परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 21
हम पौलुस के जीवन और उदाहरणों से परमेश्वर के वचन के उपयोग और उस से व्यवहार के बारे में सीखते आ रहे हैं, और हाल ही में हमने इसके लिए 2 कुरिन्थियों 4:1-5 से देखना आरम्भ किया है। पद 1 को देख लेने के बाद, पिछले कुछ लेखों से हमने पद 2 को देखना आरम्भ किया है। हमने पहले यह देखा है कि इस पद में पौलुस अपनी परमेश्वर के वचन की सेवकाई के तीन गुण तथा उस सेवकाई के उद्देश्य बताता है। पिछले लेखों में हम उद्देश्यों को देख चुके हैं, और आज से गुणों के बारे में देखना आरम्भ करेंगे। इस पद में दिए गए पौलुस की सेवकाई के तीन गुण हैं:
· लज्जा के गुप्त कामों को त्यागना
· चतुराई से न चलना
· परमेश्वर के वचन में मिलावट नहीं करना
अपने तथा अपने सह-कर्मियों के बारे में जो पहला गुण पौलुस यहाँ पर लिखता है, वह है, “हम ने लज्ज़ा के गुप्त कामों को त्याग दिया।” इस कथन की तुलना उस से कीजिए जो पौलुस ने अपने मसीही विश्वास में आने से पहले के जीवन के सन्दर्भ में अपने बारे में कहा था, जब वह एक बहुत उत्साही फरीसी, पवित्र शास्त्र – जो हमारा पुराना नियम है, का ज्ञानी था और उसी के अनुसार काम करता था, “पर मैं तो शरीर पर भी भरोसा रख सकता हूं यदि किसी और को शरीर पर भरोसा रखने का विचार हो, तो मैं उस से भी बढ़कर रख सकता हूं। आठवें दिन मेरा खतना हुआ, इस्राएल के वंश, और बिन्यामीन के गोत्र का हूं; इब्रानियों का इब्रानी हूं; व्यवस्था के विषय में यदि कहो तो फरीसी हूं। उत्साह के विषय में यदि कहो तो कलीसिया का सताने वाला; और व्यवस्था की धामिर्कता के विषय में यदि कहो तो निर्दोष था” (फिलिप्पियों 3:4-6; साथ ही प्रेरितों 26:4-5 भी देखिए)। हम पौलुस के इस कथन से देखते हैं कि उसकी पृष्ठभूमि और उसकी योग्यताएँ सभी को अच्छे से पता थीं, उसमें कुछ कमी नहीं थी, उसकी किसी भी बात के लिए आलोचना नहीं की जा सकती थी। प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर लेने के बाद, उसने तुरंत ही प्रभु के परमेश्वर का पुत्र होने, प्रतिज्ञा किया हुआ मसीहा होने का प्रचार करना आरम्भ कर दिया था (प्रेरितों 9:20, 27, 29), और वह पवित्र शास्त्र ही से प्रचार करता था (प्रेरितों 17:2)। दूसरे शब्दों में, उसके परिवर्तन से पहले और बाद में, पौलुस के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं था जो लोगों या समाज से छुपा हुआ हो, अनैतिक हो, सामाजिक दृष्टिकोण से अस्वीकार्य अथवा किसी भी रीति से आलोचना के योग्य हो। लेकिन फिर भी यहाँ 2 कुरिन्थियों 4:2 में, पौलुस अपनी सेवकाई के विषय जो पहला गुण कहता है, वह है की उसने लज्जा के गुप्त कामों को छोड़ दिया है! पौलुस के अपने विषय इन दोनों परस्पर विरोधाभासी प्रतीत होने वाले कथनों में हम सामंजस्य किस तरह से बैठा सकते हैं?
