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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 118 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 47

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पवित्र आत्मा से सीखना – 27

 

    परमेश्वर के द्वारा प्रदान की गई बातों के प्राप्त कर्ता होने के नाते, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, परमेश्वर को उसके द्वारा दी गई हर बात के लिए उत्तरदायी हैं, और इसीलिए उन्हें उन बातों के योग्य भण्डारी बन कर कार्य करना है। परमेश्वर ने प्रत्येक विश्वासी को विभिन्न बातें दीं हैं, उनके मसीही जीवन और परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपी गई सेवकाई का निर्वाह करने के लिए। प्रत्येक विश्वासी के उद्धार पाने के पल से ही उसे परमेश्वर पवित्र आत्मा भी प्रदान किया जाता है कि आजीवन उसमें निवास करे, उसका सहायक, साथी, शिक्षक और मार्गदर्शक बनकर। पवित्र आत्मा विश्वासी को उसके जीवन और सेवकाई के बारे में सिखाता है, और साथ ही उसे परमेश्वर का वचन बाइबल भी सिखाता है, यदि विश्वासी पवित्र आत्मा से सीखने के लिए तैयार हो, तो। इस श्रृंखला में हम पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में पवित्र शास्त्र के भिन्न खण्डों से सीख रहे हैं, और वर्तमान में हम 1 कुरिन्थियों 2:12-14 पर विचार कर रहे हैं। हमने पद 12 और 13 देख लिए हैं, और पिछले लेख से हमने पद 14 पर विचार करना आरंभ किया है।

    पिछले लेख में हमने देखा था कि विश्वासी के जीवन में पवित्र आत्मा के प्रभावी और कार्यकारी होने के लिए, विश्वासी को अपने जीवन में से साँसारिक और शारीरिक बातों को बाहर निकालना है (1 पतरस 2:1)। जैसा कि इस पद 14 के पहले भाग में लिखा है, “परन्तु शारीरिक मनुष्य परमेश्वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे उस की दृष्टि में मूर्खता की बातें हैं;” शारीरिक मनुष्य ऐसा हर वह मनुष्य है जो सँसार की बातों और शारीरिक अभिलाषाओं के वश में रहता है – वह कोई उद्धार नहीं पाया हुआ जन हो सकता है; कोई ऐसा जन हो सकता है जो अपने आप को नया-जन्म पाया हुआ तो समझता है, किन्तु वास्तव में नया-जन्म पाया हुआ है नहीं, जैसे कि प्रेरितों 8 में शमौन टोन्हा करने वाला; या कोई नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी जो अभी भी साँसारिक और शारीरिक जीवन जी रहा है (1 कुरिन्थियों 3:1-3)। वे लोग जो साँसारिक और शारीरिक लालसाओं के नियंत्रण में रहते हैं, वे चाहे नया-जन्म पाए हुए हों अथवा न हों, वे अभी भी आत्मिक अन्धेपन में जी रहे हैं, “क्योंकि उनकी बुद्धि अन्‍धेरी हो गई है और उस अज्ञानता के कारण जो उन में है और उनके मन की कठोरता के कारण वे परमेश्वर के जीवन से अलग किए हुए हैं” (इफिसियों 4:18)। वे पवित्र आत्मा की कोई भी बात इसलिए स्वीकार नहीं करने पाते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में वे मूर्खता की बातें हैं; और ऐसा इसलिए है क्योंकि वे बातें उन्हें अपने आँकलन के अनुसार असंगत अथवा असंभव लगती है। उनका आँकलन गलत इसलिए है क्योंकि उनकी बुद्धि अँधेरी हो गई है, और उनके मन की कठोरता के कारण उनमें अज्ञानता है।

