किसी आराध्य के लिए प्रयोग हो सकता है, का किसी भी प्रकार से दुरुपयोग, यदि उसे परमेश्वर के निरादर की परिभाषा से पृथक नहीं रखा जाता, तो स्वतः ही शब्दों का इस प्रकार से प्रयोग करने वाला व्यक्ति, तुरंत ही सदा काल के लिए दोषी ठहराया जाता, और उसके पास फिर कभी उद्धार पाने का कोई अवसर नहीं रहता। इसलिए ये दोनों शब्द “पिता” एवं “परमेश्वर” का दुरुपयोग कभी क्षमा न हो सकने वाले पापों में सम्मिलित नहीं किए जा सकता था।
अब पवित्र त्रिएक परमेश्वरत्व में केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा ही शेष रहा। यहां पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बात यह है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा का विचार केवल मसीही और यहूदी धर्म-विचारधारा में ही पाया जाता है; संसार के अन्य किसी भी धर्म या विश्वास में यह विद्यमान नहीं है। क्योंकि पवित्र आत्मा के बारे में पुराने नियम के समय में भी लोगों को भली-भांति पता था (उदाहरण के लिए, उत्पत्ति 1:2; भजन 104:30; 139:7 आदि) – जो कि वह पवित्र शास्त्र है जिसे फरीसी, सदूकी, और शास्त्री पढ़ा करते थे, इसलिए वे किसी भी प्रकार से उनके विषय अनभिज्ञ होने का दावा नहीं कर सकते थे, और न ही उनके त्रिएक परमेश्वर का भाग होने से अनजान होने का कह सकते थे। इसलिए, परमेश्वर पिता तथा परमेश्वर पुत्र के विषय में उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए, मूलतः, पवित्र आत्मा के विरुद्ध कही गई निरादर की कोई बात ही एकमात्र सच्चे परमेश्वर की निंदा मानी जा सकती है। पवित्र परमेश्वर के विरुद्ध बात करना वही पाप है जिसके कारण लूसिफर गिराया गया (यशायाह 14:12-14; यहेजकेल 28:12-15), और शैतान बन गया – सदा काल के लिए परमेश्वर और उससे संबंधित किसी बात का विरोधी। लूसिफर ने परमेश्वर की महिमा और महानता के विरुद्ध बलवा किया और बातें करीं, परमेश्वर को उसके समस्त महिमा, वैभव, महानता, अधिकार और सामर्थ्य में भली-भाँति जानने के बावजूद; जानकारी रखते हुए भी जानबूझकर किया गया यह विद्रोह लूसिफर के लिए क्षमा न होने वाला पाप बन गया, और उसे शैतान बना दिया, तथा उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया।
परमेश्वर की पवित्रता, वैभव, और महानता के विरुद्ध किए गए निरादर के इस पाप को यदि हमारे लिए क्षमा योग्य बना दिया जाता, तो फिर परमेश्वर के उच्च तथा निष्पक्ष न्याय की मांग होगी की लूसिफर को भी क्षमा मिलनी चाहिए – और यह परमेश्वर की पवित्रता, वैभव, महानता, और पूर्ण सार्वभौमिकता का उपहास हो जाएगा। लूसिफर का पाप न केवल अत्यंत जघन्य था, वरन क्योंकि उसके पतन के समय, किसी ने भी किसी के पाप की कोई कीमत नहीं चुकाई थी, जैसे कि मसीह यीशु ने हमारे लिए चुका दी है, इसलिए पाप के लिए कोई प्रायश्चित का समाधान उपलब्ध भी नहीं था; इसका निवारण दंड के द्वारा ही संभव था। ऐसी परिस्थिति में, मात्र क्षमा की प्रार्थना का स्वीकार किए जाने का अर्थ होता स्वर्गीय स्थानों में अनियंत्रित अव्यवस्था एवं अराजकता को निमंत्रण देना। कोई भी सृजा गया प्राणी अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर लेता और, बस क्षमा मांग कर उसके परिणामों से बच निकालता – और यह कदापि स्वीकार नहीं की जा सकने वाली स्थिति हो जाती। इसलिए यह अनिवार्य था कि लूसिफर से उसके द्वारा किए गए इस निरादर के पाप का हिसाब लिया जाए और उसे पाप का दण्ड भोगने का उदाहरण बना कर प्रस्तुत किया जाए। लूसिफर को उचित दण्ड दिया ही जाना था; ऐसा दण्ड जो उसके पाप के घोर और जघन्य होने के अनुपात में हो। यदि परमेश्वर के निरादर का पाप एक के लिए क्षमा होने योग्य नहीं है, तो फिर परमेश्वर के निष्पक्ष न्याय के अनुसार, यह औरों के लिए भी क्षमा नहीं किया जा सकता है। इसीलिए, पवित्र आत्मा के विरूद्ध निरादर के पाप को भी कभी क्षमा नहीं किया जा सकता है।
- क्रमशः
अगला लेख, भाग - 2 "निन्दा" या "निरादर" शब्द को समझना
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Blasphemy Against the Holy Spirit –The Unforgivable Sin; Why? - 1
There are a lot of misunderstandings and consequent misapplications about the concept of the “Unforgivable sin – Blasphemy against the Holy Spirit”. It is deplorable that many preachers and teachers exploit this concept to irrationally create a fear in the hearts of Christian Believers, so as to keep the Believers from questioning them or their ways and teachings. Thereby these people get away with many wrong doctrines, improper theology, and questionable behavior in their lives by invoking and taking shelter under alleging “blasphemy against the Holy Spirit” to frighten and silence those asking questions or seeking clarifications. To understand what such ‘blasphemy’ actually is, and why is it unforgivable only against the Holy Spirit, we need to look into some facts and concepts from the Word of God.