इस प्रतीत होने वाले विरोधाभास या त्रुटि को समझने और सामंजस्य बैठाने की कुंजी है फिलिप्पियों 3:4 का आरंभिक वाक्य “मैं तो शरीर पर भी भरोसा रख सकता हूँ।” प्रभु में विश्वास में आने और उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता और प्रभु ग्रहण करने से पहले, पौलुस का उत्साह और कार्य उसके ‘शरीर के कामों’ पर आधारित थे, अर्थात उसकी अपनी योग्यताओं, शिक्षा, पृष्ठभूमि, तथा अन्य मनुष्यों – धार्मिक अगुवों से समर्थन पर। जो उसने सीखा था और जो उसे सही लगता था, उसके आधार पर वह वही करता था जो उसे सही और करने योग्य लगता था, यह समझते और मानते हुए कि वह परमेश्वर की दृष्टि में भी सही और उसे भी स्वीकार्य होगा। पौलुस ने यह माना है कि उसकी इन अनुचित उत्साह और प्रवृत्तियों ने उसे प्रभु का विरोधी और प्रभु के लोगों को सताने वाला, उनके विरुद्ध क्रोध में पागल सा, निन्दा और अंधेर करने वाला बन गया था (प्रेरितों 26:9-11; 1 कुरिन्थियों 15:9; फिलिप्पियों 3:6; 1 तीमुथियुस 1:13)। प्रभु यीशु में विश्वास में आने के बाद, उसकी यह अपने ‘शरीर’, अर्थात उसकी अपनी इच्छा और समझ तथा उसकी अपनी दृष्टि में सही अथवा गलत होने के अनुसार काम करने की मानसिकता तुरन्त बदल गई, और वह विनम्र, प्रभु को पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी बन गया (प्रेरितों 9:5-6; 26:19), जो कुछ प्रभु कहे केवल वही करने वाला, चाहे उसकी कोई भी कीमत क्यों न हो (प्रेरितों 9:15-16)। उसके इस पहले के “शरीर में भरोसा रखने”, और इस प्रवृत्ति के उसके व्यवहार में प्रकट होने के कारण वह अपने आप को सब प्रेरितों में सबसे छोटा, बल्कि प्रेरित कहलाने के भी योग्य भी नहीं समझता था (1 कुरिन्थियों 15:8-9), और अपने आप को ‘पापियों में सबसे बड़ा’ (1 तीमुथियुस 1:15) कहता था। इस बात पर भी ध्यान दीजिए कि पौलुस का यह घमण्ड, उसका उग्र होना, और इस प्रकार की अन्य सभी बातें उसके अन्दर की त्रुटियों का ही बाहरी प्रकटीकरण थीं। प्रभु यीशु में विश्वास में आने और प्रभु को समर्पित और आज्ञाकारी बनते ही, उसके अन्दर की त्रुटियों के ठीक होते ही, उसके बाहर का व्यवहार, यानी कि अन्दर की त्रुटियों का बाहरी प्रकटीकरण भी ठीक हो गया। इसीलिए, पौलुस उन्हें “लज्ज़ा के गुप्त काम” कहता है, अन्दर की वे त्रुटियाँ जो बाहर व्यवहार में समस्याएँ खड़ी करती हैं।
पौलुस ने मसीह यीशु में विश्वास में आते ही, इन्हीं “लज्ज़ा के गुप्त कामों” को तुरन्त ही त्याग दिया। पौलुस ने अपने ‘शरीर में भरोसा’ करने को, अर्थात, अपनी ही समझ और बुद्धि के अनुसार निर्णय लेने, अपनी योग्यताओं और शिक्षा के अनुसार कार्य करने को त्याग दिया; उसने अपने घमण्ड और दूसरों पर हावी होने की जीवन शैली को त्याग दिया; वह विनम्र और धैर्य रखने वाला बन गया, परमेश्वर के अन्य संतानों की कमियों और गलतियों के साथ धैर्य से व्यवहार करने वाला, उनको धीरज के साथ सुधारने वाला बन गया। यदि अन्य विश्वासी उन से रखी गई आशाओं पर पूरे नहीं उतरते थे या प्रभु के पीछे सही रीति से नहीं चलते थे तो अब वह उनके पीछे डंडा लेकर नहीं पड़ता था, न ही उन्हें अपने से दूर करता था, या अपने आप को उन से दूर कर लेता था। वह प्रभु की इच्छा का आज्ञाकारी बन गया, प्रभु से जानने वाला कि क्या कहना है, किस से कहना है, कब और कहाँ पर कहना है, बजाए अपनी सेवकाई को अपनी ही समझ और इच्छा के अनुसार करने वाला।
हम पौलुस से सीखते हैं कि परमेश्वर के वचन के सेवक में यह पहला गुण होना चाहिए – वह अपने शरीर पर किसी भी बात में कोई भी भरोसा नहीं रखे; वरन विनम्र, धीरजवंत, विलम्ब से क्रोध करने वाला, और जो सेवकाई परमेश्वर उस से चाहता है, उसके विषय परमेश्वर पर पूर्ण रीति से निर्भर और आज्ञाकारी रहने वाला हो। पतरस ने भी यही बात 1 पतरस 2:1-2 में कही है, वचन के निर्मल दूध की लालसा रखने और उसके द्वारा बढ़ने के लिए सबसे पहले हर प्रकार का बैर भाव, छल, कपट, डाह, और बदनामी को त्यागना है – पहले एक भीतरी परिवर्तन आना है, और तब यह परिवर्तन बाहर के व्यवहार में प्रकट होगा।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 21
We have been learning from the examples and life of Paul about utilizing God’s Word and handling it, and of late have started considering 2 Corinthians 4:1-5 for this. Having seen verse 1, we are now on verse 2 for the past couple of articles. We saw earlier that in this verse, Paul states three characteristics, and the purposes of his ministry of God’s Word. We have seen the purposes in the previous articles, and will look into the characteristics from today. The three characteristics of Paul’s ministry, as given in this verse are:
· Having renounced the hidden things of shame
· Not walking in craftiness
· Not handling the Word of God deceitfully
