पाप और उद्धार को समझना – 31
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पाप का समाधान - उद्धार - 28
उद्धार का कार्य प्रभु यीशु में संपन्न (2)
पिछले लेख में हमने देखा था कि किस तरह से प्रभु यीशु ने समस्त मानवजाति के सभी पाप स्वेच्छा से स्वयं पर ले लिए, और उनके दण्ड, मृत्यु - आत्मिक और शारीरिक, को सह लिया; और इस प्रकार समस्त मानव जाति के सभी पापों की सम्पूर्ण कीमत चुका दी। अब किसी भी मनुष्य को अपने पापों के दण्ड से मुक्त होने के लिए प्रभु यीशु द्वारा तैयार किए और उपलब्ध करवाए गए मार्ग को स्वीकार करने और उसका पालन करने के अतिरिक्त और कुछ करने की कोई आवश्यकता नहीं है। पापों से मुक्ति और परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप का मार्ग सभी के लिए मुफ़्त में उपलब्ध है; बस उसे स्वेच्छा से, और पूर्ण समर्पण के साथ स्वीकार करके, उसका निर्वाह करना है। आज हम पिछले लेख की बात को और आगे देखेंगे, कि पाप के दण्ड, मृत्यु को सह लेने के बाद, प्रभु यीशु ने मृत्यु पर जयवन्त होकर, अनन्त जीवन किस प्रकार से सभी के लिए उपलब्ध करवाया।
संपूर्ण मानवजाति के पापों के समाधान और निवारण के लिए आवश्यक बलिदान और प्रायश्चित का कार्य तो इस प्रकार प्रभु ने पूरा कर दिया। अब पाप के कारण आई मृत्यु को मिटा देना और शारीरिक और आत्मिक मृत्यु से मनुष्यों को स्वतंत्र कर देना शेष था। प्रभु यीशु में विश्वास लाने, उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेने के द्वारा हमारा मेल-मिलाप परमेश्वर पिता से हो जाता है “क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?” (रोमियों 5:10); हम परमेश्वर की संतान बन जाते हैं “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13); प्रभु यीशु मसीह के साथ स्वर्गीय बातों के वारिस बन जाते हैं “और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं” (रोमियों 8:17); अर्थात हमारी आत्मिक मृत्यु की दशा, यानि कि परमेश्वर से दूरी का, निवारण हो जाता है।
इसी प्रकार से प्रभु यीशु हमें शारीरिक मृत्यु की दशा से भी निकालता है। जब प्रभु यीशु की देह पर समस्त मानवजाति के पापों का दोष लाद दिया गया, तो उसे भी शारीरिक मृत्यु से होकर निकलना पड़ा। किन्तु पुनरुत्थान के बाद जिस प्रकार प्रभु यीशु की देह एक अलौकिक देह हो गई थी; उसका प्रत्यक्ष स्वरूप, पहले के समान ही रहा। वह उसी चेहरे, कद, और काठी में था, उसकी आवाज़ वैसी ही थी जैसे पहले थी, शिष्यों द्वारा वैसे ही पहचाना गया जैसे वह मरने से पहले था, उसके हाथों और पैरों में तथा पंजर में क्रूस पर चढ़ाए जाने के घाव के निशान भी विद्यमान थे (यूहन्ना 24:27), उसने उन से लेकर भोजन भी खाया (लूका 24:41-43)। किन्तु साथ ही प्रभु की पुनरुत्थान हुई देह में कुछ विलक्षण भी था, वह बंद दरवाजों के बावजूद उनके पास कमरे के अंदर आ गया (यूहन्ना 24:26), और वह उसी देह में उनके देखते-देखते स्वर्ग पर उठा लिया गया (लूका 24:50-51)। जिस देह में पाप का प्रभाव है, उसे एक बार मरना ही होगा; हम पहले भी देख चुके हैं कि प्रत्येक मनुष्य पाप के दोष और प्रवृत्ति के साथ जन्म लेता है। इसलिए प्रत्येक मानव देह को एक बार शारीरिक मृत्यु से होकर निकलना पड़ता है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए भी यह अनिवार्य है। किन्तु मसीही विश्वासियों के लिए यह आश्वासन है कि प्रभु यीशु के दूसरे आगमन पर उसके लोग सदेह, अपने पृथ्वी के समय के समान दिखने वाले स्वरूप में जिलाए जाएंगे, “क्योंकि जब मनुष्य के द्वारा मृत्यु आई; तो मनुष्य ही के द्वारा मरे हुओं का पुनरुत्थान भी आया। और जैसे आदम में सब मरते हैं, वैसे ही मसीह में सब जिलाए जाएंगे। परन्तु हर एक अपनी अपनी बारी से; पहिला फल मसीह; फिर मसीह के आने पर उसके लोग” (1 कुरिन्थियों 15:21-23) उसी प्रकार हमारे देह भी मरनहार से अविनाशी, स्वर्गीय हो जाएगी, और मृत्यु पूर्णतः पराजित हो जाएगी, मिट जाएगी “क्योंकि अवश्य है, कि यह नाशमान देह अविनाश को पहिन ले, और यह मरनहार देह अमरता को पहिन ले। और जब यह नाशमान अविनाश को पहिन लेगा, और यह मरनहार अमरता को पहिन लेगा, तब वह वचन जो लिखा है, पूरा हो जाएगा, कि जय ने मृत्यु को निगल लिया” (1 कुरिन्थियों 15:53-54)।
इस प्रकार प्रभु यीशु के हमारे स्थान पर कलवरी के क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने, और तीसरे दिन जी उठने के द्वारा हमारे लिए पापों की क्षमा, उद्धार, परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप हो जाने, और मनुष्य के अदन की वाटिका की स्थिति में बहाल हो जाने का मार्ग बन कर तैयार है, सभी के लिए सेंत-मेंत उपलब्ध है। अब आपके लिए यह प्रश्न है, विचार करने वाली बात है कि जब प्रभु यीशु ने आपको पापों के प्रभाव से छुटकारा देने के लिए जो कुछ भी आवश्यक था, वह सब कर के, मुफ़्त में उपलब्ध करवा दिया है, और उसे आपसे आपका भौतिक एवं सांसारिक कुछ भी नहीं चाहिए; उसे केवल आपका मन चाहिए, और वह भी इसलिए कि वह उसे शुद्ध और पवित्र बना सके, तो फिर यीशु मसीह को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता स्वीकार करने में आपको किस बात का संकोच है? आप यह कदम क्यों नहीं उठाना चाहते हैं? स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
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Understanding Sin and Salvation – 31
The Solution For Sin - Salvation - 28
