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सोमवार, 30 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 206

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 51


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (26) 


भाग लेने के अभिप्राय (1)


पिछले कुछ लेखों में हम प्रभु भोज से संबंधित कुछ प्रश्नों को देखते आ रहे हैं, जिनके बारे में परमेश्वर के लोगों में असमंजस है। यह असमंजस, बल्कि ये प्रश्न ही, परमेश्वर के वचन के अनुरूप शिक्षाएं देने के स्थान पर, वचन को तोड़-मरोड़ कर डिनॉमिनेशन या मत की शिक्षाओं और व्याख्याओं के अनुरूप करने के प्रयासों के कारण उत्पन्न होते हैं। हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में से देखा है कि जब उन विषयों और प्रश्नों को बिना किसी भी डिनॉमिनेशन की बातों को आधार बनाए, यदि सीधे बाइबल से देखा जाए, तो उत्तर स्पष्ट और सीधे होते हैं। इन लेखों में इस बात पर भी बारंबार जोर दिया गया है कि प्रभु की मेज़ में भाग लेना कोई रीति नहीं है, इसे औपचारिकता निभाने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है। इस बात की पुष्टि हमारे आज के प्रश्न के उत्तर से भी हो जाएगी; हमारा प्रश्न है, क्या मसीही विश्वासी अपनी ही इच्छा के अनुसार जीवन जी सकता है; या प्रभु भोज में भाग लेना उस पर, उसके जीवन तथा व्यवहार के विषय कुछ ज़िम्मेदारी लाता है?


उत्तर के लिए हम परमेश्वर के वचन बाइबल में से 1 कुरिन्थियों 10:16-22 को लेंगे। परमेश्वर के वचन के इस खण्ड में, पौलुस, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, कुछ ऐसी बातों की ओर संकेत कर रहा है, जो बहुत बुनियादी और महत्वपूर्ण हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, इन बातों को कलीसियाओं में शायद ही कभी सिखाया जाता है या उनपर ज़ोर दिया जाता है, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों की मण्डलियों में भी। पौलुस यह भी दिखाता है कि वह जिस बात को कह रहा है वह कोई नई शिक्षा या सिद्धांत नहीं हैं, वरन पुराने नियम की उपासना में भी वे देखने को मिलती हैं। यहाँ, इस खण्ड में, पौलुस दो महत्वपूर्ण और बुनियादी बातों के बारे में बात करता है - पहली, भाग लेने के अभिप्राय, और दूसरी, भाग लेने वाले की ज़िम्मेदारी; और हम इन दोनों को ही आने वाले लेखों में देखेंगे। यहाँ पर दो अभिप्रायों का उल्लेख किया गया है - प्रभु के साथ संगति या सहभागिता का जीवन जीना, और भाग लेने वालों के मध्य एकता होना; जबकि ज़िम्मेदारी है संसार से अलगाव का जीवन जीना।

 

यहाँ, 1 कुरिन्थियों 10:16 में स्पष्ट लिखा है कि कटोरे और रोटी में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाला मसीह के लहू और देह की सहभागिता में आ जाता है, अपने आप को उनसे जोड़ लेता है। इस सृष्टि का सृष्टिकर्ता तथा पालनहार, मसीही विश्वासी को विशेषाधिकार प्रदान करता है कि वह प्रभु के साथ संगति रखे, उसके साथ सहभागी हो; यह ऐसा विशेषाधिकार है जो उसने अपने आज्ञाकारी स्‍वर्गदूतों को भी प्रदान नहीं किया है। इसलिए, भाग लेने वाले के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह ऐसा जीवन व्यतीत न करे, ऐसा व्यवहार रखे जिससे प्रभु की गरिमा और प्रतिष्ठा पर आंच न आए, या कोई प्रभु पर उँगली न उठाने पाए। प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाले इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे प्रभु यीशु के साथ एक घनिष्ठ संबंध रखते हैं, वैसा जैसा कि प्रभु ने अपने क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले, यूहन्ना 17:21-23 में अपनी प्रार्थना में कहा था।


