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गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 117 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 46

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पवित्र आत्मा से सीखना – 26

 

    नया-जन्म पाया हुआ प्रत्येक मसीही विश्वासी, उसे परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए प्रावधानों का भण्डारी है और उन प्रावधानों का अपने जीवन में ठीक से उपयोग करने के लिए परमेश्वर को उत्तरदायी है। परमेश्वर ने उसे ये प्रावधान उसके परमेश्वर की सन्तान होने के अनुसार का जीवन योग्य रीति से जी कर दिखाने के लिए दिए हैं। परमेश्वर द्वारा विश्वासियों को प्रदान की गई विभिन्न बातों में से एक है परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो उसे उद्धार पाने के पल से ही दे दिया जाता है। पवित्र आत्मा, विश्वासी को अपना मसीही जीवन जीने तथा परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई का सही रीति से निर्वाह करने में उसका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है। उनका शिक्षक होने के नाते, वह विश्वासियों को अन्य बातों के साथ, परमेश्वर का वचन भी सिखाता है, यदि वे उस से सीखने के लिए तैयार हों, तो। विश्वासियों में यह सामान्य प्रवृत्ति देखी जाती है कि बजाए पवित्र आत्मा से सीखने के, वे मनुष्यों और उनकी रचनाओं से सीखने पर अधिक निर्भर रहते हैं, और यह उन्हें गलत शिक्षाओं में पड़ने के खतरे में भी डाल देता है। इस श्रृंखला में हम पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में सीख रहे हैं, और वर्तमान में 1 कुरिन्थियों 2:12-14 से देख रहे हैं। हमने अभी तक पद 12 और 13 देख लिए हैं, आज से हम पद 14 पर विचार आरम्भ करने जा रहे हैं।

    जैसा कि ऊपर के अनुच्छेद में, तथा इस श्रृंखला के प्रत्येक लेख के आरंभिक अनुच्छेद में कहा गया है, परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक मसीही विश्वासी में उसके उद्धार पाने के क्षण से ही आ कर निवास करने लगता है; और उसमें आजीवन बना रहता है। इसका विश्वासी की आत्मिक परिपक्वता से कुछ संबंध नहीं है, क्योंकि आत्मिक परिपक्वता आत्मिक शिक्षा प्राप्त करने और आत्मिक कार्यों में संलग्न होने से संबंधित है। विश्वासी की आत्मिक परिपक्वता का स्तर चाहे कुछ भी हो, अर्थात, चाहे विश्वासी ने पवित्र आत्मा को अपने जीवन में सक्रिय और कार्यकारी होने दिया है अथवा नहीं, परमेश्वर पवित्र आत्मा उसमें विद्यमान रहता ही है। इसलिए, प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, उस में पवित्र आत्मा की उपस्थिति के कारण, परमेश्वर की बातों और वचन के प्रति संवेदनशील बन सकता है; चाहे वह उसके प्रति जो उस से कहा जा रहा है, हमेशा ही आज्ञाकारी न भी हो।

    विश्वासी का परमेश्वर की सन्तान होने का स्तर अपरिवर्तनीय है, और ऐसे ही प्रत्येक वास्तविक परमेश्वर की सन्तान के लिए उसमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति भी अपरिवर्तनीय है; ये दोनों ही बातें उसकी आत्मिक परिपक्वता पर निर्भर नहीं हैं। इसीलिए हमें 1 कुरिन्थियों 3:15 “और यदि किसी का काम जल जाएगा, तो हानि उठाएगा; पर वह आप बच जाएगा परन्तु जलते जलते” दिया गया है। पृथ्वी पर भ्रष्ट जीवन जीने के लिए विश्वासियों की ताड़ना होती है (इब्रानियों 12:5-9) और वे अपनी आशीषों को, तथा स्वर्ग में अपने प्रतिफलों को गँवा देते हैं; लेकिन परमेश्वर की सन्तान होने का उनका स्तर, और इस कारण उन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति कभी वापस नहीं लिए जाते हैं।

