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मंगलवार, 1 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 19 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 11

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 11

क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 9)

 

    पिछले लेख में हमने देखा था कि शैतान पहले, परमेश्वर के बाद सब से सामर्थी प्रधान स्वर्गदूत लूसिफर हुआ करता था, जो पाप के कारण गिराए जाने और स्वर्ग से निष्कासित किया गया था, (यशायाह 14:12-15; यहेजकेल 28:12-17)। उसे और उसके दूतों, के स्वर्ग से निकाले जाने के बाद भी, स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से वार्तालाप करने के उसके अधिकार (अय्यूब 1:6-7, 12; 2:1-6), और उसकी सामर्थ्य को उससे वापस नहीं लिया गया। इसीलिए वह उसी सामर्थ्य के द्वारा जो स्वर्ग में उसके पास थी, परमेश्वर और उसके लोगों के विरुद्ध काम करता रहता है। अब जब बाइबल के इन तथ्यों तथा पहले कहे गए तीन निष्कर्षों को मनुष्यों के शैतान के साथ पारस्परिक व्यवहार पर लागू किया जाता है तो हमारे सामने कुछ महत्वपूर्ण बातें निकल कर आती हैं; और पिछले लेख में हमने इन में से चार को देखा था। आज हम शेष बातों को देखेंगे:

·        किन्तु उद्धार पाए हुए मनुष्य के अंदर परमेश्वर पवित्र आत्मा निवास करता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19), और प्रभु यीशु उसके साथ बना रहता है (मत्ती 28:20; यूहन्ना 14:18)। इसलिए उद्धार पाए हुए मनुष्य पर शैतान का कोई दाँव, कोई वार, कभी सफल नहीं हो सकता है। 

·        इसीलिए मनुष्य के पश्चाताप करके उद्धार पाते ही, उसी क्षण से परमेश्वर पवित्र आत्मा उसकी रक्षा के लिए तुरंत ही उसके अंदर आकर निवास करने लगता है (गलातियों 3: 2, 5, 14; इफिसियों 1:13-14)। यदि ऐसा न हो तो शैतान, उसके मुँह से छीने गए उसके शिकार का क्या हाल कर डालेगा, यह हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इसीलिए उस आत्मिक नव-जात शिशु को अपने पिता परमेश्वर की तुरंत ही, उद्धार पाने के साथ ही, सुरक्षा और सहायता की आवश्यकता होती है, जो उसे परमेश्वर पवित्र आत्मा के उसमें आकर रहने के साथ उपलब्ध हो जाती है।

·        जब तक मनुष्य परमेश्वर और उसके वचन के अनुसार, उनकी आज्ञाकारिता में, पवित्र आत्मा के चलाए चलता रहता है, उस उद्धार पाए हुए मनुष्य की ईश्वरीय सुरक्षा का बाड़ा उसे बचाए रखता है। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर पिता और प्रभु यीशु मसीह के हाथों में सुरक्षित बना रहता है; जो भेड़ें अपने प्रभु अपने चरवाहे का शब्द सुनती हैं और उसके पीछे चलती रहती हैं, वे कभी नाश नहीं हो सकती हैं (यूहन्ना 10:27-29)। 

·        किन्तु जैसे ही उद्धार पाया हुआ व्यक्ति, परमेश्वर और उसके वचन की ज़रा सी भी अनाज्ञाकारिता करता है, किसी भी प्रकार से परमेश्वर के निर्देशों और आज्ञाओं के स्थान पर अपनी मानवीय बुद्धि या संसार की सलाह के अनुसार कुछ करता है, या परमेश्वर पवित्र आत्मा के चलाए के अनुसार नहीं वरन संसार या अपने शरीर की भावनाओं और अभिलाषाओं के अनुसार चलने लगता है, वह परमेश्वर के सुरक्षा के बाड़े से बाहर आ जाता है। शैतान उसे परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह के हाथों से छीन कर तो नहीं ले जा सकता है, किन्तु उसके द्वारा सुरक्षा के बाड़े से बाहर निकाले हुए शरीर को डस अवश्य लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप का विष उसमें डालकर उसे हानि पहुँचा देता है।

·        इसीलिए स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार नहीं पाया हुआ मनुष्य अपने किसी भी प्रयास, बुद्धिमत्ता, युक्ति, भक्ति, अथवा किसी भी अन्य बात के द्वारा कभी भी न तो शैतान पर जयवंत होने पाता है, और न ही उसके हाथों में से निकलने पाता है। और शैतान उसे उसकी बनाई हुए व्यर्थ “धार्मिकता” की बातों के चक्करों में फँसा कर, उसे भक्त, धर्मी, भला और परमेश्वर को स्वीकार्य होने के मिथ्या आश्वासन देकर, उसका मूर्ख बना कर, उसे पाप और विनाश की दशा में ही फंसाए रखता है, उद्धार के अनन्त जीवन से वंचित रखता है। 