    उनकी दृष्टि में पवित्र आत्मा की बातें मूर्खता के बातें हैं, क्योंकि वे उन्हें समझ नहीं पाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके मन और बुद्धि सँसार और उनकी शारीरिक अभिलाषाओं के वश में हैं, इसीलिए वे बातों को अपने दृष्टिकोण से देखना और समझना चाहते हैं। लेकिन जैसा कि पद 14 की दूसरे भाग में लिखा है, पवित्र आत्मा की बातें आत्मिक रीति से पहचानी और समझीं जाती हैं, न कि मानवीय बुद्धि और साँसारिक समझ-बूझ के द्वारा। उदाहरण के लिए, क्रूस की कथा को लीजिए; पौलुस ने लिखा, “क्योंकि क्रूस की कथा नाश होने वालों के निकट मूर्खता है, परन्तु हम उद्धार पाने वालों के निकट परमेश्वर की सामर्थ्य है” (1कुरिन्थियों 1:18) – क्रूस का वह सन्देश तो एक ही है; किन्तु एक दृष्टिकोण रखने वालों के लिए वह मूर्खता है; और एक भिन्न दृष्टिकोण रखने वालों के लिए, वह परमेश्वर की सामर्थ्य है। इसी प्रकार से सुसमाचार के बारे में भी है, “क्योंकि मैं सुसमाचार से नहीं लजाता, इसलिये कि वह हर एक विश्वास करने वाले के लिये, पहिले तो यहूदी, फिर यूनानी के लिये उद्धार के निमित परमेश्वर की सामर्थ्य है” (रोमियों 1:16); जो सुसमाचार पर विश्वास करते हैं और उसे स्वीकार कर लेते हैं, वे अपने जीवनों में परमेश्वर की सामर्थ्य को अनुभव करते हैं, किन्तु जो यह नहीं करते हैं, वे नाश हो जाते हैं। थोड़ा विचार कीजिए, बाइबल में लिखा प्रत्येक आश्चर्यकर्म लोगों के लिए तब तक एक मूर्खता था, असंभव था, जब तक कि वह हो नहीं गया; और वह इसलिए हुआ क्योंकि कुछ लोगों ने परमेश्वर में विश्वास किया। सम्पूर्ण इब्रानियों 11 अध्याय उन लोगों के विश्वास की गवाही है जिन्होंने परमेश्वर पर भरोसा रखा, अपने विश्वास को प्रदर्शित किया, असंभव लगने वाली परिस्थितियों में भी, और परमेश्वर ने उनके लिए वह किया जो किसी के भी सोचने और समझने से कहीं बढ़कर था।

    आज भी पवित्र आत्मा इच्छुक है, प्रतीक्षा में है कि विश्वासी उसके पास भरोसा रखते हुए आएँ, अपने जीवनों से साँसारिक और शारीरिक बातों को निकाल देने के बाद, जिस से कि वह उनके जीवनों में अपने कार्य को आरंभ कर सके। जब हम सँसार से हट कर पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता में चलने के लिए तैयार होते हैं, तब वह हमेशा ही यह करने में हमारा सहायक और मार्गदर्शक होने के लिए तैयार रहता है। लेकिन जैसा कि पहले भी कहा गया है, वह हमारे स्थान पर कभी काम नहीं करता है, अर्थात, वह कभी हम से हमारी ज़िम्मेदारी को, उसको जो हमें करने के लिए सौंपा गया है, लेकर उसे स्वयं हमारे स्थान पर पूरा नहीं करेगा। वह कार्य करने के लिए बुद्धि, सामर्थ्य, और मार्गदर्शन प्रदान करता है, लेकिन यह विश्वासी का दायित्व है कि उसके कहे के अनुसार करे। हमारे जीवनों में कई प्रलोभनों और परीक्षाओं पर जयवंत होने के लिए, हमें मत्ती 5:30, 18:8-9 पर गंभीरता से विचार करना चाहिए, अर्थात, दृढ़ निश्चय होकर अपने जीवन से बहुत सी उन साँसारिक बातों को निकाल देना चाहिए जो हमें बारंबार ठोकर देने और परीक्षाओं में गिर जाने का कारण बनती हैं, चाहे यह करना हमें कितना भी कष्टदायक क्यों न लगे, वे बातें हमें कितनी भी आवश्यक क्यों न लगें। सही निर्णय करने में सहायता के लिए हमें उस कीमत के बारे में सोच लेना चाहिए जो हमें ऐसा नहीं करने के कारण बार-बार प्रलोभनों और पाप में पड़ते रहने के कारण चुकानी पड़ेगी – हमारी अनन्तकाल की आशीषों और प्रतिफलों की हानि, और साथ ही पृथ्वी पर ताड़ना सहना। जब हम विश्वास में पहला कदम उठाते हैं, तो पवित्र आत्मा हमारी अगुवाई करता हुआ हमें जीवन में आगे बढ़ाता है, और परमेश्वर उन चीजों से, जिन्हें हमें उसकी आज्ञाकारिता में छोड़ना पड़ा था, बेहतर तथा उपयोगी चीजें हमें देता है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 27

