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गुरुवार, 2 नवंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 68 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 54

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परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 22

 

    हमने 2 कुरिन्थियों 4:2 से देखा था कि पौलुस ने उस पद में परमेश्वर के वचन की अपनी सेवकाई के तीन गुण, और साथ ही अपनी सेवकाई के उद्देश्य भी दिए हैं। ये तीन गुण हैं, उसने लज्जा के गुप्त कामों को त्याग दिया था, वह चतुराई से नहीं चलता था, और परमेश्वर के वचन में कोई मिलावट नहीं करता था। पहले के लेखों में पौलुस की सेवकाई के उद्देश्यों को देखने के बाद, पिछले लेख में हमने पौलुस की सेवकाई के पहले गुण, कि उसने लज्जा के गुप्त कामों को त्याग दिया था, के बारे में देखा था। आज हम इसे आगे ज़ारी रखते हुए इस पद में कहे गए दूसरे गुण के बारे में देखेंगे।


    पहला गुण मुख्यतः पौलुस के अतीत, उसके प्रभु यीशु में विश्वास में आने से पूर्व के जीवन के बारे में था। उसके दूसरे और तीसरे गुण उसकी तत्कालीन जीवन और सेवकाई के बारे में हैं, जैसा कि वह तब के लोगों के मध्य जीवन जीता और सेवकाई करता था। दूसरे गुण में, पौलुस कहता है कि वह ‘चतुराई से नहीं चलता था।’ अर्थात, वह परमेश्वर के वचन की अपनी सेवकाई को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए कदापि उपयोग नहीं करता था; परमेश्वर की सेवा के नाम से न तो पौलुस ने साँसारिक वस्तुओं का न तो कभी कोई लालच किया, और न ही उनके लिए कोई कार्य किया (प्रेरितों 20:33; 1 थिस्सलुनीकियों 2:5)। इसके विपरीत, अपनी सेवकाई को करते हुए, साथ ही पौलुस अपने जीवन यापन के लिए भी कार्य करता था, कभी किसी पर अपनी आवश्यकताओं के लिए निर्भर नहीं रहा; और अपनी कमाई में से औरों की भी सहायता करता था (प्रेरितों 20:34; 1 कुरिन्थियों 4:12; 1 थिस्सलुनीकियों 2:9)। उसने तो जिन कलीसियाओं में वह सेवा करता था, उनसे कभी वह भी नहीं माँगा जो उसका उपयुक्त बनता था (1 कुरिन्थियों 9:14-15)।


    इसकी तुलना में, उस प्राथमिक कलीसिया के समय में ही, ऐसे लोग खड़े हो चुके थे जो परमेश्वर के वचन के प्रचार और शिक्षा को व्यक्तिगत लाभ के लिए उपयोग कर रहे थे (रोमियों 16:18; फिलिप्पियों 3:19), जिसकी पौलुस ने भर्त्सना की। पौलुस ने तिमुथियुस को भी सावधान किया कि, “जो समझते हैं कि भक्ति कमाई का द्वार है” (1 तिमुथियुस 3:19), उन से दूर रहे, तथा तीतुस को निर्देश दिए कि उनके मुँह बंद किए जाने चाहिएँ जो “लोग नीच कमाई के लिये अनुचित बातें सिखा कर घर के घर बिगाड़ देते हैं” (तीतुस 1:11)। पौलुस ने कुरिन्थुस के विश्वासियों को यह स्मरण दिलाया कि वह परमेश्वर के वचन को “बेचता” नहीं था (2 कुरिन्थियों 2:17; इस पद में हिन्दी में जिस शब्द का अनुवाद “मिलावट” या “हेरा-फेरी” किया गया है, मूल यूनानी भाषा के उस शब्द का शब्दार्थ है बेचना, अथवा लाभ के लिए उपयोग करना – इसके बारे में 25 अक्तूबर के लेख को देखिए)। और इफिसुस के मसीही विश्वासियों से अपनी अंतिम विदाई लेते हुए पौलुस उनके सामने एक अनुकरणीय जीवन जीने का दावा कर सका (प्रेरितों 20:18-19)। पौलुस का जीवन सभी के सामने एक ‘खुली-किताब’ था, चाहे वे उसके विरोधी हों अथवा समर्थक, कभी भी कोई भी उस पर साँसारिक वस्तुओं और बातों का लालच करने, उनकी प्राप्ति के लिए अनुचित उद्देश्य और मार्ग रखने, या उन्हें प्राप्त करने के लिए कुछ गलत करने का आरोप नहीं लगा सका। यहाँ तक कि, सँसार से कूच करने की प्रतीक्षा करते हुए, वह बड़े भरोसे के साथ यह कह सका कि जब वह स्वर्ग पहुंचेगा, तो प्रभु के द्वारा उसे ‘धर्म का मुकुट’ दिया जाएगा (2 तीमुथियुस 4:8)।


    क्योंकि वह सँसार और सँसार के बातों तथा वस्तुओं से विरक्ति का जीवन जीता था, प्रभु के प्रति पूर्णतः समर्पित, आज्ञाकारी, और प्रतिबद्ध था, किसी भी भौतिक वस्तु या लाभ की लालसा अथवा लालच नहीं करता था, और क्योंकि उसने अपने आत्मिक स्तर एवं अधिकार का कभी भी अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए उपयोग नहीं किया था, इसीलिए परमेश्वर ने उसकी सेवकाई पर आशीष दी और उसे वचन के गूढ़ भेदो के बारे में ऐसी अन्तर्दृष्टि प्रदान की, जैसी किसी और को कभी नहीं मिली थी; और प्रेरित पतरस ने भी यह बात कही (2 पतरस 3:15-16)।