·        इसीलिए व्यक्तिगत रीति से पापों के अंगीकार, उनके लिए पश्चाताप, और प्रभु यीशु से पापों की क्षमा माँगकर प्रभु यीशु को समर्पित जीवन जीने के अतिरिक्त मनुष्य के बचाए जाने और परमेश्वर को स्वीकार्य होने का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं, और हो ही नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा करने पर वह प्रभु परमेश्वर की सुरक्षा और देखभाल के अंतर्गत आ जाता है, प्रभु उसे शैतान से बचाता है; “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)।   

 

    अगले लेख में, इन बातों के आधार पर हम देखेंगे और समझेंगे कि मनुष्यों के शैतान का सामना करने में असमर्थ होने और पाप में गिरते रहने पर भी, क्यों परमेश्वर प्रेरितों 17:30 में स्वाभाविक अपरिवर्तित मनुष्य द्वारा पाप करने को “अज्ञानता के समय” की बात कहकर उसे दण्ड देने में आनाकानी करता है, उसे दंड से बचने का अवसर देता है, और पश्चाताप करने के लिए कहता है। किन्तु अभी के लिए, यदि आप अपने आप को मसीही विश्वासी समझते हैं, किन्तु आपने अभी तक परमेश्वर के विलंब से कोप करने, धीरज धरने, सब को बच जाने का पूरा-पूरा अवसर देने (2 पतरस 3:9) की मनसा का लाभ उठाकर, व्यक्तिगत रीति से पापों का अंगीकार और उनके लिए पश्चाताप नहीं किया है, और प्रभु यीशु से अपने पापों की क्षमा माँगकर प्रभु यीशु को समर्पित जीवन जीने का, उसकी और उसके वचन की आज्ञाकारिता में चलते रहने का निर्णय नहीं लिया है, तो आप अपने किसी भी धर्म-कर्म-विधि-विधान के पालन के द्वारा न तो परमेश्वर को स्वीकार्य बनते हैं और न ही वास्तव में मसीही विश्वासी हो जाते हैं। इसलिए अभी समय रहते यह कर लीजिए, कहीं बाद में आपके हाथों से यह अवसर न निकल जाए और आप अनन्त काल के विनाश में न पहुँच जाएं।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

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Why The Law Cannot Save Us – 11

Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 9)

 

    In the previous article we had seen that Satan was Lucifer the archangel, the one most powerful after God, before he was cast down and expelled from heaven because of his sin and he turned to Satan (Isaiah 14:12-15; Ezekiel 28:12-17). Even after his and his angel’s expulsion from heaven, neither was his privilege to converse with God in heaven (Job 1:6-7, 12; 2:1-6), nor was his power taken away from him. Therefore, he continues to work against God and his people through this very power that he had when in heaven. Now, when we apply this Biblical fact regarding the origin of Satan, along with the three afore mentioned conclusions, to humans, we are brought to the realization of certain important facts regarding man vs. Satan and demons; and in the last article we had seen four of these facts. The remaining facts are:

·        But since God's Holy Spirit resides in the saved man (1 Corinthians 3:16; 6:19) and the Lord Jesus remains with him (Matthew 28:20; John 14:18), therefore, no device, no attack, of Satan and his angels can ever succeed against a saved man.

·        That is why as soon as man is Born-Again, is saved by repenting of sins, from that very moment God's Holy Spirit immediately comes and resides in him to protect him (Galatians 3: 2, 5, 14; Ephesians 1:13-14). If this were not so, we cannot even imagine what Satan will do to his victim who has been snatched from his jaws. That's why that spiritually new-born infant needs the immediate help, security, and protection of God the Father, along with salvation, which becomes available to him with the coming of God's Holy Spirit to reside in him always.

·        As long as man walks in obedience to God and according to His Word, led by the Holy Spirit, the cover of divine protection around that saved man keeps him safe. The saved man remains safe in the hands of God the Father and the Lord Jesus Christ. The sheep that listens and obeys the voice of their Lord, their Shepherd and follows Him can never perish (John 10:27-29).

·        But as soon as a saved person disobeys God and His Word in the slightest way, if in any way he ignores God's instructions and commandments and instead trusts his human wisdom or the advice of the world, or instead of walking according to God Holy Spirit, he walks according to his feelings and desires, or according to the ways of the world, he then exposes himself by breaching the enclosure of God's protection. While Satan cannot snatch him away from the hands of God and the Lord Jesus Christ, but he never misses the opportunity to bite what has been exposed by breaching God's protective enclosure (Ecclesiastes 10:8), and instil the poison of sin into him, and harms him.

