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आरम्भिक बातें – 85
न्याय के अन्तिम होने के निहितार्थ – 1
पिछले लेख में हमने देखा था कि सम्पूर्ण मानवजाति का, परमेश्वर द्वारा किया जाने वाला न्याय अवश्यम्भावी है, न्यायी प्रभु यीशु मसीह होगा, और न्याय परमेश्वर के वचन में लिखे हुए के अनुसार किया जाएगा, और इस वचन को सँसार के लोगों को दे दिया गया है; तथा इस न्याय में मनुष्यों के बनाए हुए किसी नियम, किसी व्यवस्था, किसी प्रथा, किसी शिक्षा आदि का कोई स्थान नहीं होगा, और न ही किसी भी मनुष्य की कोई भूमिका होगी। इस लिए, जो इस न्याय के समय सुरक्षित रहना चाहते हैं, अभी उन के पास समय और अवसर है कि वे परमेश्वर के वचन के अध्ययन और उस के पालन के द्वारा अपने आप को तैयार कर लें, और अपने जीवनों में जो भी सुधार करने हैं, परमेश्वर के वचन के अनुसार जीवन जीने के लिए जो भी ठीक करना है, वह कर लें; न कि मनुष्यों के प्रचार और शिक्षाओं को सीखें और उन का पालन करें। फिर हम ने पिछले लेख के समापन में इस बात की ओर ध्यान किया था कि इब्रानियों 6:1-2 की अन्तिम आरम्भिक बात “अन्तिम न्याय” है। अर्थात, परमेश्वर का वचन केवल न्याय नहीं वरन उस न्याय का अन्तिम – हमेशा के लिए और अपरिवर्तनीय होने की भी बात कहता है। साथ ही हम ने इस न्याय के विषय लोगों द्वारा मानी जाने वाली कुछ धारणाओं का भी उल्लेख किया था; धारणाएं जो झूठी हैं, बाइबल के अनुसार सही नहीं हैं, जिनकी बाइबल से कोई पुष्टि नहीं है, कोई आधार नहीं है।
इस अध्ययन का विषय अन्त समय की, और, उस से सम्बन्धित बातों की व्याख्या और विश्लेषण करना नहीं है। हमारा वर्तमान विषय है कि परमेश्वर के वचन से देखें कि बाइबल यही सिखाती है कि उस न्याय के परिणाम अनन्त काल के लिए होंगे, कभी नहीं बदलेंगे; उन में कभी कोई सुधार या परिवर्तन नहीं किया जाएगा, कभी भी नहीं। इस से सम्बन्धित बाइबल के कुछ पदों पर विचार कीजिए:
प्रभु यीशु मसीह ने लूका 16:19-31 में एक दृष्टान्त दिया है, जो धनी व्यक्ति तथा लाज़रस का दृष्टान्त कहा जाता है। इस दृष्टान्त में एक पद है जो हमारे विषय – न्याय अन्तिम, से सम्बन्धित है, “और इन सब बातों को छोड़ हमारे और तुम्हारे बीच एक भारी गड़हा ठहराया गया है कि जो यहां से उस पार तुम्हारे पास जाना चाहें, वे न जा सकें, और न कोई वहां से इस पार हमारे पास आ सके” (लूका 16:26)। प्रभु यीशु ने इस दृष्टान्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी के भी लिए यह सम्भव ही नहीं है कि एक से दूसरे स्थान को जा सके। मृत्यु के बाद व्यक्ति की आत्मा जिस भी स्थान में पहुँचती है, वह हमेशा के लिए वहीं रहती है; किसी भी परिस्थिति में स्थान बदला नहीं जा सकता है।
प्रभु यीशु द्वारा दिए गए एक अन्य दृष्टान्त में, एक राजा वापस लौट कर अपनी प्रजा के लोगों का हिसाब लेता है और उन्हें उन के कामों के अनुसार प्रतिफल देता है (मत्ती 25:31-46), प्रभु इस दृष्टान्त का अन्त इन शब्दों के साथ करता है, “और यह अनन्त दण्ड भोगेंगे परन्तु धर्मी अनन्त जीवन में प्रवेश करेंगे” (मत्ती 25:46)। प्रभु ने यह बिलकुल स्पष्ट कर दिया है कि दोनों ही प्रकार के लोगों की नियति अन्तिम और अनन्तकालीन है – जो दण्ड भोगेंगे, वे हमेशा दण्ड ही भोगते रहेंगे; और जो अनन्त जीवन को प्राप्त करेंगे, वे अनन्त काल तक अनन्त जीवन में ही बने रहेंगे।
पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में इस न्याय के विषय लिखा, “वे प्रभु के सामने से, और उसकी शक्ति के तेज से दूर हो कर अनन्त विनाश का दण्ड पाएंगे” (2 थिस्सलुनीकियों 1:9); और यह स्पष्ट कर दिया कि जो दण्ड पाने के योग्य हैं और दण्ड पाएँगे, वे प्रभु से दूर कर दिए जाएँगे और अनन्त विनाश में भेज दिए जाएँगे, और यह कोई अस्थाई या अन्तरिम स्थिति नहीं होगी, जिसे कुछ समय के बाद बदला जा सकेगा, वरन चिरस्थाई स्थिति होगी।
