परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 24
हम पौलुस के जीवन और उदाहरणों से परमेश्वर के वचन के उपयोग और व्यवहार को सीखते आ रहे हैं – वह अपनी सेवकाई को पूरा करने के लिए किस प्रकार का जीवन जीता था, कैसा व्यवहार करता था, और परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए परमेश्वर के वचन का किस प्रकार उपयोग किया करता था। हमें 1 थिस्सलुनीकियों 2:1-10 में उसके द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग और उस से व्यवहार के वे सभी गुण मिलते हैं, जिन्हें हम ने इस अध्ययन में वचन के विभिन्न हवालों से देखा और सीखा है। इस खण्ड के पद 5 में एक ऐसा गुण भी दिया गया है जिस हम ने अभी तक नहीं देखा है – पौलुस कहता है कि उसने सुसमाचार प्रचार तथा परमेश्वर के वचन की शिक्षा की अपनी सेवकाई में ‘लल्लोपत्तो’ की, यानी ‘चापलूसी’ की बातें कभी नहीं की। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए सन्देश को लोगों को पहुँचाने में उसने कभी लोगों की बेवजह प्रशंसा करने, या उन्हें अनुचित आदर देने अथवा अनावश्यक ऊँचा दिखाने की बातों को उपयोग नहीं किया। और यह जानते हुए कि सुसमाचार को तथा परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं को प्रस्तुत करने में पाप के बारे में कहने और पापों के लिए कायल करने की आवश्यकता है, पौलुस ने यह करने के लिए कभी नर्म और हलके शब्दों का उपयोग नहीं किया।
पौलुस ने न तो कभी चाहा और न ही कभी प्रयास किया कि परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए सन्देश को प्रस्तुत करने में वह लोगों को अपमानित करने वाला, या नीचा दिखाने वाला, या उन्हें कोई ठेस पहुँचाने वाला बने। वरन पौलुस ने हमेशा ही शालीनता से अपनी बात लोगों के सामने रखी, जैसा कि हम उसके द्वारा अथेने में किए गए प्रचार से देखते हैं। हम प्रेरितों 17:16 में देखते हैं कि अथेने में अपने साथियों के आने की प्रतीक्षा करते हुए, “नगर को मूरतों से भरा हुआ देखकर उसका जी जल गया”; लेकिन जब उसे अथेने के अरियुपगुस में लोगों के सामने अपने सन्देश को रखने का अवसर दिया गया (प्रेरितों 17:22), तब उसने उनकी मूर्तिपूजा के विरुद्ध अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं किया। उसके विपरीत उसने उन्हें आदर के साथ संबोधित किया, उन्हें देवताओं को मानने वाला कहा, और वहाँ से उन्हें सुसमाचार में ले गया। उसके सन्देश देने के बाद, कुछ ने प्रभु में विश्वास किया, कुछ ने उसका ठट्ठा भी उड़ाया, लेकिन किसी को भी उसके सन्देश से ठेस नहीं लगी, और न ही किसी ने भी उसके अथवा उसके सन्देश के विरोध में कुछ कहा (प्रेरितों 17:32-34)। इफिसुस में, जब उसके विरोध में हल्ला हुआ, क्योंकि उसके प्रचार के कारण वहाँ के मूर्तियाँ बनाने वालों को आर्थिक हानि होने लगी थी, लेकिन भीड़ को शांत करने के लिए नगर के मंत्री ने पौलुस और उसके साथियों के विषय में कहा, “क्योंकि तुम इन मनुष्यों को लाए हो, जो न मन्दिर के लूटने वाले हैं, और न हमारी देवी के निन्दक हैं” (प्रेरितों 19:37)। हम इन उदाहरणों से देखते हैं कि पौलुस परमेश्वर के सन्देश को, सत्य को, बिना उसे हल्का किए इस प्रकार से बाँट सकता था कि किसी को ठेस भी न पहुँचे और कोई अविश्वासी, जिसे वह संबोधित कर रहा था, अपमानित भी अनुभव न करे।
इसी प्रकार से विश्वासियों के मध्य भी उसने परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए सन्देश को, इसलिए कि कहीं उससे किसी को बुरा न लगे या ठेस न पहुँचे, बिना उसे हल्का किए या उसमें कोई मिलावट किये उसी सत्य में जैसा उसे सौंपा गया था, वैसा ही उसे बाँटा। जहाँ आवश्यकता हुई, वहाँ पौलुस ने विश्वासियों को डाँटा भी, जैसे कि उसने गलती में पड़े हुए कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को डाँटा। पौलुस ने उन्हें I कुरिन्थियों 4:14, 21 में लिखा कि वह उन्हें लज्जित करना नहीं चाहता था, लेकिन यदि आवश्यकता हुई तो वह और भी कठोर होकर, छड़ी ले कर भी उनके पास आने को तैयार था। फिर उसने 2 कुरिन्थियों 7:7-10 में इस बात को माना की उसकी पहली पत्री से उन्हें ठेस पहुँची थी, लेकिन वह साथ ही यह भी कहता है कि उसे अपने किए पर पछतावा नहीं है, क्योंकि उसके किए ने कुरिन्थुस के विश्वासियों में दुःख, पश्चाताप, और सुधार के लिए आवश्यक प्रतिक्रिया उत्पन्न की थी। तो, जहाँ आवश्यक था, वहाँ परमेश्वर की इच्छा और मार्गदर्शन में, वह स्पष्टवादी और कठोर भी होने से नहीं हिचकिचाता था। इसी प्रकार से हम देखते हैं कि पतरस (प्रेरितों 2:22-23, 36) और स्तिफनुस (प्रेरितों 7:51-54) भी यहूदियों पर उनके द्वारा परमेश्वर के वचन के विरुद्ध की गई गलतियों को प्रकट करने में निःसंकोच और स्पष्टवादी थे, उनके द्वारा दिए जाने वाले परमेश्वर के सन्देश में उन्होंने कोई समझौता नहीं किया; किन्तु किसी ने भी कभी कोई असभ्य अथवा औरों को नीचा दिखाने वाली किसी भाषा का उपयोग नहीं किया।
यह वर्तमान में कुछ पास्टरों, प्रचारकों, और कलीसिया के अगुवों द्वारा संसार के लोगों को प्रसन्न करने और उन्हें अनुचित आदर और महिमा देने, और यह करने के लिए परमेश्वर के वचन एवं सन्देश में मिलावट करने, उसे हल्का करने की प्रवृत्ति के बिलकुल विपरीत है। हम इन उदाहरणों से देखते हैं कि जहाँ एक समर्पित और परमेश्वर को महिमा देने की इच्छा रखने वाला आज्ञाकारी हृदय होता है, वहाँ परमेश्वर अपने सन्देश को उपयुक्त रीति से प्रस्तुत करने के तरीके भी उपलब्ध करवा देता है। सँसार के लोगों की चापलूसी करना और परमेश्वर के वचन में मिलावट करना, उसे हल्का बनाना, एक सर्वथा गलत नीति एवं प्रवृत्ति है, जिसे लोगों से प्रशंसा और अनुमोदन तो मिल सकता है, लेकिन परमेश्वर के राज्य के लिए कभी कोई सार्थक परिणाम नहीं आ सकता है, क्योंकि उस सन्देश और प्रचारक में फिर परमेश्वर की सामर्थ्य नहीं रहती है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 24