·        That is why the natural, unregenerate, unsaved man is never able to overcome Satan, or escape from his hands, by any of his efforts, intelligence, tactics, devotion, or anything else. And Satan keeps him in his state of sin and destruction by deceiving him into observing and following the vain "righteousness" he has devised for himself; fooling him with false assurances that he is devout, righteous, good, and acceptable to God, while actually leading him astray from God’s ways and depriving him of eternal life of salvation.

·        That is why there neither is, nor ever can be, any other way for men to be saved and be accepted by God, except by personally confessing their sins, repenting for them, asking the Lord Jesus for forgiveness of sins, and living a life dedicated to the Lord Jesus, because then he comes under the safety and care of the Lord God and the Lord protects him from Satan; “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent” (Acts 17:30).

 

    In the next article, on the basis of these points, we will see and understand why God, in Acts 17:30, is willing to consider the sins of the natural, unregenerate man, as things done "in times of ignorance" and is reluctant to punish him; rather, He wants to give him opportunity to escape punishment, and asks him to repent. But for now, if you consider yourself a Christian, but you have so far never taken advantage of God's longsuffering, His patience, His willingness to give everyone the full opportunity to be saved (2 Peter 3:9); and have not personally confessed and repented of your sins, have never made the decision to live a life dedicated to the Lord Jesus, and of living in obedience to Him and His Word; but instead have been relying on your religion, good deeds, fulfilling the religious creeds and observances etc., to become acceptable to God and qualify being a true Christian, then you have been living in a very serious, dangerous, satanic deception. Therefore, repent and take the necessary step now, while you have the time and opportunity; lest in procrastination and/or by being careless, by ignoring, this opportunity is lost, and you end up in eternal destruction.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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सोमवार, 28 नवंबर 2022

भ्रामक शिक्षाएँ - संक्षिप्त पुनःअवलोकन / Wrong Teachings - a Brief Recapitulation


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प्रभु यीशु, पवित्र आत्मा, तथा सुसमाचार से संबंधित गलत शिक्षाएँ


पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रभु ने अपनी कलीसिया और अपने विश्वासियों की आत्मिक उन्नति के लिए उन में विभिन्न प्रकार की वचन की सेवकाई करने वालों को नियुक्त किया है (इफिसियों 4:11-12)। इन सेवकों की सेवकाई से होने वाली उन्नति और परिपक्वता की चरम सीमा है सभी मसीही विश्वासियों और पृथ्वी की सभी स्थानीय कलीसियाओं का इफिसियों 4:13 के अनुरूप हो जाना। इस 13 पद के संदर्भ में, जैसा हम पहले 9 फरवरी के लेख में देख चुके हैं, यहाँ मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “सिद्ध” किया गया है, उसका शब्दार्थ होता है “पूर्णतः सुसज्जित” होना, अर्थात किसी भी कार्य या ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए पूरी तरह से तैयार और आवश्यक संसाधनों एवं उपकरणों तथा समझ-बूझ से लैस होना।

 

फिर हमने इफिसियों 4:14 से बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की पहचान देखी थी कि वे बहुत सरलता से शैतान द्वारा मनुष्यों में होकर प्रयोग की जाने वाली ठग-विद्या का शिकार हो जाते हैं; भ्रम की युक्तियों में फंस जाते हैं; और भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं। इस संदर्भ में हमने देखा है कि इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्‍वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं, जो उनके गलत और अस्वीकार्य होने तथा उनसे सचेत रहने की प्रमुख पहचान हैं। इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार, जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता।” किन्तु साथ ही इसी पद में सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है, कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। तात्पर्य यह है कि किसी भी शिक्षा, प्रचार, और व्यवहार में यदि कुछ भी बाइबल से बाहर का या बाइबल के अनुरूप नहीं है, तो वह शिक्षा, प्रचार, और व्यवहार गलत है, अस्वीकार्य है। इसलिए बेरिया के विश्वासियों के समान (प्रेरितों 17:11) बाइबल से देखने, जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है। 


फिर हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, इन तीनों विषयों से संबंधित गलत शिक्षाओं और बाइबल की सही शिक्षाओं को देखा था। 


हमने पहले तो प्रेरितों के काम में से प्रभु यीशु से संबंधित शिक्षाओं को देखा (फरवरी 19-20, 2022 के लेख), वे संक्षेप में यह हैं:

  • प्रभु यीशु पूर्णतः परमेश्वर और पूर्णतः मनुष्य हैं। 

  • उनके और उनकी सेवकाई के विषय पुराने नियम की सभी पुस्तकों में पहले से लिखा गया है। 

  • प्रभु यीशु कलवरी के क्रूस पर मारे गए, गाड़े गए, और तीसरे दिन मृतकों में से जी भी उठे।

