परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 23
पौलुस के जीवन और उदाहरणों से परमेश्वर के वचन के सही उपयोग और उसके साथ उचित व्यवहार को सीखते हुए, पिछले कुछ लेखों से हम 2 कुरिन्थियों 4:2 से देखते आ रहे हैं। इस पद में पौलुस ने अपनी सेवकाई के तीन गुणों तथा साथ ही उद्देश्यों को भी लिखा है। अभी तक हम पौलुस की सेवकाई के उद्देश्यों और तीन में से दो गुणों को देख चुके हैं। आज हम इस पद में दिए गए तीसरे गुण, “न परमेश्वर के वचन में मिलावट करते हैं” को देखेंगे।
पौलुस द्वारा यह कहना, उस समय – पहली कलीसिया के समय में, इस बात का संकेत है कि शैतान तब भी कार्यरत था और उसने अपने दूतों को चारों और फैला दिया था, जो गलत बातें और शिक्षाएँ प्रचार करते और सिखाते रहते थे। जैसा कि हमने पिछले लेख में देखा था, इन झूठे प्रचारकों और शिक्षकों में से कुछ तो यह साँसारिक समृद्धि अर्जित करने के लिए या कलीसिया में अपना एक ओहदा बनाने के लिए करते थे, जबकि अन्य यह बस लोगों को बहकाने, भरमाने, और उन्हें गलत मार्गों पर डालकर परमेश्वर से दूर ले जाने के लिए करते थे, जबकि लोग इसी भ्रम में पड़े रहते थे कि वे अभी भी परमेश्वर के पीछे चल रहे हैं, उसी की सेवा कर रहे हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। जिस शब्द का अनुवाद “मिलावट” किया गया है, मूल यूनानी भाषा में उसके अर्थ ‘बिगाड़ना’ और ‘हेरा-फेरी करना’ भी होते हैं। इसलिए तात्पर्य प्रकट है, परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग करना केवल तब ही संभव है जब पहले किसी प्रकार से उसमें कोई मिलावट की जाए, या उसे बिगाड़ दिया जाए, या उसके साथ कोई हेरा-फेरी की जाए। अपने परिशुद्ध स्वरूप में, यदि उसके साथ कोई अनुचित व्यवहार नहीं किया गया है, परमेश्वर का वचन कभी भी किसी को भी पथ-भ्रष्ट नहीं कर सकता है, किसी गलत मार्ग पर नहीं डाल सकता है। इससे पहले की हमारी सम्बन्धित श्रृंखला में हमने विस्तार से उन बातों को देखा था जिनके द्वारा शैतान लोगों को, यहाँ तक कि प्रतिबद्ध मसीही विश्वासियों, परमेश्वर के वचन का प्रचार और शिक्षा देने वालों को भी परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग और गलत व्याख्या करने के लिए बहका देता है।
ऐसा करने के दो बहुत सामान्य, किन्तु बहुधा पहचाने न जाने वाले तरीके हैं; एक है परमेश्वर के वचन में मानवीय बुद्धि की बातों को मिश्रित करना, जो क्रूस के सन्देश को, सुसमाचार को व्यर्थ कर देता है (1 कुरिन्थियों 1:17); और दूसरा है वचन को ‘सुधार’ कर, उसे और अधिक आकर्षक, लुभावना, और स्वीकार करने के लिए सहज बना कर प्रस्तुत करना, बजाए जैसा परमेश्वर ने उसे प्रदान किया है उसे वैसे ही उपयोग करना, जैसे कि परमेश्वर ने अपने नबियों से करने के लिए कहा है (निर्गमन 7:2; यिर्मयाह 1:7, 17; 23:28; यहेजकेल 2:7; 3:10-11)। हम मसीही विश्वासियों को शैतान द्वारा बहकाए जाने से बचाए रखने के लिए परमेश्वर ने हमारे अन्दर निवास करने के लिए हमें अपना पवित्र आत्मा दिया है, जो हमारा सहायक है और हमें प्रभु यीशु की बातें सिखाता और स्मरण दिलाता है (यूहन्ना 14:16-17, 26)। जो लोग पवित्र आत्मा के प्रति समर्पित और आज्ञाकारी रहते हैं, वह उन्हें परमेश्वर के वचन को सिखाता और समझाता भी है (1 कुरिन्थियों 2:10-14)। लेकिन फिर उन्हें जा कर उसे जो पवित्र आत्मा ने सिखाया है, उसमें अपनी बुद्धि और समझ की बातें नहीं मिलानी चाहिएँ, और न ही उसे ’बेहतर’ करने का, उसे और अधिक आकर्षक और लुभावना बनाने का, स्वीकार करने में सहज बनाने का प्रयास नहीं करना चाहिए; बल्कि जैसा परमेश्वर ने दिया है, उसे वैसा ही उपयोग करना चाहिए।
जैसा हम देख चुके हैं, क्योंकि पौलुस परमेश्वर को पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी था, इसीलिए वह न केवल परमेश्वर के वचन में मिलावट करने, उसे बिगाड़ने, या उसके साथ हेरा-फेरी करने की प्रवृत्ति से बचकर रह सका, वरन जैसा परमेश्वर ने उसे दिया था, वचन को वैसा ही लोगों तक पहुंचाने में उद्यमी भी बना रहा (1 कुरिन्थियों 11:23; गलातियों 1:11-12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:2)। हम मसीही विश्वासियों को, क्योंकि हम सभी परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार करते हैं, और विशेषकर उन्हें जिन्हें वचन की सेवकाई सौंपी गई है, इस खतरे के विषय अवगत और बहुत सावधान रहना चाहिए कि शैतान हम में क्या करने की प्रवृत्ति उकसा सकता है, अर्थात परमेश्वर के वचन में मिलावट करना, उसे बिगाड़ना, और उसके साथ हेरा-फेरी करना। क्योंकि शैतान की इस चाल में गिर जाने का अर्थ है हमने कहीं, किसी रीति से, सँसार और शैतान के साथ समझौता कर लिया है, शैतान को हमारे जीवन में होकर काम करने का अवसर प्रदान कर दिया है। इसका परिणाम न केवल हमारी सेवकाई का व्यर्थ और निष्फल हो जाना, बल्कि साथ ही हमारा परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग करने का दोषी हो जाना भी होता है। जैसा पौलुस के साथ था, वैसा ही हमारे साथ भी होना चाहिए, हमें परमेश्वर के वचन में कभी कोई मिलावट नहीं करनी चाहिए; अनजाने में भी नहीं; क्योंकि अनजाने में भी ऐसा कर देना इस बात का संकेत है कि हम परमेश्वर के मार्गों से भटक गए हैं, और शैतान की युक्तियों में फँस गए हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 23