प्रभु परमेश्वर के साथ इतनी घनिष्ठ संगति, स्वतः ही एक ज़िम्मेदारी, एक विशेष संयम और व्यवहार के साथ जीए गए जीवन की माँग करती है। इसीलिए पौलुस 2 कुरिन्थियों 5:15, 17 में कहता है कि जो लोग प्रभु यीशु के हो गए हैं, उनसे यह आशा रखी जाती है कि वे अब अपने लिए नहीं, परन्तु प्रभु के लिए जीवन व्यतीत करेंगे, और यह जानते तथा समझते हुए कि प्रभु ने उन्हें एक नई सृष्टि बना दिया है वे फिर लौटकर अपने पुराने जीवन और व्यवहार में नहीं जाएंगे। प्रभु भोज में भाग लेते समय, प्रत्येक भाग लेने वाला इस प्रतिबद्धता को दोहराता है और फिर से इसकी पुष्टि करता है कि वह उसे प्रदान किए गए इस विशेषाधिकार के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करेगा। जब वह भाग लेते समय प्रभु को याद करता है (1 कुरिन्थियों 11:24-25), साथ ही वह इस बात को भी याद करता है कि अब वह प्रभु परमेश्वर के साथ संगति और सहभागिता में है, और उसे अपने जीवन से सदा ही इस तथ्य को दिखाना है। जबकि रीति या औपचारिकता निभाने के लिए बिना किसी प्रतिबद्धता के प्रभु की मेज़ में भाग लेना, इस प्रकार से भाग लेने वालों को कभी भी इस अभिप्राय को याद नहीं दिलाएगा। लेकिन जिन्हें अपनी ज़िम्मेदारी और उनसे जो आशा की गई है उसका एहसास है और मेज़ में योग्य रीति से भाग लेते हैं, वे हमेशा ही यह प्रयास करते रहेंगे कि उनके जीवन से प्रभु द्वारा उन्हें प्रदान किए गए विशेषाधिकार का आदर ही हो।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 51


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (26)

Implications of Participation (1)

 

In the past few articles, we have been considering some questions related to the Holy Communion about which there are confusions among God’s people. The confusions, and even the questions themselves, are because of the common tendency of twisting God’ Word, so as to make it fit into different denominational teachings and interpretations, rather than correct those teachings and interpretations and bring them in line with God’s Word. We have seen from God’s Word the Bible, that when those issues and questions are seen directly from God’s Word, without any denominational bias or considerations, the answers are straightforward and clear. It has also been repeatedly emphasized in these articles that participation in the Lord’s Table is not a ritual, is not to be done perfunctorily. This will be affirmed further by the answer to our today’s question - Can a Christian Believer live his own life; or, does the Holy Communion place some responsibility on him about living his life and his behavior?


For the answer, let us turn to 1 Corinthians 10:16-22 from God’s Word the Bible. In this part of God’s Word, Paul, under the guidance of the Holy Spirit, is pointing out some things related to the Lord’s Table that are very important and fundamental. But unfortunately, these aspects are hardly ever, if at all, stated, emphasized, or taught about in the Churches, even in the gatherings of the Born-Again Christian Believers. Paul also points out that what he is saying are not some new teachings or doctrines, but ones that are seen even in the Old Testament worship. Here, in this section, Paul is talking about two fundamental and important things - firstly, the implications of the partaking, and secondly, the responsibility that the participant has; and we will be considering them in this and subsequent articles. There are two implications stated here - living a life of communion or fellowship with the Lord, and of unity amongst the participants; while the responsibility is of living a life of separation from the world.


In 1 Corinthians 10:16 it is clearly stated that by partaking of the cup and bread of the Holy Communion, the partaker is coming into communion or fellowship with the blood and body of Christ, i.e., joins himself to them. The Creator and Sustainer of the universe accords the Christian Believers the privilege of fellowshipping with Him, communing with Him; a privilege He has not accorded to even His obedient angels. Therefore, it is incumbent upon the participant that he should not be living and behaving in any such manner that will dishonor the reputation of the Lord and cause others to cast aspersions upon Him through the Believer’s life and living. Through participation in the Holy Communion the participants affirm their being in, and living in close fellowship with the Lord Jesus, as the Lord Jesus had said in His prayer before being caught for crucifixion, in John 17:21-23.


This privilege of such close communion with the Lord God, does require a certain decency and responsibility. For this reason, Paul says in 2 Corinthians 5:15,17 that those who have become people of the Lord Jesus are expected to no longer live for themselves but for the Lord, knowing that the Lord has made them into a new creation; they are not to revert back to their old life and behavior. The participant in the Holy Communion, renews and affirms his commitment to live in accordance with this privilege that has been granted to Him, every time he participates. As he remembers the Lord (1 Corinthians 11:24-25), he is also to remember that he is now in communion with the Lord God, and has to always demonstrate this through his life. While a ritualistic, non-committal participation will never make the participants realize this implication; those who realize what is expected of them and participate worthily, will also strive to live a life that honors the privilege granted by the Lord to them.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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रविवार, 29 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 205

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 50


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (25) 


मसीही विश्वास में आने के कितने समय के बाद? (2)   