Firstly, why only against the Holy Spirit?
God’s Word, the Bible presents the Lord our God as a Triune God, the Holy Trinity – God the Father, God the Son – the Lord Jesus Christ, and God the Holy Spirit. They are absolutely one and co-equal in all aspects, with no difference whatsoever of any sort amongst them – the Triune God, the Holy Trinity – God manifesting as three in one and one in three. So then, why is it that only the “blasphemy against the Holy Spirit” has been ascribed such severe consequences, whereas the same has not been stated or implied for blasphemy against either God the Father, or against God the Son – the Lord Jesus?
To understand this we need to look at some ‘finer points’ related to the three persons in the Godhead.
God the Son – the Lord Jesus Christ, when He came down to the earth as our Savior, He left His heavenly Glory, Majesty, Form, and Stature. The Bible tells us that in this His human form He emptied Himself of His heavenly glory and was made lesser than the angels (Philippians 2:5-8; Hebrews 2:9). In this human form, He had come down to bear the sin of the world and be sacrificed for the redemption of the world. For him to accomplish this, He was destined to be despised, to be spoken against, to suffer grief and chastisement, and to face rejection and dishonor from the people of the world (Isaiah 53). He too had to experience and endure all that people of the earth have to go through; He had to live like any other human being (Hebrews 4:15; 5:7-8), and eventually suffer the ignoble death on the cross. In this context of His human form and existence, having been made lesser than the angels to suffer death, His human form was in a manner of saying ‘lesser’ than His Godly form as part of the Triune God. Therefore the offence of any blasphemy or dishonor of His human form, which He was destined to suffer anyways, would be different from and of somewhat lesser magnitude than the dishonor of God the Holy Spirit. Since the Lord Jesus was destined to suffer ignominy and rejection as part of His ministry to secure our redemption, therefore declaring things that were, or will be said against Him in a derogatory manner (i.e. against His human form), as an unforgivable sin would defeat the very purpose for which He had come, and end up sending the world into condemnation, rather than redemption. Hence dishonor of God the Son could not be declared an unforgivable sin.
In context of God the Father, the terms ‘God’ and ‘Father’ are also quite commonly and generally used terms in all cultures and religions, and even atheists and non-religious people use them as expressions for swearing, e.g. in phrases like “good god,” “god damn it,” “god forsaken,” “swear by god” etc. Their use by a person does not necessarily mean that he is using them against ‘God the Father’ of the Holy Trinity. Similarly, the word “father” too is used worldwide in many ways, and is often also used in abusive or swearing expressions. Therefore any derogatory or vulgar usage associated with the words ‘god’ i.e. an object of veneration of any faith or religion, and of the word ‘father’, had it not been excluded from being the ‘unforgivable sin of blasphemy’ clause, would have automatically condemned the person forever and taken away any chance of his salvation, ever. So these two terms ‘God’ and ‘Father’ too could not be associated with the ‘unforgivable sin.’
That leaves only God the Holy Spirit, amongst the persons of the Holy Trinity. A very important consideration here is the fact that the concept of the Holy Spirit of God is unique to Judaism and Christianity; it is not found in any other religion or faith anywhere in the world. Since the Holy Spirit was well known to even the people of the Old Testament (e.g. Genesis 1:2; Psalm 104:30; 139:7 etc.) – the Scriptures that the Pharisees, Sadducees, and the Scribes studied, therefore they could in no way claim to be ignorant of Him, and His status as part of the Triune God. So, essentially, keeping in mind the above stated concepts about God the Father and God the Son, anything blasphemous against the Holy Spirit is the only blasphemy that can actually be said to be against the one true God. To speak against the Holy God is the same sin that caused the fall of Lucifer (Isaiah 14:12-14; Ezekiel 28:12-15), and made him into Satan – forever the opponent of God and anything to do with God. Lucifer had rebelled and spoken against the glory and majesty of God, despite well knowing God in all His glory, majesty, stature, dominion and power; this knowledgeable and deliberate act of rebellion became the unforgivable sin against Lucifer, turned him into Satan, and he was thrown out of heaven.
If this sin of blasphemy against the holiness, majesty, and stature of God were to be condoned, or made ‘forgivable’ for us, then the irreproachable and absolutely impartial justice of God would demand that Lucifer too be forgiven – thereby making a mockery of the holiness, majesty, stature, and absolute sovereignty of God. Not only was Lucifer’s sin of incalculable severity, but also since at the time of his fall, no one had paid the price for anyone’s sin, as Christ Jesus has now paid for ours, therefore there was no atoning remedy available for sin either; it had to be dealt with by being punished. In such a situation, the mere acceptance of an apology would have resulted in unbridled chaos and anarchy in the heavenly realms. Since then, any created being could have done whatever it pleased, and got away with it by simply offering an apology – an absolutely unacceptable situation. Hence Lucifer had to be made an example and be held to account for his sin of blasphemy against God. Lucifer had to be prescribed the due penalty; a penalty proportionate in severity to the magnitude and heinous nature of his sin. If blasphemy against God is ‘unforgivable’ for one sinner, then as per the nature of God’s equitable justice, it will remain unforgivable for everyone else. Hence, blasphemy against the Holy Spirit is called the unforgivable sin.
- To Be Continued:
Next Article, Part - 2 Understanding the word "Blasphemy"
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