 

    As recipients of God given things, the Born-Again Christian Believers are accountable to God for all that He has given to them, and therefore must function as worthy stewards. God has given various provisions to every Believer for living their Christian lives, as well as fulfilling their God assigned Christian ministry. God the Holy Spirit has also been given to reside in every Believer from the moment of his salvation, as his Helper, Companion, Teacher, and Guide. The Holy Spirit teaches the Believers about his life and ministry, and also teaches him God’s Word the Bible, if he is willing to learn from the Holy Spirit. In this series we are learning about learning from the Holy Spirit from various Scriptural passages, and presently are considering 1 Corinthians 2:12-14. We have considered verses 12 and 13, and have started on verse 14 since the last article.

    In the last article we have seen that for the Holy Spirit to be effective and working in the Believer’s life, he must get rid of the worldly and carnal things (1 Peter 2:1). As is written in the first phrase of this 14th verse, “the natural man does not receive the things of the Spirit of God, for they are foolishness to him;” the “natural man” is anyone who is under the control of carnal desires and things of the world – he could be someone not yet saved; someone thinking that he is Born-Again, but is not actually Born-Again, as Simon the sorcerer in Acts 8; or a Born-Again Christian Believer who is still living a worldly and carnal life (1 Corinthians 3:1-3). Those who are controlled by the world and the carnal desires, whether Born-Again or not, are still in spiritual blindness, “having their understanding darkened, being alienated from the life of God, because of the ignorance that is in them, because of the blindness of their heart;” (Ephesians 4:18).  They are incapable of receiving the things of the Holy Spirit, for they are foolishness to them; this is because those things appear to be inconsistent and impossible to them, according to their own assessment. Their assessment is at fault because their understanding is darkened, and consequent to the blindness of their hearts, they are ignorant.

    The things of the Holy Spirit are foolishness to them, because they are unable to understand them. This is since their minds and hearts are under the control of the world, and their carnal desires, and they try to evaluate and know about things from that perspective. But as is written in the second half of the verse 14, the things of the Holy Spirit are discerned or understood spiritually, and not by human intellect and worldly wisdom. Take for example, the message of the Cross; Paul writes, “For the message of the cross is foolishness to those who are perishing, but to us who are being saved it is the power of God” (1 Corinthians 1:18) – that message of the Cross is the same, but for people having one point of view it is foolishness; but with those with another point of view, it is the power of God. Similarly, for the gospel, “For I am not ashamed of the gospel of Christ, for it is the power of God to salvation for everyone who believes, for the Jew first and also for the Greek” (Romans 1:16); those who believe in the gospel and accept it, they experience the power of God in their lives, but those who don’t do this, they perish. Think it over, every miracle recorded in the Bible was foolishness, was impossible to the people, till it happened; and it happened because of some people’s faith in God. The whole of Hebrews chapter 11 is a testimony of these people of faith who trusted God, exhibited their faith, even in seemingly impossible situations, and God did for them way beyond anyone could ever think or imagine.

    Even today, God the Holy Spirit is willing and waiting for the Believers to come to Him in faith, having removed the worldly and carnal things from their lives, so that He can start His work in them. When we are willing to step away from the world, and walk in obedience to the Holy Spirit, He is always there to help and guide us in doing it. But, as has been said earlier, He will never become our substitute, i.e., He will never take over from us and do for us what we are supposed to do in our lives. He provides the wisdom, the strength, the guidance, but it is for the Believers to act according to what He says. For overcoming many temptations in our lives, we need to pay serious heed to Matthew 5:30; 18:8-9, i.e., resolutely get rid of those worldly things in our lives that cause us to repeatedly stumble and fall into temptations, no matter how painful it may seem, no matter how necessary those things may seem to us. To help making the decision, consider the cost we will have to pay for not doing so, and therefore keep falling into temptations and sin – the loss of eternal blessings and rewards, as well as chastisement on earth. When we take the first step in faith, the Holy Spirit leads us on in our lives, and God provides for things far better and useful than the ones we give up in obedience to Him.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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