पिछले लेख में हमने देखा है कि बाइबल के अनुसार न तो ऐसा कोई निर्देश है, और न ही कोई उदाहरण है कि किसी नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी से किसी भी आधार पर, प्रभु की मेज़ में भाग लेने से रुके रहने के लिए कहा गया हो। लेकिन फिर भी कुछ कलीसियाओं में यह “प्रतीक्षा की अवधि” देखने को मिलती है। साथ ही डिनॉमिनेशनल कलीसियाओं में इसका एक संशोधित रूप भी देखने को मिलता है, जहाँ किशोरों को प्रभु भोज में भाग लेने की अनुमति तब ही मिलती है जब उनका “दृढ़ीकरण” हो जाता है। जब तक उनका यह “दृढ़ीकरण” नहीं हो जाता है, कलीसिया के किशोरों को न तो प्रभु भोज की अनुमति होती है, और न ही उन्हें दिया जाता है। यद्यपि परमेश्वर के वचन बाइबल में इस पारंपरिक रीति, “दृढ़ीकरण” और उसकी अनिवार्यता या आवश्यकता का कोई उल्लेख नहीं है; यह पूर्णतः मनुष्यों के द्वारा बनाई गई रीति है जिसे मण्डली पर थोप दिया गया है, उनके लिए अनिवार्य बना दिया गया है।


किसी न किसी रूप में इस “प्रतीक्षा अवधि” के लागू किए जाने का मुख्य कारण है, धार्मिक अगुवों के द्वारा प्रभु भोज के लेने को बपतिस्मे के साथ जोड़ देना। यद्यपि यह बाइबल के अनुसार तो नहीं है, किन्तु मसीहियत की पारंपरिक समझ यही है कि उद्धार तथा मसीही कहलाए जाने के लिए बपतिस्मा अनिवार्य है। हम आज बाइबल से इस विवादास्पद धारणा और इसके औचित्य के बारे में कोई चर्चा नहीं करेंगे; क्योंकि इसके बारे में हम बपतिस्मे से सम्बन्धित पहले के लेखों में देख चुके हैं। प्रभु भोज के बारे में इस धारणा के पीछे का तर्क यह है कि क्योंकि प्रभु भोज में केवल ईसाई या मसीही ही भाग ले सकते हैं, और क्योंकि जिसका बपतिस्मा नहीं हुआ है वह मसीही नहीं है, कम से कम पूर्ण रीति से तो नहीं, इसलिए उसे प्रभु भोज में भाग लेने की अनुमति नहीं है। पारंपरिक और डिनॉमिनेशनल कलीसियाओं में, जहाँ बाइबल के विपरीत, शिशुओं को “बपतिस्मा” देने का प्रचलन है, उनकी धारणाओं और मान्यताओं के अनुसार “दृढ़ीकरण” की रीति का पालन, व्यक्ति के “मसीही” हो जाने की प्रक्रिया को पूरा कर देता है; इसलिए “दृढ़ीकरण” के बाद वह जन प्रभु भोज में भाग ले सकता है। लेकिन यहाँ पर एक प्रश्न है, हमने पिछले लेखों में सुसमाचारों में से प्रभु यीशु द्वारा प्रभु भोज को स्थापित करने तथा उसके बाद 1 कुरिन्थियों 17-34 से व्यक्ति को अपने आप को जाँचने और उचित रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लेने के बारे में सीखा है; बाइबल की उन बातों पर ये लोग कितना ध्यान देते हैं, उनका पालन करने के लिए कितने इच्छुक होते हैं? क्या किसी ने कभी विचार किया और प्रश्न उठाया है कि मनुष्यों की बनाई हुई रीति, परमेश्वर के निर्देशों और वचन से अधिक महत्वपूर्ण क्यों और कैसे हो गई? क्या परमेश्वर के वचन और निर्देशों की अवहेलना करके, मनुष्यों द्वारा बनाई रीतियों का पालन करने की अनिवार्यता को थोपना बुद्धिमत्ता की बात है? क्या यह परमेश्वर के वचन और निर्देशों का ठट्ठा उड़ाना नहीं है कि एक सच्चे और खरे नए विश्वासी को प्रभु भोज लेने से रोक दिया जाए क्योंकि उसे अभी बपतिस्मा नहीं मिला है; लेकिन उसी सभा में एक ऐसे व्यक्ति को जो अधर्मी जीवन जी रहा है प्रभु भोज दे दिया जाए, क्योंकि उसने उस डिनॉमिनेशन या जिस कलीसिया का वह सदस्य है, उसकी रीतियों और परंपराओं का निर्वाह किया है?


नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों की कुछ कलीसियाओं और मण्डलियों में भी यह “प्रतीक्षा अवधि” देखने को मिलती है। एक बार फिर से, इसीलिए, क्योंकि प्रभु की मेज़ में भाग लेने को बपतिस्मे के साथ जोड़ दिया गया, और प्रभु भोज में भाग लेने के लिए पहले बपतिस्मा होना अनिवार्य कर दिया गया। देखा जाए तो सामान्यतः, एक बार फिर, मनुष्यों की बनाई रीति के अनुसार, व्यक्ति के मसीह यीशु में विश्वास लाने के साथ ही बपतिस्मा नहीं दिया जाता है, जबकि बाइबल से इस परंपरा का कोई समर्थन, कोई आधार नहीं है। वरन, उस व्यक्ति को निरीक्षण में रख दिया जाता है, और जब कलीसिया या मण्डली के अगुवे संतुष्ट हो जाते हैं, तब वे उसे बपतिस्मा लेकर प्रभु भोज में भाग ले लेने देते हैं। प्रभु भोज में भाग लेने को बपतिस्मे के साथ जोड़ने के लिए बहुधा प्रेरितों 2:41-42 का हवाला दिया जाता है, जहाँ लिखा गया है कि जिन भक्त यहूदियों ने प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास किया, उनके लिए पद 41 में पहले लिखा गया है कि उन्होंने बपतिस्मा लिया, फिर उसके बाद पद 42 में लिखा गया है कि वे मसीही विश्वास के चार स्तम्भ, जिनमें से एक है रोटी तोड़ना, अर्थात प्रभु भोज, के निर्वाह में लौलीन रहे।


लेकिन जो लोग इस लिखे गए क्रम के आधार पर यह करने का तर्क देते हैं, वे इस तथ्य की भी अनदेखी करते हैं कि बाइबल में इसके अतिरिक्त कहीं भी बपतिस्मे और रोटी तोड़ने या प्रभु भोज में भाग लेने को एक साथ नहीं दिखाया गया है। कभी किसी मसीही विश्वासी से यह नहीं कहा गया कि अब क्योंकि उसने बपतिस्मा ले लिया है इसलिए वह प्रभु भोज में भी भाग ले सकता है। और, न ही कभी किसी से यह पूछा गया कि उसने बपतिस्मा लिए बिना मेज़ में भाग क्यों ले लिया; और न ही किसी से यह पूछा गया कि जब उनका बपतिस्मा हो चुका है, तो फिर वो प्रभु की मेज़ में भाग क्यों नहीं ले रहे हैं? बाइबल के खण्ड, जैसे के रोमियों 6:3-5, इफिसियों 4:4-16, और इब्रानियों 6:1-2, जिन्हें बपतिस्मे के बारे में शिक्षा देने के लिए बहुधा उपयोग किया जाता है, इनमें भी बपतिस्मे और प्रभु भोज में कही कोई संबंध नहीं दिखाया गया है।

 

साथ ही, यदि प्रेरितों 2:41-42 में लिखी बातों का क्रम इतना महत्वपूर्ण है कि उसके आधार पर एक धर्म-सिद्धांत बनाया और पालन करवाया जा सकता है, तो फिर यह क्रम यहाँ लिखी सभी बातों पर एक समान लागू होना चाहिए। इसलिए, तब तो, जब तक कि एक मसीही विश्वासी का बपतिस्मा न हो जाए, उसे न तो बाइबल अध्ययन में, न संगति रखने, और न प्रार्थना में भाग लेने देना चाहिए, क्योंकि इन सभी का उल्लेख भी बपतिस्मे के बाद ही हुआ है। तो फिर क्यों, उन कलीसियाओं या मंडलियों में, जिनमें प्रभु की मेज़ में भाग लेने को बपतिस्मे के साथ जोड़कर प्रतीक्षा करवाई जाती है, नए विश्वासियों को प्रार्थना करने, संगति में आने और बाइबल अध्ययन के लिए कहा तथा प्रोत्साहित किया जाता है? क्या ऐसा करने के द्वारा वे अपने ही तर्क और अपनी ही गढ़ी हुई धारणा के अनुसार बनाए हुए धर्म-सिद्धांत को काट नहीं रहे हैं?


बात का सीधा सा तथ्य और आधार यही है कि बपतिस्मा लेने को, तथा मसीही विश्वास के चारों स्तम्भ - इन सभी को, नया जन्म पाए हुए विश्वासी के मसीही जीवन का आरम्भ से ही एक अभिन्न अंग होना ही है। जैसा कि प्रेरितों 2:42 में लिखा हुआ है, मसीही विश्वासियों को इनमें “लौलीन” रहना है, निरंतर और पूरी निष्ठा के साथ इनमें भाग लेते रहना है। कलीसिया तथा विश्वासियों के अगुवों को परमेश्वर के वचन को सिखाने और प्रचार करने की ज़िम्मेदारी तो दी गई है, परन्तु उन्हें परमेश्वर के वचन और निर्देशों में संशोधन करने, या उसमें अपनी ही धारणाओं और बातों को घुसा देने का अधिकार नहीं दिया गया है। बाइबल इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट है कि यदि किसी व्यक्ति ने पापों से पश्चाताप किया है, प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता और प्रभु ग्रहण किया है, प्रभु से पापों की क्षमा माँगी है और प्राप्त की है, तो वह परमेश्वर की संतान है, प्रभु यीशु की कलीसिया का सदस्य है, प्रभु यीशु मसीह का शिष्य है; और प्रभु यीशु मसीह में उसके विश्वास के चिह्न और प्रकटीकरण के रूप में, उसे प्रभु भोज में भाग लेने का अधिकार है।