    यह वर्तमान में देखे जाने वाले व्यवहार से एक वास्तविक किन्तु अप्रिय तुलना प्रस्तुत करता है। वर्तमान में लोग प्रभु की सेवकाई को न केवल साँसारिक वस्तुएँ, लाभ, और समाज में उच्च स्तर अर्जित करने के तरीके के समान उपयोग करते हैं, वरन उसे सही ठहराने के लिए कई गढ़े हुए तर्क भी देते हैं। उन्हें लोगों के साथ, तथा उन्हें ‘प्रभु की सेवकाई’ के लिए धन एवं संसाधन उपलब्ध करवाने वालों के साथ चतुराई से व्यवहार करने में कोई संकोच नहीं होता है, यद्यपि उपलब्ध करवाई गई वस्तुएँ और संसाधन उनके व्यक्तिगत उपयोग के लिए अधिक और प्रभु के कार्य के लिए कम उपयोग की जाती हैं। हो सकता है कि वे इसके बारे में कुछ तर्क दे सकें और अपने किए को सांसारिक आधार पर उचित भी ठहरा सकें; लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि परमेश्वर का आँकलन, निर्धारण, और न्याय उसके अपने ही मानकों के अनुसार होगा, न कि उन लोगों के अथवा सँसार के मानकों के आधार पर। और तब उन्हें बहुत शर्मिंदा होना पड़ेगा, भारी हानि उठानी पड़ेगी, ऐसी हानि जो उनके सँसार में कमाए गए उस अनुचित लाभ से कहीं अधिक होगी। अन्ततः, परमेश्वर के नाम में व्यक्तिगत लाभ के लिए चतुराई से चलना और व्यवहार करना उन्हें बहुत ही भारी पड़ेगा।


    हमारे लिए पाठ यह है कि परमेश्वर के वचन के साथ उचित व्यवहार करने और उसकी सेवकाई करने के लिए, परमेश्वर के प्रत्येक सेवक को, पौलुस के समान, बिना किसी प्रकार की कोई चतुराई के, एक खुली-किताब जैसा जीवन रखना होगा और परमेश्वर के वचन का व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं वरण परमेश्वर के राज्य के लाभ के लिए उपयोग करना होगा। अगले लेख में हम तीसरे गुण को देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Appropriately Handling God’s Word – 22

 

    We have seen that in 2 Corinthians 4:2 Paul has stated three characteristics of his ministry of God’s Word, as well as the purpose of his ministry. These three characteristics are, he had renounced the hidden things of shame, he did not walk in craftiness, and he did not handle the Word of God deceitfully. Having already considered the purposes of Paul’s ministry in earlier articles, in the last article we had considered the first characteristic of Paul’s ministry, that he had renounced the hidden things of shame. Today we will carry on and see the second characteristic mentioned in this verse.


    The first characteristic mainly pertained to Paul’s former life, i.e., life before his coming to faith in the Lord Jesus. The second and third characteristics pertain to his current life and ministry, as he was lived and carried it out while serving amongst the then people. In the second characteristic, Paul says that he ‘did not walk in craftiness.’ Meaning he did not use his ministry of God’s Word as a means to serve his own ends; in the garb of serving God. Paul neither coveted, nor worked for any worldly possessions (Acts 20:33; 1 Thessalonians 2:5). On the contrary, while carrying on with his ministry, Paul also worked for his living, never being dependent on others to provide for his needs; and, out of his earnings he would help others as well (Acts 20:34; 1 Corinthians 4:12; 1 Thessalonians 2:9). He did not even claim what was his due from the Churches where he ministered (1 Corinthians 9:14-15).


    In contrast, as early as at that time of the first Church, already people had come up, using the ministry of preaching and teaching God’s Word, as a means of personal gain (Romans 16:18; Philippians 3:19), which Paul denounced. Paul also cautioned Timothy to stay away from those “who suppose that godliness is a means of gain” (1 Timothy 6:5), and instructed Titus that the mouths of those who were “teaching things which they ought not, for the sake of dishonest gain” should be stopped (Titus 1:11). Paul reminded the Corinthian Believers that he did not go about “peddling the Word of God”, as many were doing (2 Corinthians 2:17); and in his final farewell from the Ephesian Believers, he could claim to have an exemplary lifestyle (Acts 20:18-19). Paul’s life was an ‘open book’ before all, whether his detractors or those in his favor, and none could ever accuse him of any covetousness, inappropriate motives, or wrongdoings. So, much so, that awaiting his final departure from the world, he remained very confident that when he reaches heaven he will be rewarded with the crown of righteousness by the Lord (2 Timothy 4:8).


    Because he lived this detached from the things of this world, fully surrendered, obedient, and committed life for the Lord, not desiring any temporal things or gains, not coveting anything, never ever using his spiritual status or authority for extracting any leverage of any kind for his personal gain, therefore God blessed his ministry and gave him insights into His Word, that had not been given to anyone else; and even the Apostle Peter acknowledged this (2 Peter 3:15-16).


    This is in such stark contrast to what is commonly seen these days, where people blatantly use the Lord’s ministry as a means of acquiring worldly possessions and status, and even justify doing this by various contrived arguments. They have no hesitation in dealing craftily with people and donors, to have them provide for ‘Lord’s ministry’, which actually is more for serving their own selves than for the service of the Lord. While they may be able to argue about it and justify their deeds on worldly grounds; but they forget that God’s assessment, evaluation, and judgment will be according to His criteria, not theirs or the worlds; and then they will cut a very sorry figure, and their loss will be far more than any gain they may have had from their walking craftily in the name of the Lord in this world.


    The lesson for us is that to be able to worthily handle and minister God’s Word, like Paul did, a servant of the Lord has to have an open life, without any craftiness, and use God’s Word not for personal gains but for the benefit of God’s Kingdom. We will consider the third characteristic in the next article.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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