  • उद्धार केवल प्रभु यीशु मसीह के द्वारा है, अन्य किसी के द्वारा नहीं। 

  • प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाने वालों के जीवन बदल जाते हैं, वे निडर और परमेश्वर के प्रभावी जन बन जाते हैं, उन में होकर परमेश्वर अपनी अद्भुत सामर्थ्य संसार पर प्रकट करता है। 

  • जगत के अन्त के समय, प्रभु यीशु ही के द्वारा सभी का न्याय किया जाएगा, और उन्हें उनके जीवन और कार्यों के अनुसार प्रतिफल अथवा दण्ड दिए जाएंगे। 

    यद्यपि प्रभु यीशु के विषय यह सूची अंतिम या पूर्ण नहीं है, किन्तु प्रभु यीशु के विषय जिस भी प्रचार में ये बातें नहीं हैं, या इन बातों को बदलकर बताया जाता है, वह प्रचार गलत है, झूठा है, अस्वीकार्य है। 


फिर उसके बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सही शिक्षाओं को तथा सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से विस्तार से देखा (फरवरी 21-मार्च 3, 2022 के लेख); जो संक्षेप में ये हैं:

  • यह बाइबल का तथ्य है कि किसी भी व्यक्ति के पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करते ही, तुरंत और उसी क्षण से परमेश्वर पवित्र आत्मा उसमें आकर निवास करने लगता है। इसके बाद पवित्र आत्मा उस व्यक्ति में से कभी नहीं जाता है, सर्वदा उसके साथ बना रहता है। इसलिए पवित्र आत्मा को प्राप्त करने के लिए किसी को भी कोई भी अलग से प्रयास या प्रार्थना करने की कोई आवश्यकता नहीं है; ऐसा करना व्यर्थ है, वचन के अनुसार नहीं है। 

  • बाइबल यह भी सिखाती है कि पवित्र आत्मा से भर जाना, और पवित्र आत्मा से (“का” नहीं “से”) बपतिस्मा, मसीही विश्वास में आने के समय पवित्र आत्मा प्राप्त करने की ही अभिव्यक्तियाँ हैं, कोई अतिरिक्त या “दूसरा” अनुभव नहीं। पवित्र आत्मा कोई वस्तु नहीं है जो टुकड़ों में या अंश-अंश कर के दी जा सके, वह परमेश्वर है, और एक व्यक्ति के समान जब भी जहाँ भी होगा अपनी संपूर्णता में, अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ होगा; अभी कुछ कम और बाद में और अधिक नहीं मिलेगा। 

  • प्रेरितों 2 अध्याय में जिन अन्य भाषाओं के बोलने का उल्लेख हुआ है वे पृथ्वी के ही अन्य स्थानों की भाषाएं और बोलियाँ थीं, कोई अलौकिक भाषाएं नहीं। मुँह से निरर्थक उच्चारण और आवाज़ें निकालने के द्वारा “अन्य-भाषाएं” बोलने का दावा करना बाइबल के अनुसार गलत है। 

  • बाइबल बिलकुल स्पष्ट सिखाती है कि “अन्य-भाषाएं” बोलना पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण नहीं है, और न ही उद्धार पाने का प्रमाण है। 

  • बाइबल में कहीं इस बात का कोई संकेत अथवा प्रमाण है कि ये निरर्थक “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना की भाषाएं हैं, इनमें की गई प्रार्थना अधिक प्रभावी होती है, या शैतान से प्रार्थना गुप्त रखने के लिए इनका प्रयोग आवश्यक है। ये सभी बाइबल से बाहर की शिक्षाएं हैं, गलत हैं। 

  • “अन्य-भाषा” में बोलना परमेश्वर से बोलना नहीं है; यह दावा करना भी गलत शिक्षा है; एक ही पद को उसके संदर्भ और सही अर्थ के बाहर लेकर उसकी गलत व्याख्या करने के कारण है। 

  • पवित्र आत्मा की निन्दा का पाप वह नहीं है जो आम तौर से ये गलत शिक्षाएं देने वाले बताते हैं। पवित्र आत्मा के बारे में प्रश्न करना, जिज्ञासा रखना, और जानकारी प्राप्त करने की इच्छा रखना, आदि वो क्षमा न होने वाले पाप नहीं हैं, जैसा गलत शिक्षाओं में दावा किया जाता है। वास्तव में यह निन्दा और क्षमा न किया जाने वाला पाप, प्रभु यीशु की ईश्वरीय वास्तविकता को जानते हुए भी, जान-बूझकर झूठ बोलते हुए, उसे शैतान की सामर्थ्य से कार्य करने वाला मनुष्य कहकर, जान-बूझकर उसे बदनाम करना, उसके विषय लोगों को भरमाना, और उसके विषय झूठा प्रचार करना है। 