    एक बार विश्वासी को उस सामर्थ्य के भण्डार का एहसास हो जाता है, जिसे परमेश्वर ने उस में रखा है, और फिर वह उसमें निवास करने वाले पवित्र आत्मा के प्रति समर्पित और आज्ञाकारी हो जाता है, अर्थात वह “आत्मा के अनुसार” चलने और जीवित रहने (गलतियों 5:16, 25) के लिए समर्पित एवं आज्ञाकारी हो जाता है, तब फिर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य उसके जीवन में सक्रिय और प्रकट होने लग जाती है। तब ही, जैसा 1 कुरिन्थियों 2:14 में लिखा है वह “परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण” करना आरम्भ कर देता है। यहाँ पर हमें एक बहुत महत्वपूर्ण बात को ध्यान करना और समझना आवश्यक है। प्रत्येक विश्वासी, इस लिए विश्वासी है, क्योंकि उसने साँसारिक से परमेश्वर के आत्मिक राज्य में जन्म लिया है। इसीलिए पवित्र आत्मा ने 1 पतरस 2:1-2 में लिखवाया है कि आत्मिक शिशु होने से आगे की अपनी आत्मिक उन्नति एवँ परिपक्वता की आत्मिक यात्रा का आरम्भ साँसारिक  व्यवहार, “इसलिये सब प्रकार का बैर भाव और छल और कपट और डाह और बदनामी को दूर करके” उन बातों को त्याग देने के साथ करें। उनके जीवनों में इन बातों की उपस्थिति नया-जन्म पाए हुए विश्वासियों को पवित्र आत्मा के निर्देशों के प्रति असंवेदनशील और निष्क्रिय बना देती है। ध्यान कीजिए, यहाँ पर पतरस यह नहीं कह रहा है कि इन साँसारिक बातों को त्याग देने के द्वारा, उन्हें नया-जन्म प्राप्त हो जाएगा; वरन, क्योंकि उन्होंने नया-जन्म पाया है, इसलिए उन्हें अपनी आत्मिक यात्रा का आरंभ साँसारिक और शारीरिक व्यवहार को छोड़ देने के साथ करना है। पवित्र आत्मा इसी बात पर पौलुस के द्वारा 1 कुरिन्थियों 3:1-3 में भी बल देता है, जहाँ पर पौलुस कुरिन्थुस के विश्वासियों को डाँटता है, और उनको चिताता है कि उनके निरन्तर बने हुए साँसारिक और शारीरिक व्यवहार के कारण, वे सिवाए ‘आत्मिक दूध’ के और कुछ भी ग्रहण करने योग्य नहीं है, और इसीलिए आत्मिक रीति से बढ़ने नहीं पा रहे हैं।

    विश्वासी के इसी साँसारिक और शारीरिक व्यवहार के लिए 1 कुरिन्थियों 2:14 में “शारीरिक मनुष्य” शब्द उपयोग किया गया है। यहाँ पर मूल यूनानी भाषा में जो शब्द उपयोग किया गया है और जिसका अनुवाद “शारीरिक” हुआ है, उसका शब्दार्थ होता है “प्राण संबंधी,” अर्थात, शारीरिक, या इंद्रियों को सुख देने वाला – वह जो साँसारिक है, जिसका ध्यान शरीर की इंद्रियों पर, सँसार की बातों पर, और अपनी आंतरिक इच्छाओं पर रहता है। ऐसा व्यक्ति या तो वह हो सकता है जिसका अभी तक उद्धार नहीं हुआ है, या जिसने वास्तव में नया-जन्म नहीं पाया है, या, यद्यपि उसने नया-जन्म तो पाया है, वह परमेश्वर की सन्तान तो है, परमेश्वर पवित्र आत्मा उस में निवास तो करता है, किन्तु वह 1 पतरस 2:1 तथा 1 कुरिन्थियों 3:3 की बातों से बाहर नहीं निकला है। वह इन में से जो भी हो, उसके लिए परिणाम एक ही है, वह “आत्मा के अनुसार” न तो चल रहा है और न ही जीवन जी रहा है, इसलिए वह “परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं करता” है, वह पवित्र आत्मा के निर्देशों के प्रति असंवेदनशील और निष्क्रिय है।

    अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे और 1 कुरिन्थियों 2:14 के तात्पर्यों को और आगे देखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 26

 