Lord Jesus Accomplished the Work of Salvation (2)
In the previous article we have seen how the Lord Jesus voluntarily took upon Himself all the sins of entire mankind, and then suffered their penalty, death - both spiritual and physical; and thereby paid in full the penalty of all of the sins of all of mankind. Now, no person has to do anything other than accept and obey the way of salvation prepared and made available for everyone to be relieved of suffering the penalty for sins. The way of salvation from sins and being reconciled with God is freely available for everyone; It only has to be accepted voluntarily, with complete submission, and be obeyed. Today, we will consider further what we had seen in the previous article, that after having suffered the penalty of sin, i.e., death, how the Lord Jesus was victorious over death, and made available eternal life for everyone.
In this manner, the Lord completed and fulfilled all that was required to be done for the atonement of sins and redemption of mankind through His sacrifice. Now what was left to be done was to destroy the hold of death and deliver mankind from physical and spiritual death which had come upon them because of sin. On coming into faith in the Lord Jesus, accepting Him as our Savior, we are reconciled with God “For if when we were enemies we were reconciled to God through the death of His Son, much more, having been reconciled, we shall be saved by His life” (Romans 5:10); we become the children of God “But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God” (John 1:12-13); and become co-inheritors with the Lord Jesus of the heavenly things “and if children, then heirs--heirs of God and joint heirs with Christ, if indeed we suffer with Him, that we may also be glorified together” (Romans 8:17); implying that our spiritual death, our separation from God has been solved and restored.
Similarly, the Lord delivers us out from our physical death as well. When the sins of entire mankind were put upon the body of Lord Jesus, then He too had to pass through the experience of physical death. But after His resurrection, just as His body received supernatural form - His visible form was just as He was before. He had the same face, height, features, voice, etc. as He had before His crucifixion; He was recognized by the disciples through all these characteristics; and on His body the signs of being nailed to the cross and pierced by a spear were also present (John 24:47). He took food from them and ate it in their presence (Luke 24:41-43). But His resurrected body also had some extraordinary features as well; He came to the disciples through closed doors (John 24:26), and He ascended to heaven in that same body before their eyes (Luke 24:50-51). Every physical body that has the effects of sin, will have to physically die once; we have already seen that every person is born with a sin nature, a tendency to sin, and the guilt of sin. Therefore, every human body also has to pass through death once, and this is mandatory for every Christian Believer as well. But the Christian Believers have this assurance that at the second coming of Christ, His people, will be resurrected in their physical bodies, in a form and appearance as they were on earth “For since by man came death, by Man also came the resurrection of the dead. For as in Adam all die, even so in Christ all shall be made alive. But each one in his own order: Christ the firstfruits, afterward those who are Christ's at His coming” (1 Corinthians 15:21-23), and our resurrected bodies too will be converted from the perishable to imperishable, heavenly bodies, and death will be completely defeated for ever “For this corruptible must put on incorruption, and this mortal must put on immortality. So, when this corruptible has put on incorruption, and this mortal has put on immortality, then shall be brought to pass the saying that is written: "Death is swallowed up in victory."” (1 Corinthians 15:53-54).
In this manner, by taking our place, and dying on the cross, being buried, and resurrected on the third day, the Lord has done whatever was required to be done for the forgiveness of our sins, for our salvation, our being reconciled with God, and being restored to the same state as was in the Garden of Eden before falling into sin; He has prepared and provided, freely, the way to be delivered from sin and death to the whole world. The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
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