और अन्त में हमने सुसमाचार से संबंधित शिक्षाओं के बारे में देखा (मार्च 4-11, 2022 के लेख), जिससे कि हम सही सुसमाचार क्या है देख और समझ सकें और गलत या भ्रष्ट को पहचान सकें, ताकि स्वयं भी गलत से बच कर रह सकें तथा औरों को भी बचा सकें। संक्षेप में ये शिक्षाएं है:

  • सुसमाचार के संदर्भ में हमने पहले तो सुसमाचार के विषय भ्रम और गलत शिक्षाओं को पहचानने के आधार को देखा; 

  • फिर हमने सच्चे और उद्धार देने वाले सुसमाचार के शैतान द्वारा बिगाड़े जाने, भ्रष्ट किए जाने, और विभिन्न रीतियों से अप्रभावी किए जाने के लिए प्रयोग की जाने वाली आम युक्तियों के बारे में देखा; 

  • फिर हमने गलातीयों 1 और 2 अध्याय से वास्तविक सुसमाचार के 7 गुणों या स्वभाव को देखा, 

  • और उसके बाद असली सुसमाचार के मानने से व्यक्ति के जीवन में होने वाले 7 प्रभावों को देखा जिससे हम असली और नकली सुसमाचार के मध्य पहचान कर सकें। 


परमेश्वर पवित्र आत्मा, इफिसियों 4:14 में यह बताने के बाद कि किन बातों से बचकर रहना है, अगले पद इफिसियों 4:15 में बताता है कि किन बातों को करते रहना है, जिन्हें हम अगले लेख में देखेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप प्रभु यीशु मसीह, परमेश्वर पवित्र आत्मा, तथा संपूर्ण जगत के समस्त लोगों के लिए पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार से संबंधित किसी गलत शिक्षाओं अथवा धारणाओं में न पड़े हों। उपरोक्त बातों के अनुसार अपने आप को जाँचने के द्वारा यह सुनिश्चित कर लीजिए कि आपने सच्चे सुसमाचार पर सच्चा विश्वास किया है, और आप सच्चे पश्चाताप और समर्पण तथा सच्चे मन से प्रभु यीशु से पापों की क्षमा के द्वारा परमेश्वर के जन बने हैं, और परमेश्वर पवित्र आत्मा के चलाए चल रहे हैं। लोगों द्वारा कही जाने वाली ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें, यदि सही हों, तब ही उन्हें मानें, अन्यथा अस्वीकार कर दें। न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

      

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • Ezekiel 33-34 

  • 1 Peter 5


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English Translation

Wrong Teachings Regarding the Lord Jesus, the Holy Spirit, and the Gospel

    We have seen in the previous articles that the Lord has appointed ministers for various ministries in His Church and amongst the Christian Believers, for their edification and spiritual growth (Ephesians 4:11-12). The pinnacle of the edification and spiritual growth through these ministries is that all the local churches and all Christian Believers throughout the world conform to Ephesians 4:13. In context of this verse 13, as we have seen earlier in the article of October 29, the word used in the original Greek language and translated here as “perfect”, literally means to “be complete in all manner”, i.e., to be fully ready and prepared, to be properly equipped, to have taken up the necessary provisions, equipment, wisdom and understanding to fulfill the given responsibility.


Then, from Ephesians 4:14 we saw the characteristics of child-like and immature Christian Believers, that they very easily get carried away and misled into wrong doctrines and false teachings by the cunningness and trickery of devious men. We had seen form 2 Corinthians 11:13-15 that Satan and his messengers beguile the immature Believers by masquerading as false apostles, ministers of righteousness, and angels of light. These deceivers and their deceptive doctrines and teachings, both appear to be very attractive, interesting, and knowledgeable, even very pious and reverential. But always there are things not given in the Bible in what they preach, teach, and practice; and this is what identifies them as wrong and untrustworthy, to be wary of them and should reject them and their teachings. The wrong doctrines and false teachings preached and taught by them are mainly centred on three topics - the Lord Jesus Christ, God the Holy Spirit, and the Gospel; as  the Holy Spirit has had it written through Paul in 2 Corinthians 11:4 “For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!” In this verse a very important way to identify the correct from the wrong and to stay safe from Satan’s ploys has also been given - all that is correct and true about these three topics, has already been given and written in God’s Word. The implication is that in any preaching, teaching, and behavior, whatever is not from, or, according to the Bible, is wrong and satanic, and should not be accepted. Therefore, like the Berean Believers (Acts 17:11), by cross-checking to confirm the preaching, teachings, and behavior from God’s Word the Bible, the right and the wrong can be identified.


After this we started to see the wrong teachings about these three topics, and also what the correct teachings from the Bible actually are.


We first saw from the Book of Acts, in the articles of November 7-8, 2022, the teachings about the Lord Jesus. In brief, these are:

  • The Lord Jesus is fully God and fully man.

