व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 25
व्यवस्था की माँगें (भाग 2)
पिछले लेख में हमने व्यवस्था की एक माँग देखी थी कि उसका पालन उसकी सम्पूर्णता में किया जाना अनिवार्य है, अन्यथा एक भी चूक अन्य सभी को व्यर्थ कर देती है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि इस माँग को कभी कोई पूरा नहीं करने पाया है; इसे पूरा करना मनुष्य के लिए असंभव है। इस असंभव माँग के साथ एक और बात भी जुड़ी हुई है, कि व्यवस्था मनुष्य को परमेश्वर के साथ संगति में बहाल करने के लिए अक्षम है।
यह बाइबल का तथ्य है कि व्यक्ति जैसे ही पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से पापों की क्षमा प्राप्त करके, प्रभु का जन बनता है, और अपना जीवन प्रभु को समर्पित करता है, उसी पल से उसका शरीर परमेश्वर पवित्र आत्मा का मंदिर बन जाता है, और पवित्र आत्मा उसी क्षण से उसमें आकर निवास करने लगता है। इसी बात के संदर्भ में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा गलातिया के मसीही विश्वासियों के सामने प्रश्न रखा (गलातीयों 3:1-5), क्योंकि वो लोग व्यवस्था के पालन की ओर भटकने लग गए थे। प्रश्न था, “मैं तुम से केवल यह जानना चाहता हूं, कि तुम ने आत्मा को, क्या व्यवस्था के कामों से, या विश्वास के समाचार से पाया?” (गलातियों 3:2); “सो जो तुम्हें आत्मा दान करता और तुम में सामर्थ्य के काम करता है, वह क्या व्यवस्था के कामों से या विश्वास के सुसमाचार से ऐसा करता है?” (गलातियों 3:5) । पौलुस में होकर, पवित्र आत्मा ने पूछा है कि जब तुम ने पवित्र आत्मा विश्वास के सुसमाचार पर विश्वास करने से पाया है, उस विश्वास के सुसमाचार के पालन ने ही परमेश्वर के साथ तुम्हारी संगति फिर से स्थापित की है; वह तुम्हारे अंदर, तुम्हारे साथ रहने लगा है, तो फिर अब तुम विश्वास को छोड़कर व्यवस्था की ओर क्यों जा रहे हो? जब कि यह जानते हो कि व्यवस्था के पालन के द्वारा परमेश्वर के साथ तुम्हारी संगति बहाल नहीं हो सकती है?
जो प्रश्न पवित्र आत्मा ने गलातिया के मसीही विश्वासियों के सामने रखा था, वही आज हमारे सामने भी है, विशेषकर उनके सामने जो रीतियों, नियमों, परंपराओं, त्यौहारों आदि की “व्यवस्था” के पालन के द्वारा परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरना चाहते हैं। पौलुस ने स्पष्ट लिखा है, “पर यह बात प्रगट है, कि व्यवस्था के द्वारा परमेश्वर के यहां कोई धर्मी नहीं ठहरता क्योंकि धर्मी जन विश्वास से जीवित रहेगा” (गलातियों 3:11)। इसलिए, अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अपने आप को किसी भी प्रकार की “व्यवस्था” - वह चाहे परमेश्वर की हो, या आपके धर्म, मत, समुदाय, या डिनॉमिनेशन की हो - के पालन के द्वारा धर्मी बनाने के, और अपने शरीर के कार्यों के द्वारा अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के प्रयासों में लगे हैं; तो ध्यान देकर समझ लीजिए कि परमेश्वर का वचन स्पष्ट बताता है कि व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, वरन, परमेश्वर के दिए हुए पश्चाताप और समर्पण करने के मार्ग का पालन करने के द्वारा ही आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य बन सकते हैं। अभी समय और अवसर रहते सही मार्ग अपना लें, और व्यर्थ तथा निष्फल मार्ग को छोड़ दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Why The Law Cannot Save Us – 25
Law’s Demands (Part 2)
In the previous article we had seen a demand of the law, that it is mandatory to obey it in its entirety, one mistake, one error renders everything else vain. We had also seen that it is impossible for man to fulfil this demand; no man has ever been able to do so. This impossible demand is associated with another limitation, that the Law is incapable of restoring man back into fellowship with God.
It is a Biblical fact that as soon as a person repents of sins, receives the forgiveness of sins from the Lord Jesus, accepts as Jesus as Lord, and submits his life to Him, from that very moment his body becomes the temple of God's Holy Spirit; and the Holy Spirit comes in to reside in him. It was in this context that God the Holy Spirit put a question to the Galatian Christians through the apostle Paul (Galatians 3:1-5), since they had begun to shift toward the observance of the Law. The question was, "This only I want to learn from you: Did you receive the Spirit by the works of the law, or by the hearing of faith?" (Galatians 3:2); "Therefore He who supplies the Spirit to you and works miracles among you, does He do it by the works of the law, or by the hearing of faith?" (Galatians 3:5). Through Paul, the Holy Spirit asked that though you have received the Holy Spirit because of believing the gospel of faith; it is by obeying that gospel of faith that you have been accepted and re-established into fellowship with God, and He has started residing in you, with you; so why are you now deviating from the faith and going to the Law? Despite knowing very well that your fellowship with God cannot be restored by keeping the Law?
The question that the Holy Spirit posed to the Galatian Christians, the same question is equally valid for us today; especially for those who want to be justified in the sight of God by observing the "law" of customs, rules & regulations, traditions, festivals, etc. Paul wrote clearly, "But that no one is justified by the law in the sight of God is evident, for "the just shall live by faith" (Galatians 3:11). So, for now, if you're a Christian, and are wanting to justify yourself by observing any sort of "law" — whether that of God, or of your religion, creed, community, or denomination — and are trying to make yourself acceptable to God through the works of the flesh; then pay heed and understand that God's Word clearly states that you become righteous and acceptable to God, not by keeping the law, but only by following the God given path of repentance and submission to the Lord. Therefore, while you have the time and the opportunity, take a right decision, decide on the right path, and leave the useless and fruitless path.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें