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पवित्र आत्मा से सीखना – 25
प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसके उद्धार के समय से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा दे दिया जाता है, और वह उसमें निवास करता है। पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी का सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है, ताकि मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा सौंपी गई सेवकाई को ठीक से निर्वाह करने में उसकी सहायता और मार्गदर्शन करे। पवित्र आत्मा विश्वासी का शिक्षक भी है, उसे परमेश्वर का वचन तथा अन्य बातें सिखाने के लिए, और जिन विभिन्न परिस्थितियों का वह सामना करता है, उनमें उसकी सहायता करने, उसे सिखाने, और उसका मार्गदर्शन करने के लिए। इसलिए यह अनिवार्य है कि प्रत्येक मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा से ही सीखे, न कि मनुष्यों और उनके कार्यों से सीखने पर निर्भर होने के, क्योंकि ऐसा करने से वह गलत शिक्षाओं में पड़ जाने के जोखिम में रहता है।
वर्तमान में हम 1 कुरिन्थियों 2:12-14 से पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में सीख रहे हैं; और इस खण्ड के पद 13 पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि यह हमेशा से ही परमेश्वर का तरीका रहा है कि उसका वचन उसके लोगों तक बिना उस में कोई मिलावट किए, उसी स्वरूप और उन्हीं शब्दों में पहुँचाया जाए, जैसा उसने अपने प्रतिनिधियों को अपने लोगों तक पहुँचाने के लिए दिया है। हमने पुराने नियम के इस तथ्य के कुछ उदाहरण देखे थे; और यह भी कि परमेश्वर के लोग अपने जीवनों में तब ही सफल और जयवंत रहे जब उन्होंने परमेश्वर के वचन का पालन किया। आज हम पद 13 के इस वाक्यांश, “आत्मिक बातें आत्मिक बातों से मिला मिला कर सुनाते हैं” को आगे देखेंगे, और समझेंगे कि परमेश्वर किस तरह से चाहता है कि उसका वचन उसी से ही समझा और सीखा जाए जो उसने अपने वचन में पहले से ही दे दिया है, न कि किसी मानवीय बात, बुद्धि, या समझ के द्वारा।
परमेश्वर का अपने वचन को सिखाने का दिया गया तरीका है “ नियम पर नियम, नियम पर नियम थोड़ा यहां, थोड़ा वहां” (यशायाह 28:10; यशायाह 28:9-13 देखिए)। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के वचन को सीखने के लिए, परमेश्वर के लोगों को केवल परमेश्वर वचन में अन्य स्थानों पर दिए गए उस के नियम, अर्थात, उसके दिए हुए सिद्धान्त, निर्देश, और शिक्षाओं को ही उपयोग करना है। यह परमेश्वर के वचन से संबंधित एक अन्य सिद्धान्त, जिसे हम पहले देख चुके हैं, के साथ भी सहमत है – परमेश्वर का वचन पूर्ण और सिद्ध है; परमेश्वर उस वचन में कोई नहीं बात, कोई नए प्रकाशन नहीं जोड़ता है; इसलिए वचन को समझाने के लिए कोई नई बात, कोई नया दर्शन नहीं दिया जाएगा, जो दे दिया गया है, वह पर्याप्त है। साथ ही, जैसा हम ने पवित्र आत्मा द्वारा परमेश्वर के वचन को सिखाने के बारे में देखा है, वह भी हमें जो कह दिया गया है उसे ही स्मरण करवाता है, तथा परिस्थिति के अनुसार वचन की बातें लेकर हमारे सामने लाता है; अपनी ओर से कुछ भी नया नहीं बोलता है। इसीलिए, परमेश्वर का वचन, वचन के अन्य भागों के उपयोग से ही सीखा और समझा जाता है। पवित्र आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन में वचन के विभिन्न भागों को एक दूसरे के साथ मिलाकर देखना चाहिए, एक के साथ अन्य संबंधित भागों को जोड़कर पूरे चित्र को बनाना चाहिए, जिस से सही समझ प्राप्त हो सके।