  • About Him and His ministry, it has been written beforehand in the books of the Old Testament.

  • The Lord Jesus died on the Cross of Calvary, was buried, and rose again from the dead on the third day.

  • Salvation is only through the Lord Jesus and no one or nothing else.

  • The lives of those who believe on the Lord Jesus are transformed; they become fearless and effective ministers of the Lord God, and God demonstrates His wonderful power to the world through them.

  • At the end of the world, everyone will be judged by the Lord Jesus, and everyone will receive rewards or retribution according to what they have done and not done in their life on earth.

    Although, this list is neither complete nor final, but in any preaching and teaching about the Lord Jesus if these things are not there, or if they have been altered and manipulated, then that preaching and teaching is false, is unacceptable, has to be rejected.


After this we had seen the actual Biblical teachings about the Holy Spirit and contrasted them with the wrong preaching and teachings about the Holy Spirit, in the articles of November 9-19, 2022. They are:

  • This is a Biblical fact that as soon as any person repents of his sins, and accepts the Lord Jesus Christ as his saviour, from that very moment onwards God the Holy Spirit comes to reside in him. After this, the Holy Spirit never leaves and goes away, always stays with the person. Therefore, any other efforts or prayers to receive the Holy Spirit are vain and fruitless; are not in accordance with God’s Word.

  • The Bible also teaches that to be filled with the Holy Spirit and to be baptised with (not “by”, but “with”) the Holy Spirit are different expressions to state the receiving of the Holy Spirit at the time of being saved; they are not a new or ‘second’ or different experience. The Holy Spirit is not an object that can be divided up into portions and given out in bits and pieces; He is God, and if He is present in a person, He will be there in all His fullness and power; there is nothing additional that can be added to Him and His presence later on.

  • The “tongues” mentioned in Acts 2, are languages and dialects of the earth, not anything extra-terrestrial. Making meaningless repetitive sounds is not “speaking in tongues”, and all such claims are wrong and unBiblical.

  • The Bible very clearly says that the so-called “speaking in tongues” is not proof of having received the Holy Spirit, nor is it proof of being saved.

  • There is no indication or mention in the Bible that these meaningless strange gibberish as “speaking in tongues” make prayers more effective, or are necessary to keep prayers a secret from Satan. These are all extra-Biblical and wrong teachings.

  • The so-called “speaking in tongues” is not speaking with God directly; this is a false claim made on the basis of misinterpreting and misusing one verse out of its context; it is unsubstantiated by the Bible. 

  • The sin of “Blasphemy against the Holy Spirit” is not what is commonly preached and taught by these purveyors of wrong doctrines and false teachings. To be curious about the Holy Spirit, ask questions about Him, wanting to learn and know more about Him, etc. are not things that come under the purview of the “unforgiveable sin”, as is commonly claimed in the wrong teachings. Actually, Biblically speaking, this unforgiveable sin of the blasphemy of the Holy Spirit is having known the truth about the Lord Jesus and His power, still deliberately and falsely attributing His power to be the power of the devil, to defame Him, to spread wrong teachings about Him, and to instigate people against Him.

And then finally we had seen about the teachings related to the Gospel, in the articles of November 20-27, 2022. We had seen what the true Gospel actually is, so that we can understand and identify the wrong or corrupted gospel, and keep ourselves as well as other safe from the wrong teachings and doctrines. In brief these teachings are:

  • In context of the Gospel, we had first seen the basis of recognizing the false teachings and deceptions spread about the Gospel.

  • Then we saw the various ploys, devices, and methods through which Satan spoils and corrupts the true life-giving Gospel, and the various mechanisms by which he renders the gospel ineffective.

  • Then, from Galatians chapter 1 & 2, we first saw the 7 characteristics, i.e., the nature of the true Gospel.

  • Then we saw the 7 effects that accepting and following the true Gospel brings in the life of a person. These 7 characteristics, and the 7 effects help us to discern between the true and the false gospel.


    The Holy Spirit, after telling in Ephesians 4:14 the things to be wary of and stay safe from, in the next verse, Ephesians 4:15, tells us what all to keep doing; and we will look into these in the next article. If you are a Christian Believer, then it is very essential for you to know and learn that you do not get beguiled and misled into wrong teachings and doctrines about the Holy Spirit; neither should you get deceived, nor should anyone else be deceived through you. Take note of the things written in God’s Word, not on things spoken by the people; always cross-check and verify all messages and teachings from the Word of God. If you have already been entangled in wrong teachings, then by cross-checking and verifying them from the Word of God, hold to only that which is the truth, follow it, and reject the rest.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • Ezekiel 33-34 