    Every Born-Again Christian Believer is a steward of everything that God has given him, and is accountable to God for properly utilizing God’s provisions in his life. God has given him the provisions to help him live his life as a child of God worthily. Amongst the various things given by God to the Believers, as promised by the Lord Jesus to His disciples, God the Holy Spirit has also been given to them, from the moment of their salvation. The Holy Spirit has been given to be the Believer’s Helper, Companion, Teacher, and Guide in living their Christian life, and fulfilling their God assigned ministry. As their Teacher, He also teaches the Believers, the Word of God and about the other things given by God; provided they are willing to learn from Him. The general tendency amongst Believers is, instead of the Holy Spirit, to rely upon learning from men and their works, which also renders them prone to learning erroneous teachings. In this series we are learning about learning from the Holy Spirit, presently from 1 Corinthians 2:12-14. We have considered verses 12 and 13 in the preceding articles, and will start considering verse 14 today.

    As has been said in the above paragraph, as well as in every opening paragraph of this series, God the Holy Spirit comes to reside in every Born-Again Christian Believer, from the moment of his salvation; and stays in him throughout his life. It is not a question of the Believer’s spiritual maturity, since spiritual maturity is dependent upon spiritual learning and activity. Irrespective of the Believer’s spiritual maturity, i.e., whether or not the Believer has allowed the Holy Spirit to be active and working in his life, God the Holy Spirit is present in him. Therefore, every truly Born-Again Christian Believer, by virtue of the presence of God the Holy Spirit in him, can always be sensitive towards the things of God and the Word of God; though he may not always be obedient to what is being said to him.

    The Believer’s status of being a child of God is irrevocable, and so is the presence of the Holy Spirit in every actual child of God; neither of these is dependent upon the Believer’s spiritual maturity and activity. That is why we have 1 Corinthians 3:15 “If anyone's work is burned, he will suffer loss; but he himself will be saved, yet so as through fire.” The Believers can suffer loss of their blessings and be chastised for their wayward living on earth (Hebrews 12:5-9), as well as suffer loss of rewards in heaven, because of their worldly and carnal living on earth, but they will never lose their status of being a child of God, and therefore, having the Holy Spirit in them.

    Once, the Believer realizes the power-house God has placed inside him, and he then becomes submissive and obedient to the Holy Spirit residing in him, i.e., once he becomes willing and active in walking or living “by the Spirit” (Galatians 5:16, 25), the power of the Holy Spirit starts becoming active and evident in his life. It is then, as it says in 1 Corinthians 2:14, that he starts to “receive the things of the Spirit of God.” We need be aware and to understand a very important point here. Every Believer is a Believer because of being Born-Again from the worldly into the Spiritual kingdom of God. That is why the Holy Spirit has had written in 1 Peter 2:1-2, that from being spiritual infants, move ahead in your spiritual journey of spiritual growth and maturity by getting rid of worldly behavior, “laying aside all malice, all deceit, hypocrisy, envy, and all evil speaking.” The presence of these things renders the Born-Again Believers insensitive and unresponsive to the instructions of the Holy Spirit. Notice, Peter is not saying that by getting rid of these worldly things, they will become Born-Again; rather, since they are Born-Again, therefore, they need to start their spiritual journey by getting rid of the worldly or fleshly behavior. The Holy Spirit emphasizes this through Paul in 1 Corinthians 3:1-3, where Paul admonishes the Corinthian Believers, and points out to them that because of the continued worldly and carnal behavior in them, they are not able to receive anything other than ‘spiritual milk,’ and therefore they are unable to grow spiritually.

    It is this worldly or carnal state of the Believer, that has been referred to being the “natural man” in 1 Corinthians 2:14. The word used in the original Greek language and translated as “natural” here, literally means “soulish” i.e., natural, or sensual – one who is worldly, focused on the natural senses, on the world, and on his internal motivations. Such a person could either be one who is not yet saved, not yet actually Born-Again; or, although he is Born-Again, he is a child of God, God the Holy Spirit is in him, but he has not grown out of the things mentioned in 1 Peter 2:1 and 1 Corinthians 3:3. In either case, the result is the same; because he is not walking and living “by the Spirit,” therefore he “does not receive the things of the Spirit of God;” and he is insensitive, unresponsive to the instructions of the Holy Spirit.

    We will carry on from here in the next article and consider further the implications of 1 Corinthians 2:14.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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