For learning the appropriate way to utilize and handle God’s Word from the life and example of Paul, for the past few articles we have been considering 2 Corinthians 4:2, where Paul has mentioned three characteristics, and the purpose of his ministry. So, far we have considered the purposes and two of the characteristics of his ministry. Today we will consider the third characteristic that Paul has mentioned here in this verse, i.e., “handling the word of God deceitfully.”
For Paul to have said this, at that time – the time of the first Church, is an indicator that already Satan was at work and had spread around his agents, who were preaching and teaching wrong things. As we have seen in the preceding articles, some of these false preachers and teachers did this to gain worldly wealth and a status amongst the Christian Believers, while others simply did it to misguide and put people on the wrong path, lead them away from God while keeping them under the false impression that they are following or serving God (2 Corinthians 11:3, 13-15). The word translated “deceitfully”, in the original Greek language, means ‘to adulterate, distort, or falsify.’ Therefore, the implication is evident, God’s Word can only be misused, if it is first somehow adulterated, or distorted, or falsified. In its pure un-mishandled form, it will not misguide anyone. In our preceding, related series, we have seen in detail the various ways through which Satan causes people, even the committed Christian Believers, the preachers and teachers of God’s Word, to mishandle and misinterpret the Word of God.
The two very common but often unrealized ways are adding human wisdom to God’s Word, which renders the message of the Cross, i.e., the gospel, ineffective (1 Corinthians 1:17); and secondly, to try to improve upon it, or make it appear more attractive and appealing, or more convenient, instead of using it in just the way it has been given by God, as God had instructed His prophets to do (Exodus 7:2; Jeremiah 1:7,17; 23:28; Ezekiel 2:7; 3:10-11). To help us Christian Believers stay safe from being misled by Satan, God has given us His Holy Spirit to reside in us as our Helper and teach and remind us the things taught by the Lord Jesus (John 14:16-17, 26). Those who stay obedient and submitted to the Holy Spirit, are also made to understand and are taught God’s Word by Him (1 Corinthians 2:10-14). But then, they should not go and adulterate what the Holy Spirit has taught them with their own wisdom and understanding, nor try to improve upon it, or make it appear more attractive and appealing, or more convenient; but utilize it just the way it has been taught and given to them.
As we have seen, since Paul was fully submitted and obedient to God, therefore, he could not only stay safe from the tendency to adulterate, distort, or falsify God’s Word, but also be diligent in presenting it as it had been given to him (1 Corinthians 11:23; Galatians 1:11-12; 1 Thessalonians 4:2). For Christian Believers, since we all handle God’s Word, and particularly those who have been given the ministry of utilizing God’s Word, it is essential to remain aware of this danger, of this tendency that Satan often induces in us, i.e., of adulterating, distorting, or falsifying God’s Word. Since falling for this satanic ploy indicates that somehow, in some way, we have compromised with the world and Satan, and have allowed him to work in and through our lives. This will not only render our ministry ineffective and unfruitful, but will also make us guilty of mishandling God’s Word. As it was for Paul, so should it be for us, that we should never use God’s Word “deceitfully”, not even inadvertently; since even the inadvertent misuse indicates that we have deviated from God’s ways and somehow in something have fallen for Satan’s ploys.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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