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सोमवार, 11 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 248

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 93


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (35) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के मूल स्वरूप और आरम्भिक मसीही विश्वासियों तथा कलीसियाओं द्वारा उन बातों के पालन किए जाने के बारे में सीखने के लिए, हम इन बातों को परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए उदाहरणों तथा संबंधित हवालों से देखते और समझते आ रहे हैं। जैसा हम पहले के लेखों में देख चुके हैं, प्रेरितों 2 अध्याय में व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित सात बातें दी गई हैं। पहली तीन बातें, जो मसीही विश्वास में आने, मसीही जीवन आरम्भ करने से सम्बन्धित हैं, वे पतरस द्वारा भक्त यहूदियों को किए गए प्रचार के अन्त की ओर, प्रेरितों 2:38-41 में दी गई हैं। और शेष चार, जिनका आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर पालन करते थे, वे प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और मसीही जीवन पर उनके सकारात्मक प्रभाव के कारण उन्हें “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। इन चार में से पहली तीन बातों पर विचार कर लेने के बाद, अब हम चौथी बात, प्रार्थना करने पर विचार कर रहे हैं। प्रार्थना से सम्बन्धित बुनियादी बातों को देखने और समझने के बाद, अब हम मसीहियों में बहुत आम प्रयोग की जाने वाली “प्रभु की प्रार्थना” पर मत्ती 6:5-15 के आधार पर देखना आरम्भ किया है। हमने देखा है कि यह हर अवसर और हर बात के लिए, बिना सोचे-समझे, यूँ ही दोहराई जाने वाली कोई प्रार्थना नहीं है। वरन प्रभु यीशु ने अपने सच्चे समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों को, परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाएं बनाने के लिए एक रूपरेखा, एक ढाँचा दिया है। मत्ती के इस खण्ड में, प्रभु ने पद 11-13a में तीन बातें कही हैं, जिन्हें प्रभु के शिष्यों को परमेश्वर से माँगना है। ये तीन बातें हैं, परमेश्वर पिता पर निर्भर रहना, क्षमाशील होना, और पिता परमेश्वर द्वारा परीक्षा में न लाए जाने और बुराई से बचाए रखने का निवेदन करना। पिछले दो लेखों में तीसरी बात को देखने और समझने के बाद, आज हम देखेंगे कि परमेश्वर अपने लोगों को, विशेषकर उन्हें जो इन बातों में उन्नत होना चाहते हैं, इनकी आशीषों को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें किस प्रकार प्रशिक्षित करता है।


हमने पिछले लेखों में देखा है कि परमेश्वर हमारे बारे में सब कुछ जानता है (यूहन्ना 2:24-25); किन्तु उसके प्रति हमारे विश्वास, आज्ञाकारिता, और मनसा की वास्तविक दशा को हम पर प्रकट करने के लिए, परमेश्वर हमें परीक्षाओं से होकर निकालता है, ताकि हम समय रहते अपने भटकने, अपनी गलतियों, और अपनी कमजोरियों को पहचान जाएं, और उन्हें सुधार लें। जैसा हम अपने प्रतिदिन के जीवन और व्यवहार से जानते और समझते हैं, किसी भी वस्तु की वास्तविकता, उसे उन परिस्थितियों में उपयोग करने के द्वारा ही पता चलती है, जिनके लिए उसे तैयार किया गया है। मसीही विश्वासियों को प्रशिक्षित, परिपक्व, एवं दृढ़ बनाने के लिए परमेश्वर इन दोनों व्यावहारिक और सैद्धांतिक बातों का उनके जीवन में प्रयोग करता है। 