प्रेरित यूहन्ना ने, उसे प्रभु से मिले अन्त के समय के प्रकाशन में लिखा, “और उन का भरमाने वाला शैतान आग और गन्धक की उस झील में, जिस में वह पशु और झूठा भविष्यद्वक्ता भी होगा, डाल दिया जाएगा, और वे रात दिन युगानुयुग पीड़ा में तड़पते रहेंगे” (प्रकाशितवाक्य 20:10); और एक बार फिर से इस बात की पुष्टि की, कि न्याय अन्तिम और सदा काल के लिए ही है। जिन्हें पीड़ा के स्थान में भेजा जाता है, वे वहीं पर ही, पीड़ा में ही हमेशा-हमेशा के लिए रहेंगे। एक बार फिर से यहाँ कोई उल्लेख नहीं है कि न्याय की कभी कोई समीक्षा होगी अथवा उस में कोई परिवर्तन सम्भव है।
इसलिए किसी को भी ऐसी बातों का प्रचार करने और शिक्षाएं देने वालों के बहकावे में नहीं आना चाहिए कि, नरक नहीं है, पीड़ा का कोई स्थान नहीं है; या, दयालु और प्रेमी परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा, वह लोगों को हमेशा पीड़ा नहीं सहने देगा; या, उन के लिए लोगों के द्वारा पृथ्वी पर किए गए कुछ कार्यों के द्वारा, जो लोग पीड़ा के स्थान में हैं, उन्हें वहां से छुड़ाया और निकाला जा सकता है। ये सभी, और अन्य इन के समान गढ़ी हुई बातें शैतानी हैं, बाइबल से बाहर की बातें हैं। ऐसी झूठी और बाइबल के बाहर की शिक्षाओं पर विश्वास करने के लिए बहका कर, शैतान दो बातें करने का प्रयास करता है। पहली तो यह कि वह लोगों को ऐसा जीवन जीने के लिए उकसाता है जिस से वे उद्धार न पा सकें और नरक में चले जाएँ; वह उन्हें भरमाता है कि वे सँसार में पापमय जीवन का मज़ा लेते हुए जीवन जी सकते हैं, और स्वर्ग भी चले जाएँगे; और इस तरह से वह उन्हें सुसमाचार के पालन के विरुद्ध उकसाता है। दूसरी बात, शैतान परमेश्वर को झूठा और उस के वचन को अस्थिर तथा परिवर्तनीय दिखाने का प्रयास करता है, कि परमेश्वर कहता कुछ है और अन्ततः करता कुछ और है। इस तरह से शैतान न केवल परमेश्वर की, और परमेश्वर के वचन की, विश्वासयोग्यता को नष्ट करना चाहता है, बल्कि बाइबल से बाहर की तथा झूठी शिक्षाओं के प्रचार और प्रसार के द्वारा, जैसी कि हम देख चुके हैं अपनी बातों को स्थापित करना चाहता है; अर्थात, शैतान अपनी इच्छा और अपनी बात को परमेश्वर की इच्छा और वचन से ऊपर रखना चाहता है।
जो इन, और इस प्रकार की झूठी, शैतानी शिक्षाओं में फँस जाते हैं, उन्हें अन्त समय में जाकर बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, और वे कभी उन समस्याओं और उन के परिणामों से निकलने नहीं पाएँगे। अगले लेख में हम “अन्तिम न्याय” के निहितार्थों पर आगे विचार करना ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 85
The Implications of Judgment Being Eternal – 1
In the previous article we have seen that God’s judgment of all of mankind is inevitable, it will be carried out by the Lord Jesus Christ, the judgment will be according to what is written in God’s Word and this Word has been given to the people of the world; and no rules, regulations, practices, teachings, etc. of men, nor any man will have any role in this judgment. Therefore, those who want to be safe at the time of the judgment, presently while they have the time and opportunity, should prepare themselves by studying God’s Word, following it, and correcting whatever needs to be corrected in their lives in accordance with God’s Word; instead of learning the preaching and teachings of men and following them. Then, we concluded the last article by pointing out that the sixth elementary principle of Hebrews 6:1-2 is “eternal judgment.” That is to say that God’s Word not only speaks about the judgment but also that it is eternal – forever and unchanging. We had also mentioned some concepts that many people hold about this judgment; concepts that are unBiblical and false, having no affirmation or basis from the Bible.