अगले लेख से हम मेज़ में भाग लेने से सम्बन्धित कुछ और व्यावहारिक बातों को देखना आरम्भ करेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 50


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (25)


How Soon After Coming To Faith? (2)

 

In the previous article we have seen that Biblically, there is no instruction or example of any Born-Again Christian Believer being asked to wait for any period of time before partaking in the Lord’s Table, for any reason. But still, this “waiting period” is seen amongst some Churches. Also, it is seen in a modified form in the denominational Churches, where participation in the Holy Communion is permitted only after the youth have received their “Confirmation.” Without receiving this “Confirmation” the youth is neither permitted, nor administered the Holy Communion. Although, in God’s Word the Bible, there is no mention of this traditional ritual of “Confirmation” and its necessity; it is a purely man-made ritual that has been imposed upon the congregation, and made mandatory for them.


The main reason for this “waiting period”, in one form or the other, is because partaking of the Lord’s Table has been linked by the religious leaders to baptism. Although not Biblical, but according to the traditional and denominational understanding of Christianity, baptism is essential for salvation and for being considered a “Christian”. We are not going to be discussing the Biblical standing and validity of this contention today; since it has already been considered in the earlier articles related to Baptism. The logic is that since only “Christians” are to partake of the Lord’s Table, therefore, since the one who is not baptized, is not a Christian, at least not a ‘full-fledged one’, therefore, he is not to be allowed to participate in the Holy Communion. In the traditional and denominational Churches, according to their beliefs and understanding, after the unBiblical infant baptism, fulfilling the ritual of “Confirmation” completes this process of the person becoming a “Christian”, therefore, after “Confirmation”, one can participate in the Holy Communion. But then a moot point is, how much importance do they give to what we have seen and learnt from the Gospel accounts about Lord’s establishing the Holy Communion, and to the necessity of a person examining himself and then participating worthily as we have previously seen in our study from 1 Corinthians 17-34? Does anybody bother to ponder and question, why a man-made tradition is made more important and essential than God’s instructions and Word? Is it at all prudent to disregard God’s Word and instructions, but insist that man-made traditions be followed? Is it not a mockery of God’s Word and instructions that a sincere new Christian Believer might be denied the Holy Communion, since he is not yet baptized; but in that very Communion service the Holy Communion will be given to a person who is known to be living an ungodly life, simply because he has fulfilled the prescribed rituals of his denomination or the Church he attends?


Even in some of the Churches and Assemblies of the Born-Again Believers, this “waiting period” is seen. Again, because partaking in the Lord’s Table has been associated with baptism, and baptism has been made the precondition to taking part in the Holy Communion. Usually, again as a man-made tradition without any Biblical support for it, baptism is not given immediately after a person comes to faith in the Lord Jesus. But the person is asked to wait, he is put under observation, and after the religious elders of the Church or Assembly are satisfied, they allow the person to be baptized, and then to participate in the Holy Communion. The association of baptism and partaking in the Lord’s Table is often justified on the basis of Acts 2:41-42, where it is first written in verse 41 that the devout Jews who accepted the Lord Jesus as their savior, were baptized, and after that it is written in verse 42 that they continued steadfastly in the Four Pillars of Christian Faith, one of which is Breaking of Bread, i.e., participating in the Holy Communion.


But those who use this sequence of recording of events fail to note that nowhere else in the Bible has baptism ever been in any manner mentioned along with the Breaking of Bread, i.e., participating in the Holy Communion. Nowhere was it ever stated by anyone to any of the new Believers that having been baptized, they can now partake of the Lord’s Table. Neither was any Christian Believer ever questioned why he took part in the Table without having been baptized; nor was anyone questioned why they did not participate, although they had been baptized. Even in passages such as Romans 6:3-5, Ephesians 4:4-6, and Hebrews 6:1-2, which are often used to teach about baptism, has any association between baptism and Holy Communion been given.

 

Moreover, if the sequence of mentioning various related events in Acts 2:41-42, so very important that a doctrinal stand can be built upon it, then it should be equally relevant for the other things mentioned there as well. Therefore, in that case, until a Christian Believer is baptized, he should not be permitted to participate in Bible studies, in gathering for fellowship with other Believers, and saying prayers either, since all of them are mentioned after baptism. Why then, even in those Churches and Assemblies which impose the association of baptism with participation in the Lord’s Table, are the new Believers encouraged to pray, study the Bible and come for fellowship, while they wait to be baptized and be allowed to take the Holy Communion? By doing this are they not contradicting their own logic and their contrived doctrinal stand?