इस प्रकार से, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में, परमेश्वर का वचन, उसी वचन की सहायता से समझाया, स्पष्ट किया, और सिखाया जाता है। कोई भी मानवीय विचार, बुद्धि, या समझ कभी भी परमेश्वर के वचन को उस तरह से नहीं सीखा सकते हैं जिस तरह से पवित्र आत्मा कर सकता है, परमेश्वर के वचन के अन्य भागों को लेकर किसी अन्य भाग को समझाने के लिए। मनुष्य के तरीके, बातें, और शिक्षाएँ बहुत आकर्षक और मनोहर प्रतीत हो सकते हैं, वे कुछ समय के लिए हमें रोमांचित और प्रसन्न भी कर सकते हैं, लेकिन साथ ही वे परमेश्वर के शुद्ध वचन में मिलावट भी कर देते हैं। वे पवित्र आत्मा से सीखने का विकल्प कभी भी नहीं हो सकते हैं, और न ही वे हमारे जीवनों में, और फिर हम में होकर औरों के जीवनों में वैसे प्रभाव ला सकते हैं जैसे पवित्र आत्मा की शिक्षाओं से आते हैं। कलीसियाओं में कम होती जा रही सदस्यों और लोगों की सँख्या, मसीहियों में वचन को सीखने की रुचि न होना, और मसीही आराधना का बिगड़ कर परंपरा पूरी करने के लिए औपचारिक निर्वाह करना मात्र बन जाना, आदि बातें पवित्र आत्मा के अनुसार नहीं, बल्कि मनुष्य के विचारों और विधियों के अनुसार वचन सिखाने के परिणाम हैं।
जैसा कि हमने पिछले लेख के उदाहरणों में देखा था, पुराने नियम के नबी परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए वचन में अपने विचार, बुद्धि, समझ नहीं मिलाते थे, बल्कि जैसा उन्हें दिया जाता था, उसे वैसा ही बोलते थे, चाहे उन्हें वह समझ में भी न आ रहा हो (दानिय्येल 12:8-9; 1 पतरस 1:10-11)। जो वे कह रहे थे, उसे समझ न पाने ने उन्हें परमेश्वर के वचन में संशोधन और परिवर्तन कर के उसे सहज बनाने का अधिकार अथवा औचित्य प्रदान नहीं किया था। प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों को भी प्रभु द्वारा कही गई कई बातें समझ में नहीं आती थीं, लेकिन वे बाद में उन्हें समझ में आने लगीं (मत्ती 15:16; मरकुस 9:32; लूका 9:45; 18:34; यूहन्ना 10:6; 12:16)। शिष्यों ने प्रभु से कहा कि उन्हें उन बातों को जिन्हें वे समझ नहीं पा रहे थे, समझा दे; किन्तु उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि उन्हें बदल दे या उनके स्थान पर कुछ अन्य बात रख दे; उन के द्वारा प्रभु की उन बातों में अपनी समझ के अनुसार कुछ भी जोड़ने-घटाने की तो बात ही दूर है। परमेश्वर के शब्दों को समझाना और सिखाना, पवित्र आत्मा का कार्य है, और किसी भी मनुष्य को पवित्र आत्मा के कार्य-क्षेत्र में दखल नहीं देना चाहिए। चाहे वह आकर्षक अथवा सरलता से समझ में आने वाला हो या न हो, परमेश्वर के वचन में मनुष्य के विचारों, बुद्धि, और समझ की बातों द्वारा कोई मिलावट नहीं की जानी है। आत्मिक बातें, आत्मिक बातों के साथ ही मिला-मिला कर सिखाई जानी चाहिएँ, न कि साँसारिक अथवा मानवीय बातों के साथ। यह एक बार फिर से हमारे लिए 1 कुरिन्थियों 4:6 में पौलुस की बात – लिखित वचन से आगे नहीं बढ़ना पर बल देता है। अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे और पद 14 को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 25
God the Holy Spirit has been given to every Born-Again Christian Believer, and He resides in him from the moment of his salvation. The Holy Spirit has been given to be the Believer’s Helper, Companion, Teacher, and Guide to help him live his Christian life and fulfil his God assigned ministry. The Holy Spirit is also the Believer’s Teacher of God’s Word and other things; helping, teaching, and guiding him in the various situations he faces. Therefore, it is essential that every Christian Believer should learn from the Holy Spirit, instead of relying upon learning from men and their works, since that makes them prone to falling into erroneous teachings.