  • 1 Peter 5




शनिवार, 12 मार्च 2022

भ्रामक शिक्षाओं का संक्षिप्त पुनःअवलोकन

     पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रभु ने अपनी कलीसिया और अपने विश्वासियों की आत्मिक उन्नति के लिए उन में विभिन्न प्रकार की वचन की सेवकाई करने वालों को नियुक्त किया है (इफिसियों 4:11-12)। इन सेवकों की सेवकाई से होने वाली उन्नति और परिपक्वता की चरम सीमा है सभी मसीही विश्वासियों और पृथ्वी की सभी स्थानीय कलीसियाओं का इफिसियों 4:13 के अनुरूप हो जाना; इस 13 पद के संदर्भ में, जैसा हम पहले 9 फरवरी के लेख में देख चुके हैं, यहाँ मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “सिद्ध” किया गया है, उसका शब्दार्थ होता है “पूर्णतः सुसज्जित” होना, अर्थात किसी भी कार्य या ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए पूरी तरह से तैयार और आवश्यक संसाधनों एवं उपकरणों तथा समझ-बूझ से लैस होना। 

फिर हमने इफिसियों 4:14 से बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की पहचान देखी थी कि वे बहुत सरलता से शैतान द्वारा मनुष्यों में होकर प्रयोग की जाने वाली ठग-विद्या का शिकार हो जाते हैं; भ्रम की युक्तियों में फंस जाते हैं; और भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं। इस संदर्भ में हमने देखा है कि इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्‍वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं, जो उनके गलत और अस्वीकार्य होने तथा उनसे सचेत रहने की प्रमुख पहचान हैं। इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार, जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता।” किन्तु साथ ही इसी पद में सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है, कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बेरिया के विश्वासियों के समान (प्रेरितों 17:11) बाइबल से देखने, जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है। 


फिर हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, इन तीनों विषयों से संबंधित गलत शिक्षाओं और बाइबल की सही शिक्षाओं को देखा था। 


हमने पहले तो प्रेरितों के काम में से प्रभु यीशु से संबंधित शिक्षाओं को देखा, वे संक्षेप में यह हैं:

  • प्रभु यीशु पूर्णतः परमेश्वर और पूर्णतः मनुष्य हैं। 

  • उनके और उनकी सेवकाई के विषय पुराने नियम की सभी पुस्तकों में पहले से लिखा गया है। 

  • प्रभु यीशु कलवरी के क्रूस पर मारे गए, गाड़े गए, और तीसरे दिन मृतकों में से जी भी उठे।

  • उद्धार केवल प्रभु यीशु मसीह के द्वारा है, अन्य किसी के द्वारा नहीं। 

  • प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाने वालों के जीवन बदल जाते हैं, वे निडर और परमेश्वर के प्रभावी जन बन जाते हैं, उन में होकर परमेश्वर अपनी अद्भुत सामर्थ्य संसार पर प्रकट करता है। 

  • जगत के अन्त के समय, प्रभु यीशु ही के द्वारा सभी का न्याय किया जाएगा, और उन्हें उनके जीवन और कार्यों के अनुसार प्रतिफल अथवा दण्ड दिए जाएंगे। 

    

    यद्यपि प्रभु यीशु के विषय यह सूची अंतिम या पूर्ण नहीं है, किन्तु प्रभु यीशु के विषय जिस भी प्रचार में ये बातें नहीं हैं, या इन बातों को बदलकर बताया जाता है, वह प्रचार गलत है, झूठा है, अस्वीकार्य है। 


फिर उसके बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सही शिक्षाओं को तथा सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से विस्तार से देखा; जो संक्षेप में ये हैं:

  • यह बाइबल का तथ्य है कि किसी भी व्यक्ति के पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करते ही, तुरंत और उसी क्षण से परमेश्वर पवित्र आत्मा उसमें आकर निवास करने लगता है। इसके बाद पवित्र आत्मा उस व्यक्ति में से कभी नहीं जाता है, सर्वदा उसके साथ बना रहता है। इसलिए पवित्र आत्मा को प्राप्त करने के लिए किसी को भी कोई भी अलग से प्रयास या प्रार्थना करने की कोई आवश्यकता नहीं है; ऐसा करना व्यर्थ है, वचन के अनुसार नहीं है। 

  • बाइबल यह भी सिखाती है कि पवित्र आत्मा से भर जाना, और पवित्र आत्मा से (“का” नहीं “से”) बपतिस्मा, मसीही विश्वास में आने के समय पवित्र आत्मा प्राप्त करने की ही अभिव्यक्तियाँ हैं, कोई अतिरिक्त या “दूसरा” अनुभव नहीं। पवित्र आत्मा कोई वस्तु नहीं है जो टुकड़ों में या अंश-अंश कर के दी जा सके, वह परमेश्वर है, और एक व्यक्ति के समान जब भी जहाँ भी होगा अपनी संपूर्णता में, अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ होगा; अभी कुछ कम और बाद में और अधिक नहीं मिलेगा। 