The basic fact of the matter is that baptism and the Four Pillars of Christian Faith are all meant to be an integral part, from the very beginning of a Born-Again Christian Believer’s life. As it says in Acts 2:42, the Christian Believers are to “continue steadfastly”, unceasingly and diligently in them. The Church elders and religious leaders are to preach and teach God’s Word, but they have not been given the authority or responsibility of changing God’s Word, or substituting it with their own fanciful logic and modifications. The Bible is very clear, if a person has repented of sins, accepted Jesus as his Lord and savior, asked for and received the forgiveness of sins from the Lord, then he is a child of God, is a member of the Church of the Lord Jesus, is a disciple of the Lord Jesus; and as an expression of his Faith in the Lord Jesus, he has the right to participate in the Holy Communion.


From the next article we will consider some other practical applications of participating in the Lord's Table.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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शनिवार, 28 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 204

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 49


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (24) 

मसीही विश्वास में आने के कितने समय के बाद? (1)   


प्रभु की मेज़ में भाग लेने से संबंधित प्रश्नों के बारे में देखते हुए, हम देख चुके हैं कि कितनी समय-अवधि में यह करना चाहिए - यदि और अधिक नहीं तो कम से कम सप्ताह में एक बार तो हो; और यह भी देखा है कि बाइबल के अनुसार इस आम धारणा का कोई समर्थन नहीं है कि इसे केवल एक विधिवत निर्धारित पादरी ही दे सकता है - कोई भी नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी, प्रभु यीशु का प्रतिबद्ध अनुयायी यह कर सकता है। एक अन्य प्रश्न जो अकसर उठता है, विश्वास में आने के कितने समय के बाद मसीही विश्वासी प्रभु भोज में भाग ले सकता है? एक बार फिर, परमेश्वर का वचन बाइबल इसके बारे में बिल्कुल स्पष्ट है, और जो भी उसे पढ़ते और अध्ययन करते हैं, उन्हें उत्तर के विषय में कोई असमंजस नहीं होता है। किन्तु डिनॉमिनेशंस के विधि-विधानों के कारण, क्योंकि मनुष्यों ने अपनी बुद्धि से नियम बनाकर उन्हें परमेश्वर के वचन पर पालन करने के लिए थोप दिया है, बजाए इसके कि परमेश्वर द्वारा दी गई बातों और निर्देशों का पालन करें; इसीलिए भिन्न डिनॉमिनेशंस, समुदायों, और गुटों के विधि-विधानों का पालन करने वालों में भिन्नताएँ और असमंजस आ गए हैं।


हम वापस पतरस के पहले प्रचार पर जाते हैं, जो उसने पवित्र आत्मा से भरने के बाद पिन्तेकुस्त के दिन किया था, और उसके प्रचार के फलस्वरूप जो हुआ, उसे देखते हैं। पतरस का यह संदेश उन “भक्त यहूदियों” (प्रेरितों 2:5) को संबोधित था, जो यरूशलेम में व्यवस्था के अनुसार पर्व मनाने के लिए एकत्रित हुए थे। जब वह उनसे पवित्र शास्त्र के आधार पर बात कर रहा था, तो उन भक्त यहूदियों के “हृदय छिद गए” और वे पतरस से पूछने लगे कि उन्हें क्या करना चाहिए (2:37)। क्योंकि अब उन्हें यह प्रकट था कि उनके धर्म, धार्मिकता के निर्वाह, व्यवस्था का पालन करने और पर्व मनाने के द्वारा वे प्रभु परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हुए थे, उन्होंने उद्धार नहीं पाया था। पतरस उनसे पापों के लिए पश्चाताप करके बपतिस्मा लेने के लिए कहता है, ताकि वे संसार के सभी लोगों के लिए की गई परमेश्वर की प्रतिज्ञा के भागी हो सकें (2:38-40)। अब इससे आगे की बात को प्रेरितों 2:41-42 से देखते हैं, “सो जिन्होंने उसका वचन ग्रहण किया उन्होंने बपतिस्मा लिया; और उसी दिन तीन हजार मनुष्यों के लगभग उन में मिल गए। और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने, और संगति रखने में और रोटी तोड़ने में और प्रार्थना करने में लौलीन रहे।”


यहाँ पर उन भक्त यहूदियों ने पतरस द्वारा बताए गए समाधान को जब सुना, और “उसी दिन” उन्होंने जो प्रतिक्रिया दी तथा उन्हें जो प्रतिक्रिया मिली, उसके बारे में कोई असमंजस नहीं है। हमारे स्पष्ट समझने के लिए, इन दो पदों में लिखी इन प्रतिक्रियाओं को, सूचीबद्ध कर लेते हैं:

  • जिन्होंने पतरस के वचन को ग्रहण किया, उन्होंने बपतिस्मा लिया - विश्वास करने के तुरन्त बाद, यहाँ कोई उल्लेख नहीं है कि उनके विश्वास की पुष्टि करने और विश्वास में परिपक्वता के स्तर का आँकलन करने के लिए कुछ समय प्रतीक्षा करवाई गई। 

  • जिन्होंने विश्वास किया था, वे “उनमें,” अर्थात प्रभु के शिष्यों में मिल गए - उन्हें तुरन्त ही मसीही विश्वासियों में सम्मिलित कर लिया गया, और वे उस समूह का भाग बन गए। 

  • ये नए विश्वासी, मसीही विश्वासियों के समूह में सम्मिलित होने के साथ ही, मसीही विश्वास के चार स्तम्भ, अर्थात प्रेरितों से शिक्षा पाने, संगति रखने, रोटी तोड़ने अर्थात प्रभु भोज में सम्मिलित होने, और प्रार्थना करने में सम्मिलित होने लगे, लौलीन रहने लगे। 


इसकी पुष्टि 2:46-47 से भी हो जाती है, जहाँ लिखा है कि जितनों को प्रभु प्रतिदिन उनके साथ जोड़ देता था, वे भी प्रेरितों 2:42 में उल्लेखित मसीही विश्वास के चार स्तम्भ में भाग लेने लगे, बिना उन पर किसी भी कारण के, अथवा तर्क के अनुसार, कोई प्रतीक्षा की अवधि लागू किए हुए।


एक बार फिर से पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस द्वारा 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में लिखे गए प्रभु भोज से संबंधित गलतियों को सुधारने के खण्ड पर ध्यान कीजिए। जैसे हमने पिछले लेख में भी इस खण्ड से प्रभु भोज देने के लिए विधिवत निर्धारित पादरी की तथाकथित आवश्यकता के बारे में देखा था, उसी प्रकार से अब ध्यान कीजिए कि क्या यहाँ पर किसी के मसीही विश्वास में होने की किसी अवधि का, किसी भी संदर्भ में, कोई भी उल्लेख है? कदापि नहीं! यहाँ इस प्रकार की किसी बात का न तो उल्लेख है और न ही ऐसा कोई अभिप्राय दिया गया है। उस कलीसिया की गलतियों और उनके विश्वास के जीवन की गंभीर स्थिति के लिए नए मसीही विश्वासियों को ज़िम्मेदार ठहराना बहुत सहज और तर्कपूर्ण होता। किन्तु पवित्र आत्मा पौलुस से ऐसा कुछ नहीं लिखवाता है, और न ही ऐसा कोई संकेत अथवा तात्पर्य भी देता है। न तो यहाँ, कोरिन्थ की मण्डली को लिखी गई इस पत्री में, और न ही किसी अन्य पत्री में या कहीं और, कभी भी यह कहा गया है कि क्योंकि नए मसीही विश्वासियों को ‘पूर्ण-सदस्यता’ के अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ सौंप दी गईं थीं, जैसी कि अन्य परिपक्व और वरीयता प्राप्त मसीहियों की थीं, इसलिए मसीही विश्वास और संस्कारों से संबंधित अपनी अपरिपक्वता के कारण उन्होंने मण्डली में समस्याएं खड़ी कर दीं।

 

इसलिए, हम निःसंकोच यह निष्कर्ष ले सकते हैं कि नए मसीही विश्वासी के प्रभु भोज में भाग लेने के बारे में किसी को भी, कोई भी गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। जिस पल से वह अपने पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करता है, उसी पल से प्रत्येक व्यक्ति प्रभु की कलीसिया का सदस्य, परमेश्वर के परिवार का अंग हो जाता है; और उसके भी वही अधिकार और ज़िम्मेदारियाँ होती हैं, जो कलीसिया में तथा परमेश्वर के परिवार में किसी भी अन्य सदस्य की होती हैं। एक नए विश्वासी के लिए जो बात मना की गई है वह है कलीसिया का ‘अध्यक्ष’ होना (1 तिमुथियुस 3:6) - ‘अध्यक्ष या बिशप’ वैसा नहीं जैसा आज हम देखते और समझते हैं, परन्तु उस अभिप्राय से जैसा पौलुस द्वारा लिखे जाने के समय उसका होता था - किसी स्थानीय कलीसिया के कार्यों की देखभाल और प्रबंधन करने वाला उस कलीसिया का सदस्य। इसलिए, यह प्रकट है कि परमेश्वर का वचन किसी के लिए भी अपने विश्वास में आने के बाद अपने विश्वास और परमेश्वर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करने के लिए, प्रभु भोज में भाग लेने योग्य होने के लिए, किसी भी समय-अवधि, या प्रतीक्षा करने के लिए नहीं कहता है। 