Presently we are learning from 1 Corinthians 2:12-14, about learning from the Holy Spirit; and are considering verse 13 of this passage. In the last article, we have seen from the third phrase of verse 13 that it has always been God’s method that His Word be brought to His people unadulterated, in the form and words that He has conveyed to His spokesmen, for passing on to His people. We have seen some Old Testament examples of this fact; and that God’s people have been successful and victorious in their lives only when they have followed His Word. Today we will continue further in considering this phrase of verse 13, “comparing spiritual things with spiritual,” and understand how God wants that His Word be learnt not through things from human thoughts, wisdom, and understanding but from what He has stated in His Word.
God’s stated method of His teaching His Word is “For precept must be upon precept, precept upon precept, Line upon line, line upon line, Here a little, there a little” (Isaiah 28:10; see Isaiah 28:9-13). In other words, to learn God’s Word, God’s people must only use God’s precepts, i.e., principles, instructions, teachings, etc. already given at other places in His Word. This is also in conformity with another principle related to God’s Word, that we have seen earlier – God’s Word is complete and perfect; He does not add any new revelations or teachings to it; therefore, no new things or visions will be given to explain or clarify anything, what has been given is sufficient. Also, as we have seen about the Holy Spirit teachings God’s Word, He does so by reminding about what has already been spoken, and by taking what has already been given and declaring that, as per the situation at hand; He never says anything new on His authority. Therefore, God’s Word is learnt by utilizing its other portions. Under the help and guidance of the Holy Spirit these related portions must be seen along with other parts, compiling one with another, bit by bit, to develop the complete picture and come to a proper understanding.
Thus, the Word of God is best explained, clarified, and learnt with the help of the Word of God itself, through the guidance of the Holy Spirit. No human thought, wisdom, understanding can ever clarify and teach God’s Word in the manner the Holy Spirit can, through showing how to utilize other portions of God’s Word to clarify and explain some other portion. Man’s methods, ways, and teachings may appear very attractive and appealing, they may exhilarate and please us for a time, but they can also adulterate God’s Word. They can never be a substitute for learning from the Holy Spirit, nor can they bring the same effect as the Holy Spirit’s teachings bring in our lives, and then through us in other’s lives. The dwindling attendances in Churches, the lack of interest in learning God’s Word amongst the congregations, and Christian worship having become a ritualistic formality, etc. are all glaring evidences of the effects of preaching and teaching according to man’s ways and methods, instead of preaching and teaching the true Word of God under the guidance of the Holy Spirit.
As we have seen from the examples in the previous article, the Old Testament prophets did not add their own thoughts, wisdom, and understanding to the words that God had given them, but spoke them out as they received them, even though they might not have understood what they were saying (Daniel 12:8-9; 1 Peter 1:10-11). Their inability to understand what they were saying did not give them the reason or authority to alter and edit God’s Word to try to make it easier to understand and follow. Even the Lord’s disciples did not understand many things that the Lord said to them, but they became apparent to them later (Matthew 15:16; Mark 9:32; Luke 9:45; 18:34; John 10:6; 12:16). The disciples asked the Lord to explain to them the things they did not understand, but never asked for them to be changed or replaced; let alone take it upon themselves to add things to it according to their own understanding. The job of God’s spokesman is to speak out God’s Word, as is given to them; they are not to edit and alter it to make it easier to understand or more palatable. It is the Holy Spirit’s work to teach and make those words understandable; and no man should venture into the Holy Spirit’s domain. Whether or not it is attractive and easily understandable, God’s Word is not to be adulterated with man’s thoughts, wisdom, and understanding. Spiritual things must be preached and taught by comparing with other spiritual things, not worldly or human things. This once again emphasizes to us Paul’s assertion in 1 Corinthians 4:6, of not going beyond the written Word. In the next article, we will carry on from here, and will look at verse 14.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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