We have been learning from the examples and life of Paul about utilizing and handling the Word of God – the kind of life he lived and how he behaved to carry out his ministry, and how he used the Word of God to fulfil his God assigned ministry. In 1 Thessalonians 2:1-10, we find mentioned all the characteristics of Paul’s utilizing and handling God’s Word that we have studied through various references. In verse 5 of this passage there is one characteristic that we have not yet considered – Paul says that he never used flattering words in his ministry of preaching the gospel and teaching God’s Word. In other words, he never resorted to unnecessarily praising, or unduly honoring, or unjustifiably exalting people to deliver his God given message. Also, knowing that presenting the gospel and the teachings of God’s Word requires speaking of sin and conviction for it, Paul did not try to use soft and gentle words to do so.
Paul neither tried nor meant to be demeaning, or derogatory, or offensive in presenting the message God had given him. Rather, he always tried to present his message in a civilized and respectful manner, as we see in his preaching the gospel in Athens. We see from Acts 17:16, that while waiting for his colleagues to join him in Athens, ‘his spirit was provoked within him when he saw that the city was given over to idols’; but when he is given the chance to present his message in the Areopagus of Athens (Acts 17:22), he never showed his inner feelings against their idolatry. On the contrary, we see him begin his address to them respectfully, calling them very religious, and from there he leads them on to the gospel. At the end of his address, though some believed in the Lord, and some even mocked him, but none was offended by his message nor did anyone speak against him or his message (Acts 17:32-34). In Ephesus, when there was an uproar against him, since his preaching was causing great financial harm to silversmiths who made the idols, nevertheless in pacifying the crowds the city clerk said about Paul and his colleagues “For you have brought these men here who are neither robbers of temples nor blasphemers of your goddess” (Acts 19:37). We see from these examples that Paul could speak the truth, share God’s message, without compromising on it or diluting it, but also without offending or insulting the unbelievers that he was addressing.
Similarly, amongst the Believers too he did not dilute or alter the God given message so that it may not hurt or offend people through stating the truth. Where it was required, Paul admonished the Believers, as he did to the errant Corinthian Believers in I Corinthians 4:14, 21, saying that though he was not writing to them to shame them, but if needs be, he was willing to be even harsher, and ‘come to them with a rod.’ Then in 2 Corinthians 7:7-10 he acknowledges that his first letter did offend them, but he also says that he did not regret doing that, since that provoked the Corinthians to sorrow, repentance and taking corrective action. So, where required, in the will and guidance of God, he was ready to be forthright and harsh as well. Similarly, we also see that Peter (Acts 2:22-23, 36) and Stephen (Acts 7:51-54) were very forthright in pointing out what the Jews had done contrary to God’s Word, without compromising on God’s message being delivered through them; but none of them ever used any derogatory or uncivilized language.
This is a stark contrast to the tendency of some Pastors, preachers and Church leaders to appease and honor worldly people, and to do this they are willing to dilute and compromise on God’s Word and God’s message as well. But where there is a heart willing to obey God and glorify Him, God also provides the way to present his message in an appropriate way. Flattering the people of the world and diluting God’s Word is a wrong attitude and strategy that may bring appreciation and acceptance from the people of the world, but will never bring any results for the Kingdom of God, since God’s power is no longer in that message or preacher.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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