  • प्रेरितों 2 अध्याय में जिन अन्य भाषाओं के बोलने का उल्लेख हुआ है वे पृथ्वी के ही अन्य स्थानों की भाषाएं और बोलियाँ थीं, कोई अलौकिक भाषाएं नहीं। मुँह से निरर्थक उच्चारण और आवाज़ें निकालने के द्वारा “अन्य-भाषाएं” बोलने का दावा करना बाइबल के अनुसार गलत है। 

  • बाइबल बिलकुल स्पष्ट सिखाती है कि “अन्य-भाषाएं” बोलना पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण नहीं है, और न ही उद्धार पाने का प्रमाण है। 

  • बाइबल में कहीं इस बात का कोई संकेत अथवा प्रमाण है कि ये निरर्थक “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना की भाषाएं हैं, इनमें की गई प्रार्थना अधिक प्रभावी होती है, या शैतान से प्रार्थना गुप्त रखने के लिए इनका प्रयोग आवश्यक है। ये सभी बाइबल से बाहर की शिक्षाएं हैं, गलत हैं। 

  • “अन्य-भाषा” में बोलना परमेश्वर से बोलना नहीं है; यह दावा करना भी गलत शिक्षा है; एक ही पद को उसके संदर्भ और सही अर्थ के बाहर लेकर उसकी गलत व्याख्या करने के कारण है। 

  • पवित्र आत्मा की निन्दा का पाप वह नहीं है जो आम तौर से ये गलत शिक्षाएं देने वाले बताते हैं। पवित्र आत्मा के बारे में प्रश्न करना, जिज्ञासा रखना, और जानकारी प्राप्त करने की इच्छा रखना, आदि वो क्षमा न होने वाले पाप नहीं हैं, जैसा गलत शिक्षाओं में दावा किया जाता है। वास्तव में यह निन्दा और क्षमा न किया जाने वाला पाप, प्रभु यीशु की ईश्वरीय वास्तविकता को जानते हुए भी उसे शैतान की सामर्थ्य से कार्य करने वाला मनुष्य कहकर, जान-बूझकर उसे बदनाम करना, उसके विषय लोगों को भरमाना, और उसके विषय झूठा प्रचार करना है। 


और अन्त में हमने सुसमाचार से संबंधित शिक्षाओं के बारे में देखा, जिससे कि हम सही सुसमाचार क्या है देख और समझ सकें और गलत या भ्रष्ट को पहचान सकें, ताकि स्वयं भी गलत से बच कर रह सकें तथा औरों को भी बचा सकें। संक्षेप में ये शिक्षाएं है:

  • सुसमाचार के संदर्भ में हमने पहले तो सुसमाचार के विषय भ्रम और गलत शिक्षाओं को पहचानने के आधार को देखा; 

  • फिर हमने सच्चे और उद्धार देने वाले सुसमाचार के शैतान द्वारा बिगाड़े जाने, भ्रष्ट किए जाने, और विभिन्न रीतियों से अप्रभावी किए जाने के लिए प्रयोग की जाने वाली आम युक्तियों के बारे में देखा; 

  • फिर हमने गलातीयों 1 और 2 अध्याय से वास्तविक सुसमाचार के 7 गुणों या स्वभाव को देखा, 

  • और उसके बाद असली सुसमाचार के मानने से व्यक्ति के जीवन में होने वाले 7 प्रभावों को देखा जिससे हम असली और नकली सुसमाचार के मध्य पहचान कर सकें। 


परमेश्वर पवित्र आत्मा, इफिसियों 4:14 में यह बताने के बाद कि किन बातों से बचकर रहना है, अगले पद इफिसियों 4:15 में बताता है कि किन बातों को करते रहना है, जिन्हें हम अगले लेख में देखेंगे।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप प्रभु यीशु मसीह, परमेश्वर पवित्र आत्मा, तथा संपूर्ण जगत के समस्त लोगों के लिए पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार से संबंधित किसी गलत शिक्षाओं अथवा धारणाओं में न पड़े हों। उपरोक्त बातों के अनुसार अपने आप को जाँचने के द्वारा यह सुनिश्चित कर लीजिए कि आपने सच्चे सुसमाचार पर सच्चा विश्वास किया है, और आप सच्चे पश्चाताप और समर्पण तथा सच्चे मन से प्रभु यीशु से पापों की क्षमा के द्वारा परमेश्वर के जन बने हैं, और परमेश्वर पवित्र आत्मा के चलाए चल रहे हैं। लोगों द्वारा कही जाने वाली ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें, यदि सही हों, तब ही उन्हें मानें, अन्यथा अस्वीकार कर दें। न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

      

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • व्यवस्थाविवरण 17-19          

  • मरकुस 13:1-20