अगले लेख में हम देखेंगे कि यह असमंजस कलीसियाओं में क्यों आ गया।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 49


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (24)

How Soon After Coming To Faith? (1)

 

In considering the questions associated with participating in the Lord’s Table, we have already seen about the frequency of doing so - should be at least once a week, if not more frequently; and, that Biblically there is nothing to support the common belief that it can only be administered by an ordained Pastor - it can be administered by any Born-Again Christian Believer, a committed disciple of the Lord Jesus. Another question that often comes up is, how soon after coming to faith can the Christian Believer participate in the Holy Communion? Again, God’s Word the Bible is very clear about it, leaving those who read and study it, in no doubt about the answer. But because of the denominational rules and regulations made by men in their own wisdom, then superimposed upon God’s Word and made mandatory; and instead of following what God has given and instructed, confusion and variations have come up amongst the followers of denominations, sects, and groups.


Let us go back to Peter’s first preaching after being empowered by the Holy Spirit on the day of Pentecost, and what happened in response to his message. Peter had addressed the “devout Jews” (Acts 2:5), who had gathered in Jerusalem to observe the Feasts prescribed by the Law. As he spoke to them from the Scriptures, these devout Jews were “cut to the heart” and asked Peter what should they do (2:37)? Since it was apparent to them that their religion, religiosity, observance of the Law, and keeping of the Feasts had not made them acceptable to the Lord God, had not saved them. Peter asks them to repent of their sins and be baptized to receive the promise of God, which was made for everyone all over the world (2:38-40). Now, let us look at Acts 2:41-42 “Then those who gladly received his word were baptized; and that day about three thousand souls were added to them. And they continued steadfastly in the apostles' doctrine and fellowship, in the breaking of bread, and in prayers.


There is no confusion here, about what happened when the devout Jews heard Peter’s solution to their predicament. The Biblical text is very clear, and quite unambiguous in these verses 41 & 42, about the response of, and, towards those Jews, “on that very day”. For our clarity, let us outline the responses, from these two verses:

  • Those who received Peter’s word, were baptized - immediately after believing, no waiting for ascertaining and confirming the status of the certainty or maturity of their faith is mentioned here.

  • Those who had believed were “added to them”, i.e., to the Lord’s disciples - they immediately were accepted and became a part of the group of the disciples of the Lord Jesus.

  • These new disciples, immediately after being assimilated into the group of followers of the Lord Jesus, also began to steadfastly continue in the Four Pillars of Christian Faith, i.e., learning God’s Word from the Apostles, in Fellowship, in Breaking of Bread i.e., participating in the Holy Communion, and in Prayers.


This is further affirmed from 2:46-47, where all those who were added to the Church by the Lord every day, also participated with the others in the Four Pillars of Christian Faith mentioned in Acts 2:42, without any waiting or delay being imposed on them for any reason whatsoever.


Once again consider Paul's corrective discourse in 1 Corinthians 11:17-34, given through the guidance of the Holy Spirit. As we had taken note from this section, in the previous article, about the alleged necessity of an ordained Pastor to administer the Lord’s Table; similarly, now, take note if there is any mention of anyone’s duration of being in faith, in any context, in this passage? No! There is nothing of this sort mentioned or implied. It would have been very convenient and logical to hold the newcomers into Faith responsible for the sorry state of affairs in the Church and for the gross irregularities seen about participating in the Lord’s Table. But the Holy Spirit does not have Paul say this or even remotely imply it in any manner. Neither here in this letter to the Corinthian Church, nor anywhere else, in any of the epistles, is it ever said that since new-comers to the Faith were allowed to participate as ‘full-fledged members’, since they were immediately conferred all the rights and privileges like the more senior and more mature members, therefore, they created these problems due their immaturity in understanding about the Christian Faith, its sacraments and their observances.

 

Therefore, we can safely conclude that no one should have any misunderstandings on this count about a Born-Again Christian Believer participating in the Lord’s Table. From the moment of his repenting of sins and accepting the Lord Jesus as his savior, every person is a part of the Church, a member of God’s family, and has the same rights and privileges as anyone else in the Church and the family of God has. The only thing not permitted for novices in the Faith is the office of Bishop (1 Timothy 3:6) - Bishop, not in the way it is seen and understood nowadays, but as it was seen and understood at the time Paul wrote it - meaning a member of that Church functioning as an overseer of the functioning of that local Church. Therefore, in effect, the Word of God does not prescribe any waiting period, or time of affirming one’s faith and commitment to God, before permitting them the participation in the Holy Communion.


In the next article we will consider how and why this confusion has come around.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

 

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