The first characteristic that Paul states about himself and his co-workers is, “we have renounced the hidden things of shame”. Compare this with what Paul says about himself, in context of his life before coming to faith in Christ, when he lived and functioned as a very zealous Pharisee, learned in the Scriptures – our present-day Old Testament, “though I also might have confidence in the flesh. If anyone else thinks he may have confidence in the flesh, I more so: circumcised the eighth day, of the stock of Israel, of the tribe of Benjamin, a Hebrew of the Hebrews; concerning the law, a Pharisee; concerning zeal, persecuting the church; concerning the righteousness which is in the law, blameless” (Philippians 3:4-6; also see Acts 26:4-5). We see from this statement of Paul that his background and qualifications were well known to all, were faultless, were beyond any criticism. Having accepted the Lord Jesus as his savior, he immediately started preaching about Him being the Son of God, the promised Messiah (Acts 9:20, 27, 29), and his preaching was from the Scriptures (Acts 17:2). In other words, before and after his conversion, there was nothing in Paul’s life that was hidden from the society, immoral, socially unacceptable, or worthy of criticism in any manner. And yet, here, in 2 Corinthians 4:2, the first characteristic that he states about his ministry is that he has renounced the hidden things of shame! How can we reconcile these two seemingly contradictory statements of Paul about himself?
The key to reconciling and understanding this apparent discrepancy or contradiction is in the beginning of Philippians 3:4, “though I also might have confidence in the flesh.” Before coming to faith in the Lord and accepting Him as his savior and Lord, Paul’s zeal and works were based on his ‘works of the flesh’, i.e., his own abilities, education, background, and support from other men – the religious authorities. Based on what he thought and had been taught as being correct, he did what seemed right and worthwhile to him, presuming it to be right and acceptable in the sight of God as well. Paul admits that this misguided zeal and tendencies had made him an opponent of the Lord Jesus and a persecutor of the Lord’s people, making him exceedingly enraged against them, a blasphemer and an insolent person (Acts 26:9-11; 1 Corinthians 15:9; Philippians 3:6; 1 Timothy 1:13). After coming to faith in the Lord Jesus, this mentality of doing things according to his own ‘flesh’, i.e., according to his own will and understanding, his own concepts of right and wrong, was immediately changed into his becoming humble, submissive, and obedient to the Lord (Acts 9:5-6; 26:19), willing to do whatever the Lord had set for him, at whatever cost (Acts 9:15-16). Because of his this former “confidence in the flesh” and its manifestations in his behavior, he considered himself to be the least of the Apostles, not even worthy of being called and Apostle (1 Corinthians 15:8-9), and called himself the ‘chief of sinners’ (1 Timothy 1:15). Notice also that Paul’s arrogance, aggression, and other such actions were the external manifestation of the internal faults. Once his internals got corrected through coming to faith in the Lord, becoming submissive and obedient to Him, the external manifestations of the internal problems also got corrected. Therefore, Paul calls them the ‘hidden things of shame’, the internal unseen things that created problems of the outside behavior.
These are the ‘hidden things of shame’ that Paul straightaway renounced on coming to faith in Christ Jesus. Paul gave up his ‘confidence in the flesh’, i.e., his own judgments and decisions based on his own abilities and education; he gave up his arrogance and imposing lifestyle; he became humble and longsuffering, patiently putting up with the faults and shortcomings in God’s children and gently correcting them, instead of going after them with a stick, or casting them away, or separating himself from them when they fell short of expectations, or in following the Lord; he became obedient to the will of the Lord, seeking and learning from the Lord what to say, to whom to say, when and where to say instead of doing his ministry the way he felt it ought to be done.
We learn from Paul that this then is the first characteristic that a minister of God’s Word should have – put away all confidence of the flesh; and be humble, patient, longsuffering; become completely obedient to the Lord for the ministry that God wants him to do. Peter too said the same in 1 Peter 2:1-2; to desire and grow by the pure milk of the Word, one has to first put aside all malice, deceit, hypocrisy, envy, and evil speaking – an internal change has to come first, which will then manifest as changed behavior externally.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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