It is not the subject or purpose of this study to go into the details of the end time events and related teachings and analyze them. The present purpose is to see from God’s Word that the Bible teaches that the results of the judgment will be final, everlasting, and unchanging; there will be no modification or alteration of the results, ever. Consider some verse from the Bible about this:
The Lord Jesus spoke a parable in Luke 16:19-31, known as the parable of the Rich man and Lazarus. There is a verse in this parable that is relevant to our topic – judgment being eternal, “And besides all this, between us and you there is a great gulf fixed, so that those who want to pass from here to you cannot, nor can those from there pass to us” (Luke 16:26). The Lord Jesus has made it quite clear in this parable that it is just not possible for people to pass from one place to the other. Wherever the soul of the person reaches after death, it stays there forever; there can be no change of place under any circumstances.
In another parable told by the Lord, about a King returning, taking an account from his subjects, and rewarding them according to their works (Matthew 25:31-46), the Lord concludes the parable with the words, “And these will go away into everlasting punishment, but the righteous into eternal life” (Matthew 25:46). The Lord has made it very clear that the fate of both kinds of people is everlasting and final – those who go into punishment, will be under punishment forever and ever; and those who are taken into eternal life, will also be there forever and ever.
Paul, under the inspiration of the Holy Spirit writes about the judgment, “These shall be punished with everlasting destruction from the presence of the Lord and from the glory of His power” (2 Thessalonians 1:9); again, making it clear that those who are deserving of punishment and are punished, will go away from the Lord and into everlasting destruction, which will not be a temporary or an interim state of punishment, that may be changed for some at a later time, but a permanent state.
The Apostle John, according to the revelation of the end times given to him by the Lord writes, “The devil, who deceived them, was cast into the lake of fire and brimstone where the beast and the false prophet are. And they will be tormented day and night forever and ever” (Revelation 20:10). Once again affirming that the judgment is eternal, and those who are sent to the place of torment, will be there, in torment, for ever and ever. Again, there is no mention of any possibility of a review of the judgment or of any change of status.
Therefore, no one should get misled by the preaching and teachings of those who say things like: there is no hell, no place of torment; or, the merciful and loving God will not do this, He will not let people suffer forever; or, through the acts and deeds done on their behalf by the people on earth, those in the place of suffering can be brought out and redeemed. All of these, and the other such concocted teachings are unBiblical and satanic. By misleading people into believing such people, through these and similar wrong, unBiblical teachings, Satan tries to accomplish two things. Firstly, he misleads people into living a life that will not let them be saved and send them to hell, by impressing upon them that they can enjoy the sinful pleasures of this world and yet get into heaven; and thereby tries to work against the gospel. Secondly, Satan tries to make God a liar, and show that God’s Word is fickle and unreliable, because God says one thing, but ultimately will do something else. Thereby, Satan attempts to not only destroy the credibility of God and God’s Word, but also to establish his word, through the unBiblical and false teachings of various kinds that we have already seen; i.e., Satan wants to see his will and word to be over and above the will and Word of God.
Those who fall for these and similar satanic lies, will, at the end be in a lot of problems and will never be able to come out of them and their consequences. In the next article we will continue to ponder over the implications of “Eternal Judgment.”
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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