व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 10
क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 8)
पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य अपनी शक्ति और बुद्धि से शैतान का सफलतापूर्वक सामना कर पाने में पूर्णतः असमर्थ है, चाहे वह स्वाभाविक और अपरिवर्तित दशा में हो अथवा उद्धार पाया हुआ हो। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर की सहायता और आज्ञाकारिता में रहते हुए तो शैतान का सामना कर सकता है, और उसकी युक्तियों पर जयवंत हो सकता है। किन्तु जैसे ही वह अपनी किसी भी बात या अनाज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं से ज़रा सा भी बाहर आता है, तो शैतान उसे डस लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप में फँसा लेता है। परमेश्वर की व्यवस्था के उसके पास होते हुए भी, मनुष्य क्यों उसका पालन करने में, और शैतान का सामना करने में असमर्थ है, इसके तथा अन्य संबंधित बातों के कारणों का विश्लेषण करते हुए हमने तीन बातों को देखना आरंभ किया था।
इन बातों पर परमेश्वर के वचन बाइबल में से विचार करने इनके जो निष्कर्ष हमारे सामने आए, वे हैं :
(i) परमेश्वर की बात, उसका वचन, उसके द्वारा दिए गए अधिकार और वरदान अपरिवर्तनीय हैं, अटल हैं, और वह उन्हें वापस नहीं लेता है।
(ii) अपनी रचना में ही मनुष्य स्वर्गदूतों से कम सामर्थी है।
(iii) सृष्टि के वरीयता क्रम में मनुष्य स्वाभाविक रीति से स्वर्गदूतों से निचले क्रम का है। उद्धार पाने के बाद, उसका यह क्रम, आज्ञाकारी स्वर्गदूतों के संदर्भ में बदल दिया जाता है, और वह स्वर्गदूतों से उच्च स्तर का बना दिया जाता है। किन्तु शैतान और उसके दूत, दुष्टात्माएं इसका पालन नहीं करते हैं और मनुष्य पर हावी रहकर उसे गिराने के प्रयास में लगे रहते हैं।
आज हम इन निष्कर्षों को अन्य बातों के साथ मिलाकर इनके व्यावहारिक अर्थ और अभिप्राय को देखना आरंभ करेंगे। परमेश्वर का वचन हमें बताता है कि पाप के कारण स्वर्ग से गिराए तथा निकाले जाने और शैतान बन जाने से पहले लूसिफर प्रधान स्वर्गदूत था, परमेश्वर के बाद वही सबसे सामर्थी था (यशायाह 14:12-15; यहेजकेल 28:12-17)। उसके स्वर्ग से निकाले जाने के बाद भी न तो उसका स्वर्ग में जाकर परमेश्वर के साथ वार्तालाप करने का विशेषाधिकार वापस लिया गया (अय्यूब 1:6-7, 12; 2:1-6), और न उससे उसकी सामर्थ्य वापस ली गई; वह अपनी इसी सामर्थ्य के द्वारा परमेश्वर और उसके लोगों के विरुद्ध कार्य करता रहता है, तथा अद्भुत आश्चर्यकर्म करने की भी क्षमता रखता है (2 थिस्सलुनीकियों 2:9-10; प्रकाशितवाक्य 13:13-15)। अब, जब हम शैतान के उद्गम और सामर्थ्य से संबंधित बाइबल के इस तथ्य को, उपरोक्त तीनों बातों और उनके निष्कर्षों के साथ मनुष्यों के संदर्भ में लागू करते हैं, तो हमारे सामने जो बातें उभरकर आती हैं, वह कुछ इस प्रकार से है:
· मनुष्य शैतान और उसके दूतों के सामने असमर्थ है क्योंकि वह अपनी रचना में, सृष्टि के समय से ही स्वर्गदूतों से कुछ कम स्तर का बनाया गया, और यह वरीयता क्रम कभी बदला नहीं गया।
· शैतान पहले सबसे प्रधान स्वर्गदूत था, परमेश्वर के बाद सामर्थ्य और बुद्धि में वही था। उसके तथा उसके साथी स्वर्गदूतों के स्वर्ग से गिराए जाने के बाद भी उन से, उन के ये विशेषाधिकार, सामर्थ्य, और बुद्धि वापस नहीं ली गई है।
· यद्यपि उद्धार पाने के बाद स्वर्गदूतों को मनुष्यों की सेवा-टहल करने वाली आत्माएं बना दिया गया है, किन्तु यह बात केवल परमेश्वर के आज्ञाकारी स्वर्गदूतों के संदर्भ में ही सत्य एवं लागू है; परमेश्वर के अनाज्ञाकारी शैतान के दूतों के विषय नहीं।
· इसीलिए, शैतान और उसके दूत हमेशा ही हर बात में, न केवल किसी भी स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार न पाए हुए मनुष्य से; वरन उद्धार पाए हुए मनुष्य से भी सदा ही अधिक सामर्थी और बुद्धिमान है।
इन से आगे की शेष बातों और निष्कर्षों को हम अगले लेख में देखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 10
Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 8)
In the previous articles, we have been seeing that man is absolutely incapable of successfully confronting Satan in his own strength and intelligence, whether in his natural and unregenerate state, or even after being saved. Even a saved man can face Satan’s tactics, and overcome him, only with God's help, so long as he is obedient to God. But as soon as he transgresses the limits set by God, through any of his own words or behavior, through any kind of disobedience, Satan bites him (Ecclesiastes 10:8), ensnaring him in sin. In analyzing the reasons for why man is unable to face Satan, and unable to obey God's Law despite having it in his hands, and other related issues, in the earlier articles we had considered three things.
Having considered them from God's Word, the Bible, we came to the conclusions that:
(i) Whatever God has said, His Word, the rights, privileges, and gifts given by Him are irrevocable, unchanging, and He does not take them back.
(ii) Man since his creation is less powerful than the angels.
(iii) Human beings, in their natural state, are lower than the angels in the hierarchy of created beings. After he is saved, this order changes for the saved man, in context of God’s obedient angels, and the saved man is elevated to a higher status than angels. But Satan and his angels, the demons, do not obey this changed order and keep on trying to overcome man and make him fall.
Today we will look at the meaning, practical application, and implications of these, along with some other things. Lucifer, before he was cast down because of sin and turned to Satan was the archangel, the most powerful after God (Isaiah 14:12-15; Ezekiel 28:12-17). Even after his expulsion from heaven, neither was his privilege to converse with God in heaven (Job 1:6-7, 12; 2:1-6), nor was his power taken away from him. Therefore, he continues to work against God and his people through this very power that he had when in heaven, and is also capable of doing great miraculous works (2 Thessalonians 2:9-10; Revelation 13:13-15). Now, when we apply these Biblical facts regarding the origin and power of Satan, along with the three afore mentioned conclusions, to humans, what comes up before us is something like this:
· Man is incapable of confronting Satan and his angels because in his creation, he has been made of a level lower than the angels from the time of his creation, and this hierarchy has never changed.
· Satan was the chief archangel, second only to God in strength and wisdom. Even after he and his fellow angels were thrown out of heaven, the privileges, powers, and wisdom have not been taken back from them.
· Although angels have been made serving spirits to those who are saved, this is true and applicable only in the context of angels obedient to God; and not for the angels of Satan who are disobedient to God.
· Therefore, Satan and his angels are always and in everything more powerful and wiser than man; not just the natural, unregenerate, unsaved man; but the saved ones as well.
We will look at the other things and conclusions in the next article. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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