मत्ती 6:11 में दी गई पहली बात है, अपनी रोज की रोटी के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहना। अर्थात दिन-प्रतिदिन के हिसाब से जीवन जीना; मत्ती 6:33-34 को मानते हुए उसका पालन करना, और अपने मन में निश्चित रहना कि जब कल आएगा, तब कल की आवश्यकताओं के अनुसार परमेश्वर उन आवश्यकताओं के लिए प्रावधान भी करके देगा; जैसे अब्राहम ने इसहाक को सिखाया (उत्पत्ति 22:7-8)। इस प्रशिक्षण के लिए, परमेश्वर हमें आवश्यकताओं में, कमी-घटी में, परेशानियों में जा लेने देगा (व्यवस्थाविवरण 8:3-6); और हमें हमारी मनसा, युक्तियों पर छोड़ देगा। उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हमारे सामने सांसारिकता के अनुसार चलने का, संसार से समझौता करने का अवसर होगा। अब यह हम पर, परमेश्वर पर हमारे विश्वास की दृढ़ता पर, निर्भर होगा कि हम कुछ समय के दुःख और कुछ हानि सहते हुए भी अपने मसीही विश्वास, और परमेश्वर की योजनाओं पर अपने भरोसे को बनाए रखते हैं, और परीक्षा से पार हो जाते हैं, जैसा अय्यूब  ने किया; या दुःख, तकलीफ, असुविधाओं से बचने के लिए संसार के साथ समझौता कर लेते हैं, किन्तु परीक्षा में असफल रहते हैं; जो हमें हमारे विश्वास की वास्तविकता और दृढ़ता को प्रकट कर देता है। प्रतिदिन के प्रावधान के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहने का अर्थ है, बिना परमेश्वर पर, उसकी योजनाओं पर, उसके प्रावधानों पर सन्देह किए, बिना संसार के मार्गों को अपनाए, परमेश्वर के कहे के अनुसार चलते रहना, चाहे उसके लिए कुछ दुःख, हानि, असुविधा क्यों न उठानी पड़े। 


अगले लेख में हम प्रार्थना के दूसरे और तीसरे बिन्दु के लिए प्रशिक्षित किए जाने के बारे में देखेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 93


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (35)


 

To learn about the original form of the things related to practical Christian living, and how the initial Christian Believers and churches practiced them, we are considering and understanding these things through the examples and references about them in God’s Word the Bible. As we have seen in the earlier articles, there are seven things related to practical Christian living given in Acts 2. The first three things, that are related to coming into the Christian faith, are given towards the end of Peter’s sermon to the devout Jews, in Acts 2:38-41. The remaining four, those that the initial Christian Believers followed steadfastly, are given in Acts 2:42. Because of their positive effect on Christian living, they are also known as “Pillars of Christin Living.” Having considered the first three of these four, we are now considering the fourth one, praying. Having seen and understood the fundamental things related to prayer, now we are considering something that is very commonly used amongst the Christiana, the “Lord’s Prayer” on the basis of Matthew 6:5-15. We have seen that it is not something that has been given for being said as a formality by rote on every occasion and for all situations, without even knowing about it or understanding it. Rather, the Lord Jesus has given to His true, surrendered, and obedient disciples an outline, a framework, for saying prayers that would be acceptable to God. In this passage from Matthew, the Lord in verses 11-13a has said three things, which the disciples of the Lord should ask from God. These three things are, to be dependent upon Father God, to be forgiving, and to request God the Father that He would not lead them into temptation and also keep them safe from evil. Having seen about the third of these three in the previous two articles, today we will see how God trains His people, especially those who want to be edified in these things, and receive the blessings associated with them.


We have seen in the previous articles that that God knows everything about us (John 2:24-25); but to make us aware of the actual state of our faith, obedience, and mentality towards Him, God allows us to go through trials and temptations, so that we may know about our getting misled, realize our mistakes, and learn of our weaknesses and rectify them well in time. As we know and understand from our day-to-day lives and behavior, the actual state of anything is only known when it is put to use for the purpose it has been made. To make us Christian Believers trained, mature, and steadfast, God uses both of these practical and fundamental principles in our lives.


In Matthew 6:11 we have the first thing – depend upon God for our daily bread. In other words, to live life one day at a time, believing in and trusting Matthew 6:33-34, being confident in our hearts that when ‘tomorrow’ comes, then according to the needs of ‘tomorrow’ God will make the necessary provisions; as Abraham taught Isaac (Genesis 22:7-8). For this training, God allows us to go through needs, deficiencies, problems (Deuteronomy 8:3-6); and leaves us to our own thinking and devices. To fulfill those needs, we will have before us the opportunities to do things like the world does, to compromise with the world. Now, it is left to us to depend upon our faith in God, and be willing to go through times of pain and some loss, while continuing to trust our Christian faith and the plans that God has made for us, and successfully go through the trials, as Job did; or to escape pain, problems, and discomfort compromise with the world, but fail in our being evaluated; and that makes the actual state of our faith and its steadfastness evident to us. To remain dependent upon God for our daily needs means to trust God without doubting His plans, His provisions for us and without taking recourse to the ways of the world, continue to move on the path laid out for us by God, even if it means suffering pain, problems, and discomfort.


In the next article we will consider about being trained for the second and third prayer points.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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